1. रीतिकालीन काव्य और घनानंद
घनानंद रीतिकाल के मध्याहन के महत्वपूर्ण कवि हैं। मतिराम, भूषण, बिहारी आदि उनके पूर्ववर्ती हैं और चिंतामणि, तोष, देव, पदमाकर आदि परवर्ती। इतिहास में यह वह काल था जब मुगलों का वैभव, अस्ताचलगामी हो रहा था। कला के क्षेत्रा में प्रेम, Üाृंगार का बहुल प्रचार था। प्रेम आध्यातिमक रुचि के लोगों के लिए सभी धर्म से प्रभावित रहस्यात्मक था और सामान्य रसिकों के लिए भौतिक Üाृंगारमय। हिंदी साहित्य के इस काल को रीतिकाल कहा गया है। हिंदी साहित्य का उदय लोक भाषा के रूप में हुआ था। पूर्व मध्य काल मेंं जो भकित प्रधान रचनाएँ भक्त कवियों ने की थीं उनमें तुलसी, नंददास जैसे कतिपय विद्वानों को छोड़कर अधिकतर लोग कबीरदास, सूर, कुंभनदास जैसे साधारण लोग ही थे। इन्होंने साहित्य की परंपरा का परिचय प्राप्त किये बिना ही स्वानुभूति की अभिव्यकित की और जिस क्षेत्राीय भाषा से उनका व्यावहारिक परिचय था उसी को उन्होंने काव्यभाषा बना लिया। जायसी, तुलसी ने अवधी को और सूर, परमानंद आदि ने ब्रज को अपनाया। मीरा के लिए राजस्थानी माध्यम बनी। इस प्रकार यह वाड.गमय मौलिक बन गया।
लोकभाषा की इसी परंपरा में रीतिकाल की काव्य परंपरा का विकास हुआ। अपने पूर्ववर्ती कवियों से यह परंपरा इस अर्थ में भिन्न थी कि इसमें आधिदैविकता, र्इश्वर के अवतारी रूप का प्रभाव, क्षीण हो गया। कविता देव लोक से उतर कर सâदय साधारण के बीच पृथ्वी पर विचरण करने लगी। साहित्य के भीतर सनिनविष्ट होने के लिए किसी रचना में सर्वमान्य भाव सत्ता का आधार अनिवार्य होता है, वैसी भावसत्ता हिंदी भारती को पहले पहल इसी काल में मिली।
उत्तर मध्य काल रीतिकाल में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से जन्मी और कवियों की दृषिट, काव्य रचना प्रक्रिया के लिए प्राचीन संस्Ñत के साहित्य शास्त्राों की ओर गयी। संस्Ñत में काव्य समीक्षा के लिए निर्धारित मानदंड जैसे अलंकार तत्त्व, ध्वनितत्त्व और रस तत्त्व, औचित्य तत्त्व आदि तो सिद्धांत रूप में विधमान थे ही, कवि शिक्षा पर भी अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध थे। राजशेखर की काव्य मीमांसा, एवं काव्य कल्पलता वृत्ति आदि ऐसी ही रचनाएँ हैं। हिंदी भाषा के कवियों ने लोक भाषा कवि होने की अपनी हीनभावना को दूर करने और लोकभाषा के साहित्य को शास्त्रा का संबल देकर गरिमा प्रदान करने के उददेश्य से प्राचीन साहित्य शास्त्रा को काव्य रचना का मानक बना लिया। इसके फलस्वरूप उस काल के कवि विद्वान कहलाए। राज दरबारों में उन्हें विशेष आदर प्राप्त हुआ। केशव इसके निदर्शक हैं। उन्हें भाषाकवि होने में हीनता प्रतीत होती थी। उन्होंने रसिक प्रिया, कविप्रिया, ग्रंथ संस्Ñत की गरिमा हिंदी में उतारने के ध्येय से लिखे और अपनी रचनाओं का आदर्श शास्त्राीय मार्ग को बनाया। केशव रीति परंपरा के प्रवर्तक आचार्य बने।
इस परंपरा में दो प्रकार के कवि हुए। कुछ ने काव्यशास्त्रा के ग्रंथों का प्रणयन किया और उनके नियम उपनियमों के उदाहरण स्वरचित पधों से दिए। इसमें उनका आचार्यत्व और कवित्व दोनों व्यक्त हुए। इसलिए इन्हें आचार्य कवि कह सकते हैं। मतिराम, चिंतामणि देव, पदमाकर आदि इसी श्रेणी के कवि हैं। दूसरे ऐसे भी कवि हैं जिन्होंने कोर्इ काव्यशास्त्रा का ग्रंथ तो नहीं रचा पर कविता काव्यशास्त्रा के नियमों के अनुसार ही की। इन्हें रीति प्रमाणित कवि कहना ठीक होगा। बिहारी इसी वर्ग में आते हैं।
रीति काल का एक तीसरा वर्ग और है। ऐसे स्वतंत्रा चेता कवि भी इस काल में हुए जिन्होंने शास्त्रा की काव्य परंपरा को त्यागकर अपनी संवेदना और अनुभूति को स्वतंत्रा अभिव्यकित प्रदान की। ये कवि रीति मुक्त या रीतिकालीन स्वच्छंदतावादी कवि कहलाते हैं। घनानंद इस वर्ग के सर्व प्रमुख कवि हैं। वइ इस परंपरा के प्रवर्तक कवि हैं।
स्वच्छंतावाद को पशिचमी साहित्य की देन समझने वाले कुछ विद्वान आधुनिक काल के प्रसाद, पंत, महादेवी वर्मा आदि को ही स्वच्छंतावादी कहना पसंद करते हैं। रीतिकाल के घनानंद को अधिक से अधिक रीति मुक्त कहना उन्हें प्रिय है। इस संदर्भ में एक घटना बताकर अपनी बात कहना पर्याप्त होगा।
कविवर दिनकर जी से एक भेंट में घनानंद की चर्चा चल पड़ी। उन्होंने कवि का कोर्इ ऐसा छंद सुनाने को कहा जो उसकी पहचान कहा जा सके। उन्हें निम्नलिखित सवैया सुनाया गया।
अंतर हौं किधौ अंत रहौ दृग फारि फिरौकि अभागनि भीरौ।
आगि जरौं अकि पानी परौं अब कैसी करौं हिय का विधि धीरौं।
जौ धन आनंद ऐसी रुची तौ कहा बस हैं अहो प्राननि पीरौं।
पाऊं कहां हरि हाय तुम्हें, धरती में धसौं कि अकासहि चीरौं।
सवैया सुनकर दिनकर गदगद हो गये और कहने लगे कि स्वच्छंदतावाद का सर्वप्रथम हिंदी कवि घनानंद है।
रीति परंपरा में आबद्ध कवियों की काव्य कला और घनानंद की काव्यकला में बहुत बड़ा अंतर है। काव्य की साधना में साध्य और साधन दोनों पर दृषिट रखनी पड़ती है। रीति धारा के कत्र्ताओं ने साधन पक्ष पर जितना अधिक ध्यान दिया उतना साध्य पक्ष पर नहीं। अर्थात उनकी कला में रीतिबद्ध अभिव्यकित पक्ष विशेष रूप से संवारा गया भाव पक्ष या अनुभूति पक्ष उपेक्षित रहा। उनकी बुद्धि काव्य के बाá पक्ष को सुंदर प्रभावी और चमत्कारी बनाने में लगती थी। यह वे अभ्यास और शिक्षा के बल पर करते थे। रीति मुक्त धारा के ही कवि ठाकुर ने इस प्रकार के कविकर्म पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि ऐसी कविता स्थूल और प्राणहीन शरीर जैसी होती है:
सीखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीनो जस औ प्रताप को कहानो है।
सीखि लीनो कल्प वृक्ष कामधेनु चिंतामनि,
सीखि लीनो मेरुऔ कुबेर गिरि कानो हैं।
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहीं भूलि कइं बोधियत बानो है।
डेल सो बनाये आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कबित्त कीबो खेल करि जानो हैÏ
घनानंद ने एक सवैया में अपनी रचना प्रक्रिया का संकेत दिया है। उसमें कवि ने संवेदना को काव्य का मूल बताया है। अनुभूति को सही वाणी दे देना यही इनके अनुसार सच्ची कविता है। सुजान के तीखे कटाक्ष बाणों के समान घनानंद की ओर आते हैं। वे पानी में बड़े होकर भी कवि के प्राणों के प्यासे हैं। जादू सा करते जाते हैं, घायल कर देते हैं। कवि की संवेदना विàल हो जाती है और वही वाणी बद्ध होकर कविता बन जाती है अपनी काव्य प्रक्रिया में कवि की चेतना भावमग्न रहती है। कविता अपने आप बन जाती है जबकि दूसरे लोग मेहनत करके उसे गढ़ते हैं।
र्इछन तीछन बान बरवान सों पैनी दसान लै सान चढ़ावत
प्राननि प्यासे, भरे अति पानिप, मायल घायल चोंप, चढ़ावत।
यौं घनआनंद छावत भावत जान सजीवन ओरे ते आंवत।
लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहितो मेरे कवित्त बनावत।
घनानंद के अनुसार कविकर्म की सफलता संवेदना की तीव्रता में निहित है। इस अवस्था में बुद्धि की क्रिया गौण और मोहन वृत्ति (रीझ) की क्रिया मुख्य बन जाती है। प्रतीकात्मक शैली में कवि ने कहा है कि रूप सेनापति की भांति जब सज बजकर खड़ा होता है तो दृष्टा का धैर्य गढ़पति की भांति गढ़ छोड़ कर भाग जाता है। नेत्रा सेनापति से ही मिल जाते हैं। लज्जा लुट जाती है, प्रेम की दुहार्इ फिरने लगती है। रीझ अर्थात मोहनवृत्ति पटरानी बन जाती है और बेचारी बुद्धि दासी बनकर रह जाती है।
रूप चमूय सज्यौ दल देखि भज्यौ तजि देसहि धीर मवासी।
नैन मिले उरके पुर पैठते बाज लुटी न छुटी तिनका सी।
प्रेम दुहार्इ फिरी घन आनंद बांधि लिये कुलनेम गुढ़ासी।
रीझ सुजान सची पटरानी बची बुधि बापरी है कर दासी।
घनानंद का जीवनवृत्त निशिचत रूप में तो अज्ञात ही है। किंवदंती के सहारे इस विषय में कुछ कहा जाता है। लेकिन इतना निशिचत है कि कवि अपने जीवन काल में सुखी नहीं रहा। वह भीतर-भीतर जलता बुझता रहा। उसे सुजान के वियोग और संयोग दोनों ने कभी छोड़ा ही नहीं। व्यथा में समय बिताना कठिन हो गया। कवि खीझकर कहता है कि ऐसे प्राणी को जन्म देकर विधाता ने क्या लाभ कमा लिया।
कहियै काहि जलाय हाय जो मो मधि बीतै।
जरनि बुझै दुख जाल धकौं, निसि बासर ही तैं।
दुसह सुजान वियोग बसौं के संजोग नित।
बहरि परै नहिं समै गमै जियरा जितको तित।
अहो दर्इ रचना निरखि रीझि खीझि मुरझैं सुमन।
ऐसी विरचि विरचिको कहा सरयौ आनंद धनÏ
एक कवित्त में कवि ने सुजान के वियोग में मृत्यु प्राप्त होने का वर्णन भी किया है। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण में घनानंद ने जब प्राण त्यागे तब भी उन्हें सुजान की सुधि नहीं भूली। वह प्रतीक रूप में निर्दिष्ट है अथवा यथार्थ रूप में पर प्रेमी के जीवन की संध्या का âदयस्पर्शी वर्णन है-
बहुत दिनानके अवधि आस-पास परे
खरे अरवरनि भरे हैं उठि जान को
कहि कहि आवन संदेसौ मन भावन को
गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को
झूठी बतियानि की पत्यानि तै उदास àवै कें
अब न धिरत घन आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान
चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को।
ऐसा दुखी पीडि़त जीवन, पीड़ा प्रधान काव्य का ही प्रणेता हो सकता है। वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान। पीड़ा मार्मिक अनुभूति को जन्म देती है। मार्मिक अनुभूति अपनी अभिव्यकित के लिए अपना ही नया मार्ग खोज लेती है। घनानंद की कविता निजी अनुभूति की निजी अभिव्यकित है। उनकी कविता का प्रधान स्वर वेदना का है। एक कविता में उन्होंने अपनी कविता की सामान्य विशेषता की ओर इंगित किया है।
मरम भिदै न जौ लौं करम न पावै तौलों,
मरमहिं भेदै कैसें सुरनि धोइयौ।
राग हीते राग के सरूपसों चिन्हारि लेति,
मैन हीन काननि असूझ टकटोइबौ।
अकथ कथा है क्यों बखानियै अथा है तान,
ब्यौरिबौ कथा है बादि औसरहि खोइबौ।
प्रेम आगि जागें लागैझर, घन आनंद को,
रोइबौन आवै तौ पैगाइबौ हूरोइबौÏ
घनानंद का काव्य उनकी आत्मानुभूति की अभिव्यकित है। उन्होंने सुजान के संयोग का सुख भोगा था और बाद में उसके वियोग की वेदना को भी सहा। इन दोनों दशाओं की गहरे में अनुभूति प्राप्त की थी। उसी को कवि ने काव्य निबद्ध कर दिया। जोग वियोग की रीति में क्योंकि घनानंद की चेतना अत्यधिक संवेदना प्रधान है। इसलिए जीवन के खटटे मीठे अनुभव उनके âदय के गहरे में बैठ जाते हैं। यह कहना कठिन है कि उनकी वण्र्य वस्तु अत्यधिक प्रभविष्णु है या उनकी अनुभूति ही विशेष रूप से भावुकता प्रवण है। प्रेयसी सुजान का चित्रा रूपायित करते हुए कवि कह उठता है कि उसकी आंखों में सुजान के रूप के विविध रंगों से चित्रा बन जाता है। यह निर्णय करना कठिन है कि यह रूप की विचित्राता है या देखने वाले की विलक्षणता।
हंसनि लसनि आछी बोलनि चितौनि चाल,
मूरति रसाल रोमरोम छवि हेरे की।
अंग अंग आभा संग द्र्रवित स्रंवित àवैै कै,
रुचि रुचि लीनी सौंज रंगनि घनेरे की।
लिखिराख्यौ चित्रायौं प्रवाह रूपी नैननि पै,
लही न परति गति उलटि अनेरे की।
रूप कौ चरित्रा है आनंद घन जान प्यारी,
अकि धौं विचित्रातार्इ मोचित चितेरे की।
रीति परंपरा के कवियों ने साहित्यशास्त्रा की नायिका का वर्णन किया है किसी देखी भाली, मन में बैठी सुंदरी का नहीं। घनानंद इसके विपरीत अपनी प्रेयसी के चितेरे हैं, उन्होंने सुजान के रूप, चेष्टाओं, स्वभावगत, हाव-भाव, अलंकरण, नृत्य, शयन, गायन, मदिरापान आदि का विवरण सहित वर्णन किया है। यह सब कवि की स्वानुभूति है।
सोकर उठी अलसायी सुजान का एक चित्रा नीचे लिखे सवैया में देखने लायक है।
रस आरस सोय उठी कछु भोय लगी लसैं पीक पगी पलकैं,
घन आनंद ओप बढ़ी मुख और सुझेलि फबीं सुथरी अलकैं।
अंग राति जम्हाति लजाति लखैं, अंग-अंग अनंग दिपैं झलकें।
अपरानि में आधियैं बात धरैं लड़कानि की आनि परी छलकैं।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता हैे कि घनानंद ने समय की परिधि में बंधे अपने जीवन का काव्य लिखा है, शास्त्राीय नियम उपनियमों का बखान नहीं किया। यही उनकी स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति है।
घनानंद के विषय में यह भी किंवदंती है कि वे फारसी के भी जानकार थे, यधपि उनकी भाषा में फारसी या उदर्ू का प्रभाव नहीं के बराबर है। पर अनुभूति प्रधान प्रेम को काव्य का मुख्य विषय बनाने में और उसे रहस्यवादी एवं व्यंजक बनाने में कवि ने फारसी की काव्य शैली से प्रेरणा ली।
अन्य कवियों की भांति घनानंद भी अपने समय के आलोचक हैं, उनके समय में भी सामान्यत: लोग निष्ठुर, âदयहीन और आत्मपरक थे। उनका स्वयं से ही प्यार था। अत: घनानंद का प्रेम विषम हो गया। यह उस समय के समाज की विषम गति का व्यंजक है। फारसी में प्रेम प्रतीक रूप में वर्णित होता है। वह व्यंजना द्वारा जीवन के समस्त सुख दु:खों का व्यंजक बनता है। घनानंद ने भी इस व्यंजकता का पुट अपनी अभिव्यकित में दिया है। उनकी उकित में जो स्थान-स्थान पर मार्मिकता और विषमता प्रतीत होती है। वह प्रेम Üाृंगार के कारण ही नहीं जीवन के व्यापक रूप की पीड़ा और अभाव उसमें झलकते हैं। एक स्थान पर उन्होंने कहा है कि यह संसार मनुष्यों का जंगल है इसमें मानव का मिलना दुर्लभ है। मानव रूप में भेडि़ये स्यार बहुत हंै। ऐसी दुनिया में रहने वाले प्रेमी स्वभाव के व्यकित को पीड़ा ही प्राप्त हो सकती है घनानंद की कविता में जो पीड़ा का प्राधान्य है उसका कारण पतनशील सामंतशाही का विषम जीवन भी है। नीचे लिखे सवैये में कवि की इसी मानसिकता की झलक मिलती है।
लै ही रहे हौ सदा मन और कौ, दैबौ न जानत जानदुलारे।
देख्यौ न है सपने हूं कहूं दुखं, त्यागे सकोच औ सोच सुखारे।
कैसौ संयोग वियोग धौ आहि, फिरौ घन आनंद àवै मतवारे।
मो गति बूझि परै तबहि जब होहु घरीक लौ आपु ते न्यारे।
प्रेमानुभूति की अध्यात्मपरक रहस्यवादी अभिव्यकित की घनानंद ने सूफियों या उदर्ू-फारसी के अध्यात्मवादी कवियों की प्रेरणा से प्राप्त प्रतीत होती है। हिंदी साहित्य के लिए यह एक सुयोग ही था कि यहां उदर्ू-फारसी का भिन्न स्वभाव का वा³मय लिखा जा रहा था। उसके सदगुणों को पचा लेना हिंदी के स्वास्थ्य के लिए अच्छा ही होता। कवि शास्त्राोन्मुख न होकर आत्मोन्मुख होते। आधुनिक युग में छायावाद और उसके बाद के हिंदी साहित्य ने पशिचमी साहित्य से प्रेरणा लेकर अपना रूप विकसित किया है। घनानंद ने इस सौष्ठव को प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया। उसे पचा कर भारतीय संस्Ñति और ब्रजभाषा के रूप में व्यक्त किया। रीझ पचाय के डौलते भूखे।
उदर्ू साहित्य में दैनिक बोलचाल की भाषा में âदय की अनुभूतियों को चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया जाता है। उकित में बारीकी और मुहावरों का प्रयोग उसकी अभिव्यकित को जीवंत बनाये रहता है। घनानंद की अभिव्यकित और अनुभूति में भी यह प्रेरणा झलकती है। लेकिन यह प्रेरणा ही है अनुकरण नहीं। रीति काल के अन्य सभी कवियों ने उदर्ू फारसी के शब्दों का प्रयोग किया है पर घनानंद की भाषा विशुद्ध ब्रजी है। लक्षणा और मुहावरों के कारण उसकी अभिव्यंजना शकित बढ़ा ली गर्इ है। इस दिशा में घनानंद ब्रज भाषा के अकेले ही Ñती कवि हैं। उन जैसा सूक्ष्म अनुभविता और अपनी ही भाषा का अनोखा खिलाड़ी रीतिकाल क्या समस्त ब्रजभाषा के इतिहास में दूसरा कवि नहीं है। रहस्यवादी व्यंजना से युक्त सरल ब्रजभाषा की प्रेमाभिव्यकित नीचे लिखे सवैया में ध्यान देने योग्य है।
मंतरमें उर अंतर मैं सुलहै नहिं क्यों सुखरासि निरंतर,
दंतर हैं गहे आँगुरी ते जो वियोग के तेह तचे पर तंतर,
जो दुख देखति हौं घन आनंद रैनि-दिना बिन जान सुतंतर
जानैं बेर्इ दिनराति बखाने ते जाय परै दिनराति कौ अंतर।
पध की पहली पंकित की अभिव्यकित रहस्यवादी है। दंतर है गहे आंगुरी, जाय परै दिनराति कौ अंतर में लोकोकित और मुहावरे जानै वेर्इ दिनराति में लक्षणा है। यह सब कवि के प्रयोग विधान की क्षमता का फल है। घनानंद अपनी अनुभूति को व्यक्त करने के लिए किसी का ऋणी होना नहीं चाहता। वह अपनी ही दौलत का सुप्रयोग करना जानता है। इस विशेषता की दृषिट से रीतिकाल के इतिहास में घनानंद का स्थान बहुत ऊंचा है। वह ब्रजभाषा प्रवीन तो हैं ही भाषा प्रवीन भी हैं। भाषा के स्वानुरूप प्रयोग करने में समर्थ।
रूप निधान सुजान ..... मनमोहन-मोह के तारे।।
Ashtchhap ka Ashish
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Ashtchhap ka ashay
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