मूल प्रवृति सिद्धान्त
1890 मे विलियम जेम्स के अनुसार मनुष्य अपने व्यवहार का निर्देशन एवं नियंत्रण मूल प्रवृति की सहायता से करता है। सिग्मंड फ्रायड के अनुसार मूल प्रवृतियां प्रेरक शक्ति के रूप मे काम करते है। मूल प्रवृति का प्रमुख स्त्रोत शारीरिक आवश्यकताए होती है। दो तरह की मूल प्रवृति व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है - जीवन मूल प्रवृति एवं मृत्यु मूल प्रवृति। जवीन मूल प्रवृति का तात्पर्य उससे है जिससे व्यक्ति अपने जीवन की महत्वपूर्ण क्रिया करने के लिए प्रेरित होता है। मृत्यु मूल प्रवृति व्यक्ति को सभी तरह के विनाशात्मक व्यवहार करने की प्रेरणा देता है। यह दोनो एक साथ मिलकर व्यक्ति के व्यवहार को प्ररित करते है।
प्रणोद सिद्धान्त
इसके अनुसार अभिप्रेरणा में प्रणोद की स्थिति पायी जाती है। यह अवस्था शारीरिक आवश्यकता या बाहरी उद्दीपक से उत्पन्न होती है। हसमे वयक्ति क्रियाशील हो जाता है और उद्देश्यपूर्ण व्यवहार करने लगता है। फ्रायड का अभिप्रेरक सिद्धान्त (मनोविश्लेषण सिद्धान्त) प्रणोद सिद्धान्त पर आधारित है। फ्रायड के अनुसार यौन तथा आक्रमणशीलता दो प्रमुख प्रेरक है जिसकी बुनियाद बचपन मे ही पड़ जाती है।
प्रोत्साहन सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार अभिप्ररित व्यवहार की उत्पत्ति लक्ष्य या प्रोत्साहन के कुछ खास गुणो के कारण होती है। इस सिद्धान्त को प्रत्याशा सिद्धान्त भी कहा जाता है। जैसे भूख न होने पर भी स्वादिष्ट भोजन मिलने पर व्यक्ति उसकी ओर खिच जाता है।
विरोधी - प्रक्रिया सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सोलोमैन तथा कौरविट के द्वारा 1974 मे किया गया। इसके अनुसार सुख देने वाले लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हम लोग प्रेरित रहते है। तथा जिससे हमे अप्रसन्नता होती है उससे दूर रहते है। प्रेरणा के इस सिद्धान्त को संवेग का सिद्धान्त भी कहते है।
आवश्यकता -
पदानुक्रुम सिद्धान्त यह सिद्धान्त मानवतावादी मासलो द्वारा दिया है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति मे जन्म से ही आत्माभि व्यक्ति की क्षमता होती है जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है। मासलो ने आवश्यकताओ या मानव अभिप्रेरको को एक क्रम मे रखा। मानवीय आवश्यकताए मुख्य रूप से पाँच होती है।
शारीरिक आवश्यकताए - यह सबसे नीचे के क्रम में आती इसमें भूख प्यास, काम आदि शारीरिक आवश्यकताएं आती हैं। सबसे पहले व्यक्ति इन आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
सुरक्षा की आवश्यकता- यह शारीरिक आवश्यकताओ के बाद आती है इसमे शारीरिक तथा संवेगिक दुर्घटनाओ से बचाने की आवश्यकता सम्मिलित है इसमे व्यक्ति डर तथा असुरक्षा से बचने की कोशिश करता है।
सदस्य होने तथा स्नेह पाने व देने की आवश्यकता - इस तरह की आवश्यकता के कारण व्यक्ति परिवार, स्कूल, धर्म, प्रजाति, धार्मिक पार्टी के साथ तादाम्य स्थापित करता है। व्यक्ति अपने समूह के अन्य सदस्यो के साथ स्नेह दिखाता है तथा उनसे स्नेह पाने की कोशिश करता है।
सम्मान की आवश्यकता - प्रथम तीन आवश्यकताओ की सन्तुिष्ट होने पर सम्मान की आवश्यकता की उत्पत्ति होती है। इसमे आन्तरिक सम्मान कारक जैसे आत्मसम्मान, उपलब्धि, स्वायत्तता तथा ब्राहृय सम्मान कारक जैसे पद, पहचान आदि सम्मलित होते है।
आत्म सिद्धि की आवश्यकता - आत्मसिद्धि सबसे उपरी स्तर की आवश्यकता है। यह पर सभी लोग नही पहुँच पाते है। आत्मसिंिद्ध मे अपने अन्दर छिपी क्षमताओ को पहचानकर उसे ठीक तरह से विकसित करने की आवश्यकता है।
मर्रे का सिद्धान्त
मरे ने अपने अभिप्रेरणा के सिद्धान्त को आवश्यकता के रूप मे बताया है। असन्तुष्ट आवश्यकताए व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और तब तक बनी रहती है जब तक आवश्यकताओ की सन्तुष्टि नही होती है। प्रत्येक आवश्यकता के साथ एक विशेष प्रकार के संवेग जुड़े रहते है। 1930 मे बहुत सारे अघ्ययनो के बाद मर्रे ने आवश्यकताओ के दो प्रकार बताये। 1. दैहिक आवश्यकताएँ - इस प्रकार की आवश्यकताए व्यक्ति के जीवन जीने के लिए आवश्यक होती है जैसे भोजन, पानी, हवा इत्यादि। मर्रे ने 12 दैहिक आवश्यकताए बतायी है।
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Abhiprerna ka pratyasha siddant kiske dwara Diya Gaya hai