संसद के दोनों सदनों के संविधान के अधीन कुछ विशेषाधिकार हैं। संविधान का अनुच्छेद 105, वाक्-स्वातंत्र्य और प्रकाशन का अधिकार विषयों से सम्बद्ध है।
प्रत्येक सदन के विशेषाधिकारों को निम्नलिखित दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है-
संसद सदस्यों के विशेषाधिकार
1. गिरफ़्तारी से उन्मुक्ति
1976 के अधिनियम 104 द्वारा यथा संशोधित सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 135-क, सदस्यों को सदन या उसकी किसी समिति के जिसका वह सदस्य है, अधिवेशन के चलते रहने के दौरान या सदनों या समितियों की संयुक्त बैठक के दौरान तथा अधिवेशन या बैठक के पूर्व या पश्चात् 40 दिन की अवधि के दौरान गिरफ्तारी से छूट देती है। यह उन्मुक्ति सिविल मामलों में गिरफ्तारी तक ही सीमित है तथा आपराधिक मामले में या निवारक निरोध की विधि के अधीन गिरफ्तारी में नहीं है।
महत्वपूर्ण निर्णय |
एक पूर्वेत्तर वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि यदि संसद के बीच संघर्ष होता है तो विशेषाधिकार को अधिमानता दी जाएगी। संविधान के अनुच्छेद 105(3) और 194(4) हमारे विधान मंडलों की वही विशेषाधिकार प्रदान करते हैं, जो हाउस ऑफ कॉमंस के हैं। ये स्वतंत्र उपबंध हैं और यह अर्थान्वयन नहीं किया जाना चाहिए कि ये मूल अधिकारों के प्रत्याभूत करने वाले भाग-3 के अधीन हैं। |
2. साक्षी के रूप में हाजिरी से मुक्ति
इंग्लैंड के व्यवहार के अनुसार जब संसद सत्र में हो तब सदन की अनुमति के बिना किसी सदस्य की साक्ष्य देने के लिए सम्मन नहीं दिया जा सकता।
3. वाक्-स्वातंत्र्य
प्रत्येक सदन की चारदीवारी में वाक्-स्वातंत्र्य होगी। इसका यह अर्थ है कि वहां कही गई किसी बात के लिए कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद 19(2) में विनिर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है, उदाहरण के लिए मानहानि से संबंधित विधि के अधीन। सदस्य को संसद या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।
संविधान भी संसद में वाक्-स्वातंत्र्य पर एक और मर्यादा अधिरोपित करता है। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले समावेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर ही होगी, अन्यथा नहीं (अनुच्छेद 121)।
सदन के सामूहिक विशेषाधिकार
संसद के विशेषाधिकारों का संहिताकरण
ब्रिटिश संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स के असंहिताबद्ध विशेषाधिकारों से प्रेरित होकर भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी भारतीय संविधान के अंतर्गत संघीय एवं राज्यों के विधानमण्डलों की कुछ विशेषाधिकार प्रदान किए। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा ब्रिटिश संसद के असंहिताबद्ध विशेषाधिकारों को सम्मान देने के पीछे प्रमुख कारण यह था कि उसके विशेशाधाकारों के आधारभूत पूर्व दृष्टान्तों के विशाल संग्रह को संहिताबद्ध करना एक अत्यंत दुष्कर कार्य तो था ही साथ ही यह व्यावहारिक भी नहीं था। तत्कालीन समय से लेकर वर्तमान समय तक 6 दशक से अधिक व्यतीत हो जाने पर भी इन विशेषाधिकारों का सटीक एवं सर्वग्राही संहिताकरण भले ही न हो पाया हो तथापि इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रेषित निर्णयों के आधार पर कुछ सिद्धांतों का प्रतिष्ठापन हो गया है। इसी प्रकार संघ एवं राज्य के विधान्मंदलोंके सदनों के पीठासीन पदाधिकारियों द्वारा अधिकथित दृष्टांतों से भी स्थिति स्पष्ट हुई है। भारत में विधानमण्डलों एवं न्यायालयों के मध्य कई बार विशेषाधिकारों के मुद्दे पर बहस हो चुकी है, जो कि नि:संदेह इस निर्धन एवं विकासशील देश की संसदीय व्यवस्था के सुचारू रूप से कार्य करने में बाधक है। वस्तुतः भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है, जिसमें विधानमण्डल सहित राज्य के समस्त अंगों की शक्तियां सीमित हैं। विधानमण्डलों द्वारा विशेषाधिकार के नाम पर संविधान के अनुच्छेद-32 और 226 द्वारा न्यायालयों में विहित अधिकारिता में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। संविधान का संशोधन किए बिना इस समस्या का समाधान कर पाना सम्भव नहीं है। संवैधानिक संशोधन के माध्यम से संविधान में एक ऐसा समाधान प्रस्तुत किया जाना चाहिए जो संवैधानिक निकाय के विशेष बहुमत को स्वीकार्य हो। विशेषाधिकारों की संहिता सर्वसमावेशी न भी हो तो भी वह न होने की अपेक्षा अच्छी ही होगी।
संसद की शक्तियां
संसद के प्रत्येक सदन को निम्नलिखित शक्तियां प्राप्त हैं-
अन्य व्यक्तियों को किसी भी समय दीर्घा से हटाने की शक्ति
प्रक्रिया के नियमों के अधीन अध्यक्ष और सभापति को यह अधिकार है कि अजनबियों को सदन के किसी भाग से बाहर चले जाने का आदेश दे।
अपने आंतरिक मामलों का विनियमन करने की शक्ति
संसद के प्रत्येक सदन को यह शक्ति है कि वह अपनी कार्यवाहियों को नियंत्रित और विनियमित करे और चारदीवारी के भीतर उत्पन्न होने वाले मामलों का न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना विनिश्चय करे। संसद की चारदीवारी के भीतर जो कहा या किया जाता है, उसके बारे में कोई भी न्यायालय कोई जांच नहीं कर सकता।
सदस्यों और बाहरी व्यक्तियों की सदन के विशेषाधिकारों को भंग करने के लिए दंडित करने की शक्ति
प्रत्येक सदन विशेषाधिकारों के भंग या अवमानना के लिए दंड दे सकता है। यह दंड भर्त्सना, धिग्दंड या अवमान के रूप में हो सकता है। ब्लिट्ज के विख्यात मामले में उस समाचार-पत्र के संपादक को लोकसभा में बुलाया गया और संसद के सदस्य की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल लेख प्रकाशित करने के लिए धिग्दंड दिया गया। 1990 में एक पूर्व मंत्री श्री के.के. तिवारी की राज्य सभा ने इसी प्रकार का दंड दिया था।
संसद के दोनों सचिवालयों में लोगों की नियुक्ति प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से होती है। भारत सरकार द्वारा अपने मंत्रालयों एवं विभागों हेतु अधिकारियों तथा कर्मचारियों की सेवा शर्तों से सम्बन्धित आदेश स्वतः पर लागू नहीं होते। इस प्रकार के सभी सरकारी आदेशों की पहले पूरी जांच की जाती है और बाद में उपयुक्त पाए जाने पर ही उनके दोनों सचिवालयों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर लागू किए जाने अथवा न किए जाने के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है।
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