भारतवर्ष में इतनें धर्म फैले हुए है कि यदि इसे धर्मो का देश कहा जावे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धर्म का शाब्दिक अर्थ ‘धारण करना’ है, अर्थात धर्म हमें वह मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर हम लौकिक सें अलौकिक की ओर्, आत्मा से परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकते है। धर्म का मुख्य उद्देश सभी जीवों का कल्याण करना है। धर्म की विभिन्न शाखाओं में से हमारा विशनोई धर्म भी एक है। हमारा धर्म जातिविहिन मानव्-धर्म है। इसमें विभिन्नता में एकता स्थापित करने का प्रयास कीया गया है। इसमें भारत की सभी जातिया — ब्राह्मण्, क्षत्रिय्, वैश्य, शूद्र शामिल है। नका धर्म एक विशनोई धर्म है । आज और आज से पूर्व जाति-भेद्, संम्प्रदाय्-भेद और धर्म्-भेद के कारण परस्पर अलगाव था। हमारे धर्म ने इस अलगाव को दूर कर एकता का महामंत्र फूंका—
“उणतीस धर्म की आखडी, हिरर्द धरिये जोय्।
जाम्भोजी किरपा करी, नाम विशनोई होय।”
हमारे धर्म में ऊंच्-नीच्, भेद-भाव की भावना पर कडा प्रहार किया गया है। सबके वही श्वास हैं, वही मास है, वही देह्, वही प्राण है। सब प्राणी एक ही जगह से आए है, फिर उत्तम नीच के भाव को लेकर यह अशांति क्यों? भगवान जम्भोजी के शब्दो में—– “तइया सासूं तइया मासूं, तइया देह दमोई। उत्तिम मधिम क्यों जाणीजै बिबरसि देखी लोई। “हमारे धर्म में कोई आडम्बर नही है। परन्तु हमारे गुरुजी ने कथनी और करनी के सामंजस्य पर बडा बल दिया है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कर्तव्य का पालन करते हुए कर्ममय और श्रमपूर्ण बिताया, उसी का उपदेश उन्होंने हमें दिया– “हिरदै नांव विसन को जंपै, हाथे करो ट्बाई। “अहिंसा के महत्त्व और जीवहत्या की निंदा हमारे धर्म में की गयी है। हिंसा के लिए श्री जम्भोजी ने हिंदू, मुसलमान्, साधु, सन्यासी, जोगी सभी को फटकारा है। आपने कहा कि मूक पशु की हत्या क्यों करते हो? उसी का दूध पीकर पुष्ट होते हो और उसी को गर्दन पर छुरी चलाते हो। तुम्हें उसकी पीडा का ध्यान क्यों नहीं आता? जम्भवाणी में कहा है— ‘रे विनहीं गुन्है जीव क्यू’ मारी? थे तकि जांणों तकि पीड न जांणी “पशुओं की सहज प्रव्रुत्ति का जिक्र करते हुए श्री जाम्भोजी ने कहा—” चरि फिरि आवै सहजि दुहावै तिहका खीर हलाली।”
हमारे धर्म में शब्दवाणी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें जिन बातों का उल्लेख किया है, उनका कारण भी बडा व्यावहारिक है। जो व्यक्ति आलस्य्, भ्रम्, प्रमाद्, अहंकार्, स्वार्थ में पडे हुए है, उन्हें चेताना और परिश्रमशील बनाना है। उन्हें समझाना कि सांसरिक भोग ही सब कुछ नहीं है। मोटर्, बंगला, कार से ऊपर परोपकार्, हरिभजन और प्राणीमात्र की सेवा है। जीव का वास्तविक घर तो आगे हे। यहां तो वह थोडे समय के लिए आया है।यह तो ‘गोवळ्वास्’ है, यहां का आधोचार तो झूठा है। गुरुवाणी में लिखा— ‘घर आगी अत गोवळ्वासी कूडी आधोचारी ‘हमारे धर्म में अमावस्या के व्रत का विधान है। इसके द्वारा हमें बताया गया है कि अमावस्या के बाद चंद्रमा उत्तरोत्तर व्रुधि करता हुआ पूर्णिमा के दिन पूर्णता प्राप्त करता है। उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शनै: शनै: शुभ कर्मो के द्वारा उत्थान करके ज्योतिस्वान बनेगी। इसी उद्देश की पूर्ति के लिए ‘जम्भा या जागरण् ‘की प्रणाली प्रचलित है, जिसमें गायणाचार्य एकत्र होकर गुरु महाराज के भजन्, कीर्तन करते है। धर्म की सबसे बडी विशेषता है, उसकी शाश्वतता अर्थात धर्म में जो बातें कही गई हैं, वे ही कालांतर में भी सच्ची साबित हुई हैं। इस कसोटी पर भी हमारा धर्म खरा है। आज से ५०० वर्ष पहले जो नियम बनाये गये थे, यथा-क्षमा, दया, प्रेम्, अहिंसा आदि आध्यात्मिक बातें एवं पानी छानना, मीठी वाणी बोलना, स्नान करना, यज्ञ्-व्रत करना आदि व्यावहारिक बातें आज भी शाश्वत है। वे आज के युग में भी सार्थक है। आज विश्व में कम से कम आधी जनता नशे की शिकार है— वह चाहे गांजा, अफिम्, बीडी, शराब्, सिगरेट्, चाय कुछ भी हो। श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने सब नशों की मनाही की है— “अमल तमाखू भांग मद्य मांस सूं दूर ही भागै। “आज वन्य जीवों की रक्षा करो, व्रुक्ष लगाओ आदि बातों पर जोर दिया जा रहा है। विशनोई धर्म में इसे वर्षो पहले ही महत्त्व दिया गया था।भगवान श्री ने कहा- “जीव दया पालणी, रुख लीलो नहीं घावै।” सारांश में कह सकते है कि हमारे धर्म में बुध्द की अहिंसा, ईसा की करुणा, वेद्-पुराणों की सार्थकता सम्मिलित है, जिनका पालन करने पर कोइ भी जीव सहज ही मोल प्राप्त कर सकता है। हमारे धर्म ने हमें सुद्रुढ नैतिक धरातल प्रदान किया है।
वेशभूषा एवं रीति-रिवाज
विश्नोई औरतें लाल और काली ऊन के कपड़े पहनती हैं। वे सिर्फ लाख का चूड़ा ही पहनती हैं। वे न तो बदन गुदाती हैं न तो दाँतों पर सोना चढ़ाती है। विश्नोई लोग नीले रंगके कपड़े पहनना पसंद नहीं करते हैं। मानते हैं। साधु कान तक आने वाली तीखी जांभोजी टोपी एवं चपटे मनकों की आबनूस की काली माला पहनते हैं। महन्त प्राय: धोती, कमीज और सिर पर भगवा साफा बाँधते हैं।
विश्नोईयों में शव को गाड़ने की प्रथा प्रचलित थी। विश्नोई सम्प्रदाय मूर्ति पूजा में विश्वास महीं करता है। अत: जाम्भोजी के मंदिर और साथरियों में किसी प्रकार की मूर्ति नहीं होती है। कुछ स्थानों पर इस सम्प्रदाय के सदस्य जाम्भोजी की वस्तुओं की पूजा करते हैं। जैसे कि पीपसार में जाम्भोजी की खड़ाऊ जोड़ी, मुकाम में टोपी, पिछोवड़ों जांगलू में भिक्षा पात्र तथा चोला एवं लोहावट में पैर के निशानों की पूजा की जाती है। वहाँ प्रतिदिन हवन – भजन होता है और विष्णु स्तुति एवं उपासना, संध्यादि कर्म तथा जम्भा जागरण भी सम्पन्न होता है। इस सम्प्रदाय के लोग जात – पात में विश्वास नहीं रखते। अत: हिन्दू -मुसलमान दोनों ही जाति के लोग इनको स्वीकार करते हैं। श्री जंभ सार लक्ष्य से इस बात की पुष्टि होती है कि सभी जातियों के लोग इस सम्प्रदाय में दीक्षीत हुए। उदाहरणस्वरुप, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तेली, धोबी, खाती, नाई, डमरु, भाट, छीपा, मुसलमान, जाट, एवं साईं आदि जाति के लोगों ने मंत्रित जल (पाहल) लेकर इस सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की। राजस्थान में जोधपुर तथा बीकानेर राज्य में बड़ी संख्या में इस सम्प्रदाय के मंदिर और साथरियां बनी हुई हैं। मुकाम (तालवा) नामक स्थान पर इस सम्प्रदाय का मुख्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावश्या को एक बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं। इस सम्प्रदाय के अन्य तीर्थस्थानों में जांभोलाव, पीपासार, संभराथल, जांगलू,लोहावर, लालासार आदि तीर्थ विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। इनमें जांभोलाव विश्नोईयों का तीर्थराज तथा संभराथल मथुरा और द्वारिका के सदृश माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त रायसिंह नगर, पदमपुर, चक, पीलीबंगा, संगरिया, तन्दूरवाली, श्रीगंगानगर, रिडमलसर, लखासर, कोलायत (बीकानेर), लाम्बा, तिलवासणी, अलाय (नागौर)एवं पुष्कर आदि स्थानों पर भी इस सम्प्रदाय के छोटे -छोटे मंदिर बने हुए हैं। इस सम्प्रदाय का राजस्थान से बाहर भी प्रचार हुआ। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बने हुए मंदिर इस बात की पुष्टि करते हैं। जाम्भोजी की शिक्षाओं का विश्नोईयों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस सम्प्रदाय के लोग न तो मांस खाते हैं और न ही शराब पीते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपनी ग्राम की सीमा में हिरण या अन्य किसी पशु का शिकार भी नहीं करने देते हैं। इस सम्प्रदाय के सदस्य पशु हत्या किसी भी कीमत पर नहीं होने देते हैं। बीकानेर राज्य के एक परवाने से पता चलता है कि तालवा के महंत ने दीने नामक व्यक्ति से पशु हत्या की आशंका के कारण उसका मेढ़ा छीन लिया था। व्यक्ति को नियम विरुद्ध कार्य करने से रोकने के लिए प्रत्येक विश्नोई गाँव में एक पंचायत होती थी। नियम विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को यह पंचायत धर्म या जाति से पदच्युत करने की घोषणा कर देती थी। उदाहरणस्वरुप संवत् २००१ में बाबू नामक व्यक्ति ने रुडकली गाँव में मुर्गे को मार दिया था, इस पर वहाँ पंचायत ने उसे जाति से बाहर कर दिया था। ग्रामीण पंचायतों के अलावा बड़े पैमाने पर भी विश्नोईयों की एक पंचायत होती थी, जो जांभोलाव एवं मुकाम पर आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेले के अवसर पर बैठती थी। इसमें इस सम्प्रदाय के बने हुए नियमों के पालन करने पर जोर दिया जाता था। विभिन्न मेलों के अवसर पर लिये गये निर्णयों से पता चलता है कि इस पंचायत की निर्णित बातें और व्यवस्था का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य था और जो व्यक्ति इसका उल्लंघन करता था, उसे विश्नोई समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। विश्नोई गाँव में कोई भी व्यक्ति खेजड़े या शमी वृक्ष की हरी डाली नहीं काट सकता था। इस सम्प्रदाय के जिन स्री – पुरुषों ने खेजड़े और हरे वृक्षों को काटा था, उन्होंने स्वेच्छा से आत्मोत्सर्ग किया था। इस बात की पुष्टि जाम्भोजी सम्बन्धी साहित्य से होती है। राजस्थान के शासकों ने भी इस सम्प्रदाय को मान्यता देते हुए हमेशा उसके धार्मिक विश्वासों का ध्यान रखा है। यही कारण है कि जोधपुर व बिकानेर राज्य की ओर से समय – समय पर अनेक आदेश गाँव के पट्टायतों को दिए गए हैं, जिनमें उन्हें विश्नोई गाँवों में खेजड़े न काटने और शिकार न करने का निर्देश दिया गया है। बीकानेर ने संवत् १९०७ में कसाइयों को बकरे लेकर किसी भी विश्नोई गाँव में से होकर न गुजरने का आदेश दिया। बीकानेर राज्य के शासकों ने समय – समय पर विश्नोई मंदिरों को भूमिदान दिए गए हैं। ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि सुजानसिंह ने मुकाम मंदिर को ३००० बीघा एवं जांगलू मंदिर को १००० बीघा जमीन दी थी। बीकानेर ने संवत् १८७७ व १८८७ में एक आदेश जारी किया था, जिसके अनुसार थापनों से बिना गुनाह के कुछ भी न लेने का निर्देश दिया था। इस प्रकार जोधपुर राज्य के शासक ने भी विश्नोईयों को जमीन एवं लगान के सम्बन्ध में अनेक रियायतें प्रदान की थीं। उदयपुर के महाराणा भीमसिंह जी और जवानसिंह जी ने भी जोधपुर के विश्नोईयों की पूर्व परम्परा अनुसार ही मान –मर्यादा रखने और कर लगाने के परवाने दिये
भारतवर्ष में इतनें धर्म फैले हुए है कि यदि इसे धर्मो का देश कहा जावे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। धर्म का शाब्दिक अर्थ ‘धारण करना’ है, अर्थात धर्म हमें वह मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर हम लौकिक सें अलौकिक की ओर्, आत्मा से परमात्मा की ओर अग्रसर हो सकते है। धर्म का मुख्य उद्देश सभी जीवों का कल्याण करना है। धर्म की विभिन्न शाखाओं में से हमारा विशनोई धर्म भी एक है। हमारा धर्म जातिविहिन मानव्-धर्म है। इसमें विभिन्नता में एकता स्थापित करने का प्रयास कीया गया है। इसमें भारत की सभी जातिया — ब्राह्मण्, क्षत्रिय्, वैश्य, शूद्र शामिल है। नका धर्म एक विशनोई धर्म है । आज और आज से पूर्व जाति-भेद्, संम्प्रदाय्-भेद और धर्म्-भेद के कारण परस्पर अलगाव था। हमारे धर्म ने इस अलगाव को दूर कर एकता का महामंत्र फूंका—
“उणतीस धर्म की आखडी, हिरर्द धरिये जोय्।
जाम्भोजी किरपा करी, नाम विशनोई होय।”
हमारे धर्म में ऊंच्-नीच्, भेद-भाव की भावना पर कडा प्रहार किया गया है। सबके वही श्वास हैं, वही मास है, वही देह्, वही प्राण है। सब प्राणी एक ही जगह से आए है, फिर उत्तम नीच के भाव को लेकर यह अशांति क्यों? भगवान जम्भोजी के शब्दो में—– “तइया सासूं तइया मासूं, तइया देह दमोई। उत्तिम मधिम क्यों जाणीजै बिबरसि देखी लोई। “हमारे धर्म में कोई आडम्बर नही है। परन्तु हमारे गुरुजी ने कथनी और करनी के सामंजस्य पर बडा बल दिया है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन कर्तव्य का पालन करते हुए कर्ममय और श्रमपूर्ण बिताया, उसी का उपदेश उन्होंने हमें दिया– “हिरदै नांव विसन को जंपै, हाथे करो ट्बाई। “अहिंसा के महत्त्व और जीवहत्या की निंदा हमारे धर्म में की गयी है। हिंसा के लिए श्री जम्भोजी ने हिंदू, मुसलमान्, साधु, सन्यासी, जोगी सभी को फटकारा है। आपने कहा कि मूक पशु की हत्या क्यों करते हो? उसी का दूध पीकर पुष्ट होते हो और उसी को गर्दन पर छुरी चलाते हो। तुम्हें उसकी पीडा का ध्यान क्यों नहीं आता? जम्भवाणी में कहा है— ‘रे विनहीं गुन्है जीव क्यू’ मारी? थे तकि जांणों तकि पीड न जांणी “पशुओं की सहज प्रव्रुत्ति का जिक्र करते हुए श्री जाम्भोजी ने कहा—” चरि फिरि आवै सहजि दुहावै तिहका खीर हलाली।”
हमारे धर्म में शब्दवाणी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें जिन बातों का उल्लेख किया है, उनका कारण भी बडा व्यावहारिक है। जो व्यक्ति आलस्य्, भ्रम्, प्रमाद्, अहंकार्, स्वार्थ में पडे हुए है, उन्हें चेताना और परिश्रमशील बनाना है। उन्हें समझाना कि सांसरिक भोग ही सब कुछ नहीं है। मोटर्, बंगला, कार से ऊपर परोपकार्, हरिभजन और प्राणीमात्र की सेवा है। जीव का वास्तविक घर तो आगे हे। यहां तो वह थोडे समय के लिए आया है।यह तो ‘गोवळ्वास्’ है, यहां का आधोचार तो झूठा है। गुरुवाणी में लिखा— ‘घर आगी अत गोवळ्वासी कूडी आधोचारी ‘हमारे धर्म में अमावस्या के व्रत का विधान है। इसके द्वारा हमें बताया गया है कि अमावस्या के बाद चंद्रमा उत्तरोत्तर व्रुधि करता हुआ पूर्णिमा के दिन पूर्णता प्राप्त करता है। उसी प्रकार हमारी आत्मा भी शनै: शनै: शुभ कर्मो के द्वारा उत्थान करके ज्योतिस्वान बनेगी। इसी उद्देश की पूर्ति के लिए ‘जम्भा या जागरण् ‘की प्रणाली प्रचलित है, जिसमें गायणाचार्य एकत्र होकर गुरु महाराज के भजन्, कीर्तन करते है। धर्म की सबसे बडी विशेषता है, उसकी शाश्वतता अर्थात धर्म में जो बातें कही गई हैं, वे ही कालांतर में भी सच्ची साबित हुई हैं। इस कसोटी पर भी हमारा धर्म खरा है। आज से ५०० वर्ष पहले जो नियम बनाये गये थे, यथा-क्षमा, दया, प्रेम्, अहिंसा आदि आध्यात्मिक बातें एवं पानी छानना, मीठी वाणी बोलना, स्नान करना, यज्ञ्-व्रत करना आदि व्यावहारिक बातें आज भी शाश्वत है। वे आज के युग में भी सार्थक है। आज विश्व में कम से कम आधी जनता नशे की शिकार है— वह चाहे गांजा, अफिम्, बीडी, शराब्, सिगरेट्, चाय कुछ भी हो। श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान ने सब नशों की मनाही की है— “अमल तमाखू भांग मद्य मांस सूं दूर ही भागै। “आज वन्य जीवों की रक्षा करो, व्रुक्ष लगाओ आदि बातों पर जोर दिया जा रहा है। विशनोई धर्म में इसे वर्षो पहले ही महत्त्व दिया गया था।भगवान श्री ने कहा- “जीव दया पालणी, रुख लीलो नहीं घावै।” सारांश में कह सकते है कि हमारे धर्म में बुध्द की अहिंसा, ईसा की करुणा, वेद्-पुराणों की सार्थकता सम्मिलित है, जिनका पालन करने पर कोइ भी जीव सहज ही मोल प्राप्त कर सकता है। हमारे धर्म ने हमें सुद्रुढ नैतिक धरातल प्रदान किया है।
वेशभूषा एवं रीति-रिवाज
विश्नोई औरतें लाल और काली ऊन के कपड़े पहनती हैं। वे सिर्फ लाख का चूड़ा ही पहनती हैं। वे न तो बदन गुदाती हैं न तो दाँतों पर सोना चढ़ाती है। विश्नोई लोग नीले रंगके कपड़े पहनना पसंद नहीं करते हैं। मानते हैं। साधु कान तक आने वाली तीखी जांभोजी टोपी एवं चपटे मनकों की आबनूस की काली माला पहनते हैं। महन्त प्राय: धोती, कमीज और सिर पर भगवा साफा बाँधते हैं।
विश्नोईयों में शव को गाड़ने की प्रथा प्रचलित थी। विश्नोई सम्प्रदाय मूर्ति पूजा में विश्वास महीं करता है। अत: जाम्भोजी के मंदिर और साथरियों में किसी प्रकार की मूर्ति नहीं होती है। कुछ स्थानों पर इस सम्प्रदाय के सदस्य जाम्भोजी की वस्तुओं की पूजा करते हैं। जैसे कि पीपसार में जाम्भोजी की खड़ाऊ जोड़ी, मुकाम में टोपी, पिछोवड़ों जांगलू में भिक्षा पात्र तथा चोला एवं लोहावट में पैर के निशानों की पूजा की जाती है। वहाँ प्रतिदिन हवन – भजन होता है और विष्णु स्तुति एवं उपासना, संध्यादि कर्म तथा जम्भा जागरण भी सम्पन्न होता है। इस सम्प्रदाय के लोग जात – पात में विश्वास नहीं रखते। अत: हिन्दू -मुसलमान दोनों ही जाति के लोग इनको स्वीकार करते हैं। श्री जंभ सार लक्ष्य से इस बात की पुष्टि होती है कि सभी जातियों के लोग इस सम्प्रदाय में दीक्षीत हुए। उदाहरणस्वरुप, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, तेली, धोबी, खाती, नाई, डमरु, भाट, छीपा, मुसलमान, जाट, एवं साईं आदि जाति के लोगों ने मंत्रित जल (पाहल) लेकर इस सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की। राजस्थान में जोधपुर तथा बीकानेर राज्य में बड़ी संख्या में इस सम्प्रदाय के मंदिर और साथरियां बनी हुई हैं। मुकाम (तालवा) नामक स्थान पर इस सम्प्रदाय का मुख्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन की अमावश्या को एक बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें हजारों लोग भाग लेते हैं। इस सम्प्रदाय के अन्य तीर्थस्थानों में जांभोलाव, पीपासार, संभराथल, जांगलू,लोहावर, लालासार आदि तीर्थ विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। इनमें जांभोलाव विश्नोईयों का तीर्थराज तथा संभराथल मथुरा और द्वारिका के सदृश माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त रायसिंह नगर, पदमपुर, चक, पीलीबंगा, संगरिया, तन्दूरवाली, श्रीगंगानगर, रिडमलसर, लखासर, कोलायत (बीकानेर), लाम्बा, तिलवासणी, अलाय (नागौर)एवं पुष्कर आदि स्थानों पर भी इस सम्प्रदाय के छोटे -छोटे मंदिर बने हुए हैं। इस सम्प्रदाय का राजस्थान से बाहर भी प्रचार हुआ। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बने हुए मंदिर इस बात की पुष्टि करते हैं। जाम्भोजी की शिक्षाओं का विश्नोईयों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इसीलिए इस सम्प्रदाय के लोग न तो मांस खाते हैं और न ही शराब पीते हैं। इसके अतिरिक्त वे अपनी ग्राम की सीमा में हिरण या अन्य किसी पशु का शिकार भी नहीं करने देते हैं। इस सम्प्रदाय के सदस्य पशु हत्या किसी भी कीमत पर नहीं होने देते हैं। बीकानेर राज्य के एक परवाने से पता चलता है कि तालवा के महंत ने दीने नामक व्यक्ति से पशु हत्या की आशंका के कारण उसका मेढ़ा छीन लिया था। व्यक्ति को नियम विरुद्ध कार्य करने से रोकने के लिए प्रत्येक विश्नोई गाँव में एक पंचायत होती थी। नियम विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को यह पंचायत धर्म या जाति से पदच्युत करने की घोषणा कर देती थी। उदाहरणस्वरुप संवत् २००१ में बाबू नामक व्यक्ति ने रुडकली गाँव में मुर्गे को मार दिया था, इस पर वहाँ पंचायत ने उसे जाति से बाहर कर दिया था। ग्रामीण पंचायतों के अलावा बड़े पैमाने पर भी विश्नोईयों की एक पंचायत होती थी, जो जांभोलाव एवं मुकाम पर आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेले के अवसर पर बैठती थी। इसमें इस सम्प्रदाय के बने हुए नियमों के पालन करने पर जोर दिया जाता था। विभिन्न मेलों के अवसर पर लिये गये निर्णयों से पता चलता है कि इस पंचायत की निर्णित बातें और व्यवस्था का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य था और जो व्यक्ति इसका उल्लंघन करता था, उसे विश्नोई समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। विश्नोई गाँव में कोई भी व्यक्ति खेजड़े या शमी वृक्ष की हरी डाली नहीं काट सकता था। इस सम्प्रदाय के जिन स्री – पुरुषों ने खेजड़े और हरे वृक्षों को काटा था, उन्होंने स्वेच्छा से आत्मोत्सर्ग किया था। इस बात की पुष्टि जाम्भोजी सम्बन्धी साहित्य से होती है। राजस्थान के शासकों ने भी इस सम्प्रदाय को मान्यता देते हुए हमेशा उसके धार्मिक विश्वासों का ध्यान रखा है। यही कारण है कि जोधपुर व बिकानेर राज्य की ओर से समय – समय पर अनेक आदेश गाँव के पट्टायतों को दिए गए हैं, जिनमें उन्हें विश्नोई गाँवों में खेजड़े न काटने और शिकार न करने का निर्देश दिया गया है। बीकानेर ने संवत् १९०७ में कसाइयों को बकरे लेकर किसी भी विश्नोई गाँव में से होकर न गुजरने का आदेश दिया। बीकानेर राज्य के शासकों ने समय – समय पर विश्नोई मंदिरों को भूमिदान दिए गए हैं। ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि सुजानसिंह ने मुकाम मंदिर को ३००० बीघा एवं जांगलू मंदिर को १००० बीघा जमीन दी थी। बीकानेर ने संवत् १८७७ व १८८७ में एक आदेश जारी किया था, जिसके अनुसार थापनों से बिना गुनाह के कुछ भी न लेने का निर्देश दिया था। इस प्रकार जोधपुर राज्य के शासक ने भी विश्नोईयों को जमीन एवं लगान के सम्बन्ध में अनेक रियायतें प्रदान की थीं। उदयपुर के महाराणा भीमसिंह जी और जवानसिंह जी ने भी जोधपुर के विश्नोईयों की पूर्व परम्परा अनुसार ही मान –मर्यादा रखने और कर लगाने के परवाने दिये 1
Bishnoi smaj ki kuldevi kon hai
Bishnoi dhrm me sabse uchi konsi jati h
विश्नोई गोत्र में कितनी जातियां होती हैं
बिश्नोई जाती कि कुलदेवी कौन है और उसका स्थान कहा है
Bishnoi सामाज मे कितने गोत्र हैं
Tayal bhi bishnoi hai pr gotra list me kyu nahi hai
configure Tak kis Jati se bhi nahi Sabhi Bataye
99 प्रतिशत जाटों से गुरु जी द्वारा दीक्षित हुवे और जाटों से विश्नोई पंथ में आये नियमो का पालन करने लगे बिश्नोई कहलाने लगे।। यदि बिश्नोई समाज के सभी गोत्र एक एक करके जाट गोत्रो से एक एक करके मीलान करे तो सत्य प्रमाणित हो जाएगा की 99प्रतिशत जाटों से आए हैं।।
बिशनोई
समाज के गोत्र कितने हैं
विश्नोई पंथ के लोग खासकर उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में अपने गोत्र के रूप में साधु बिश्नोई यान क्यों लिखते हैं..?
बागड़िया गौत्र के पूर्वज कौन है।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Question Bank International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity
बिश्नोई गोत्र में कितनी जाती है