- जैन एवं बौद्ध दोनों धर्म-दर्शन श्रमण संस्कृति के परिचायक हैं। इन दोनों में श्रम का महत्त्व अंगीकृत है। ‘श्रमण’ शब्द का प्राकृत एवं पालिभाषा में मूलरूप ‘समण’ शब्द है, जिसके संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में तीन रूप बनते हैं - 1. समन - यह विकारों के शमन एवं शान्ति का सूचक है। 2. समन- यह समताभाव का सूचक है। 3. श्रमण - यह तप, श्रम एवं पुरुषार्थ का सूचक है। श्रमण दर्शनों में ये तीनों विशेषताएँ पायी जाती है।
दोनों धर्मदर्शनों में साम्य- श्रमण संस्कृति के परिचायक ये दोनों धर्म-दर्शन वैदिक कर्मकाण्ड में विश्वास नही रखते, सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानते। वैदिक देवी-देवीताओं को स्वीकार नहीं करते। इन दोनों का विश्वास मनुष्य के पुरुषार्थ पर है। दोनों की मान्यता है कि मनुष्य स्वयं अपने कारणों से दुःखी या सुखी होता है। मनुष्य में ही यह क्षमता है कि वह अपने पुरुषार्थ के द्वारा दुःख-मुक्ति को प्राप्त कर सकता है अथवा नरक के घोर दुःखों को भोग सकता है। ये दर्शन व्यक्ति की दृष्टि को सम्यक बनाने पर बल प्रदान करते हैं। इनमें लौकिक अभ्युदय की अपेक्षा निर्वाण को अधिक महत्त्व दिया गया है। हाँ, लौकिक अभ्युदय यदि निर्वाण में सहायक होता है तो वह स्वीकार्य है। उदाहरण के लिए मनुष्यभव, धर्मश्रवण, शुभविचार आदि लौकिक अभ्युदय निर्वाणप्राप्ति में साधक बन सकते हैं। अतः इनका होना अभीष्ट है। किन्तु आध्यात्मिक उन्नयन से रहित लौकिक अभ्युदय की अभिलाषा धर्मों में प्रतिष्ठित नहीं है। लौकिक अभ्युदय में यशःकीर्ति की आकांक्षा को दोषपूर्ण माना गया है। वैदिकधर्म जहाँ अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को लक्ष्य में रखते हैं तथा धर्म उसे ही कहते हैं जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों की सिद्धि हो, जबकि जैन और बौद्ध धर्म धर्माराधन का लक्ष्य, निःश्रेयस, मोक्ष अथवा निर्वाण को स्वीकार करते हैं।
वर्ण, जाति आदि के आधार पर मानवसमुदाय का विभाजन एवं इन आधारों पर उनको उच्च या निम्न समझना जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों को स्वीकार्य नहीं है। दोनों धर्म-दर्शनों के साहित्य में जातिव्यवस्था का जमकर खण्डन हुआ है तथा धर्म का द्वार सबके लिए समानरूप से खोला गया है। बौद्धग्रन्थ सुत्तनिपात में कहा गया है-
न जच्चा वसलो होति न जच्चा होति ब्राह्मणो।
कम्मुना वसलो होती, कम्मुना होति ब्राह्मणो।।
जैनागम उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है-
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा हवइ खत्तियो।
वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।।3।।
अर्थात् अपने कर्म या आचरण से ही कोई ब्राह्मण होता है, कर्म से ही कोई क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। आदिपुराण में समस्त मनुष्यों की एक ही जाति मानी गई है- मनुष्यजातिरेवैâव। इसीलिए इन दोनों धर्मों में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के व्यक्ति दीक्षित या प्रव्रजित हुए हैं।
इन दोनों धर्मों की एक समानता यह है कि दोनों धर्म के प्रवर्तकों ने अपना उपदेश लोकभाषा में दिया है। तीर्थंकर महावीर ने अपना उपदेश अर्धगामी प्राकृत में दिया है तो बुद्ध ने पालिभाषा में पालिभाषा प्राकृत का ही अंग रही है। इस दृष्टि से ये दोनों धर्म आम लोगों को जोड़ने में सक्षम रहे हैं।
बौद्धपरम्परा में जिस प्रकार भगवान बुद्ध प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद शैली में देते हैं, उसी प्रकार तीर्थंकर महावीर भी आगमों में विभज्यवाद की शैली का प्रयोग करते हैं। विभज्यवाद शैली में प्रश्नों का उत्तर विभक्त करके दिया जाता है। उदाहरण के लिए भगवान महावीर से जयन्ती श्राविका द्वारा प्रश्न किया गया कि मनुष्य का सोना अच्छा है या जागना? प्रभु ने इसका उत्तर देते हुए कहा - जयन्ती जो अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्म से आजीविका चलाने वाले लोग हैं, उनका सुप्त रहना अच्छा है तथा जो धार्मिक हैं, धर्मानुसारी यावत् धर्मपूर्वक आजीविका चलाने वाले हैं, उन जीवों का जागना अच्छा है। गौतम बुद्ध भी इसी प्रकार विभज्यवाद शैली का प्रयोग करते हैं। मज्झिमनिकाय में शुभ माणवक ने प्रश्न किया कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता। इसमें आपका क्या मन्तव्य है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम बुद्ध ने कहा कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है, तो वह निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं होता और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं होता। किन्तु यदि वे दोनों सम्यक प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं तो आराधक होते हैं। गौतम बुद्ध ने इस आधार पर अपने को विभज्यवादी बताया है, एकांशावादी नहीं।
बौद्धदर्शन में मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा नाम से चार ब्रह्मविहार का निरूपण हुआ है। जैनदर्शन में निरूपित मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाएँ बौद्ध धर्म के ब्रह्मविहार के साथ समन्वय स्थापित करती हैं। प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव गुणिजनों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव एवं विपरीत वृत्ति वाले जीवों के प्रति माध्यस्थ्य भाव का प्रतिपादन जैनदर्शन में हुआ है। वीरसेवा मंदिर के संस्थापक पंडित जुगलकिशोर मुख्तार ने इन चार भावनाओं को मेरी भावना में इस प्रकार निबद्ध किया है- मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। दीनदुःखी जीवों पर मेरे उरसे करुणास्रोत बहे। दुर्जन व्रूâर कुमार्ग रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रखूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे।। गुणीजनों को देख हृदय में मेरे उमड़ आवे। बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे।।
बौद्धदर्शन में दो प्रकार के सत्यों का प्रतिपादन हुआ है- 1. व्यवहार और 2. परमार्थ। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन इन दोनों की महत्ता अंगाीकार करते हैं। उनका कथन है- व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थों न देश्यते। परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते।।
अर्थात् व्यवहार का आश्रय लिए बिना परमार्थ को नहीं समझाया जा सकता और परमार्थ को जाने बिना निर्वाण को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए व्यवहार और परमार्थ दोनों दृष्टियों का अपना-अपना महत्त्व है। समयसार ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द भी इसी प्रकार का मंतव्य रखते हैं। उनका कथन है कि जिस प्रकार अनार्य व्यक्ति को अनार्य भाषा का प्रयोग किए बिना नही समझाया जा सकता उसी प्रकार व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश असम्भव है- जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्वंâ।।
बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन कहते हैं कि व्यवहार सत्य उपायभूत होता है तथा परमार्थ सत्य उपेयभूत होता है- उपायभूत व्यवहारसत्यमुपेयभूंतम् । ऐसा ही मन्तव्य आचार्य कुन्दकुन्द का भी है जो उपर्युक्त गाथा से पुष्ट होता है। साम्य भी भेद भी
बौद्धदर्शन में त्रिशरण का महत्त्व अंगीकार किया गया है। वहाँ बुद्ध, धर्म और संघ की शरण का प्रतिपादन है- बुद्ध सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघं सरणं गच्छामि। जैनधर्म में चार शरण का उल्लेख प्राप्त होता है। अरिहन्त की शरण, सिद्धाâी शरण, साधु की शरण और केवलिप्रज्ञप्त धर्म की शरण। मूल पाठ में कहा गया है- अंरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहुसरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि। इन चार शरणों में अरिहंत एवं सिद्ध की शरण के स्थान पर बौद्ध धर्म में बुद्ध की शरण स्वीकार की गई है। साधु एवं संघ की शरण में कोई विशेष भेद नहीं है तथा धर्म की शरण दोनों में समान रूप में स्वीकृत है। मात्र क्रम का भेद है। इसका एक तात्पर्य यह निकलता है कि वे दोनों धर्म किसी अन्य देवी-देवता की शरण ग्रहण करने का कथन या अनुमोदन नहीं करते हैं।
जैनधर्म में साधु-साध्वी के लिए पंच महाव्रतों की तथा गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं के लिए पाँच अणुव्रतों की अवधारणा है। बौद्धधर्म में भी पंचशील का प्रतिपादन हुआ है, जिनमें जैन परम्परा से कुछ भिन्नता है। जैनपरम्परा में जिन पाँच महाव्रतों का प्रतिपादन हुआ है वे हैं- 1. पाणाइवायाओ वेरमणं - प्राणातिपात से विरमण - अहिंसा महाव्रत 2. मुसावायाओ वेरमणं - मृषावाद से विरमण - सत्य महाव्रत 3. अदिन्नादाणाओ वेरमणं - अदत्तादान से विरमण - अचौर्य महाव्रत 4. मेहुणाओ वेरमणं - मैथुनसेवन से विरमण - ब्रह्मचर्य महाव्रत 5. परिग्गहाओ वेरमणं - परिग्रह से विरमण - अपरिग्रह महाव्रत
प्राणातिपात, मृषावाद आदि इन पाँचों का कृत, कारित एवं अनुमोदन के स्तर पर मन, वचन, काया से सर्वथा विरमण होना महाव्रत है तथा अंशतः विरमण होना अणुव्रत है। बौद्धधर्म में पंचशील के अन्तर्गत परिग्रहविरमण के स्थान पर सुरामेरय-मद्यादि के त्याग को स्थान दिया गया है। उन्होंने इन पाँचों का क्रम भी कुछ भिन्न रखा है, यथा-1. प्राणातिपातविरमण 2. अदत्तादानविरमण 3. काम-मिथ्याचार (व्यभिचार) विरमण- यह मैथुनविरमण का पर्यायवाची है। 4. मृषावादविरमण 5. सुरामेरय- मद्यप्रमादस्थानविरमण। श्रामणेरविनय नामक खुद्दकपाठ में इन पंचशीलों को शिक्षापद के रूप में ग्रहण करने का उल्लेख हुआ है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि जैनधर्म में मांस-मदिरा के त्याग को श्रावक एवं साधु बनने की प्राथमिक आवश्यकता माना गया है। जैन आगामों एंव उत्तरवर्ती साहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है। सप्त कुव्यसनों के अन्तर्गत भी जैनासाहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग पर बल दिया गया है। यही नहीं, इनके व्यापार को भी कर्मादान का हेतु होने से बौद्ध धर्म की भांति त्याज्य बताया गया है। जैन दर्शन में परिग्रह-विरमण को महाव्रतों एवं अणुव्रतों में स्थान देकर आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया गया है। पर पदार्थों के प्रति आसक्तिरूप परिग्रह जब तक नहीं छूटता तब तक दुःख मुक्ति संभव नहीं है। यहीं नहीं जब तक पर पदार्थं एवं व्यक्तियों के प्रति आसक्ति भाव है तब तक हिंसादि पापों से भी छुटकारा नहीं मिलता। इसलिए परिग्रह से विरति आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा सामाजिक समरसता भी तभी सम्भव है जब बाह्य परिग्रह की लालसा नियंत्रित हो। परिग्रह की लालसा पर नियंत्रण होने पर बाह्य पदार्थों की उपलब्धता सबके लिए आसान हो सकती है। इसीलिए जैनधर्म में गृहस्थ के लिए भी परिग्रह का परिमाण निर्दिष्ट है।
यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों की संयम-साधना उतने कठोर नियमों में आबद्ध नहीं है, जितनी जैन मुनियों एवं साध्वियों की है। बौद्ध भिक्षु यात्रा में वाहन आदि का उपयोग कर लेते हैं, वे पास में पैसा भी रख सकते हैं, भिक्षा के बिना भी सुविधा से आमंत्रण पर भोजन कर लेते हैं। ब्रह्मचर्य के पालन में भी कठोर नियम न होने से भिक्षुणियों की संयम-साधना पर खतरा उत्पन्न हुआ और उनकी संख्या विलुप्त हो गई है। बौद्ध भिक्षु भिक्षा में प्राप्त मांस का सेवन भी न छोड़ सके। वहीं जैन साधु-साध्वी संयम की पालना में कहीं आगे हैं। कतिपय अपवाद को छोड़कर वे आज पूâटी कौड़ी भी नहीं रखते तथा एषणा समिति के नियमों का पालन करते हुए शुद्ध गवेषाणापूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। मांस-मदिरा के सेवन से जैन साधु-साध्वी कोसों दूर हैं। साधु-साध्वी के पारम्परिक व्यवहार के नियम इतने कठोर हैं कि वे अकेले में कभी मिल बैठकर बात नहीं कर सकते। दिन के निश्चित समय में ही गृहस्थ स्त्रह-पुरुष की उपस्थिति में वे मिल सकते हैं तथा रत्नत्रय की साधना की अभिवृद्धि सम्बन्धी चर्चा कर सकते हैं, विकारवर्धक चर्चा नहीं कर सकते। दिगम्बर मुनि बाह्य परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं तथा श्वेताम्बर साधु लज्जा एवं संयम की रक्षा के लिए सीमित वस्त्र रखते हैं। उन वस्त्रादि पर भी मूच्र्छाभाव का होना उसी प्रकार त्याज्य है, जिस प्रकार शरीर एवं अपने वैचारिक आग्रह के प्रति मूच्र्छाभाव त्याज्य है।
बौद्धदर्शन में दुःखमुक्ति के लिए आष्टांगिक मार्ग का जो प्रतिपादन किया गया है। उसका समावेश जैनदर्शन के त्रिरत्न में हो जाता है। आष्टांगिक मार्ग है- 1. सम्यकदृष्टि 2. सम्यकसंकल्प 3. सम्यकवाचा 4. सम्यककर्मान्त 5. सम्यकआजीव 6. सम्यकव्यायाम 7. सम्यकस्मृति और 8. सम्यकसमाधि। इनमें प्रथम दो को प्रज्ञा, मध्य के तीन को शील एवं अन्तिम तीन को समाधि के अन्तर्गत विभक्त किया जाता है। जैनदर्शन के अनुसार विचार करें तो सम्यकदृष्टि को सम्यकदर्शन के अन्तर्गत एवं सम्यक संकल्प को सम्यकज्ञान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। शेष सम्यकवाचा, सम्यककर्मान्त, सम्यकआजीव, सम्यकव्यायाम, सम्यकस्मृति एवं सम्यकसमाधि को सम्यकचारित्र के अन्तर्गत सन्निविष्ट किया जा सकता है। एक प्रकार से आष्टांगिक मार्ग निर्वाण के मार्ग को विस्तार से प्रस्तुत करता है तथा त्रिरत्न उस मार्ग का संक्षेप में प्रतिपादन करता है।
बौद्धदर्शन में प्रमाण दो प्रकार का मान्य है- 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान। प्रत्यक्ष प्रमाण निर्विकल्प ज्ञानात्मक होता है तथा अनुमान प्रमाण सविकल्प ज्ञानात्मक। प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण अर्थ होता है तथा अनुमान प्रमाण का विषय सामान्य लक्षण प्रमेय होता है। इस प्रकार बौद्धदर्शन में प्रमाणों के प्रथक-पृथक प्रमेय स्वीकार किए गए हैं। जबकि जैनदर्शन में प्रमेय का स्वरूप एक ही प्रकार का स्वीकार किया गया है और वह सामान्य-विशेषात्मक कहा गया है। उसे ही द्रव्यपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक अथवा नित्यानित्यात्मक कहा जाता है। प्रमाण दो प्रकार के मान्य हैं- 1.प्रत्यक्ष 2. परोक्ष। इनमे परोक्ष प्रमाण के भट्ट अकलड्क एवं उत्तरवर्ती आचार्यों ने पाँच भेद स्वीकार किए हैं- 1. स्मृति 2. प्रत्यभिज्ञान 3. तर्वâ 4. अनुमान एवं 5. आगम प्रमाण। बौद्ध दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्वâ को प्रमाण नहीं मानते हैं तथा आगम प्रमाण का भी वे अनुमान प्रमाण में ही समावेश कर लेते हैं। बौद्धधर्म का वैशिष्ट्य-
बौद्धधर्म का उद्भव यद्यपि जैनधर्म की भाँति भारतीय भूभाग पर हुआ, तथापि बौद्ध भिक्षुओं की प्रचारात्मक दृष्टि के कारण यह धर्म आज एशिया के चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, श्रीलंका, भूटान, बर्मा आदि विभिन्न देशों में व्याप्त है तथा अरबों की संख्या में इसके अनुयायी हैं। यूरोप एवं अमेरिकी देशों में भी यह धर्म निरन्तर प्रसार पा रहा है। प्रसार का आधार हिंसात्मक साधन नहीं, अपितु करुणा, मैत्री एवं मानवता के अहिंसात्मक सिद्धान्त हैं। ईसाई एवं इस्लाम धर्म के पश्चात् विश्व में सर्वाधिक अनुयायी बौद्धधर्म के माने जाते हैं।
जैनधर्म भारतीय धरा पर सुरक्षित रहा, यहाँ पूर्व से उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तक पहुँचा, किन्तु विदेशों में अपने अनुयायी न बना सका। इसके अनेक कारण संभव हैं- (1) जैन श्रमण-श्रमणियों की आचारसंहिता अत्यन्त कठोर है जो उन्हें वाहनों द्वारा विदेशी यात्रा के लिए अनुमति प्रदान नहीं करती। (2) जैनधर्म अपनी उदार एवं अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण भारतीय वैदिक परम्पराओं के साथ समन्वय बिठाने में सक्षम रहा, अतः उसके समक्ष ऐसी कोई विवशता नहीं रही कि उसे यहाँ से पलायन करना पड़े। बौद्ध भिक्षुओं को भारत से पलायन करना पड़ा था। जैन धर्मावलम्बी आज अनेक देशों में रह रहे हैं, किन्तु वे मूलतः भारतीय हैं। जो कोई विद्वान अथवा समणी विदेश में धर्मोंपदेश करते हैं वे भी रह रहे भारतीय मूल के जैनों को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं। बौद्धधर्म भारत में पुनः प्रसार पा रहा है। बीसवीं सदी में डॉ. भीमराव अम्बेडकर स्वयं बौद्ध बने तथा भारतीय दलितवर्ग को विशाल स्तर पर बौद्धधर्म से जोड़ा। इक्कीसवीं सदी में अनेक विश्वविद्यालयों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की योजना के अन्तर्गत बौद्ध अध्ययन केन्द्रों की स्थापना हो रही है।
बुद्ध की वाणी जितनी मूलरूप में सुरक्षित रही है, उतनी महावीर की वाणी सुरक्षित नहीं रह सकी। बुद्ध की वाणी के संरक्षण हेतु चार माह में प्रथम संगीति हो गई थी, जबकि महावीर की वाणी के संरक्षण हेतु उनके निर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् प्रथम वाचना हुई । अभी विपश्यना विशोधन विन्यास, इगतपुरी में त्रिपिटकसाहित्य के 140 भाग प्रकाशित हुए हैं, जिनमें अट्ठकथा आदि व्याख्यासाहित्य भी सम्मिलित है। सम्पूर्ण त्रिपिटकसाहित्य पालिभाषा में लिखा गया है। महायान परम्परा का बौद्ध साहित्य संस्कृत में लिखा गया है। संस्कृत में लिखित बौद्ध साहित्य का बहुभाग चीनी, तिब्बती आदि भाषाओं में अनुदित हुआ। उसका बहुत अंश संस्कृत में आज भी अप्राप्य बना हुआ है।
बौद्धदर्शन में करुणा का विशेष प्रतिपादन हुआ है। महायान बौद्ध में महाकरुणा के रूप में करुणा को व्यापकता प्रदान करता है। वहाँ माना गया है कि बोधिसत्त्व में इतना करुणाभाव होता है कि वह संसार के समस्त प्राणियों को दुःखमुक्त करके बाद में स्वयं मुक्त होना चाहता है। यदि मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाये तो बौद्धदर्शन में उसका जैनदर्शन की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म विवेचन हुआ है। बौद्ध मनोविज्ञान में चित्त की विभिन्न दशाओं का विस्तृत वर्णन हुआ है। लोभ, मोह और द्वेष से युक्त चित्त किस प्रकार अनेक दोषों को उत्पन्न करता है तथा उसकी विभिन्न अवस्थाएं किस प्रकार परिवर्तित होती रहती हैं, इसका विवेचन बौद्धग्रन्थों में विस्तार से प्राप्त होता है। चित्त और चैतसिक का विवेचन बौद्धदर्शन का वैशिष्ट्य है। इसमें रागादि चैतसिकों के अनेक भेद प्रतिपादित हैं। जैनधर्म का वैशिष्ट्य -
जैनधर्म दर्शन में प्रभु महावीर के द्वारा उन प्रश्नों का भी समीचीन समाधान किया गया है, जिन्हें बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टाल दिया था। उदाहरण के लिए -लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत? लोक अन्तवान है या अनन्त? जीव और शरीर एक है भिन्न? तथागत देह त्याग के बाद भी विद्यमान रहते हैं या नहीं? इत्यादि प्रश्न बुद्ध के द्वारा अनुत्तरित हैं। वे इन प्रश्नों का उत्तर देना आवश्यक नहीं समझ्ते थे तथा उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के आक्षेप की सम्भावना रहती थी, किन्तु भगवान महावीर ने इन प्रश्नों का भी सम्यक समाधान किया है। उनके समक्ष जब यह प्रश्न आया कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत तो प्रभु ने इसका उत्तर देते हुए फरमाया कि लोक स्यात् शाश्वत है, एवं स्यात् अशाश्वत। त्रिकाल में एक भी समय ऐसा नहीं मिल सकता, जब लोक न हो, अतः लोक शाश्वत है। परन्तु लोक सदा एक सा नहीं रहता। कालक्रम से उसमें उन्नति, अवनति होती रहती है, अतः वह अनित्य और परिवर्तनशील होने के कारण अशाश्वत है।
इसी प्रकार लोक की सान्तता और अनन्तता के संबंध में भी भगवान् महावीर ने भगवतीसूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर उत्तर देते हुए कहा है कि द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है, अतः सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा भी लोक सान्त है, किन्तु काल एवं भाव की अपेक्षा से लोक अनन्त है। काल का कोई अन्त नहीं है। अतः काल की अपेक्षा लोक अनन्त है। भाव की अपेक्षा से भी लोक अनन्त है, क्योंकि धर्मास्तिकायादि षड्द्रव्यात्मक लोक की पर्यांयों का कभी अन्त आने वाला नहीं है। इन द्रव्यों का कभी भी पूर्णतः नाश नहीं होता। इसलिए लोक जैनदर्शन में अनादि-अनन्त हे। जीव और शरीर एक है या भिन्न, इस प्रश्न का समाधान भी जैनदर्शन में उपलब्ध होता है। जीव ज्ञानगुण एवं दर्शनगुण से सम्पन्न होता है, जबकि शरीर औदारिक आदि पुद्गलों से निर्मित होता है। शरीर में चेतना की प्रतीति जीव के कारण होती है। जब तक शरीर के साथ जीव का संयोग रहता है तब तक शरीर में चेतना बनी रहती है। किन्तु शरीर से जीव के पृथक होते ही शरीर जड़ हो जाता है। इसलिए जीव और शरीर परमार्थतः पृथक हैं, किन्तु जीव जीते समय उनका संयोग बना रहता है। भगवतीसूत्र में आत्मा एंव शरीर के भेदाभेद की चर्चा उठायी गई है, जिसका अभिप्राय है कि जब शरीर को आत्मा से पृथक माना जाता है, तब शरीर रूपी एवं सचेतन है। पंडित दलसुख मालवणिया इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं- जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म मे ंमौजूद रहती है, या सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है। अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहापिंडवत् तादात्म्य होता है इसलिए काया से किसी वस्तु का स्पर्शी होने पर आत्मा में संवेदन होता है और कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। देह-त्याग के पश्चात् तथागत रहते हैं या नहीं, इस प्रश्न को जीव की नित्यता या अनित्यता के रूप में समझा जा सकता है। भगवतीसूत्र में इस प्रकार का प्रश्न उठाया गया है कि जीव शाश्वत है या अशाश्वत? इसका उत्तर देते हुए भगवान महावीर कहते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा से जीव शाश्वत है तथा पर्याय की अपेक्षा से जीव अशाश्वत है। इसका तात्पर्य है कि मुक्त जीव भी द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से शाश्वत होते हैं तथा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अशाश्वत होते हैं।
कर्मसिद्धान्त का जितना विस्तृत एवं व्यवस्थित प्रतिपादन जैनदर्शन में प्राप्त होता है उतना बौद्धदर्शन में नहीं मिलता। यह भी कहा जा सकता है कि अन्य सभी भारतीय दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में कर्मसिद्धांत का गूढ़ एवं विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। जैनदर्शन में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय,आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय - इन आठ कर्मों एवं इनकी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन हुआ है। षट्खण्डागम, प्रज्ञापनासूत्र, भगवतीसूत्र, कषायपाहुड़, गोम्मटसार कर्मकाण्ड एवं विभिन्न कर्मग्रन्थों में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। बंधनकरण, उदीरणाकरण, अपकर्षण, उत्कीर्ण, उपशमना, संक्रमण, निधत्त्त, निकाचना आदि करणों का विवेचन जैन ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण रीति से प्राप्त होता है। जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति अपने पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग में भी परिवर्तन कर सकता है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं विधाता है। गुणश्रेणी में चढ़ता हुआ साधक अन्तर्मुहूर्त में अपने कर्मों का क्षय कर सकता है। गुणस्थानसिद्धान्त, लेश्यासिद्धान्त आदि जैनदर्शन के विशिष्ट सिद्धान्त हैं जो उसे बौद्धदर्शन से पृथक प्रतिपादित करते हैं। बौद्ध दर्शन में कर्मसिद्धान्त की चर्चा प्राप्त होती है। वहाँ आलयाविज्ञान में वासनाएँ स्वीाकार की गई हैं जो समय आने पर फल प्रदान करती हैं। जैनदर्शन की भाँति बौद्धदर्शन में कर्म को पौद्गगलिक या अचेतन नहीं माना गया है।
बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया में आस्रव, संवर आदि पारिभाषिक शब्द जिस प्रकार जैनदर्शन में प्रयुक्त हुए हैं उसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी उनका प्रयोग दिखाई देता है। ये शब्द दोनों दर्शनों में लगभग समान अर्थ रखते हैं। जैनदर्शन में पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए तप का विधान है। बौद्धधर्म में तप को कायक्लेश मानकर छोड़ दिया गया, किन्तु जैनदर्शन आत्मानुशासन के लिए तथा पूर्वबद्ध कर्मों को शिथिल एवं निर्जरित करने के लिए बाह्य एवं आभ्यन्तर तप का प्रतिपादन करता है। अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता ये छह बाह्य तप हैं तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृतय, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग ये छह आभ्यन्तर तप हैं। ये दोनों प्रकार के तप मनुष्य को आत्मसंयम के साथ संवर एवं निर्जरा का पथ प्रशस्त करते हैं। तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों के फलभोगकाल एवं फलानुभव में कमी आती है तथा कर्मों की उदीरणा होकर उनकी शीघ्र निर्जरा हो जाती है। स्वाभाविक रूप से उदय में आने वाले कर्मों को समय से पूर्व उदय में लाने की प्रक्रिया उदीरणा कहलाती है। तप के द्वारा यह उदीरणा सम्भव होती है। गहनता से विचार किया जाए तो समभाव की साधना एवं आत्मजय का मार्ग तप के द्वारा प्रशस्त होता है। इसके द्वारा रागद्वेषादि विकार क्षीण होते हैं। जिस तप से विकारों पर विजय प्राप्त न हो तथा अहंकार, क्रोध आदि कषायों की वृद्धि हो, उस तप को जैनदर्शन में अज्ञान तप या बाल तप कहकर हेय माना गया है। अज्ञानपूर्वक किया गया दीर्घकालीन तप कोई अर्थ नहीं रखता। बौद्धदर्शन में जिस तप को कायक्लेश स्वीकार कर हेय माना गया है वह सम्भवतः दीर्घकालीन अनशन तप है। तप के अन्य भेद दुःखमुक्ति की साधना में किसी भी प्रकार से हेय नहीं माने जा सकते। वासना के संस्कार को तोड़ने में तप की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, इससे बौद्ध दर्शन भी असहमत नहीं हो सकता। भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान आदि भेद किसी न किसी रूप में उन्हें भी मान्य ही हैं, भले ही उन्होंने इनका सीधा प्रतिपादन न किया हो।
तीर्थंकर महावीर की वाणी का कुछ अंश जैनागामों के रूप में सुरक्षित है। इन आगमों पर निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका, टब्बा आदि व्याख्यासाहित्य भी लिखा गया है जो जैन साहित्य की विशालता को इंगित करता है। दिगम्बरपरम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि ग्रन्थ सुरक्षित हैं जो पूर्ववर्ती कर्मवाद के अंशरूप में स्वीकार्य हैं। कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, अष्टााहुड़ आदि कृतियाँ आगमवत् मान्य की गई हैं। तिलोयपण्णत्ति, भगवती आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थ भी दिगम्बरपरम्परा की थाती हैं। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान दोनों परम्परा के ग्रन्थों का अध्ययन करें तो जैनपरम्परा की प्रस्तुति अधिक सशक्त रूप हो सकती है। इस दिशा में विद्वानों ने कदम भी आगे बढ़ाये हैं जो स्तुत्य हैं।
अहिंसा का प्रतिपादन यद्यपि जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों में प्राप्त होता है, तथापि जैनधर्म में उसकी विशेष सूक्ष्मता दृष्टिगोचर होती है। जैनदर्शन में पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, जीवों की जो परिकल्पना है, वह बौद्ध दर्शन में दिखाई नहीं देती है। बौद्धन्याय के ग्रन्थों में तो वनस्पति को भी चेतनारहित स्वीकार किया गया है, जबकि विज्ञान ने भी वनस्पति में प्रयोग द्वारा चेतना सिद्ध कर दी है।
जैनदर्शन लोक को वास्तविक प्रतिपादित करता है तथा उसकी समुचित व्याख्या करता है। जैनदर्शन के अनुसार यह लोक पंचास्तिकायात्मक अथवा षड़द्रव्यात्मक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं पुद्गगलास्तिकाय- ये पाँच अस्तिकाय जिसमें हो वह लोक है। इनमें कालद्रव्य को मिलाकर लोक को षड़द्रव्यात्मक भी कहा गया है। बौद्धदर्शन में अस्तिकाय की कोई अवधारणा नहीं है, न ही वहाँ धर्म, अधर्म द्रव्यों की परिकल्पना है। आकाश एवं काल को बौद्धदर्शन भी स्वीकार करता है। जीव को बौद्धदर्शन में चित्त, विज्ञान या पुद्गगल कहा गया है। जैनदर्शन का पुद्गगल वहाँ रूप शब्द से अभिहित है। पुदगल परमाणु का जो सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में प्राप्त होता है वह बौद्धदर्शन में उपलब्ध नहीं है।
जैनदर्शन में ज्ञान एवं दर्शन को जीव का लक्षण स्वीकार करते हुए इन दोनों को पृथक प्रत्ययों के रूप में परिभाषित किया गया है जबकि बौद्धदर्शन में ऐसे दो पृथक प्रत्यय नहीं है। बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेदों में विभक्त करते हैं जबकि जैनदर्शन में दर्शन को निर्विकल्पक एवं ज्ञान को सविकल्पक स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक दर्शन एवं ज्ञान का क्रम स्वीकार करते हैं। दर्शन के पश्चात् ज्ञान एवं ज्ञान के अनन्तर दर्शन का क्रम चलता रहता है। जैनदर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हैं- 1. मतिज्ञान (अभिनिबोधिक ज्ञान) 2. श्रुतज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनःपर्याय ज्ञान एवं 5. केवलज्ञान। बौद्धदर्शन में ज्ञान के इस प्रकार के भेद परिलक्षित नहीं होते हैं। अनेकान्तवाद जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। आचार्य सिद्धसेन ने अनेकान्तवाद की व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता अंगीकार करते हुए कहा है कि अनेकान्तवाद के बिना लोक का व्यवहार नहीं चल सकता- जेण विणा लोगस्स ववहारो वि सव्वहा न निव्वडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमोऽणेगंतवायस्स।।
अनेकान्तवाद में व्यवहार और निश्चय का समन्वय स्थापित किया जाता है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र ने निश्चय नय और व्यवहार नय दोनों की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कहा है- एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण। अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।।
बुद्ध जहाँ शाश्वतवाद और उच्छेदवाद से बचने के लिए मध्यम मार्ग को स्वीकार करते हैं एवं आत्मा के स्वरूप के संबंध में उसकी नित्यता या अनित्यता के प्रतिपादन से बचते हैं वहाँ जैन दर्शन में आत्मा को नित्यानित्यात्मक स्वीकार किया गया है।
बौद्धदर्शन क्षणिकवादी है उसमें सत् या वस्तु उसे कहा गया है जो अर्थक्रियाकारी हो तथा क्षणिक वस्तु ही अर्थक्रिया में समर्थ होती है। उन्होंने नित्य पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व को असंभव बताकर क्षणिक पदार्थ में उसे स्वीकार किया है। जैन दार्शनिक वस्तु को द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से नित्य तथा पयार्यार्थिक नय की दृष्टि से अनित्य स्वीकार करते हैं।
उपसंहार-
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो जैनधर्म (निर्ग्रन्थधर्म) बौद्धधर्म की अपेक्षा प्राचीन है, क्योंकि तीर्थंकर महावीर के पूर्व भी जैन परम्परा में 23 तीर्थंकर हो गए हैं, जिनमें ऋषभदेव, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ आदि तीर्थंकरों के पुष्ट प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
बौद्ध धर्म सौत्रान्तिक, वैभाषिक, माध्यमिक (शून्यवाद) एवं योगाचार (विज्ञानवाद) सम्प्रदायों में विभक्त होकर विकसित हुआ है। जैनधर्म दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदायों में विभक्त होकर विकसित हुआ है, किन्तु बौद्धदर्शन की विभिन्न सम्प्रदायों में तत्त्वमीमांसीय मान्यताओं में पर्याप्त मतभेद दृग्गोचर होता है, ऐसा कोई तत्त्वमीमांसीय भेद जैन दर्शन की सम्प्रदायों में दिखाई नहीं देता है। जैन दर्शन के दोनों सम्प्रदाय वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक स्वीकार करते हैं तथा उसका बाह्य अस्तित्व मानते हैं। जबकि बौद्धदर्शन में विज्ञानवाद के मत में वस्तु का बाह्य अस्तित्व ही मान्य नहीं है, वह विज्ञान को ही सत् स्वीकार करता है। सौत्रान्तिक एवं वैभाषिक मत में बाह्य वस्तु का अस्तित्व तो स्वीकृत है, किन्तु वे उसे क्षणिक मानते हैं। माध्यमिक मत में वस्तु प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से निःस्वभाव है तथा सत्, असत्, सदसत् एवं न सत् न असत्त इन चार कोटियों से विनिर्मुक्त है। जैन दर्शन में वस्तु को सदसदात्मक स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में मान्य वस्तु का लक्षण ह्ण्उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्त सत्ह्न सभी द्रव्यों या पदार्थों पर समान रूप से लागू होता है। जैनदर्शन में षड़द्रव्यात्मक लोक की जैसी मान्यता है वैसी कोई मान्यता बौद्ध दर्शन में दिखाई नहीं देती।
बौद्ध दर्शन में शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद का परिहार किया गया है। इसीलिए बुद्ध आत्मा की शाश्वतता एवं आशाश्वतता आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में मौन हैं। आत्मा को स्वीकार करने पर शाश्वतवाद का तथा उसे न मानने पर उच्छेदवाद का आक्षेप आता है, जिसे टालने के लिए बुद्ध ने इस प्रकार के प्रश्नों पर मौन धारण करना उचित समझा। इसके विपरीत भगवान महावीर ने शाश्वतता एवं आाशाश्वतता का नय दृष्टि से समन्वय स्थापित किया है जो जैन धर्म की व्यापक अनेकान्त दृष्टि का सूचक है।
ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से जैन दर्शन पाँच ज्ञानों का प्रतिपादन करते हुए ज्ञान को सविकल्पक निरूपित करता है तथा दर्शन को निर्विकल्पक रूप में स्थापित करते हुए उसे ज्ञान से पृथक प्रत्यय के रूप में प्रतिष्ठित करता है, जबकि बौद्धा दर्शन ज्ञान के ही निर्विकल्पक एवं सविकल्पक भेद अंगीकार करता है।
आचारमीमांसा की दृष्टि से देखें तो दोनों दर्शन सम्यग्दर्शनपूर्वक आचार को महत्त्व देते हैं किन्तु बौद्ध दर्शन आचार के परिपालन में अधिक कठोरता एवं शिथिलता के मध्य का मार्ग अपनाता है, वहाँ जैन दर्शन में ज्ञानपूर्वक आचरण की कठोरता पर बल प्रदान किया गया है। यही कारण है कि जैन साधु-साध्वी आज भी आचार पालन की दृष्टि से अन्य धर्मों के साधु-साध्वियों की अपेक्षा अग्रणी हैं।
दोनों दर्शनों का अध्ययन करने पर विदित होता है कि इनका पारस्पिक अध्ययन इन दर्शनों के हार्द को समझने में सहायक है। दोनों दर्शनों को आध्यात्मिक दृष्टि अत्यन्त समद्ध है तथा मानवीय चरित्र को उन्नत बनाने में सहायक है। दोनों धर्मों में क्रोधादि, रागादि विकारों पर विजय को महत्त्व दिया गया है।
संदर्भ : 1. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि स धर्मः। वैशेषिक सूत्र 1.1.2 2. सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त 3. उत्तराध्ययनसूत्र, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, अध्ययन 25 गा.33 4. आदिपुराण, 38.45 5. व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र (भगवतीसूत्र), आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, शतक 12, उद्देशक 2, पृष्ठ - 134 6.दीघनिकाय-33 संगितिपरियाय सुत्त में चार प्रश्नव्याकरण?, द्रष्टव्य, आगम-युग का जैनदर्शन, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 1990, पृ. 53-54 7. योगसूत्र में भी इसका उल्लेख हुआ है- मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुखपुण्यापुण्यविषयाणां भवनातिश्चत्तप्रसादनम् ।-योगसूत्र 1.33 8. नागार्जुन, मध्यमूल 24.10 9. समयसार, प्रथम अधिकार, गाथा 8 10. सुत्तपटिक, खुद्दकनिकाय, खुद्दकपाठ, रतनसुत्त 11. आवश्यक सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर 1982, शरण सूत्र, पृ. 10 12. देशसर्वतोऽणुमहती। -तत्त्वार्थसूत्र 7.2 13. यदि सर्वेषां ज्ञानानां प्रमाणत्वमिष्यते प्रमाणानवस्था प्रसज्यते। - प्रमाणसमुच्चय, वृत्ति, मैसूर, 1930, पृ-11 14. न प्रमाणान्तरं शब्दमनुमानात् तथा हि सः। - दिड़् नाग, उद्धृत, तत्त्वसंग्रहपंजिका, बौद्ध भारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ. 539 15. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 9, उद्देशक 6 16. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 2, उद्देशक 1 17. व्याचयाप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक 13, उद्देशक 7 18. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ. - 65 19. न्यायबिन्दु, 3.59 20. सन्मतित्रतâ, 69 21. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक 225 22. इन दोनों के अतिरिक्त यापनीय सम्प्रदाय भी अस्तित्व में रहा है
जैन धर्म ओर बौद्ध धर्म के बीच तुलना करना
सत्य तो यही है दोनों ही धम्म अतीप्राचिन है और जैसे 24 तीर्थंकर हुए हैं वैसे ही 28 सम्यकसम्बुद्ध हुए हैं ये भी आप बुद्धवंस पढ़ लिजिए और भगवान बुद्ध मौन सामान्य उपासक आदि के लिए था ना कि भिक्षुओं के लिए अव्याकृत प्रश्र मात्र सामान्य उपासक के लिए व्यौकी ओ भ्रमित ना हो जाए और आप कृपया त्रिपिटक ग्रंथ अच्छे से पढले
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jain or bodh daram ki tulna