राज्य में द्वितीय सदन की उपयोगिता
यह स्पष्ट है कि विधान परिषद की स्थिति विधान सभा की अपेक्षा कम महत्व की है। इसका महत्व इतना कम है कि इसका अस्तित्व व्यर्थ जान पड़ता है।
परिषद में प्रारंभ होने वाले विधेयक की दशा में विधान सभा की यह शक्ति है कि वह उस विधेयक को अस्वीकार करके उसे तुरंत समाप्त कर दें।
इस प्रकार यह दिखाई देता है कि राज्य में द्वितीय सदन संघ की संसद के द्वितीय सदन में समान पुनरीक्षण करने वाला निकाय नहीं है जो अपनी विसम्मति द्वारा गतिरोध उत्पन्न करके विधेयक के पारित होने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक करना अनिवार्य क रदे [धन विधेयक से भिन्न विधेयकों की दशा में]। यह सब होते हुए भी अप्रत्यक्ष निर्वाचन और विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों के नाम-निर्देशन से विधान परिषद की संरचना होने के कारण परिषद में अधिक मेधावी व्यक्ति होते हैं और अपनी विलंबकारी शक्ति से भी वह जल्दी में विधान बनाने की प्रवृति पर रोक लगाती है जिससे बिना विचारे लाए गए विधेयकों की कमियां या दोष सामने आ जाते हैं।
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विधान सभा
राज्य विधानमण्डल के निचले सदन की विधानसभा कहा जाता है। यह जनता का सदन है, जहां राज्य की जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित प्रतिनिधि आते हैं। संविधान के अनुच्छेद-170 के अनुसार, अनुच्छेद-333 से अधिक 500 और कम से कम 60 सदस्य हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में विधान सभा सदस्यों की संख्या 403 है, जबकि सिक्किम में सदस्यों की संख्या केवल 32 है। राज्य विधान सभा की सदस्य संख्या राज्य की जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या निश्चित करते समय जनसँख्या के वे आंकड़े लिए जाते हैं जो पिछली जनगणना में प्रकाशित किए गए थे। भारत में जनगणना प्रत्येक दस वर्ष के पश्चात् होती है। प्रत्येक जनगणना के पश्चात् परिसीमन आयोग नियुक्त किया जाता है। यह आयोग जनसंख्या के नये आंकड़ों के अनुसार चुनाव क्षेत्रों का नये रूप में विभाजन करता है [अनुच्छेद 170 (c)] ।
भारतीय संविधान के 42वें संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई है कि वर्ष 2000 के पश्चात् होने वाली प्रथम जनगणना तक प्रत्येक राज्य के चुनाव क्षेत्रों के विभाजन के लिए वही आंकड़े प्रामाणिक होंगे जो 1971 की जनगणना के अनुसार निश्चित और प्रमाणित होंगे। इसी प्रकार विधान सभाओं में जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों के लिए स्थान आरक्षित करने के लिए भी 2000 के पश्चात् होने वाली पहली जनगणना तक वही आंकड़े लिए जायेंगे जो 1971 की जनगणना के अनुसार निश्चित और प्रकाशित हो चुके हैं। हाल ही में संसद के पूर्ण बहुमत से पारित एक प्रस्ताव के अनुसार वर्ष 2026 तक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा, उनकी जनसंख्या तथा उनके आरक्षण से संबंधित उपबंध 1971 की जनगणना के अनुसार ही लागू होगे।
यदि किसी राज्य के चुनाव में एंग्लो-इंडियन जाति को प्रतिनिधित्व नहीं मिला है तो राज्यपाल स्वेच्छा से उस जाति की प्रतिनिधित्व देने के लिए उस जाति के एक सदस्य को विधान सभा में मनोनीत कर सकता है। लोक सभा में भी एंग्लो-इंडियन जाति के सदस्य मनोनीत करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया है। लोक सभा में अधिक-से-अधिक एंग्लो-इंडियन के दो सदस्य मनोनीत किए जा सकते हैं, परंतु राज्य के राज्यपाल को केवल एक ही सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है।
कार्यकाल
संविधान के अनुच्छेद 172 के अनुसार, राज्य विधान सभा का कार्यकाल पांच वर्ष निश्चित किया गया है। इस निश्चित समय से पहले भी राज्यपाल विधान सभा को भंग कर सकता है। आपातकालीन स्थिति में संघीय संसद कानून बनाकर किसी राज्य विधान सभा की अवधि अधिक-से-अधिक एक समय में एक वर्ष बढ़ा सकती है। आपात् स्थिति की समाप्ति के पश्चात् यह बढ़ाई हुई अवधि केवल 6 मास तक लागू रह सकती है।
विधान परिषद एक स्थायी सदन होता है और राज्यपाल इसकी भंग नहीं कर सकता है। संविधान के अनुच्छेद 172 के अनुसार, विधान परिषद का चुनाव एक ही, समय नहीं होता, बल्कि हर दो वर्ष पश्चात् इसके एक-तिहाई सदस्य (⅓) अवकाश ग्रहण करते हैं और उनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिये जाते हैं। अतः विधान परिषद का हर सदस्य छः साल तक अपने पद पर आसीन रहता है।
सदस्यों की योग्यताएं संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार विधान मंडल के सदस्यों की निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित की गई हैं
इन योग्यताओं के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति विधान मंडल के दोनों सदनों का सदस्य एक साथ नहीं रह सकता और न ही एक से अधिक राज्यों की विधान मंडलों का सदस्य बन सकता है। चुनाव के पश्चात् कोई भी सदस्य सदन की अनुमति के बिना लगातार 60 दिन सदन के अधिवेशन से अनुपस्थित नहीं रह सकता।
साथ ही विधान सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए आवश्यक है कि सम्बद्ध व्यक्ति जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951की शर्तों को पूरा करता हो। 1988 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और ऐसी व्यवस्था की गयी है की आतंकवादी गतिविधियों, तस्करी, जमाखोरी, मुनाफाखोरी, खाद्य-पदार्थों तथा दवाओं में मिलावट करने वाले, विदेशी मुद्रा अधिनियम का उल्लंघन करने वाले और महिलाओं के खिलाफ अत्याचार करने व्यक्तियों को इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार चुनाव में भाग लेने से वर्जित कर दिया जाएगा।
संविधान के अनुच्छेद 191 में अधिकथित विधान मंडल की सदस्यता के निर्हरताएं उसी प्रकार की हैं, जैसी की संसद के किसी सदन की सदस्यता के संबंध में अनुच्छेद 102 में दी गई हैं।
अनुच्छेद 192 में यह अधिकथित है कि यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य अनुच्छेद 191 के खंड में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो गया है तो यह प्रश्न राज्यपाल के विनिश्चय के लिए निर्देशित किया जाएगा। राज्यपाल निर्वाचन आयोग की राय के अनुसार कार्य करेगा। उसका विनिश्चय अंतिम होगा और किसी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जा सकेगा।
राज्य विधानमंडल के अधिकारी
विधान सभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष
संविधान के अनुच्छेद 178 के अनुसार, विधान सभा के सदस्य अपने में से किसी एक सदस्य को अध्यक्ष तथा एक अन्य को उपाध्यक्ष के पद के लिए चुन लेते हैं। इन दोनों पदों में जब कोई पद रिक्त हो जाता है तो विधान सभा के किसी अन्य सदस्य को उस पद के लिए चुन लेते हैं। विधान सभा अध्यक्ष का पद अत्यंत महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित माना गया है। वह सदन की मर्यादा एवं सदस्यों के विशेषाधिकारों का संरक्षक है। विधान सभा अध्यक्ष वही कार्य करता है, जो लोक सभा अध्यक्ष करता है।
कार्यकाल: अध्यक्ष को विधान सभा के कार्यकाल तक अर्थात् 5 वर्षों के लिए निर्वाचित किया जाता है। विधान सभा भंग होने पर उसे अपना पड़ त्यागना नहीं पड़ता, बल्कि वह नव-निर्वाचित विधान सभा के प्रथम अधिवेशन होने तक अपने पद पर बना रहता है (अनुच्छेद 179)। परंतु इस अवधि के समाप्त होने से पूर्व भी उसे निम्नलिखित कारणों के आधार पर अपदस्थ किया जा सकता है-
विधान परिषद का सभापति एवं उपसभापति
संविधान का अनुच्छेद 182 से 185 तक विधान परिषद के सभापति एवं उपसभापति से सम्बंधित है। इसके अंतर्गत परिषद् वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी। जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है, तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी। जब सभापति का पद रिक्त है तब उपसभापति, या यदि उपसभापति का पद भी रिक्त हे तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
विधान परिषद की किसी बैठक में, जब सभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब सभापति, या जब उपसभापति को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपसभापति, उपस्थित रहने पर भी पीठासीन नहीं होगा। लेकिन उसे विधान परिषद में बोलने उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने एवं अन्य विषय पर प्रथमतः मत देने का अधिकार होगा, किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का अधिकार नहीं होगा। (अनुच्छेद 185)।
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वेतन और भत्ते
विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को तथा विधान परिषद के सभापति और उपसभापति को ऐसे वेतन और भत्तों का जो राज्य का विधान मंडल विधि द्वारा नियत करे और जब तक इस निमित्त इस प्रकार उपबंध नहीं किया जाता है तब तक ऐसे वेतन और भत्तों का, जो दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं, संदाय किया जाएगा [अनुच्छेद (186)]।
कार्य संचालन
राज्य की विधान सभा या विधान परिषद का प्रत्येक सदस्य अपना स्थान ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा या प्रतिज्ञान करेगा और उस पर अपने हस्ताक्षर करेगा (अनुच्छेद-188)।
राज्य के विधान मंडल के किसी सदन की बैठक में सभी प्रश्नों का अवधारण अध्यक्ष या सभापति को अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति को छोड़कर, उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा। अध्यक्ष या सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति प्रथमतः मत नहीं देगा, किंतु मत बराबर होने की दशा में उसका निर्णायक मत होगा और वह उसका प्रयोग करेगा।
विधानमण्डल के किसी सदन का अधिवेशन गठित करने हेतु गणपूर्ति दस सदस्य अथवा सदन की कुल संख्या का दसवां भाग, इनमें से जो भी अधिक हो, होगी। |
जब तक राज्य का विधान मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के विधान मंडल के किसी सदन का अधिवेशन गठित करने के लिए गणपूर्ति दस सदस्य या सदन की कुल संख्या का दसवां भाग, इसमें से जो भी अधिक हो, होगी। यदि राज्य की विधान सभा या विधान परिषद के अधिवेशन में किसी समय गणपूर्ति नहीं है तो अध्यक्ष या सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह सदन को स्थगित कर दे या अधिवेशन को तब तक के लिए निलंबित कर दे जब तक गणपूर्ति नहीं हो जाती है - (अनुच्छेद 189) ।
विधायी प्रक्रिया
द्विसदनीय विधान मंडल वाले राज्यों की विधायी प्रक्रिया मुख्य रूप से संसद के समान है। कुछ बातों में अंतर है-
धन विधेयक
धन विधेयक केवल विधान सभा में प्रस्तुत किया जाता है, विधान परिषद में नहीं। विधान परिषद को केवल यह शक्ति है कि वह विधान सभा को संशोधनों की सिफारिश करे या विधेयक के प्राप्त होने की तारीख से 14 दिन की अवधि के लिए विधेयक को अपने पास रोक रखे। प्रत्येक दशा में विधान सभा की इच्छा अभिभावी होगी। विधान सभा विधान परिषद की सिफारिशों को स्वीकार करने के लिए आबद्ध नहीं है। कुल मिलाकर धन विधेयकों के विषय में विधानसभा को ही समस्त वास्तविक अधिकार हैं । अतः धन विधेयकों को लेकर विधान सभा तथा विधान परिषद में कोई गतिरोध उत्पन्न नहीं होता है।
राज्यपाल की वीटो शक्ति |
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जब कोई विधेयक राज्यपाल को विधान मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् प्रस्तुत किया जाता है, तब राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई कदम उठा सकता है- |
साधारण विधेयक
धन विधेयकों से भिन्न विधेयकों को विधान सभा या विधान परिषद दोनों में से किसी एक में प्रस्तुत किया जा सकता है। साधारण विधेयक के बारे में परिषद को एकमात्र यह शक्ति है कि वह कुछ अवधि तक विधेयक के पारित होने की विलम्बित कर दे (तीन मास)। यह अवधि धन विधेयकों के संबंध में अवधि से लम्बी है। यदि वह किसी विधेयक से असहमत है तो विधेयक विधान परिषद से विधान सभा की यात्रा पुनः करेगा, किंतु अंत में विधान सभा का मत ही अभिभावी होगा और दूसरी यात्रा में विधान परिषद को एक मास से अधिक समय के लिए विधेयक को रोके रखने की शक्ति नहीं होगी। स्पष्ट है कि विधान परिषद केवल एक विलम्बकारी सदन है। यह धन विधेयकों की केवल 14 दिन एवं अन्य को तीन मास तक विलम्बित कर सकता है। विधान के मामले में विधानसभा के अधिकार वास्तविक एवं अधिक प्रभावी हैं।
राज्य विधानमण्डल के कार्य एवं शक्तियां
कार्यपालिका नियंत्रण
केंद्र की तरह राज्यों में संसदीय प्रणाली होने के कारण राज्यपाल को परामर्श और सहायता देने के लिए मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी है जो सामूहिक रूप से विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है। मंत्रिपरिषद का विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होना विधान सभा के कार्यपालिका पर नियंत्रण का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विधान सभा निम्नलिखित साधनों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रख सकती है-
उपर्युक्त साधनों द्वारा राज्य विधान सभा मंत्रियों के कार्य-कलापों की प्रशंसा अथवा आलोचना करती है। सरकार की नीतियों पर इसका बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। निम्नलिखित साधनों द्वारा विधान सभा मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने पर विवश कर सकती है-
राज्य विधान सभा के सदस्य निम्नलिखित अधिकारियों के चुनाव में भाग ले सकते हैं-
न्यायिक शक्तियां
विधान सभा को कुछ न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं। विधान सभा के एक संस्था के रूप में कुछ विशेष अधिकार हैं। इन विशेष अधिकारों अवहेलना करने वाले अथवा सदन का अपमान करने वाले व्यक्ति को विधान सभा दण्ड दे सकती है।
अन्य शक्तियां
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अतः राज्य प्रशासन में विधान सभा का अति महत्वपूर्ण स्थान है।
गतिरोध को दूर करने के लिए उपबंध
संसद के दोनों सदनों के बीच असहमति का निपटारा संयुक्त बैठक से होता है। किंतु राज्य की विधान मंडल के दोनों सदनों के बीच मतभेद की निपटाने के लिए ऐसा कोई उपबंध नहीं है। राज्य विधान मंडल के दोनों सदनों के मध्य असहमति की दशा में विधान सभा की इच्छा ही अंत में अभिभावी होती है। परिषद की केवल इतनी ही शक्ति है कि वह जिस विधेयक से असहमत है, उसे पारित करने में कुछ विलंब कर दे।
राज्य विधानमण्डलों की शक्तियों पर प्रतिबंध
संविधान के अंतर्गत राज्यों के विधानमण्डलों पर निम्नांकित प्रतिबंध आरोपित किए गए हैं-
संसद एवं राज्य विधानमण्डल की तुलना
धन विधेयक के संबंध में संसद एवं राज्य विधानमण्डल में स्थिति एकसमान है अर्थात् ये विधेयक उच्च सदन (राज्य सभा अथवा विधान परिषद) में सर्वप्रथम नहीं रखा जा सकता। विधेयक के संबंध में उच्च सदन केवल अपनी सिफारिशें दे सकता है, जिन्हें स्वीकार करना या न करना निम्न सदन पर निर्भर करता है। धन विधेयक की उच्च सदन अधिकतम 14 दिन तक की अवधिहेतुकेवल रोक सकता है। इस अवधि में विधेयक पुनः निम्न सदन को न लौटाए जाने की स्थिति में विधेयक की पारित मान लिया जाता है और उसे यथास्थिति राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के समक्ष अनुमोदन हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है।
धन विधेयक से भिन्न अन्य विधेयक संसद अथवा राज्य विधानमण्डल के किसी भी सदन में शुरू किए जा सकते हैं। संसद के किसी एक सदन द्वारा पारित विधेयक को यदि दूसरा सदन अस्वीकृत करता है अथवा 6 माह के भीतर उसे लौटाता नहीं है अथवा दोनों सदन विधेयक में संशोधन के सम्बन्ध में असहमत हैं तो उस विधेयक पर अंतिम रूप से विचार-विमर्श करने एवं मतदान करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक आयोजित की जा सकती है। ऐसी संयुक्त बैठक में दोनों सदनों के उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों की बहुसंख्या अभिभावी होगी। विधेयक दोनों सदनों द्वारा ऐसे संशोधन सहित पारित समझा जाएगा, जिस पर बहुमत की सहमति हो और तत्पश्चात् विधेयक राष्ट्रपति को अनुमोदनार्थ प्रस्तुत कर दिया जाएगा (अनुच्छेद-108)।
राज्यों में साधारण विधेयक विधानमण्डल के किसी भी सदन में पुरःस्थापित किए जा सकते हैं। यदि विधेयक विधान सभा द्वारा पारित किया जाता है और विधान परिषद विधेयक को स्वीकार करती है अथवा है अथवा उसे तीन माह के भीतर पारित नहीं किया जाता है तो विधानसभा उस विधेयक को, अन्य संशोधनों के साथ अथवा अन्य संशोधनों के बिना, पुनः पारित कर सकेगी और उसे वह विधान परिषद को पुनः भेज सकती है [अनुच्छेद-197(1)]।
यदि विधान परिषद किसी विधेयक को दूसरी बार पुनः अस्वीकार कर सकती है अथवा संशोधन प्रस्तावित करती है अथवा विधेयक की परिषद में रखे जाने की तिथि से 1 माह के भीतर पारित नहीं करती है तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा परोइत समझा जाएगा और उसे अनुमोदन हेतु राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
संविधान के उपबंध उन्हीं विधेयकों के सम्बन्ध में लागू होते हैं तो विधानसभा में प्रारम्भ होते हैं। परिषद में शुरू होने वाले विधेयकों के सम्बन्ध में इस प्रकार के कोई उपबंध नहीं हैं। अतः यदि कोई विधेयक परिषद द्वारा पारित होकर विधानसभा को भेजा जाता है और सभा उसे अस्वीकार कर देती है तो विधेयक समाप्त हो जाएगा।
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