राजा का पद सवाँच्च था। वह दिग्विजय की उपाधि धारण करता था। विजयनगर-साम्राज्य में धीरे-धीरे एक केन्द्रमुखी शासन का विकास हुआ, जिसकी सभी शाखाएँ सावधानी से संगठित थीं। इसमें सन्देह नहीं कि जैसा काम इसके शासकों ने अपने ऊपर लिया था उसके लिए उन्हें एक प्रबल सेना रखना तथा सैनिक आक्रमण भी करना पड़ा, पर उनके राज्य का वर्णन शक्ति पर आधारित मुख्यतः सैनिक राज्य के रूप में करना तथा उसे एक ऐसा संगठन, जिसमें “विकास का कोई सिद्धांत न था,......मानव-प्रगति का कोई आदर्श न था और इसलिए टिकाऊपन न आ सका, कहकर उसे कलंकित करना है, जैसा कि एक आधुनिक लेखक ने किया है, सही नहीं मालूम पड़ता। सच बात तो यह है कि साम्राज्य-विस्तार के साथ इसके शासकों ने शासन का संगठन इस कार्यक्षमता से किया कि जिससे युद्धकाल में फैली हुई अव्यवस्था का अन्त हो गया तथा विभिन्न क्षेत्रों में शान्तिपूर्ण कार्य करना सुगम हो गया।
अन्य मध्यकालीन सरकारों की तरह, विजयनगर-राज्य में राजा समस्त शक्ति का स्रोत था। वह नागरिक, सैनिक तथा न्याय-सम्बन्धी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था तथा प्राय: सामाजिक झगड़ों को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप भी किया करता था। पर वह अनुत्तरदायी निरंकुश शासक नहीं था, जो राज्य के हितों की अवहेलना करता और लोगों के अधिकारों एवं इच्छाओं की उपेक्षा करता । विजयनगर के राजा लोगों की सद्भावना प्राप्त करना जानते थे। अपनी उदार नीति से उन्हेने राज्य में शान्ति एवं समृद्धि लाने में सहायता दी। कृष्णदेवराय अपनी आमुक्तमाल्यदा में लिखता है कि एक मूर्धाभिषिक्त राजा को सर्वदा धर्म की दृष्टि में रखकर शासन करना चाहिए। वह आगे कहता है कि राजा को अपने पास राजकाज में कुशल लोगों को एकत्रित कर राज्य करना चाहिए, अपने राज्य में बहुमूल्य धातुएँ देने वाली खानों का पता लगाकर (उनसे) धातुओं को निकालना चाहिए, अपने लोगों से परिमित रूप में कर वसूल करना चाहिए, मैत्रीपूर्ण होना चाहिए, अपनी प्रत्येक प्रजा की रक्षा करनी चाहिए, उनमें जाति-मिश्रण का अन्तर कर देना चाहिए, सर्वदा ब्राह्मणों का गुणवद्धन करने का प्रयत्न करना चाहिए, अपने दुर्ग को प्रबल बनाना चाहिए और अवांछनीय वस्तुओं की वृद्धि को कम करना चाहिए तथा अपने नगरों को शुद्ध रखने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए।
शासन के कार्य में राजा द्वारा नियुक्त एक मंत्रिपरिषद् उसकी सहायता करती थी। इसमें 20 सदस्य होते थे। मंत्रियों की बैठक एक हॉल में होती थी जिसे वेंकटविलासमानप कहा जाता था। प्रधानमंत्री को प्रधानी एवं मत्रियों को दण्डनायक कहा जाता था। यद्यपि ब्राह्मणों को शासन में ऊँचे पद प्राप्त थे तथा उनका काफी प्रभाव था तथा मंत्री केवल उनके वर्ग से ही नहीं, बल्कि क्षत्रियों एवं वैश्यों के वगों से भी भर्ती किये जाते थे। मंत्री का पद कभी-कभी वंशानुगत तथा कभी-कभी चुनाव पर निर्भर था। राजा परिषद् के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था। कभी-कभी महत्त्वपूर्ण मंत्रियों को भी दण्डित किया जाता था। जब सालुवतिम्मा पर युवराज की हत्या का शक हुआ तो कृष्णदेवराय द्वारा उसे दण्ड दिया गया। अब्दुर्रज्जाक तथा नूनिज दोनों ही एक प्रकार के सचिवालय के अस्तित्व की ओर संकेत करते हैं जिसमें रायसम (सचिव) एवं कर्णिम (लेखापाल) होते थे। रायसम नामक अधिकारी राजा के मौखिक आदेशों को अभिलेखित करता था। राज्य व्यवस्था सप्तांग विचारधारा पर आधारित थी। मंत्रियों के अतिरिक्त राज्य के अन्य अधिकारी थे- प्रमुख कोषाध्यक्ष, जवाहरात के संरक्षक, राज्य के व्यापारिक हित की रक्षा करने वाला अधिकारी, पुलिस का अधिकारी जिसका काम अपराधों को रोकना तथा नगर में व्यवस्था बनाये रखना था, अश्व का प्रमुख अध्यक्ष तथा अन्य छोटे अधिकारी, जैसे राजा के स्तुति-गायक भाट, तांबूल-वाही अथवा राजा के व्यक्तिगत सेवक, दिनपत्री प्रस्तुत करने वाले, नक्काशी करने वाले तथा अभिलेखों के रचयिता।
विजयनगर के राजा अत्याधिक धन व्यय कर राजधानी में एक शानदार दरबार रखते थे। इसमें सरदार, पुरोहित, साहित्यिक, ज्योतिषी तथा गायक उपस्थित होते थे। त्यौहार बड़ी शान-शौकत से मनाये जाते थे।
साम्राज्य शासन सम्बन्धी कार्यों के लिए अनेक प्रान्तों (राज्य, मंडल, चावडी) में बाँट दिया गया था। इनके भी छोटे-छोटे भाग थे, जिनके नाम कर्णाटक अंश में वेण्ठे, नाडु, सीम, ग्राम एवं स्थल तथा तमिल अंश में कोट्टम, परं, नाडु एवं ग्राम थे। संपूर्ण साम्राज्य का विभाजन निम्नलिखित रूप में हुआ था-प्रांत (मंडल) या राय्या मॉडलम, जिला-वलनाडु, तहसील-स्थल, पचास ग्राम-मेलग्राम, गाँव-उर। साम्राज्य के प्रान्तों की ठीक-ठीक संख्या बतालाना कठिन है। कुछ लेखक पीज पर भरोसा कर लिखते हैं कि साम्राज्य दो सौ प्रान्तों में विभक्त था। पर विदेशी यात्री ने स्पष्ट रूप से कर देने वाले राजाओं को प्रान्तीय राजप्रतिनिधि समझ लिया है तथा इन्हें छोटे सरदार समझ लिया है, जो सरकार में अधिकारी-मात्र थे। एच. कृष्ण शास्त्री के मतानुसार साम्राज्य छ: प्रमुख प्रान्तों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त एक राजप्रतिनिधि अथवा नायक के अधीन था, जो राजपरिवार का सदस्य अथवा राज्य का प्रभावशाली सरदार अथवा पुराने शासक परिवारों का कोई वंशज हो सकता था। प्रत्येक राजप्रतिनिधि अपने अधिकार क्षेत्र में नागरिक, सैनिक तथा न्याय-सम्बन्धी शक्तियों का उपयोग किया करता था, पर उसे केन्द्रीय सरकार को अपने प्रांत की आय तथा व्यय का नियमित हिसाब पेश करना पड़ता था तथा आवश्यकता पड़ने पर उसे (केंद्रीय सरकार को) सैनिक सहायता भी देनी पड़ती थी। यदि वह विश्वासघाती सिद्ध होता अथवा लोगों को सताता, तो राजा द्वारा कठोर दंड का भागी बनता था। यदि वह अपनी आय का तिहाई भाग राज्य (केंद्र) के पास नहीं भेजता, तो राज्य (केंद्र) उसकी जायदाद जब्त कर सकता था। यद्यपि नायक साधारणतया लोगों से राजस्व इकट्ठा करने में कठोर होते थे पर वे खेती को प्रोत्साहन देने, नये गाँव स्थापित करने, धर्म की रक्षा करने तथा मंदिर और अन्य भवन बनवाने जैसे परोपकारी काम करने में असावधान नहीं थे। पर दक्षिणी भारत में सत्रहवीं एवं अठारहवीं सदियों में, जब कि विजयनगर की शक्ति सर्वदा के लिए गायब हो चुकी थी, जो अव्यवस्था फैली उसके लिए वे स्वयं उत्तरदायी थे।
विजयनगर के शासकों ने अपने पूर्वगामियों से एक स्वस्थ एवं प्रबल स्थानीय शासन-प्रणाली पायी तथा उसको बनाये रखा। इसकी निम्नतम इकाई गाँव था। प्रत्येक गाँव स्वत: पूर्ण इकाई था। उत्तर भारत की पंचायत के समान, यहाँ ग्राम-सभा, अपने वंशानुगत अधिकारियों द्वारा, अपने अधीन क्षेत्र का कार्यपालिका सम्बन्धी, न्याय-सम्बन्धी एवं पुलिस-सम्बन्धी प्रशासन कराया करती थी। ये वंशानुगत अधिकारी सेनतेओवा (गाँव का हिसाब रखने वाला), तलर (गाँव का पहरेदार अथवा कोतवाल), बेगरा बलपूर्वक परिश्रम लेने का अधीक्षक तथा अन्य होते थे। गाँव के इन अधिकारियों का वेतन भूमि के रूप में अथवा कृषि की उपज के एक अंश के रूप में दिया जाता था। ऐसा जान पड़ता है कि व्यापारिक दलों अथवा निगमों के नेता ग्राम-सभाओं का एक अविच्छिन्न अंग बन गये थे। राजा महानायकाचार्य नामक अपने अधिकारी के द्वारा गाँव के शासन से अपना सम्बन्ध बनाये रखता था जो इसकी सामान्य देखभाल किया करते थे।
शिष्ट नामक भूमिकर विजयनगर राज्य की आय का प्रमुख साधन था। अठवने नामक विभाग के अधीन इसकी भूमि शासन की प्रणाली सुव्यवस्थित थी। कर लगाने के उद्देश्य से भूमि को 3 वर्गों में बांटा गया था- भीगी जमीन, सूखी जमीन, बाग एवं जंगल। रैयतों द्वारा दिया जाने वाला कर स्पष्ट रूप से बतला दिया जाता था। राज्य के भारी खर्चो के लिए तथा शत्रुओं का सामना करने के उद्देश्य से अधिक धन-जन पाने की समस्या हल करने के लिए विजयनगर के सम्राटों ने परम्परागत दर-उपज के छठे हिस्से-को छोड़कर कर की दर कुछ बढ़ा दी। नूनिज का यह कथन स्वीकार करना कठिन है कि किसानों को अपनी उपज का दसवाँ भाग देना पड़ता था। विजयनगर के शासकों ने पार्थक्य-सूचक कर के सिद्धान्त को अपनाया, अर्थात् उन्होंने भूमि की तुलनात्मक उपज पर कर निर्धारित किया। भूमि-कर के अतिरिक्त रैयतों को अन्य प्रकार के कर देने पड़ते थे, जैसे चारा-कर, विवाह-कर इत्यादि। राज्य की आय के अन्य साधन थे चुंगी से राजस्व, सड़कों पर कर, बाग एवं वृक्ष लगाने से राजस्व तथा साधारण उपभोग की वस्तुओं का व्यापार करने वालों, माल तैयार करने वालों एवं कारीगरों, कुम्हारों, रजकों, चर्मकारों, नापितों, भिखारियों, मंदिरों एवं पर कर। कर मुद्रा एवं अनाज दोनों में दिये जाते थे, जैसा कि चोलों के समय में होता था।
इसमें सन्देह नहीं कि कर का बोझ भारी था तथा प्रान्तीय शासक एवं राजस्व-अधिकारी प्रायः लोगों पर जुल्म ढाया करते थे। पर साथ ही ऐसे भी दृष्टान्त हैं, जिनसे यह दीखता है कि सरकार अपने पास शिकायत होने पर लोगों की पीड़ा का कारण दूर करती थी, कभी-कभी कर घटा देती या छोड़ देती थी तथा आवश्यकता पड़ने पर लोग सीधे राजा के पास अपील (निवेदन) कर सकते थे। निश्चय ही साम्राज्य बलपूर्वक कर ऐंठने और जुल्म की क्रमबद्ध नीति पर लगभग तीन सदियों तक नहीं टिक सकता था।
नायंकर व्यवस्था- विजयनगर साम्राज्य की विशिष्ट व्यवस्था नायंकर व्यवस्था थी। साम्राज्य की समस्त भूमि तीन भागों में विभाजित थी।
पुर्तगाली लेखक नूनिज और पायस ने नायंकर व्यवस्था का अध्ययन किया है। उनके विचार में नायक बड़े-बड़े सामंत होते थे। इन नायकों को केन्द्र में दो प्रकार के संपर्क अधिकारी रखने पड़ते थे। इनमें से एक अधिकारी राजधानी में स्थित नायक की सेना का सेनापति होता था और दूसरा सम्बन्धित नायक का प्रशासनिक एजेण्ट होता था, जिसे स्थानापति कहा जाता था। आगे चलकर नायंकार व्यवस्था के कारण विजयनगर साम्राज्य कमजोर पड़ गया। नायकों पर नियंत्रण के लिए महामंडेलेश्वर या विशेष कमिश्नरों की नियुक्ति की जाती थी। पहली बार इसकी नियुक्ति अच्युतदेवराय के समय हुई।
आयंगार-व्यवस्था- आयंगर व्यवस्था ग्रामीण प्रशासन से जुड़ी व्यवस्था है। अब गाँव में चोल काल की स्थानीय स्वायत्त शासन की परम्परा कमजोर पड गयी और वास्तविक शक्ति 12 ग्रामीण अधिकारियों के हाथों में चली गयी। ये प्रशासनिक अधिकारी आयंगर कहलाते थे। इनका पद पैतृक या वंशानुगत होता था। इन अधिकारियों के पदों की खरीद-बिक्री भी होती थी। इनका वेतन भूमि के रूप में या कृषि की उपज के एक अंश के रूप में दिया जाता था। इस प्रकार आयंगर प्रशासनिक अधिकारियों का सामूहिक नाम था। इन अधिकारियों में निम्नलिखित प्रमुख थे-
क्षेत्र में राजा का प्रतिनिधि परिपत्यागार नामक अधिकारी होता था। अत्रिमार नामक अधिकारी ग्रामीण सभा की कार्यवाहियों को नियंत्रित करता था। नट्टनायकार नामक अधिकारी नाडु का अध्यक्ष होता था।
राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था, पर न्याय के शासन के लिए सुव्यवस्थित न्यायालय तथा विशेष न्याय-सम्बन्धी अधिकारी थे। कभी-कभी स्थानीय संस्थाओं की सहकारिता से राज्य के अधिकारी झगड़ों को सुलझा लेते थे। देश का एकमात्र कानून ब्राह्मणों का कानून जो पुरोहितों का कानून है नहीं था, जैसा कि नूनिज हमें विश्वास करने को कहता है बल्कि यह परम्परागत नियमों एवं रिवाजों पर आधारित था तथा देश की वैधानिक रीति द्वारा सबल किया हुआ था। इसका पालन दृढ़ता से करवाया जाता था। अपराधियों को कड़ी सजा मिलती थी। ये दण्ड मुख्यत: चार प्रकार के थे- जुर्माना, सम्पत्ति की जब्ती, दैवी परीक्षा एवं मृत्यु चोरी, व्यभिचार एवं राजद्रोह- जैसे अपराधों का दण्ड था मृत्यु अथवा अंगभंग होता था। कभी-कभी अपराधियों को हाथी के पैरों के सामने फेंक दिया जाता था ताकि वे उसके घुटनों, सूड एवं दाँतों से मार डाले जाएँ। न्याय के क्षेत्र में सरकार या अधिकारियों की ओर से जुल्म होना भी पाया जाता था पर कभी-कभी राज्य इसका प्रतिकार करता था तथा यह कभी-कभी स्थानीय संस्थाओं (निकाय) के सम्मिलित विरोध से भी सफलतापूर्वक रोका जाता था।
होयसालों की तरह विजयनगर के राजाओं का भी सैनिक विभाग सावधानी से संगठित था, जिसका नाम कन्दाचार था। यह दण्डनायक अथवा दन्नायक (प्रधान सेनापति) के नियंत्रण में था, जिसकी सहायता छोटे-छोटे अधिकारियों का समूह करता था। राज्य में एक विशाल एवं कार्यक्षम सेना थी, जिसकी संख्या सर्वदा एक-सी नहीं रहती थी। राजा की स्थायी फौज में आवश्यकता के समय जागीरदारों तथा सरदारों की सहायक सेना सम्मिलित कर ली जाती थी। सेना के विभिन्न अंग थे-पदाति, जिसमें भिन्न-भिन्न वर्गों एवं धमाँ के लोग (यहाँ तक कि कभी-कभी मुसलमान भी) लिये जाते थे; अश्वारोही सेना को पुर्तगीजों के द्वारा ओरमुज से अच्छे अश्व लेकर सबल बनाया जाता था, क्योंकि साम्राज्य में इन जानवरों की कमी थी; हाथी ऊँट तथा तोपें, जिनका 1368 ई. में ही हिन्दुओं द्वारा उपयोग किया जाना विदेशी विवरणों तथा अभिलेखों के प्रमाण से सिद्ध है। पर विजयनगर की सेना का अनुशासन तथा लड़ने की शक्ति दक्कन के मुस्लिम राज्यों की सेनाओं से कम थी।
इन सभी व्यवस्थाओं के साथ-साथ विजयनगर साम्राज्य में कुछ दोष थे। प्रथमत: प्रान्तीय शासकों को बहुत स्वतंत्रता थी, जिससे केन्द्रीय शक्ति काफी कमजोर हो गयी तथा अन्त में साम्राज्य का पतन हो गया। द्वितीयत: अनेक सुविधाओं के बावजूद साम्राज्य स्थिरता से व्यापार का विकास करने में असफल रहा। डॉ. आयंगर उचित ही कहते हैं कि यह असफलता विजयनगर के साम्राज्यीय जीवन में एक बड़ा दोष सिद्ध हुई तथा इसने एक स्थायी हिन्दू साम्राज्य असम्भव बना दिया। तृतीयत: अल्पकालीन लाभ के विचार से सम्राटों ने पुर्तगीजों को पश्चिम तट पर बसने दिया तथा इस प्रकार मुनाफे के सिद्धांतों ने उनके साम्राज्य की स्थिरता के महत्तर प्रश्न को कुचल डाला।
Vijayanagar rajya kitne parton mein Banta hua tha
विजयनगर साम्राज्य की शासन व्यवस्था में राज्य को कितने प्रांतों में बांटा गया था
Political of military
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विजयनगर साम्राज्य में राज्य केंद्र किस और विशेष तथा दिसा