भारत एक ऐसा देश है जो युगों तक विकसित होता रहा है और जिसने एक सुदीर्घ सांस्Ñतिक निरंतरता बनाए रखी है। इसके इतिहास के हर युग ने आज तक अपनी विरासत छोड़ी है। '8वीं सदी तक भारत का इतिहास नामक प्रस्तुत पाठय-विषय के अèययन का उíेश्य यह जानना है कि भारत में जन-समुदायों ने प्राचीनतम संस्Ñतियां कैसे, कब और कहां विकसित कीं, किस प्रकार उन्होंने Ñषि और पशु-पालन संबंध्ी कार्य आरंभ किए जिसके पफलस्वरूप जीवन सुरक्षित और व्यवसिथत बन पाया। जैसा कि एक सुप्रसि( इतिहासकार का कहना है, ''प्राचीन इतिहास का अèययन दर्शाता है कि किस प्रकार प्राचीन भारतीयों ने प्राÑतिक संसाध्नों का अन्वेषण और उपयोग किया और किस प्रकार उन्होंने अपनी जीविका के साध्नों का निर्माण किया, कैसे उन्होंने भोजन, आश्रय और परिवहन के प्रबंध् किएऋ कैसे उन्होंने Ñषि, कतार्इ, बुनार्इ, धतु-निर्माण तथा इस प्रकार के अन्य कार्य प्रारंभ किए और किस प्रकार उन्होंने जंगलों को सापफ किया, ग्रामों, नगरों और अंतत: विशाल राज्यों की स्थापना की।
अठारहवीं सदी में र्इस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती जिम्मेदारियों के कारण उसके पदाधिकारियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे भारतीय जनता के कानूनों, आदतों, आचारों और इतिहास से परिचित हों। इस दिशा में आरंभिक प्रयत्नों की परिणति कलकत्ता में 1784 में 'एशियाटिक सोसायटी आपफ बंगाल की स्थापना से हुर्इ। सर विलियम जोंस ;1746-94द्ध और चाल्र्स विलिकंस ने भारतीय साहित्य और संस्Ñति में गहरी अभिरुचि ली। पिफर भी, भारत-विधा को सर्वाधिक उत्प्रेरणा जर्मन विद्वान मैक्स-मूलर ;1823-1902द्ध से मिली। उसके प्रयत्नों के पफलस्वरूप एक सामान्य भारोपीय स्वदेश और विरासत की अवधरणा विकसित हुर्इ। मैक्स-मूलर जैसे अनेक आरंभिक प्राच्यविदों ने अपरिवत्र्तनशील भारतीय ग्रामीण समुदायों के बारे में प्रशंसात्मक टिप्पणियां दी। उन्होंने भारत का चित्राण दार्शनिकों के देश के रूप में किया और यह धरणा बनार्इ कि भारतीय मानस में भौतिक चिंतन की क्षमता का अभाव है। उन्होंने लिखा कि प्राचीन भारतीयों को इतिहास-बोध् नहीं था और वे निरंकुश शासन के अभ्यस्त थे। पाश्चात्य विद्वानों ने खुली घोषणा की कि भारतीयों में न तो राष्ट्रीयता की भावना थी और न किसी प्रकार के स्वशासन की।
चाल्र्स ग्रांट के नेतृत्व वाले र्इसार्इ ध्र्म-प्रचारक और जेम्स मिल जैसे उपयोगितावादी भारत के संबंध् में आरंभिक प्राच्यविदों से सहमत नहीं थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भारतीयों को बर्बर, विवेकहीन और राजनीतिक मूल्यों से सर्वथा असंब( चित्रित करते हुए एक प्रकार की ''भारत-भीति ;प्दकवचीवइपंद्ध को जन्म दिया। उनके अनुसार भारतीय समाज अप्रगतिशील और अवरु( था। विंसेंट ए. सिमथ बि्रटिश प्रशासक इतिहासकारों में सर्वाधिक प्रसि( इतिहासकार हुआ है। उसने भारतीय इतिहास का सुव्यवसिथत सर्वेक्षण किया। उसका विश्वास था कि भारत में निरंकुश शासकों की लंबी परंपरा रही है और उसने प्राचीन भारतीय राजाओं की निष्ठुरता का वर्णन अतिरंजना में किया है। वह कौटिल्य की दंड-संहिता को 'अतिशय कठोर मानता था।
इस प्रकार आरंभिक भारत के संबंध् में बि्रटिश विद्वानों का नज़रिया एक जैसा नहीं था। उन्होंने जो भी लिखा, औपनिवेशिक शासन और उसके द्वारा भारतीय संसाध्नों के दोहन के उ(ेश्य से लिखा और इस प्रक्रिया में ऐतिहासिक साक्ष्यों को विÑत कर दिया।
भारतीय सुधरवादी नेताओं तथा बढ़ते राष्ट्रवाद और राजनीतिक जागरण से प्रभावित भारतीय विद्वानों ने बि्रटिशमतों को खुली चुनौती दी। उन्होंने सामाजिक सुधरों और स्वशासन को èयान में रखते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के पुननिर्माण की जिम्मेदारी संभाली। ऐसे इतिहासकारों में आर. एल. मित्राा, आर. जी. भंडारकर, एस. के. आयंगर, एन. के. शास्त्राी, के. पी. जायसवाल, आर. सी. मजुमदार, वी. के. राजवाड़े और पी. वी. काणे इत्यादि प्रमुख हैं। इन विद्वानों ने
समाज-सुधरकों के प्रभाव में हिन्दू ध्र्म के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए। इन समाज-सुधरकों का दावा था कि हिन्दू ध्र्म में अन्य ध्र्मों से सारतत्त्व निहित हैं। उनका मानना था कि एक राष्ट्र के रूप में भारत के विकास के लिए हिन्दू ध्र्म का पुनरु(ार आवश्यक है। लेकिन ये विद्वान इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाए कि हिन्दुत्व एक ऐसा वृहद अर्थगर्भी पद है जिसमें भारतीय उप-महाद्वीप में प्रचलित विभिन्न भारतीय धर्मिक विचार, विश्वास और रिवाज़ शामिल हैं।
आर्य-प्रजाति के मिथक ने अनिवार्य रूप से राष्ट्रवादी नेताओं के साथ-साथ इतिहासकारों की कल्पनाशकित को भी झकझोरा। यधपि आरंभिक प्राच्यविदों ने संस्Ñत और कुछ पूर्वी यूरोपीय भाषाओं में संबंध् स्थापित किया था। किंतु अब के भारतीय विद्वान भारत को इंडो-आर्यन का पलना ;हिंडोलाद्ध मानते थे और उनके अनुसार इंडो-आर्य मानव-सभ्यता की आधतम सिथतियां थे। हडप्पा सभ्यता की खोज ने ऐसे विद्वानों के दावे के समक्ष भारी चुनौती प्रस्तुत की। लेकिन आर. एल. मित्राा, आर. जी. भंडारकर और वी. के. राजवाड़े ने आमतौर पर एक विवेकसम्मत रुख अपनाया। वे मूलत: समाज-सुधरक थे और इस समाज-सुधर तथा प्राचीन भारतीय मूलग्रंथों के अèययन की पृष्ठभूमि में उनके अंशदान कापफी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, भंडारकर ने विध्वा पुनर्विवाह का समर्थन और जातिप्रथा एवं बाल-विवाह जैसी बुराइयों की भत्र्सना की।
परन्तु, भारतीय ऐतिहासिक विद्वान जो आरंभ में समाज-सुधर की भावनाओं से अनुप्राणित हुए थे, ध्ीरे-ध्ीरे साम्राज्यवादी-विरोध्ी हो गए। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में आर्इ परिवर्तन की लहर और उग्र लड़ाकू क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ;आतंकवादीराष्ट्रवादद्ध के अभ्युदय ने ऐतिहासिक लेखन पर गहरी छाप छोड़ी। ऐतिहासिक लेखन में क्रमिक परिवत्र्तन अंशत: इतिहास के अतीत के संबंध् में साम्राज्यवादी विचारों के विरु( प्रतिक्रिया का परिणाम था और अंशत: राष्ट्रीय सम्मान के निर्माण के प्रयत्नों का परिणाम। हिन्दू संस्Ñति को अन्य एशियार्इ संस्Ñतियों के अग्रदूत के रूप में देखा गया। भारतीय इतिहास के प्राचीनकाल को सामाजिक शांति, सामंजस्य और समृ(ि का प्रतीक माना गया। गुप्तकाल को 'स्वर्णयुग के नाम से विभूषित किया गया।
राष्ट्रीय इतिहासकार राजनीतिक सि(ांत और व्यवहार के क्षेत्रा में भी हिन्दुओं को सर्वोच्च उपलबिध्यों से सम्पन्न मानने लगे। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्रा की खोज और आगे चलकर 1909 में उसके प्रकाशन के बाद विस्मार्क के सामाजिक विधयन तथा कौटिल्य की सामाजिक-आर्थिक नीतियों में तुलना की जाने लगी। प्राचीन भारत के जनजातीय कुलीन तंत्रा को एथेंस के प्रजातंत्रा के समकक्ष माना गया। इसी तरह बि्रटेन के सांविधनिक राजतंत्रा और कौटिल्य के राजतंत्रा में समानताएं बतलार्इ गर्इ। इन सारे लेखनों से यह प्रमाणित हो गया कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में प्रजातांत्रिक सरकार की परंपरा की जड़ें गहरी थीं। इन ऐतिहासिक रचनाओं ने स्वतंत्राता-संग्राम की धर को और पैना कर दिया। उन्होंने अतीत की विषमताओं और कमज़ोरियों की बकायदा उपेक्षा कर प्राचीन काल को उजागर किया और बि्रटिश शासन के विरु( भारतीयों के संघर्ष को बढ़ावा दिया और इस प्रकार आज़ादी की लड़ार्इ को एक सै(ांतिक आधर प्रदान किया।
राष्ट्रवादी इतिहासकारों जिनमें के. पी. जायसवाल प्रमुख हैं, ने एक ओर जहां प्राचीन भारत को महिमा-मंडित किया वहीं दूसरी ओर आरंभिक भारतीय इतिहास और संस्Ñति के प्रति उनका नज़रिया बि्रटिश इतिहासकारों से कम अनैतिहासिक नहीं रहा। उन्होंने अपने ज्ञान को प्राचीन मूलग्रंथों के छिटपुट अनुकूल संदर्भो पर आधरित किया और उसी पर संपूर्ण प्राचीन काल का सामान्यीकरण कर दिया। एक अर्थ में उनकी रचनाएं विवेकानंद, दयानंद और अन्य पुनरुत्थानवादियों से प्रभावित थी। हिन्दू पुनरुत्थानवाद का एक अर्थ मिल के काल-निर्धरण की स्वीÑति भी था जो इस गलत आधरµवाक्य पर
आधरित था कि राष्ट्रवादी इतिहासकारों का आशय उन सबको महिमामंडित करना था जो उन्हें हिन्दू भारत प्रतीत होता था। लेकिन इन रचनाओं ने इस तथ्य की अनदेखी कर दी कि इंडो-ग्रीक, शक, कुषाण, मौर्य हिन्दू नहीं थे।
राष्ट्रवादी इतिहासकारों की रचनाओं ने भारतीय इतिहास का कोर्इ वैज्ञानिक काल-निर्धरण विकसित नहीं किया। वे मिल के कालानुक्रमिक व्यवस्था से बंध्े रहे और भारतीय संस्Ñति के सामाजिक स्वरूप को अनदेखा कर दिया। इसके पफलस्वरूप एक ऐसे साम्प्रदायिक ;एकांगीद्ध इतिहास-लेखन का जन्म हुआ जिसमें काल-निर्धरण के बौ(िक आधर की संभावना ही मिट गर्इ।
हाल के विद्वानों ने अपना èयान पारंपरिक, राजनीतिक, राजवंशीय इतिहास से हटाकर सामाजिक, आर्थिक और सांस्Ñतिक इतिहास के अèययन पर केनिद्रत किया है और इस तरह किसी काल के राजनीतिक घटनाक्रम पर सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के प्रभाव को मान्यता प्रदान की है। उन्होंने अपने अèययन-विश्लेषण को पुरातातिवक और मानव शास्त्राीय साक्ष्यों से सम्पृक्त कर आरंभिक भारतीय समाज और अर्थ-व्यवस्था में परिवर्तन और निरंतरता के तत्त्व देखने की चेष्टा की है। इस दिशा में डी. डी. कौशांबी ने अपने 'ऐन इन्ट्रोडक्शन टु दि स्टडी आपफ़ इंडियन हिस्ट्री ;भारतीय इतिहास के अèययन की प्रस्तावनाद्ध तथा 'दिकल्चर ऐंड सिविलाइजे़शन आपफ़ एनशेंट इंडिया : ए हिस्टारिकल आउटलाइन ;प्राचीन भारत की संस्Ñति और सभ्यता: एक ऐतिहासिक रूपरेखाद्ध में महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आरंभिक भारतीय इतिहास के काल-निर्धरण के सर्वेक्षण के प्रयास में कौशांबी मानते हैं कि समाज, अर्थव्यवस्था और संस्Ñति उत्पादन की शकितयों और संबंधें के विकास के अभिन्न अंग हैं। अपने मत को इस सि(ांत पर आधरित करते हुए यह तर्क दिया जा सकता है कि मèय युग का प्रवेश इस्लाम के आगमन के साथ नहीं हुआ है बलिक यह र्इसा की छठी सदी में गुप्तवंश के शासन के अवसान के बाद भारत में कतिपय महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का प्रारंभ है। शाही गुप्तवंश के पतन का परिणाम था सामंती ;राज्योंद्ध का अभ्युदय। व्यापार की मात्राा में कमी आर्इ और अपेक्षाÑत सीमित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास हुआ जिसने क्रमश: सामंती Ñषि आधरित अर्थव्यवस्था और दासप्रथा को जन्म दिया। किसी केन्द्रीय नियंत्राण के अभाव में क्षेत्राीय सांस्Ñतिक इकाइयां छोटी-छोटी रियासतों के रूप में उभरीं। इससे क्षेत्राीय भाषाओं, कला और वास्तुशिल्प को बढ़ावा मिला। नवीन भारतीय सामंती समाज के विकास में भकित आन्दोलन ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस प्रकार छठी शताब्दी के अंत और सातवीं शताब्दी के प्रारंभ को भारतीय इतिहास के प्राचीन और मèययुगीन कालों के बीच विभाजक रेखा के रूप में स्वीकार किया जाने लगा।
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
अतीत कालीन भारतीय जनता के अèययन हेतु हमें भारतीय इतिहास के विभिन्न स्रोतों पर निर्भर करना पड़ता है। यधपि हमारे पास किसी ऐतिहासिक इतिवृत्त ;घटनाओं का क्रमानुसार ब्योरा, तारीखद्ध तो नहीं है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीयों में इतिहास-बोध् का अभाव था। साहितियक स्रोतों से प्राप्त और पुरातातिवक साक्ष्यों द्वारा संपुष्ट सूचना से हमें प्राचीन काल की संपूर्ण तस्वीर बनाने में मदद मिलती है। प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निमाण के स्रोतों का अèययन तीन विस्तृत शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
;1द्ध साहितियक स्रोत
साहितियक स्रोतों को मोटे तौर पर तीन मुख्य हिस्सों में बांटा जा सकता है : ;1द्ध सामाजिक-आर्थिक ध्र्मग्रन्थ ;2द्ध ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य और ;3द्ध ऐतिहासिक रचनाएं।
;1द्ध सामाजिक-आर्थिक ध्र्मग्रन्थ: सामाजिक-आर्थिक ध्र्मग्रन्थ भी तीन वर्गों में बांटे जा सकते हैं
;पद्ध हिन्दू ;पपद्ध बौ( और ;पपपद्ध जैन।
;पद्ध हिन्दू ध्र्मग्रन्थ : कभी-कभी धर्मिक और ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य के बीच विभाजक रेखा खींचना कठिन हो जाता है। पिफर भी प्रस्तुत विवेचन के क्रम में इन अपवादों की चर्चा की जाएगी।
)ग्वेद-कालीन आर्यों के इतिहास के पुननिर्माण का एकमात्रा स्रोत है )ग्वेद। परवत्र्ती वैदिक सभ्यता के इतिहास की खोज जिन ध्र्मग्रंथों में की जा सकती है उनमें मुख्य अग्रलिखित हैं : बाद के तीन वेद अर्थात सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, ब्राह्राण जो सारे वेदों पर की गर्इ टीकाएं हैंऋ आरण्यक और उपनिषद, जो रहस्यवादी और दार्शनिक साहित्य हैंऋ सूत्रा साहित्य, जो मुख्य रूप से हिंदू समाज के सामाजिक-आर्थिक नियमों, रिवाजों और लोकाचारों का वर्णन करते हैंऋ रामायण और महाभारत महाकाव्य ;अंशत: धर्मिक और अंशत: ध्र्म-निरपेक्षद्ध, जो र्इसा की छठी शताब्दी पूर्व के हिन्दू समाज के विभिन्न पक्षों पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैंऋ पुराण ;अंशत: धर्मिक और अंशत: ध्र्म-निरपेक्षद्ध और स्मृति साहित्य, जो र्इसा की छठी शताब्दी पूर्व के बाद के हैं और हिन्दू सामाजिक धर्मिक आचारों के वृत्तान्त होने के साथ-साथ कतिपय हिन्दू राजवंशों, मुख्यत: कुरु, नंद और मौर्य की वंश-तालिका प्रस्तुत करते हैं। पुराणों में र्इसा पूर्व छठी सदी के पहले के उत्तरी भारत और दक्कन का अपुष्ट कालक्रमिक राजनीतिक इतिहास भी मिलता है।
;पपद्ध बौ( ध्र्मग्रंथ : बौ( और जैन साहित्य अधिक प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करते हैं जिनके आधर पर र्इसा पूर्व छठी सदी से प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास का पता कुछ अपवादों को छोड़कर कमोबेश कालक्रमिक ढं़ग से चलता है।
अèययन के प्रस्तुत विषय हेतु साक्ष्य के रूप में बौ( ध्र्म की महत्त्वपूर्ण रचनाएं निम्नलिखित हैं : 'त्रिपिटक बौ(सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के सारे महत्त्वपूर्ण पक्षों को उजागर करते हैं। 'जातक, 'दिव्यवदान, 'ललितविस्तार, 'महावस्तु, 'महापरिनिब्बानसुत्त श्रीलंका के पालिइतिवृत्त 'दीपवंश और 'महावंश इत्यादि मौर्य वंश के प्रथम शासक चंद्रगुप्त मौर्य के आरंभिक जीवनवृत्त और राज्यारोहण की सर्वाधिक प्रामाणिक रचनाएं हैंऋ अश्वघोष की महायान Ñतियां जैसे 'बु(चरित, 'सौंदरनंद काव्य ;अंशत: धर्मिक और अंशत: ध्र्म-निरपेक्षद्ध, 'व्रजसूची इत्यादि कुषाणकालीन प्राचीन भारतीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर मूल्यवान सामगि्रयां प्रस्तुत करती है, एक अन्य महायानÑति 'मंजु-श्री मूलकल्प ;अंशत: धर्मिक और अंशत: ध्र्म-निरपेक्षद्ध गुप्त साम्राज्य के प्रथम निर्माता समुद्रगुप्त के व्यकितगत गुणों पर पर्याप्त रोशनी डालती है।
;पपपद्ध जैन: निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण जैन रचनाएं जैसे 'द्वादश-अंग, 'कल्पसूत्रा, 'भगवती सूत्रा, 'मारुतुंगा, 'परिशिष्ट पर्वन, 'उत्तराèययन आंध््र-मागध्ी, 'स्थविरवली इत्यादि न सिपर्फ जैन ध्र्म और संस्Ñति पर अपितु बिंबिसार अजातशत्राु, महापदमनंद, चन्द्रगुप्तमौर्य इत्यादि प्रभावशाली राजाओं पर भी महत्त्वपूर्ण सामगि्रयाँ प्रस्तुत करती हैं।
2. ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य : उपयर्ुक्त सामाजिक धर्मिक ध्र्मग्रंथों के अतिरिक्त प्राचीन भारत पर महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करने वाले ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य का विपुल भंडार उपलब्ध् है। इन्हें मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांटा जा सकता हैµ ;पद्ध राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधित रचनाएं ;पपद्ध नाटक और ;पपपद्ध जीवनचरित। इनमें केवल महत्त्वपूर्ण Ñतियों का ही उल्लेख नीचे किया जा रहा है :
;पद्ध राजनीतिक अर्थव्यवस्था से संबंधित रचनाएं : कौटिल्य का 'अर्थशास्त्रा मौर्य साम्राज्य के सारे मूलभूत पक्षोंµयथा, आर्थिक व्यवस्था, प्रशासन जिसमें चारकर्म ;गुप्तचरीद्ध की विस्तृत प्रणाली शामिल है, राजनय ;कूटनीतिद्ध की कला और सामरिक रणनीति दाँव-पेच-पर बहुत ही प्रामाणिक जानकारियां प्रदान करता है। लेकिन इसमें क्रमब( राजनीतिक घटनाओं और वंश सूची का स्पष्ट अभाव है, क्योंकि इसका मुख्य उíेश्य मौर्यकाल के राजनीतिक-आर्थिक एवं धर्मिक जीवन की जानकारी देना है।
;पपद्ध नाटक : प्राचीन भारत के संबंध् में जानकारी के एक अन्यस्रोत हैं नाटय-ग्रंथ। विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस, जो एक सुलिखितनाटय ग्रंथ है, नन्दों और मौर्यों के संबंध् में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है, उसका एक अन्य नाटय-ग्रंथ 'देवीचन्द्रगुप्तम ;इसका एक अंश ही अब उपलब्ध् हैद्ध गुप्तों की वंशावली पर महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध् कराता हैऋ कालिदास की प्रसि( Ñति 'मालविकागिनमित्रा शुंग राजवंश पर पर्याप्त रोशनी डालता है।
;पपपद्ध जीवनचरित : जीवनचरित पर अनेक ग्रंथों में निम्नलिखित ग्रंथ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं जो गौतम बु( और बाद के हिन्दूकाल के कुछ प्रभावशाली राजाओं के निजी जीवन और कार्य की झांकी प्रस्तुत करते हैं : हर्षवर्(न पर बाणभêट की रचना 'हर्षचरित, गौड़ नृपति शशांक पर पदमगुप्तरचित 'नव शाहशांक-चरित, राजाविक्रमादित्य और बाद के चाणक्यों पर विल्हण रचित 'विक्रमांकदेव चरित प्रतिहार राजा भोज पर बल्लालÑत 'भोजप्रबंध्, पृथ्वीराज चौहान पर चंदबरदार्इ रचित 'पृथ्वीराज-चरित इत्यादि मुख्य राजकीय जीवन चरित हैं।
;पअद्ध संगम साहित्य: सुदूर दक्षिण में काव्य-शैली में लिखा गया तमिलों का संगम साहित्य आरंभिक र्इसार्इ काल में दक्षिणा के ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य का सर्वाधिक प्रतिनिधि मूलक साहित्य है। इनमें निम्नलिखित ग्रंथ तीन सुदूर दक्षिण के आरंभिक इतिहास के अèययन के लिए सर्वाधिक प्रासंगिक हैं :
;पद्ध 'पत्थुपटटु अथवा 'टेन आइडिल्ज ;सौम्य काव्य अथवा ग्रामकाव्यद्ध
;पपद्ध 'एहुथो कार्इ अथवा 'अष्टसंग्रह और
;पपपद्ध 'पंडिनें किल्कनक्कु अथवा अठारह लघु शिक्षाप्रद कविताएं। ये सभी रचनाएं र्इसा की प्रथम से तृतीय शताबिदयों के दौरान तमिल प्रदेश के लोगों के जीवन का सर्वपक्षीय विवरण प्रस्तुत करती हैं।
;अद्ध ध्र्म-निरपेक्ष दर्शनशास्त्रा : प्राचीन भारतीय दर्शन मुख्यत: धर्मिक आधर पर पल्ल्वित पुषिपत हुआ है। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं। ध्र्म-निरपेक्ष दर्शनशास्त्रा के निम्नलिखित सि(ांत उल्लेख्य हैं :
;पद्ध गौतमबु( के द्वारा उपदिष्ट डायलेकिटक्स का सि(ांत ;द्वन्द्वात्मक तर्क विधाद्ध
;पपद्ध महान महायान बौ( दार्शनिक नागाजर्ुन द्वारा रचित प्रसि( ग्रंथ 'प्रज्ञा-परिमिति-सूत्रा-शास्त्रा में प्रतिपादित सापेक्षता का दर्शन। उन्होंने अपने सापेक्षता-दर्शन को 'माèयमिक की संज्ञा दी है।
उपयर्ुक्त ध्र्म-निरपेक्ष साहित्य में कहीं कहीं धर्मिक तत्त्व भी उपलब्ध् हैं।
3. ऐतिहासिक रचनाएं : प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक रचनाओं को दो वर्गों में रखा जा सकता हैµ ;पद्ध व्यकितगत इतिहासकारों द्वारा लिखा गया इतिहास और ;2द्ध विभिन्न स्थानीय राजवंशों द्वारा संरक्षित ऐतिहासिक इतिवृत्त ;क्रानिकल्ज़द्ध।
1द्ध व्यकितगत इतिहासकार : व्यकितगत इतिहासकारों की रचनाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना 1149-50 र्इस्वी में कल्हण द्वारा लिखित 'राजतरंगिणी है। कल्हणा ने इसे मुख्यत: कश्मीर पर लिखित प्रलेखों के आधर पर लिखा है।
;2द्ध स्थानीय राजवंशीय इतिवृत्त : ऐसे इतिवृत्त उत्तर भारत के विभिन्न भागों में पाए गए हैं। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण इतिवृत्त निम्नलिखित हैं : सोमेश्वर की 'रस-माला और 'कीर्ति-कौमुदी, राजशेखर का 'प्रबंध्कोष, बालचन्द्र का 'वसंत विलास इत्यादि। इन रचनाओं में गल्प और तथ्य दोनों का समावेश हुआ है।
सिंध् में 13वीं सदी के आरंभ में अरबों की पहल पर स्थानीय ऐतिहासिक इतिवृत्त 'चाचनामा की रचना शुरू की गर्इ। इस रचना में अरबों द्वारा सिंघ विजय की गाथा विस्तार से दी गर्इ है। 'चाचनामा का सिपर्फ पफारसी अनुवाद ही हम तक पहुंच पाया है। उनमें अरबों द्वारा सिंध्-विजय के पूर्व की सदी अर्थात 7वीं सदी के आरंभ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि चित्रित की गर्इ है।
नेपाल के स्थानीय इतिवृत्त 'वंशावली के नाम से जाने जाते हैं। इन रंचनाओं के आरंभिक भाग ''पूर्णत: मिथकीय ;कलिपतद्ध हैं, जबकि इनमें र्इसा की प्रथम शताब्दी से वर्णित सामग्री किसी अंश में नेपाल के इतिहास की झलक दिखलाती है, क्योंकि उनमें वहां के राजाओं की नाम-तालिका और उनके राज्य-काल का वर्णन मिलता है।
असम में कामरूप सासनावली के स्थानीय इतिवृत्त असम में कामरूप के उत्तरकालीन हिन्दूकाल के इतिहास के पुन: निर्माण के मुख्य स्रोतों में एक हैं।
उपयर्ुक्त ऐतिहासिक रचनाओं की चर्चा से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य विभिन्न क्षेत्राों में भी ऐतिहासिक इतिवृत्तों के परिरक्षण की प्रणाली प्रचलित थी, लेकिन वह आगे चलकर पूर्वोक्त कारणों से नष्ट कर दी गर्इ।
;खद्ध पुरातातिवक स्रोत
पुरातात्तिवक स्त्राोतों को निम्नलिखित चार संवर्गों में बांटा जा सकता है :
1. अभिलेख अथवा उत्कीर्णन ;2द्ध सिक्के ;3द्ध नगर तथा स्मारक और ;4द्ध विविध्।
;पद्ध अभिलेख : प्राचीन भारतीय इतिहास के सर्वाधिक विश्वसनीय स्रोत है, क्योंकि वे सामान्यत: मिथकों से रहित और तथ्यों पर आधरित हैं। वे पत्थरों और धतुओं पर उत्कीर्ण किए गए हैं। उनकी लिपि उनके उत्कीर्णन के समीपवर्ती काल का निर्धरण करती है। इस रूप में वे ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में साहित्य की विधा से अधिक स्वीकार्य सि( होते हैं।
अब तक के अन्वेषित अभिलेखों ;उत्कीर्णोंद्ध को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है ;1द्ध राजकीय और ;2द्ध निजी। वे विभिन्न भाषाओंµपालि, प्राÑत, संस्Ñत, तमिल, तेलुगु इत्यादि में पाए जाते हैं। गुप्त काल के पूर्व इन शिलालेखों में 95: प्राÑत में लिखे गए थे।
इन अभिलेखों ;उत्कीर्णोंद्ध में दो प्रकार की लिपियों का प्रचलन था, ब्राह्राी और खरोष्ठी। अधिकांश शिलालेख ब्राह्राी लिपि में लिखे गए, जबकि थोड़े से ही खरोष्ठी में। खरोष्ठी लिपि अरामाइक से उत्पन्न थी और सेमिटिक वर्णमाला से मिलती-जुलती थी।
ब्राह्राीलिपि देशज थी। लेकिन आध्ुनिक युग में 1836 तक लंबे अनुप्रयोग के कारण से इसे शिक्षित भारतीय भी नहीं समझ सकते थे। 1837 में अशोक के स्तंभलेखों से एशियाटिक सोसायटी आपफ बंगाल के तत्कालीन सचिव, जेम्स प्रिंसेप, ने ब्राह्राी लिपि का अर्थ स्पष्ट किया।
;1द्ध राजकीय अभिलेख : ;राजकीय उत्कीर्णनद्ध नृपतियों और उनके पदाधिकारियों द्वारा जारी किए जाते थे। ज्ञात उत्कीर्णों में अशोक के एडिक्टस ;आदेशपत्राद्ध सर्वाधिक प्राचीन हैं। अब तक अशोक के 14 बड़े शिलालेखों के राज्यादेश अनेक छोटे शिलालेखों वाले राज्यादेश, 7 स्तंभ राज्यादेश और 9 अन्य शिलालेखों की खोज की गर्इ है।
कलिंगराज खारवेल का हाथीगुपफा अभिलेख, शक राजा रुद्रदामा के जूनागढ़ अभिलेख, सतवाहन राजा गौतमी पुत्रा शातकर्णी के नानघाट के अभिलेख, कुषानोें के तक्षशिला सिल्वर स्क्राल ;चांदी पर की गर्इ नामवलीद्ध और पंजतार पत्थर अभिलेख इत्यादि बहुत महत्त्वपूर्ण अभिलेख हैं। वे अपने नृपतियों के जीवन और कार्यों के संबंध् में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
एक अन्य प्रकार के शासकीय अभिलेख हैं प्रशसितयां जो राजाओं और सम्राटों की ओर से दरबारी कवियों और अधिकारियों द्वारा उनकी उपलबिध्यों और व्यकितगत विशेषताओं पर लिखी गर्इ हैं। निम्नलिखित प्रशसितयां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : समुद्रगुप्त के दरबारी कवि और बड़े अधिकारी हरिषेण द्वारा अशोक स्तंभ पर समुद्रगुप्त पर लिखी गर्इ प्रयाग प्रशसित-समुद्रगुप्त के भारतव्यापी विजय का वर्णन करती हैं। राजा भोज पर लिखी गर्इ ग्वालियर प्रशसित शाही प्रतिहारों पर प्रकाश डालती है, बंगाल के राजा विजयसेन पर तैयार किया गया देवपाड़ा अभिलेख उसकी विजय-अभियानों और उपलबिध्यों को उजागर करता है। ऐहोल अभिलेख, जो चालुक्यराजा पुलकेशिन द्वितीय की उपलबिध्यों का गुणगान करता है, भी प्रशसित की श्रेणी में ही आता है।
कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेख यथा समुद्रगुप्त का एरण अभिलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्राी और वाकटक राजा रूद्रसेन प्प् की पत्नी प्रभावती गुप्त के दो अभिलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का मेहरौली स्तंभ अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी प्रस्तरस्तंभ अभिलेख इत्यादिµगुप्त-वाकाटक काल के संबंध् बहुत महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। हर्षवर्(न के बारे में सोनीपत कापर सील ;तांबे की मुहरद्ध उत्कीर्णन बानखेड़ाण्लेट, मध्ुबन कापर प्लेट इत्यादि महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं।
अभिलेख महत्त्वपूर्ण राजाओं के विजय-अभियानों, प्रशासन, राजनीति और व्यकितगत गुणों का बखान करते हैं। पुनश्च, ब्राह्राणों, पदाधिकारियों और प्रियपात्राों को अनुदान में प्राप्त भूमि पर अनेक शाही आदेश पत्रा प्राप्त हुए हैं जो प्राचीन भारत के सामाजिक-आर्थिक पक्षों की प्रामाणिक जानकारी प्रदान करते हैं। अशोक और सातवाहनों, गुप्तों और चोलों के कुछ उत्कीर्णन इसी श्रेणी में आते हैं।
;पपद्ध निजी अभिलेख : निजी अभिलेख की संख्या शाही आदेश पत्राों से कहीं ज्यादा है। लेकिन उनसे अत्यल्प राजनीतिक जानकारी मिल पाती है। गुप्तकाल से वे ध्ीरे-ध्ीरे विभिन्न नृपतियों के अध्ीन सामंती स्वामियों द्वारा ब्राह्राणों, पटटेधरियों और प्रियपात्राों को जारी किए गए।
धर्मिक भवनों की दीवालों पर उत्कीर्ण लेख मुख्य रूप से प्राचीन भारत के सामाजिक, धर्मिक और सांस्Ñतिक पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।
;2द्ध मुæाशास्त्राीय साक्ष्य ;सिक्केद्ध : यधपि मुद्राशास्त्राीय साक्ष्य अपने अभिलेखीय प्रतिरूप से कम महत्त्वपूर्ण है, पिफर भी यह प्राचीन भारत के कुछ कालों के संबंध् में जानकारी का निश्चय ही प्रामाणिक स्रोत है। यह मोटे तौर पर दो विशिष्ट काल-खंडों में बांटा जा सकता हैµपहला भारत पर अलेक्जेंडर के आक्रमण से पूर्व का और दूसरा उसके आक्रमण के बाद का। आक्रमण के पूर्वकाल के सिक्के सामान्यत: दो प्रकार के हैं : वैसे सिक्के जो ठप्पे में ढले हुए हैं और आहत सिक्के, धतु के टुकड़ों पर छापे वाले सिक्कों पर आÑतियां और प्रतीक बने हैंऋ लेकिन उन पर कोर्इ आलेख या शीर्षक नहीं है। ऐसे सिक्के एक ओर तो नृपतियों और राज्याधिकारियों द्वारा निर्गत किए गए तो दूसरी ओर निजी व्यापारियों, व्यापार संघों, नगर निगमों और अन्य छोटे निजी निकायों द्वारा। परंतु किसी आलेख अथवा शीर्षक के अभाव में उनके काल और सही स्थान का पता अब तक नहीं चल सका है। वे मात्रा कुछ अस्पष्ट, धर्मिक और कलात्मक धरणाओं के संवाहक हैं। कहीं-कहीं उन पर उत्कीर्ण आलेख या शीर्षक केवल उन निजी शिल्पी संघों का उल्लेख करते हैं जिनके द्वारा वे निर्गत किए गए हैं।
अलेक्जेंडर के आक्रमण के बाद ग्रीक प्रभाव के पफलस्वरूप भारतीय सिक्कों में ध्ीरे-ध्ीरे गुणात्मक सुधर हुआ और उन पर आलेख या शीर्षक उत्कीर्ण किए जाने लगे। इससे हमें उनके प्रवर्तक, तिथि और स्थान का पता लगाने में मदद मिली है।
मौर्यों और गुप्तों के दो बड़े साम्राज्यों के बीच की अवधि में भारतीय सिक्का ढ़लार्इ ग्रीकों का परम )णी है। अब तक अलेक्जेंडर के समय के कुछ ही सिक्के पाए जा सके हैं। लेकिन मुद्रा शास्त्राीय साक्ष्यबैकिट्रयन ग्रीक, शक, पार्थियन और कुषाण के इतिहास के पुननिर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इंडो-ग्रीक द्वारा निर्गत तांबा, चांदी और सोने के सिक्के कलात्मक उत्Ñष्टता के नमूने हैं। साहित्य स्रोत से हम सिपर्फ चार या पांच बैकिट्रयार्इ ग्रीक राजाओं के नाम जान पाते हैं जिन्होंने लगभग दो सौ वर्षों तक भारत के उत्तर पशिचम क्षेत्रा में शासन किया था। लेकिन मुद्राशास्त्राीय अèययन हमें संकेत देता है कि लगभग तीस ग्रीक राजाओं और रानियों ने वहां शासन किया था।
मौर्य और गुप्त सम्राटों के बारे में भी सिक्के महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। लेकिन गुप्तकालीन सिक्के प्राचीन भारत के सिक्कों के सर्वश्रेष्ठ नमूने हैं और उन पर कोर्इ विदेशी प्रभाव नहीं है।
सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास के साहितियक और शिलालेखी स्रोतों को संशोधित, संपुष्ट और पूर्ण करते हैं। वे हमें भारत के संविधनिक और प्रशासनिक इतिहास के पुननिर्माण में मदद करते हैं और साथ ही प्राचीन भारत ऐतिहासिक, भूगोल और धर्मिक इतिहास पर भी प्रकाश डालते हैं।
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत की भूमिका के रूप में सिक्कों का महत्त्व घट गया। हर्षवर्(न, चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, प्रतिहारों और पालों के अत्यंत कम सिक्के ही उपलब्ध् हैं और कोर्इ ठोस ऐतिहासिक जानकारी नहीं प्रदान करते।
;3द्ध नगर तथा स्मारक : पुरातात्तिवक स्रोत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैंµखुदार्इ में बड़ी संख्या में मिले नष्ट नगर जिनमें भारी संख्या में स्मारक उपलब्ध् हुए हैं।
उत्खनन से उपलब्ध् प्राचीन भारत के नगरों और उपनगरों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं : बिहार में राजगीर ;प्राचीन राजगृहद्ध, नालंदा, बोध्-गया, पाटलिपुत्रा के कुछ हिस्से इत्यादिऋ पशिचमोत्तर सीमाप्रांत और पंजाब में पेशावर ;प्राचीन पुरुषपुरद्ध, तक्षशिला इत्यादिऋ बंगाल में पहाड़पुर, महास्थान, पुड्रवधर््न, कोटिवर्ष इत्यादिऋ मèयप्रदेश में वृष, पदमावती, उज्जैन, सांची इत्यादिऋ राजस्थान में बैराट, संभार, कारकोटनगर इत्यादिऋ गुजरात में लांघनाज, अहिलपेर, पाटन, अमरेली इत्यादिऋ दक्कन में कोल्हापुर, कोंडापुर इत्यादिऋ मैसूर में चन्द्रावली, ब्रह्रागिरि इत्यादि, आंध््र में अमरावती, नागाजर्ुन कोंडा इत्यादिऋ मद्रास में विरामपटटनम इत्यादिऋ उत्तरप्रदेश में मथुरा, बनारस, श्र्रावस्ती, कौशांबी, अहिक्षेत्रा, हसितनापुर इत्यादिऋ कश्मीर में परिहासपुर, अवंतिपुर, मात्र्तण्ड इत्यादि।
इस संदर्भ में भारत में बि्रटिश राज्य के परवत्र्ती काल में अंशत: सिंध् में मोहनजोदाड़ो और चान्हूदड़ो में और अंशत: पंजाब में हड़प्पा में की गर्इ खुदार्इ से प्राप्त प्राक-आर्य सिंघुघाटी की सभ्यता विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वातंत्रयोत्तर काल में विस्तीर्ण उत्खनन से पशिचमोत्तर भारत, राजस्थान और दक्कन में बड़े पैमाने पर महत्त्वपूर्ण स्थल पाए गए हैं। मेहरगढ़ की खुदार्इ भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि कोची के समतल मैदान ;बलूचिस्तानद्ध में बोलन नदी के तट पर अवसिथत मेहरगढ़ भारतीय उपमहाद्वीप में नव पाषाणयुग का एकमात्रा ज्ञान उपनिवेश है जो र्इसा के लगभग सात हजार वर्ष पूर्व का है।
;4द्ध विविध् ;अन्य अवशेषद्ध : उपयर्ुक्त पुरातात्तिवक स्रोतों के अतिरिक्त कुछ अन्य सामगि्रयां भी हैं जो प्राचीन भारतीय इतिहास के सामाजिक, आर्थिक, धर्मिक और सांस्Ñतिक पक्षों तथा किसी अंश में राजनीतिक पक्ष पर प्रामाणिक जानकारी प्रदान करती हैं। ये हैंऋ गुपफा मंदिर और मठ, स्तंभ, मृणपात्रा, ;मृदभांडद्ध मुहरें, पत्थर, औजार और उपकरण इत्यादि।
पूर्व में कहा जा चुका है कि आजादी के बाद केन्द्रीय और राज्य पुरातत्त्व विभागों और विभिन्न विश्वविधालयों की पहल पर प्राय: प्रत्येक वर्ष पुरातात्तिवक उत्खन्न भारत के प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन इतिहास के विभिन्न पक्षों पर नर्इ सामगि्रयां प्रस्तुत कर रहे हैं। अपनी सभ्यता के लंबे इतिहास के कारण भारत पुरातात्तिवक जानकारी का अति विशाल भंडार गृह है अत: इसके संपूर्ण पुरातात्तिवक उत्खनन में अभी कापफी समय लगेगा।
विदेशी इतिहासकारों और पर्यटको के वृत्तांत : प्राचीन इतिहास के पुननिर्माण में विदेशी विवरणों का बड़ा भारी महत्त्व है। के. ए.एन. शास्त्राी के अनुसार ''विदेशी प्रेक्षकों के द्वारा किसी देश और उसके जन-समुदायों के विवरण उस देश के इतिहासकारों के लिए गहरी अभिरुचि के विषय हैं, क्योंकि ये विवरण उन्हें यह जानने में मदद करते हैं कि ऐसे प्रेक्षकों के मन पर कैसी छाप पड़ी है और वे इसके द्वारा विश्व के सामान्य इतिहास में अपने देश द्वारा अदा की गर्इ भूमिका का आकलन अधिक विश्वास के साथ कर पाते हैं।
हेरोडोटस अपनी रचना 'हिस्ट्रीज़ में अपने समय के भारत-पफारस के संबंधें और पशिचमोत्तर भारत की राजनीतिक दशा की जानकारी देता है। एरियन ने अलेक्जे़डर द्वारा भारत आक्रमण का सविस्तार वर्णन किया है। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार के ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज अपनी पुस्तक 'इंडिका में उस समय का वर्णनात्मक विवरण देता है।
'पेरिप्लस औपफ द एरिथियन सी का ग्रीक वृत्तांत पत्तनों, बंदरगाहों और पण्यों का हवाला देते हुए हमें भारत और पशिचमी जगत के बीच सामुदि्रक क्रिया-कलाप का संकेत देता है। टोलमी ने र्इसा की दूसरी सदी में भारत के भूगोल के बारे में लिखा। पिलनी र्इसा की पहली सदी में भारतीय पशुओं, पौधें और खनिजों का विवरण देता है। प्लूटार्क और स्ट्राबो के विवरण भी अपने समय के सामाजिक-आर्थिक जीवन के संबंध् में उपयोगी जानकारी देते हैं।
लेकिन ग्रीक विवरण सामान्यीकरण पर आधरित हैं। भारतीय भाषाओं की अज्ञानता ने हमारे देश के संबंध् में उनके विचारों और जानकारियों को निश्चय ही प्रभावित किया होगा। चूंकि ग्रीक राजदूत अधिकांशत: राज्य की राजधनियों में ही रहे, उनकी जानकारी मात्रा जनश्रुति पर आधरित थी और वह विÑत अथवा अतिरंजित रूप में ही प्रस्तुत की जा सकती थी।
हवेनसांग और पफाहियान के चीनी वृत्तांत हमें क्रमश: हषवर्(न और चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन-काल के जीवन के संबंध् में उपयोग जानकारी देते हैं।
तिब्बती इतिहासकार तारानाथ अपने ''हिस्ट्री आपफ बु(िज्म ;बौ( ध्र्म का इतिहासद्ध में बौ(ध्र्म और उसके प्रसार की जानकारी देता है। पर्यटकों और भूगोलविदों का अरबी वृत्तांत अधिकांशत: भारत और उसके निवासियों न कि इतिहास का विवरण प्रस्तुत करता है। अलबरूनी का 'तहक़ीक-ए-हिंद महमूदगजनवी के समय के भारत की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सिथतियों के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालता है।
साहितियक स्रोतों की सीमाµयदि हमें सिपर्फ साहितियक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता तो हमारी जानकारी
अध्ूरी रह जाती। प्राचीन भारत के इतिहास के अèययन में सबसे बड़ी बाध है किसी निशिचत काल-निरूपण का अभाव। र्इसा की तीसरी सदी में आंध््रों के पतन के बाद प्राचीन भारत के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। सौभाग्य से सिक्कों, अभिलेखों और स्मारकों के रूप में इस काल के विधमान अवशेषों से इस कमी की भरपार्इ हो गर्इ है।
हमारे पास अतीत के क्रमब( दस्तावेज नहीं हैं, क्योंकि समय बीतने के साथ कुछ नष्ट हो गए हैं। कुछ दस्तावेज सामगि्रयों की मिथ्या तस्वीर प्रस्तुत करते हैं तो कुछ घटनाएं जैसी घटी उसी रूप में उनका विवरण देने के बदले लेखक के मन पर उनके द्वारा छोड़ी गर्इ छाप और उसके अपने ढं़ग से किए गए अर्थ-निरूपण का ब्यौरा देते हैं। इसके अतिरिक्त, दरबारी कवियों की रचनाओं में पूर्वग्रह और अतिरंजना होने के कारण उस काल का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन नहीं हो पाया है। यहीं पर अतीत के विधमान अवशेष इतिहासकारों को उस समय की घटित घटनाओं के निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन में मदद करते हैं।
पाटलिपुत्रा के पुराने स्थलों की खुदार्इ से हमें मौर्यों की प्राचीन राजधनी की जानकारी मिलती है। कंबोडिया में अंकोरवाट और जावा में बोरोबुदूर प्राचीन काल के भारतीयों की औपनिवेशिक और सांस्Ñतिक गतिविधियों के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। झांसी में देवगढ़ और कानपुर के निकट भीतर गाँव के मंदिर गुप्त राजाओं के कलात्मक क्रिया-कलाप पर प्रकाश डालते हैं। सारनाथ के उत्खनन से बौ( ध्र्म और अशोक के संबंध् में हमारे ज्ञान में वृ(ि हुर्इ है। पत्थर के औजार और शिल्प-तथ्य हमें पुरा-पाषाणयुग के बारे में बतलाते हैं। अजन्ता और एलोरा की चित्राकारियां प्राचीनकालीन भारतीयों की कलात्मक उत्Ñष्टता दर्शाती है।
निष्कर्ष
इस प्रकार भारतीय इतिहास का व्यापक अèययन करने हेतु अèयेता को साहितियक एवं पुरातात्तिवक दोनों स्रोतों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि ये स्रोत मिलकर ही प्राचीनकाल की संपूर्ण तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। यदि साहितियक मूलग्रंथों से प्राप्त जानकारी को पुरातात्तिवक अवशेषों से संपुष्ट कर दिया जाता है तो इससे इतिहासकार को तथ्य की विश्वसनीयता और ऐतिहासिक प्रामाणिकता के पैमाने को सुधरने-बढ़ाने में मदद मिलती है।
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