कृषि पारिस्थितिकी उस कृषिगत पारिस्थितिकी तंत्र के अध्ययन से संबंधित है, जिसमें उसके घटक एक वृहद पारिस्थितिकी तंत्र का अंग बनकर कार्य करते हैं। इस प्रकार का अध्ययन संवहनीय कृषि पारिस्थितिकी तंत्र की ओर ले जाता है। यहां यह जानना आवश्यक है कि, कृषि जलवायु क्षेत्र में भूमि ज्यादा समय तक नम जलवायु के कारण आर्द्र बनी रहती है। वहीं कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र में कृषि जलवायु, जो पूरे क्षेत्र पर अध्यारोपित होती है, जलवायु तथा उसकी समयावधि दोनों को प्रभावित करती है। कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र के अध्ययन के अंतर्गत जलवायु, मृदा, जल तथा वनस्पतियां शामिल हैं। एक व्यवस्थित कृषि-पारिस्थितिकी प्रदेश में कुछ समजातीय प्रदेश या क्षेत्र शामिल होते हैं, जिनमें मृदा, जलवायु, स्थलाकृति विज्ञान और उचित समयावधि तक भूमि की आर्द्रता का बना रहना, एक योजनागत उपयुक्त भूमि उपयोग के लिए अति-महत्वपूर्ण है।
भारत की स्थलाकृति जलवायु की दशा और विभिन्न प्रकार की मृदाओं के कारण विशेष रूप से जानी जाती है। यहां की ऊंची पहाड़ियां, डेल्टा, घने वन, प्रायद्वीपीय पठार आदि (स्थानों के आधार) पर तापमान में परिवर्तन होता रहता है। यहां अत्यधिक ठंडे आर्कटिक वृत्त से लेकर विषुवत वृत्त तक गर्मी बढ़ती जाती है। वर्षा के समय यहां पर न्यून वर्षा के कारण अत्यधिक उष्णता तथा अधिक वर्षा (1120 सेमी.) के कारण अत्यधिक आर्द्रता हो जाती है। देश में उन पारिस्थितिकी क्षेत्रों की पहचान की आवश्यकता है, जिनमे विभिन्न फसलों तथा फसल उत्पादकता को भविष्य के लिए सुनिश्चित किया जा सके। यह तकनीकी भविष्य में फसल विभिन्नीकरण की क्रियाओं में मदद करेगी। उच्चतम उत्पादकता वाली फसलों को पारिस्थितिकी जलवायु वाली भूमि को ध्यान में रख कर सुरक्षित किया जा सकता है। यह कृषि शेष और कृषि तकनीकी की अन्य जानकारियों के प्रचार-प्रसार में सहायता भी करेगा।
कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों/प्रदेशों का निर्धारण
कृषि-पारिस्थितिकी प्रदेशों तथा आगे इन क्षेत्रों का उप-विभाजन, कृषि-पारिस्थितिकी उप-प्रदेशों में किया जाता है। क्षेत्रों तथा उप-क्षेत्रों के निर्धारण का आधारभूत मापक उसके मिट्टी, फसल वृद्धि काल, स्थलाकृति विज्ञान तथा जैव-जलवायु आदि के द्वारा किया जाता है। इन मापकों के आधार पर विभिन्न कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों का निर्धारण विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा किया गया। मूर्ति और पाण्डे (1978) ने निम्नलिखित कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों का निर्धारण किया है।
पश्चिमी आर्द्र हिमालय क्षेत्र, पूर्वी आर्द्र हिमालय क्षेत्र, बंगाल-असम आर्द्र बेसिन; सतलज-गंगा उपार्द्र कछारी मैदान, पश्चिमी शुष्क मैदान; उपार्द्र पूर्वी/दक्षिणी उच्च प्रदेश एवं केन्द्रीय उच्च भूमियां, उप-शुष्क लावा निर्मित पठार, आर्द्र से उप-शुष्क पश्चिमी घाट और कर्नाटक पठार तथा खाड़ी द्वीप।
एक अन्य वर्गीकरण (सहगल तथा अन्य, 1990) के अनुसार, भारत के कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र है- पश्चिमी हिमालय-ठंडे शुष्क क्षेत्र तथा पश्चिमी आर्द्र क्षेत्र: पूर्वी हिमालय-आर्द्र क्षेत्र, असम, बंगाल तथा उत्तर-पूर्वी पहाड़ियां, उत्तरी मैदान, केन्द्रीय उच्च भूमियां, पश्चिमी मैदान तथा कच्छ (kutCh) प्रायद्वीप, काठियावाड़ प्रायद्वीप; दक्कन पठार एवं पूर्वी घाट, छोटानागपुर पठार, पूर्वी तटीय क्षेत्र; तथा पश्चिमी घाट तटीय क्षेत्र; अण्डमान-निकोबार एवं लक्षद्वीप द्वीप समूह।
भारत में 20 कृषि पारिस्थितिकी प्रदेशों का समूह है, जिन्हें भारतीय मृदा सर्वेक्षण तथा भूमि प्रयोग परियोजना ब्यूरो (National Bureau of Soil Survey and Land use Planning), नागपुर से सम्बद्ध के. एस. गजभिए (Gajbhiye) तथा सी मण्डल ने 60 कृषि पारिस्थितिकी प्रदेशों में वर्गीकृत किया है तथा प्रत्येक कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र दीर्घावधि तक भूमि प्रयोग सम्बन्धी रणनीतियों के विकास हेतु जिला स्तर पर कृषि पारिस्थितिकी की इकाई के अंतर्गत वर्गीकृत है।
भारत के कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र
भारत की 20 कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र, तथा 60 कृषि-पारिस्थितिकीय उपक्षेत्रों को, जलवायु, मृदा तथा भूमि उपयोग के संदर्भ में वर्गीकृत किया गया है। इन क्षेत्रों का विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है।
भारत की कृषि-पारिस्थितिकी तथा कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
1. हल्की मृदा के साथ शीत शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Cold Arid Eco-region with Shallow Skeletal Soils
इस प्रकार का पारिस्थितिकी क्षेत्र उत्तरी-पश्चिमी हिमालय से लेकर लद्दाख और गिलगिट जिले में 15.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है। यह भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 4.7 प्रतिशत क्षेत्र (329 मि. हेक्टेयर) को आच्छादित किए हुए है।
1. कृषि-जलवायु: यहां की जलवायु मृदु ग्रीष्म और कड़ी शीत वाली होती है। यहां वार्षिक औसत तापमान 8°C होता है। औसत वार्षिक वर्षा 150 मी.मी. से कम होती है। यहां वार्षिक 150 मिमी. से भी कम वर्षा होती है। इस क्षेत्र में नम शुष्क मृदा एवं क्राइक (Cryic) मृदाएं पाई जाती हैं, जिसमें फसल वृद्धि काल 90 दिन से अधिक नहीं होता।
2. मृदाएं: भारत का उच्चतम उत्तरी भू-भाग तथा उसके पठार हमेशा बर्फ आदि से ढके होते हैं। यहां ढलानयुक्त घाटियों में नवनिर्मित मृदा तथा चूना प्रकार की मृदाएं पाई जाती हैं। ये मृदायें क्षारीय प्रकृति की होती हैं। लद्दाख क्षेत्र में इस तरह की मिट्टी ज्यादा मात्रा में है, जिसे टाइपिक क्रायोर्थेट (TypiC Cryorthent) के रूप वर्गीकृत किया गया है।
3. भूमि प्रयोग: पारिस्थितिकी-क्षेत्र में बहुत कम वन क्षेत्र पाए जाते हैं। लगभग 11.2 प्रतिशत भूमि गैर कृषि कार्यों (जिनमें परती भूमि भी शामिल है) हेतु प्रयोग में लाई जाती है। कृषि योग्य भूमि में प्रति इकाई उत्पादन बहुत कम है। वनस्पतियों/सब्जियों में अग्रवर्ती फसलें उगाई जाती हैं, जैसे-ज्वार, बाजरा, गेंहूं, चारा फसलें, दालें तथा जौ। चारा फसलों के बीच अल्फा-अल्फा नामक घास उगाई जाती है। फलों में सेब और खुबानी की खेती सर्वाधिक होती है। पशुओं में यहां पर खच्चर, भेड़, बकरी, याक (तिब्बती बैल) मुख्य हैं। पश्मीना बकरियां भी इन क्षेत्रों में पाई जाती है।
4. कमियां: रुक्ष (Harh Climate) जलवायु के दबाव, विशेष तापक्रम क्षेत्र के कारण बढ़ती फसलों पर कठोर तापीय अधःस्तर तक बढ़ जाता है। यहां की मृदा न्यून निम्न दाबयुक्त, बालू तथा गोलाश्मयुक्त एवं चूर्णीय प्रकृति की हो जाती है, जिससे फसलों पर इसका पुष्टिकारक प्रभाव असंतुलित मात्रा में पड़ता है, जिससे सामान्य समय में फसलों की उपज बहुत कम होती है। इसका अभिप्राय है कि, घाटी में हिम द्रवण अवधि में, जबकि इसी समय पारिस्थितिकी क्षेत्र में अल्प वर्षा होती है, कृषि कम निषिद्ध है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (Agro-Ecological Sub-Region–AESRs)
2. मरुस्थलीय एवं लवणीय मृदा के साथ उष्ण शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot Arid Eco-region with Desert and Saline Soils
उष्ण तथा शुष्क पारिस्थितिकी- क्षेत्र पश्चिमी मैदानों पर फैला हुआ है, जिसमें दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा तथा पंजाब के भाग, राजस्थान का पश्चिमी भाग, कच्छ प्रायद्वीप तथा काठियावाड़ प्रायद्वीप के उत्तरी भाग (गुजरात) शामिल हैं।
इस क्षेत्र का विस्तार 31.9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.78 प्रतिशत है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में गर्मियों में अति उष्ण ताप तथा सर्दियों में अति ठंड (शुष्क) जलवायु रहती है। वार्षिक वर्षा वृद्धि 400 मि.मी. से कम है, जबकि वार्षिक वर्षा मांग 1500-2000 मि.मी. है। इसके परिणामस्वरूप हर वर्ष बड़ी मात्रा में पानी की कमी हो जाती है। इन क्षेत्रों में नम शुष्क मृदा तथा अति ऊष्मीय मृदा पाई जाती है। वार्षिक दीर्घ वृद्धि काल (Length Growth Period-LGP) 90 दिन का होता है।
2. मृदाएं: इन क्षेत्रों में बलुई मिट्टी, जो कि थार मरुस्थल में पाई जाती है, जिसमें सामान्यतः चूर्णीय तथा क्षारीय प्रकार की क्रियाएं होती हैं। पाली, लाखपत तथा निहारखेरा (Niharkhera) मृदा प्रकार इनमें शामिल हैं।
3. भूमि प्रयोग: वर्षा सिंचित क्षेत्रों में एकल फसलों की कृषि की जाती है। वर्षा ऋतु की फसलें बहुत कम अवधि की होती हैं, जिसमें ज्वार, बाजरा, चरी (चारा फसल) तथा दालें शामिल हैं। ये फसलें गैर-लवणीय क्षेत्रों में उपजाई जाती हैं। सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में कपास, गन्ने, सरसों, गेहूं तथा चने की खेती की जाती है। इन क्षेत्रों में विरल छिट-पुट उष्णकटिबंधीय वन पाये जाते हैं, जो कि अब मात्र 15 प्रतिशत से घटकर 1 प्रतिशत रह गए हैं।
4. कमियां: कम वर्षा के कारण इन क्षेत्रों में भारी मात्रा में जल की कमी हो जाती है, जो प्रायः फसल वृद्धि के समय होती है। अत्यधिक लवणीय मृदा के परिणामस्वरूप स्थलाकृतिक सूखापन हो जाता है, जिससे मृदा में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, जस्ता (जिंक) तथा लौह जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
3. लाल तथा काली मिट्टी युक्त उष्ण शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot Arid Eco-region with Red and Black Soils
4.9 मिलियन हेक्टेयर (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 1.5 प्रतिशत) में व्याप्त इस क्षेत्र के अंतर्गत दक्कन के पठार का एक भाग, जिसमें कर्नाटक राज्य के बेल्लारी जिला, निजपुर के दक्षिणी-पश्चिमी भाग एवं रायचूर जिला तथा निकटवर्ती आंध्र प्रदेश राज्य का अनंतपुर जिला सम्मिलित है।
1. कृषि-जलवायु: इस पारिस्थितिकी क्षेत्र की जलवायु उष्ण तथा शुष्क गर्मियां तथा हल्की शीत ऋतु होती है, लगभग 400-500 मिमी. तथा वार्षिक वर्षण 1800-1900 किमी. (20-25 प्रतिशत) होता है। कठोर सूखे की दशा पूरे वर्ष तक बनी रहती है और 1500-1600 मि.मी. जल प्रत्येक वर्ष घट जाता है। फसल वृद्धि काल 90 दिन से कम होता है। इस पारिस्थितिकी क्षेत्र में नम शुष्क मृदा एवं सम-अतिऊष्मीय (isohyperthermic) तापक्रम मृदा क्षेत्र पाए जाते हैं।
2. मृदाएं: इन क्षेत्रों में हल्की तथा मध्यम प्रकार की लाल मिट्टियां फैली हुई हैं, जो सामान्यतः थोड़ी-सी अम्लीय तथा गैर-चूर्णीय (Non-CalCareous) होती हैं। गहरी चिकनी काली मिट्टी हल्की क्षारीय तथा चूर्णीय (चूना मिला हुआ) प्रकार की होती हैं।
3. भूमि उपयोग: इन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय कंटीले वन पाये जाते हैं। परम्परागत रूप से भूमि उपयोग वर्षा काल में होता है तथा फसलों आदि की बुआई वर्षा काल के अंत में आरम्भ होती है, क्योंकि उस समय मिट्टी में आर्द्रता होती है। कुछ क्षेत्रों में बरसात के मौसम में बाजरा की खेती की जाती है। परम्परागत प्रकार से कृषि करने के कारण किसानों को कम उपज प्राप्त होती है। यहां गहन सिंचाई वाली फसलें, जैसे- मूंगफली, गन्ना, सूर्यमुखी तथा कपास की खेती की जाती है।
4. कमियां/सीमाएं: कार्ययुक्त काली नम मिट्टियां बहुत कम परास में पायी जाती हैं। उप-मृदा सोडियम (sodicity) का प्रभाव मृदा संरचना पर पड़ता है, जिससे विशेष रूप से काली मिट्टी में उपस्थित ऑक्सीजन की मात्रा पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जब कभी तूफानयुक्त मूसलाधार बारिश होती है, तो मृदा अपरदन अधिक मात्रा में होता है। फसलों पर इसका दुष्प्रभाव पडता है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (ASERs): कर्नाटक पठार (जिसमें रायल सीमा भी शामिल है)।
4. उष्ण अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी प्रदेश तथा कछारी मृदायें Hot semi-arid eco-region with alluvium derived soils
गुजरात के भाग, उत्तरी मैदान तथा केन्द्रीय उच्च भूमियों के रूप में 32.2 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग पर यह उष्ण, अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र विस्तृत है, जो कि भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.8 प्रतिशत है।
1. कृषि-जलवायु; इस क्षेत्र में उष्ण एवं शुष्क ग्रीष्म तथा ठण्डी शीत ऋतु पाई जाती है। वार्षिक वर्षापात 500-1000 मि.मी. (35-42 प्रतिशत) होती है, जिसकी दिशा पश्चिम से पूर्व की तरफ बढ़ती जाती है। जल की कमी प्रतिवर्ष 700-1000 मि.मी. वार्षिक है। फसल वृद्धि काल 90-150 दिन का होता है। मिट्टी की आर्द्रता में मौसमी अनियमितता तथा मृदा तापमान में समतापीय परिवर्तन होता रहता है। सूखापन बुन्देलखण्ड क्षेत्र (बांदा, झांसी, हमीरपुर, दतिया तथा जालौन) को प्रभावित करता है।
2. मृदाएं: इस प्रदेश में गहरी कछारी दोमट मिट्टी या गहरी दोमट तथा लाल एवं काली मिट्टियां पाई जाती हैं।
3. भूमि उपयोग: इस परिस्थितिकी क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय सूखे पर्णपाती तथा कंटीले वन पाये जाते हैं। परम्परागत रूप से लगभग 35 प्रतिशत क्षेत्र वर्षायुक्त है, जबकि 65 प्रतिशत क्षेत्र में कृषि कृत्रिम सिंचाई के अंतर्गत आती है। उत्तरी मैदान में सूखी जलवायु के समय सिंचाई ट्यूबवेल की सहायता से की जाती है। फसलों में (रबी व खरीफ) चावल, बाजरा, मक्का, दालें, बरसीम, गेहूं, सरसों आदि की खेती की जाती है। केंद्रीय उच्च भूमियां (बुन्देलखण्ड) में लगभग 75 प्रतिशत कृषि क्षेत्र सिंचाई हेतु वर्षा पर निर्भर है, जबकि 25 प्रतिशत अन्य सिंचाई पर निर्भर है। केंद्रीय उच्च भूमि में उगाई जाने वाली मुख्य खरीफ फसलें है- ज्वार, मटर, सोयाबीन, तथा; रबी फसलों में दालें, मसूर तथा गेहूं हैं, जिनकी सिंचाई की जरूरत पड़ती है। चम्बल का अपवाह क्षेत्र, अन्य फसलों की कृषि के लिए एक भूमि तैयार कर देता है, जैसे- बाजरे की खेती के उपरांत उन खेतों में गेहूं, कपास तथा गन्ने की खेती की जा सकती है।
4. कमियां/सीमाएं: मृदा विन्यास में बड़े कणों के आ जाने से पौधों को कम मात्रा में जल उपलब्ध हो पाता है। अपवाह प्रणाली की दशा ठीक न होने के कारण धरातलीय तथा उप-धरातलीय मिट्टी में लवण की मात्रा बढ़ जाती है। भूमिगत जल का अत्यधिक प्रयोग होने लगता है, जिसके फलस्वरूप भूमिगत जल संसाधनों में साथ-साथ कमी आने लगती है।
5. कृषि पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
5. मध्यम और गहरी काली मृदायुक्त उष्ण अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी-क्षेत्र Hot semi-arid eco-region with medium and deep black soils
यह पारिस्थितिकी क्षेत्र 17.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.4 प्रतिशत क्षेत्र) पर विस्तृत है, जिसमें केंद्रीय उच्च प्रदेश (मालवा), गुजरात के मैदान, काठियावाड़ प्रायद्वीप, मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र; गुजरात तथा राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग शामिल हैं।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में उष्ण एवं आर्द्र ग्रीष्म तथा शुष्क शीत ऋतु पायी जाती है। वार्षिक वर्षापात 500-1000 मि.मी. है (जबकि वार्षिक मांग 1600-2000 मि.मी. का मात्र 40-50 प्रतिशत है)। अतः, यहां वार्षिक भूमिगत जल घटाव 800-1200 मि.मी. होता है। फसल वृद्धि काल 90-150 दिन का होता है। प्रमुख नम मिट्टी के तापमानों में प्रारूपिक तौर पर मौसमी परिवर्तन होता है, कभी उच्च तापक्रम समताप स्तर तक आ जाता है। इस क्षेत्र के अंतर्गत सूखा प्रवण क्षेत्र (Drough-ProneArea) हैं- राजस्थान में बांसवाड़ा, मध्य प्रदेश में झाबुआ एवं धार तथा गुजरात में पंचमहल, भावनगर एवं अमरेली। इन क्षेत्रों में सूखे का खतरा हर तीन वर्ष बाद बना रहता है।
2. मृदाएं: नरम तथा अतिढाल युक्त गहरी दोमट चिकनी मृदा तथा गहरी काली मिट्टियां इन क्षेत्रों की प्रमुख मिट्टी हैं। चिकनी, हल्की क्षारीय, चूर्णीय (चूनायुक्त) मिट्टी, ऊंचे-नीचे स्थलाकृतिक भू-भाग, मालवा पठार में पाये जाते हैं।
3. भूमि-उपयोग: यहां सूखे पर्णपाती वन, प्राकृतिक वनस्पतियों के रूप में पाये जाते हैं। शुष्क खेती के परिणामतः सोरघम (Sorghum) खरीफ और रबी की फसलें पैदा होती हैं, हैं। रबी की फसलों में सूरजमुखी, कुसुम्भ तथा चना शामिल है, जबकि गेहूं की बुआई भूमि की सिंचाई के उपरांत होती है।
4. कमियां: यहां रुक-रुककर आने वाला शुष्क मौसम का दौर चिन्ता का विषय है। इन क्षेत्रों में अकुशल अपवाह प्रणाली जड़ों को अनुकूलतम ढंग से शाखा विस्तार करने और ऑक्सीजन की उपलब्धता को सीमित करती है। सिंचाई युक्त कृषि में लवणयुक्त मृदा और क्षारीयता के खतरे बढ़ जाते हैं। तीव्र लवणता तथा मौसमी अनियमितता के कारण काठियावाड़ के तटीय क्षेत्रों में फसलें नष्ट हो जाती हैं।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
6. हल्की मध्यम काली मृदायुक्त उष्ण, अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot semi-arid eco-region with shallow and medium (dominant) black soils:
इस पारिस्थितिकी क्षेत्र में जलवायु उष्ण तथा अर्द्ध-शुष्क होती है। इस क्षेत्र में दक्कन का पठार, जिसमें महाराष्ट्र का केंद्रीय तथा पश्चिमी भाग, कर्नाटक का उत्तरी भाग तथा आंध्र प्रदेश का पश्चिमी भाग शामिल है। यह भारत के 31.0 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर फैला हुआ है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.5 प्रतिशत भू-भाग है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में गर्मियां उष्ण एवं आर्द्र तथा शीत ऋतु मूदु एवं शुष्क होती हैं। माध्यमिक तथा वार्षिक वर्षापात 600-1000 मि.मी. होता है। इन क्षेत्रों में भूमिगत वार्षिक जल घटाव 800-1000 मि.मी. है, जोकि वार्षिक मांग 1600-1800 मिमी. का मात्र 40 प्रतिशत है। यहां पर फसल वृद्धि काल 90 से 150 दिन या कुछ स्थानों पर 90 दिन से कम होता है। महाराष्ट्र में अहमदनगर के कुछ भाग, बिड, शोलापुर, संगली के पूवी भाग, उस्मानाबाद एवं लातूर तथा कर्नाटक में बीदर, गुलबर्ग, बीजापुर तथा धारवाड़ क्षेत्र सूखा-संभावित क्षेत्रों में शामिल हैं। इन क्षेत्रों में हर तीन वर्ष में प्रचण्ड सूखा पड़ता है। यहां आर्द्रता अधिकांशतः बहुत कम होती है। मृदा में आर्द्रता का स्तर अनियमित होता है तथा मृदा का तापमान (सम) अतिऊष्मीय तक रहता है।
2. मृदाएं: यहां की मिट्टी हल्की दोमट तथा उच्चतम चूर्णीय व चिकनी तथा चूनायुक्त हल्की क्षारीय होती है, जिसमें निम्न उच्च स्थलाकृतिक भाग में इन मृदाओं में सिकुड़ने के गुण पाये जाते हैं।
3. भूमि उपयोग: इन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय, शुष्क पर्णपाती तथा कटीले वनों के रूप में प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। वर्षा सिंचित कृषि के परिणामतः सोरघम, अरहर तथा बाजरे आदि की खरीफ की फसल के रूप में खेती की जाती है। सूखा-संभावित क्षेत्रों में द्वि-पद्धति प्रारूप से वर्षा जल का वितरण किया जाता है; इसलिए सितंबर तथा अक्टूबर महीने में बोई गई फसलों के बाद भूमि में थोड़ी-बहुत आर्द्रता बची होती है, जो सूखे के समय में काफी दिनों तक भूमि को नम रखती है। इन क्षेत्रों में सोरघम, कुसुम्भ तथा सूरजमुखी की खेती वर्षा होती है।
4. कमियां: अधिक दिन तक सूखे के कारण फसलों की वृद्धि रुक जाती हैं तथा फसलें नष्ट हो जाती हैं। तड़ित-झंझा एवं बादल फटने से अधिक मात्रा में मृदा-अपरदन होता है, जिससे मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, जस्ता (जिंक) जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (ASERs):
7. लाल तथा काली मिट्टी युक्त उष्ण, उप-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot semi-arid eco-region with red and black soils
इस क्षेत्र की जलवायु उष्ण तथा अर्द्ध-शुष्क प्रकार की होती है। यह 16.5 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.2 प्रतिशत) को आच्छादित करता है। यह क्षेत्र दक्कन पठार (तेलंगाना) से लेकर आंध्र प्रदेश के पूर्वी घाट तक फैला हुआ है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों की जलवायु गर्मियों में उष्ण व शुष्क तथा सर्दियों में हल्की, सूखी व ठण्डी होती है। वार्षिक वर्षापात 600-1100 मि.मी. है, जो कि वार्षिक मांग का मात्र 40 प्रतिशत है। वार्षिक भूमिगत जल स्तर घटाव 700-800 मि.मी. है। फसल वृद्धि काल 90-150 दिन तक का है। सूखा-संभावित क्षेत्र हैं- नालगोण्डा, महबूब नगर, कूरनूल, प्रकाशम, नैल्लौर तथा कुडप्पा जिले। मृदा आर्द्रता तथा मृदा तापमान समअतिऊष्मीय रहता है।
2. मृदाएं: यहां नरम व खल युक्त लाल मृदाएं पाई जाती हैं, गैर-चूर्णीय (गैर-चूना युक्त) तथा उदासीन होती हैं। काली कपास की मृदा चिकनी होती है, जो चूर्णीय तथा सान्द्र रूप से क्षारीय तथा निम्न उच्च स्थल भूमि पर सिकुड़ती व फैलती रहती है। इस मिट्टी में उच्च उत्पादन की संभावनाएं पायी जाती हैं।
3. भूमि उपयोग: इन प्रदेशों में उष्णकटिबंधीय, शुष्क पर्णपाती, कंटीले वनों के रूप में प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती हैं। वर्षा सिंचित कृषि से सोरघम, कपास, अरहर, चावल, मूंगफली तथा अरण्डी आदि खरीफ की फसलें पैदा की जाती हैं। वर्षा ऋतु के बाद सोरघम, सूरजमुखी, कुसुम्भ तथा तिलहन की खेती आर्द्र अवशिष्ट मिट्टी में की जाती है। चावल की खेती सिंचाई द्वारा रबी की फसल के रूप में की जाती है।
4. कमियां: अधिक अपवाह के परिणामस्वरूप मिट्टी के पोषक तत्वों में कमी तथा मृदा अपरदन शुरू हो जाता है। अकुशल अपवाह तंत्र तथा सिंचाई के लिए जल के अत्यधिक उपयोग से क्षार तथा सोडियम की मात्रा काली मृदाओं में बढ़ती जाती है। नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जस्ता (जिंक) आदि की मात्रा इन मृदाओं में कम हो जाती है। सूखेपन के कारण फसल आदि ठीक से नहीं होती है।
5. पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (ESR):
8. लाल दोमट मृदाओं युक्त उष्ण अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot semi-arid eco-region with red loamy soils
इस पारिस्थितिकी क्षेत्र में उष्ण तथा अर्द्ध-शुष्क जलवायु होती है। लाल दोमट मृदाएं पूर्वी घाट से लेकर दक्कन के पठार के दक्षिणी भाग, तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा कर्नाटक के पश्चिमी भाग तक व्याप्त हैं। इनका विस्तार 19.1 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.8 प्रतिशत) तक है।
1. कृषि जलवायु: इस क्षेत्र में उष्ण एवं शुष्क ग्रीष्म तथा मृदु शीत ऋतु के साथ वार्षिक वर्षापात 600-1000 मि.मी. (वार्षिक जल घटाव-400-700 मि.मी.) है। पश्चिमी भागों में जहां जून से सितम्बर तक 70 प्रतिशत तक वर्षा हो जाती है वहीं पूर्वी भागों में अक्टूबर से दिसम्बर तक वर्षा होती है। फसल वृद्धि काल 90-150 दिन का होता है। मृदा में आर्द्रता अनियमित रहती है तथा मृदा तापमान समअतिऊष्मीय (isohyperthermic) रहता है।
2. मृदाएं: यहां गैर-चूनायुक्त, हल्की अम्लयुक्त तथा प्रतिक्रिया में चूर्णीय एवं हल्की क्षारीय मृदाएं पाई जाती हैं। दोनों प्रकार की मृदाएं आयन (Cation) में निम्न तथा परिवर्तन की क्षमता से युक्त होती हैं।
3. भूमि प्रयोग: इस पारिस्थितिकी प्रदेश में उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती तथा कंटीले वन पाये जाते हैं। परम्परागत रूप से वर्षा सिंचित कृषि से बाजरा, दालें और मूंगफली आदि खरीफ की फसलें बोई जाती हैं तथा रबी के फसल के रूप में सोरघम तथा कुसुम्भ की खेती की जाती है। यहां पर सिंचाई ज्यादातर चावल के लिए होती है, लेकिन इसमें कपास तथा गन्ना भी शामिल हैं।
4. प्रभाव: अत्यधिक अपवाह के कारण मृदा अपरदन होता है, जिससे मृदा-विन्यास तथा पौधों की जड़ें उचित मात्रा में जल धारण नहीं कर पाती हैं। इसके परिणामस्वरूप फसल वृद्धि काल के दौरान सूखापन बढ़ जाता है। इस प्रकार की मिट्टियों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा जस्ता (जिंक) जैसे पोषक तत्वों की मात्रा असंतुलित हो जाती है।
5. कृषि पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
9. जलोढ़-अवसादी मृदाएं तथा उष्ण अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot sub-humid (dry) eco-region with alluvium-derived soils
इस पारिस्थितिकी प्रदेश में उष्ण, उपार्द्र (शुष्क) जलवायु पाई जाती है। यह प्रदेश कुल 12.1 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग को घेरता है, जो कि भारत के कुल भू-भाग का 3.7 प्रतिशत है। यह उत्तरी सिंधु-गंगा मैदान तथा पश्चिमी हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र तक फैला हुआ है।
1. कृषि-जलवायु: इस पारिस्थितिकी प्रदेश में ग्रीष्म उष्ण एवं शीत ऋतु ठण्डी होती है। यहां वार्षिक वर्षापात 1000-1200 मि.मी. है, जो जुलाई-सितंबर तक के समय में होती है। यह वर्षापात वार्षिक मांग का 70 प्रतिशत ही है, जबकि वास्तविक मांग है- 1400-1800 मिमी.। वार्षिक जल घटाव 500-700 मि.मी. होता है। फसल वृद्धि काल 150 से 180 दिन का होता है। फरवरी से लेकर जून माह तक वार्षिक मध्यम तापमान 22°C से अधिक रहता है। गया जिला सूखा संभावित क्षेत्रों में शामिल है।
2. मृदाएं: यहां की मिट्टी सामान्यतः गहरी दोमट मिट्टी तथा कछारी जलोढ़ मिट्टी होती है। धीरे-धीरे (बेसियाराम श्रेणी) ढाल प्रवणता कम होकर स्तरीय मृदा (शहजादापुर, गुरुदासपुर तथा इटावा श्रेणियां) तक आकर उदासीन हो जाती है।
3. भूमि-उपयोग: यहां प्राकृतिक वनस्पति में उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन पाये जाते हैं। यहां परम्परागत रूप से वर्षाधारित एवं सिंचाई आधारित दोनों प्रकार की कृषि की जाती है। चावल, मक्का, जौ, अरहर तथा जूट आदि यहां की खरीफ फसलें तथा गेहूं, सरसों, मसूर आदि रबी की फसलें हैं। गन्ने तथा कपास की खेती सिंचाई द्वारा ही की जाती है।
4. कमियां: सिंचाई हेतु पानी का ध्यानपूर्वक प्रयोग न करने के परिणामस्वरूप जलभराव एवं लवणता का खतरा रहता है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (ASERs)
10. लाल तथा काली मृदायुक्त उष्ण उपार्द्र पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot sub-humid eco-region with red and black soils
इस पारिस्थितिकी क्षेत्र में उष्ण, उपार्द्र जलवायु पाई जाती है। यह 22.3 मिलियन हेक्टेयर भू-भाग पर फैला हुआ है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 5.8 प्रतिशत है। इसका विस्तार मालवा पठार के कुछ भाग, बुंदेलखंड उच्च प्रदेश, नर्मदा घाटी, विन्ध्य कगरी क्षेत्र, महाराष्ट्र पठार के उत्तरी भाग तथा मध्य प्रदेश के कुछ जिलों तक है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में गर्मियों में अत्यधिक उष्ण तथा सर्दियों में हल्की सर्दी रहती है। वर्षण की प्रवृत्ति पूर्वी दिशा की ओर बढ़ती जाती है। वार्षिक वर्षा 1000-1500 मि.मी. होती है, जबकि वार्षिक मांग 1300-1600 मि.मी. तक की है। वर्षा काल (फरवरी से मई तक) में मौसम शुष्क हो जाता है तथा जल घटाव 500-700 मि.मी. तक हो जाता है। फसल वृद्धि काल 150-180 दिन का है। यहां के सर्वाधिक आर्द्र जिले हैं- बालघाट, सिओनी, माण्डला, भण्डारा तथा छिंदवाड़ा है, जहां फसल वृद्धि काल 180-210 दिन का होता है। मृदा में आर्द्रता लम्बे समय तक बनी रहती है।
2. मृदाएं: लाल मिट्टी के कणों युक्त गहरी काली प्रकार की मिट्टियां, पाई जाती हैं। मारहा, खेरी तथा लिंगा तथा कामलियाखेरी श्रेणियों में चूर्णीय तथा हल्की क्षारीय मिट्टी पाई जाती है। फूलने तथा सिकुड़ने की प्रबल संभावनाएं प्रबल होती हैं। लाल मृदाएँ पर्वत श्रेणियों के त्रिकोणीय पृष्ठ पर पाई जाती हैं, जो धीरे-धीरे गहरी चिकनी, प्राकृतिक रूप से अम्लीय प्रकृति की होती जाती हैं।
3. भूमि प्रयोग: प्राकृतिक वनस्पति के रूप में यहां उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन पाए जाते हैं। वर्षा सिंचित कृषि के रूप में प्रायः चावल, सोरघम, सोयाबीन, अरहर (खरीफ फसल) तथा चना, गेहूं तथा सब्जियां आदि की फसलें रबी की फसल के रूप में उगाई जाती हैं। भिन्न रूप से पारिस्थितिकी क्षेत्र में रबी खरीफ की फसलें वर्षा सिंचित हैं, जबकि सिंचाई पद्धति से चावल, गेहूं, चने तथा कपास की खेती में मदद मिलती है।
4. कमियां: चिकनी मिट्टी में बहुत कम आर्द्रता रहती है। इस मिट्टी में हल चलाना बहुत मुश्किल है। फसलों के ख़राब होने के परिणामस्वरूप वर्षा के दिनों में बढ़ के खतरे बढ़ जाते हैं, जिससे खरीफ की फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। भारी वर्षा के करना मृदा अपरदन अधिक मात्रा में होता है तथा मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जस्ता जैसे पोषक तत्वों की कमी आ जाती है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र (Agro ECo-Sub Region—ASERs):
11. लाल एवं पीली मृदाओं युक्त उष्ण उपार्द्र पारिस्थितिकीय क्षेत्र Hot sub-humid eco-region with red and yellow soils
14.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 4.3 प्रतिशत) पर व्याप्त इस पारिस्थितिकीय क्षेत्र की जलवायु उष्ण उपार्द्र प्रकार की है। यह छत्तीसगढ़ क्षेत्र से लेकर दक्षिण-पश्चिम बिहार के उच्च प्रदेश तक विस्तृत है।
1. कृषि जलवायु: उष्ण ग्रीष्म एवं ठण्डी शीत ऋतुएं इस क्षेत्र की विशेषताएं हैं। वार्षिक वर्षण 1200-1600 मि.मी. है, जो कि वार्षिक मांग (1400-1500 मि.मी.) का लगभग 60 प्रतिशत है। इस पारिस्थितिकी क्षेत्र में जल घटाव 500-700 मि.मी. वार्षिक है। 70 से 80 प्रतिशत वर्षा जुलाई से सितंबर माह तक होती है। मिट्टी की आर्द्रता में मौसमी परिवर्तन (दिसंबर से मई अथवा जून माह तक) में होता रहता है तथा मृदा तापमान अतिऊष्मीय (वार्षिक मृदा तापमान 22 °C से अधिक रहता है) होता है। इन क्षेत्रों में फसल वृद्धि काल एक वर्ष में 150-180 दिन का होता है।
2. मृदा: लाल तथा पीली प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं, जो गहरी; दोमट तथा गैर-चूर्णीय प्रकृति की होती है। तटस्थ-से-हल्की अम्लीयता की ओर [घाटापाड़ा, छाल (Chhal) तथा एकमा श्रेणियां] बढ़ती जाती है।
3. भूमि उपयोग: प्राकृतिक वनस्पति के रूप में यहां उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन पाए जाते हैं। परम्परागत कृषि के रूप में वर्षा सिंचित खरीफ की खेती होती है, जिसमें चावल, बाजार, अरहर, मूंग (Green gram) तथा उर्द (blaCkgram) आदि तथा गेहूं तथा चावल आदि की खेती रबी की फसल के रूप में की जाती है।
4. कमियां: अधिक वर्षा के कारण मृदा अपरदन अत्यधिक होता है। प्रारंभिक दिनों में फसलों की वृद्धि के लिए पानी का बहाव कम होता है तथा मौसमी सूखापन अग्रिम रूप में फसल वृद्धि के स्तर पर होता है। उपलब्ध जल क्षमता घट जाती है तथा कुछ स्थानों पर उप-मृदा विन्यास में परिवर्तन से गुणवत्ता में कमी आती जाती है। पोषक तत्वों, यथा-नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, जिंक तथा बोरॉन आदि की कमी हो जाती है।
5. कृषि उप-परिस्थितिकी क्षेत्र: यह क्षेत्र छत्तीसगढ्/महानदी बेसिन तक फेला हुआ है।
12. लाल एवं लेटेराइट मिट्टी युक्त उष्ण उपार्द्र पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot sub-humid eco-region with red and lateritic soils
कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र 26.8 मिलियन हेक्टेयर (भारत कुल भौगोलिक क्षेत्र का 8.2 प्रतिशत) क्षेत्र पर फैला हुआ है। इसका विस्तार बिहार के छोटा नागपुर पठार से लेकर पश्चिम बंगाल के पश्चिमी भाग, गुजरात का दण्डकारण्य, ओडीशा के दण्डकारण्य एवं पूर्वी घाट की ग्रहजात (Garhjat) पहाड़ियां तथा छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र तक है।
1. कृषि-जलवायु: इस परिस्थितिकी क्षेत्र में अति उष्ण गर्मियां तथा ठण्डी शीत ऋतुएं पाई जाती हैं। वार्षिक वर्षा 1000-1600 मि.मी. होती है, जो कि कुल मांग की लगभग 80 प्रतिशत है। वार्षिक जल की कमी इन क्षेत्रों में 500-760 मि.मी. तक है; वर्ष में 90 दिन सूखा काल होता है, जो दिसंबर से मई महीने तक चलता है। मृदा की आर्द्रता में प्रारूपिक मौसमी परिवर्तन होता रहता है तथा मृदा तापमान अतिऊष्मीय (वार्षिक मृदा तापमान 22 °C से ऊपर रहता है) प्रकार का है। फसल वृद्धि काल 150-210 दिन का होता है।
2. मृदाएं: यहां लाल मिट्टियां (पुसारो, भुवनेश्वर और श्रेणियां), जो उत्कृष्ट दोमट से चिकनी, गैर-चूर्णीय, हल्की से मृदु अम्लीय प्रकार की होती हैं। धीरे-धीरे से संतुलित क्षमता अम्लीय हो जाती है तथा जिनमें विनिमय क्षमता निम्न होती है। प्रायः कृषि योग्य घाटियों में गहरी मिट्टियां तथा हल्की मिट्टियां पर्वत श्रेणियों एवं पठारों में पाई जाती हैं।
3. भूमि प्रयोग: यहां की प्राकृतिक वनस्पतियों में उष्णकटिबंधीय शुष्क तथा अर्द्ध-पर्णपाती वन पाये जाते हैं। वर्षा सिंचित खेती में खरीफ की फसलों के साथ रबी की फसलें, जिसमें चावल तथा गेहूं भी शामिल हैं, उगाई जाती हैं।
4. कमियां: अत्यधिक मात्रा में मृदा अपरदन तथा मौसमी सूखे का प्रभाव फसलों की उत्पादकता पर पड़ता है। जल की कम उपलब्धता में उप-मृदा तथा मृद्रा-विन्यास पर अधिक दबाव पड़ता है। मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, जस्ता तथा बोरॉन आदि पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। लाल तथा लेटराइट मिट्टियों में उच्च फॉस्फोरस धारण करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
5. कृषि उप-पारिस्थितिकी क्षेत्र:
13. कछारी/जलोढ़ मृदा युक्त उष्ण उपार्द्र (नम) पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot sub-humid (moist) eco-region with alluvium-derived soils
यह पारिस्थितिकी क्षेत्र 11.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3.41 प्रतिशत) को आच्छादित करता है। इसका विस्तार उत्तर-पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार तथा केंद्रीय हिमालय गिरिपाद श्रृंखला तक है।
1. कृषि-जलवायु: यहां की जलवायु गर्मियों में उष्ण एवं आर्द्र तथा सर्दियों में शीत एवं शुष्क प्रकार की होती है। वार्षिक वर्षा 1400-1800 मि.मी. होती है, जबकि वार्षिक मांग 1300-1500 से अधिक है। यहां लघु मौसमी जल घटाव फरवरी से मई तक 400-500 मि. मी. तक होता है। फसल वृद्धि काल 180-210 दिन होता है। इन क्षेत्रों में मृदा की आर्द्रता में मौसमी अनियमितता रहती है। इसका प्रमुख कारण मृदा आर्द्रता नियंत्रण (Soil Moisture Control SeCtion-SMCS) है, जो पूरे भाग में मध्य जनवरी से लेकर मई माह तक रहता है, किंतु उत्तर भारत में एसएमसीएस भंग हो जाता है तथा मृदा 90 अथवा इससे अधिक दिनों के लिए शुष्क नहीं रहती। मृदा तापमान अतिऊष्मीय रहता है तथा औसत वार्षिक मृदा तापमान 22°C से अधिक रहता है।
2. मृदा: इस प्रदेश की मिट्टियां चूर्णीय तथा थोड़ी मात्रा में (केसरगंज तथा साबर श्रेणियां) क्षारीय प्रकृति की होती हैं। यह बाढ़ के मैदानों में A-C मृदाओं से A-Bt-C मृदाओं में स्थिर समतल क्षेत्रों के विकास की रूपरेखा के विभिन्न कोणों में दृष्टिगत होता है। मध्य हिमालय की निचली पहाड़ियों के गिरिपादों में पाई जाने वाली तराई प्रकार की मिट्टियां गहरी, दोभट एवं जैव पदार्थों में उच्च स्तरीय होती हैं।
3. भूमि-उपयोग: उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन तथा शुष्क पर्णपाती वन प्राकृतिक वनस्पति के रूप में इन क्षेत्रों में आच्छादित होते हैं। वर्षा सिंचित कृषि इन क्षेत्रों में सामान्य हिती है, जिसमें मक्का, अरहर, मुंग आदि खरीफ की फसलें तथा गेंहूं, मसूर, मूंगफली, आदि रबी की फसलें बोई जाती है। गन्ने, तम्बाकू,मिर्च, हल्दी, धनियां, तथा आलू की फसलों के लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है।
4. कमियां: भूमि के बाढ़ग्रस्त होने एवं अकुशल अपवाह तंत्र के कारण मृदाओं में वायुमिश्रण बाधित होता है। लवणीय तथा क्षारीयता बढ़ने के कारण फसलें प्रभावित होती हैं। मिट्टी में नाइट्रोजन, फर्फोरस एवं जिंक जैसे पोषक तत्वों की मात्रा कम होने के कारण पोषण असंतुलित हो जाता है।
5. कृषि-पारिस्थितिक उप-क्षेत्र:
14. भूरे वन तथा धूसर मिट्टी युक्त गर्म, उपार्द्र से आर्द्र एवं प्रति-आर्द्र पारिस्थितिकी क्षेत्र Warm sub-humid to humid with inclusion of perhumid eco-region with brown forest and podzolic soils
यह पारिस्थितिकी क्षेत्र 21.2 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर आच्छादित है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 6.3 प्रतिशत भू-भाग है। इसका विस्तार जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र तक है।
1. कृषि-जलवायु: इस क्षेत्र में हल्की गर्मी तथा सर्दियों में सर्दी रहती है। वार्षिक वर्षा 1000-2000 मि.मी. होती है। वर्षण की प्रवृत्ति पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ती जाती है। मृदा में आर्द्रता लगातार 45 दिन अथवा वर्ष में 90 संचित दिनों से अधिक के लिए समाप्त नहीं होती। क्षेत्र के बिल्कुल पश्चिमी भाग में मृदा में आर्द्रता वर्ष में 90 से 120 दिन से अधिक के लिए समाप्त नहीं होती। मेसिक/थर्मिक (MesiC/ThermiC) मृदा का वार्षिक तापमान 12°C से 20°C के बीच में रहता है। किंतु लाहौल-स्पीति क्षेत्र में शीत ऋतु में मृदा का तापमान हिमांक बिन्दु से नीचे चला जाता है।
2. मृदाएं: भूरे वन तथा हल्की सी मध्यम, उच्च जैव-पदार्थ युक्त धूसर मिट्टी तथा (A-Bt-C) संस्तर (गोग्जी-पाथर, वाहथोरा एवं कुल्लू श्रेणियां तथा अन्य) के विकासार्थ निर्बल (A-C) यहां की उत्कृष्ट दोमट उदासीन मिट्टी में 50 प्रतिशत संतृप्तता होती है। नैनीताल तथा गढ़वाल जिलों की तराई में पाई जाने वाली मृदा गहरी दोमट तथा कुछ मात्रा में क्षारीय प्रकृति की होती है।
3. भूमि प्रयोग: वर्षा सिंचित कृषि यहां घाटियों तथा समतल क्षेत्रों में होती है। यहां मुख्यतः गेहूं, ज्वार, मक्का तथा चावल की खेती की जाती है। धान तथा बागवानी पौधे, जैसे- सेब आदि, भी समतल क्षेत्रों में उत्पन्न किए जाते हैं। हिमालय के आर्द्र तापमान में प्राकृतिक वनस्पति के रूप में उपोष्णकटिबंधीय पाइन एवं उप-अल्पाइन वन पाए जाते हैं।
4. कमियां: उत्तरी उच्च अक्षांशों में फसलों का चुनाव बहुत कठिन होता है क्योंकि यहां की जलवायु अति शीतल होती है। अकुशल अपवाह प्रणाली के कारण भी फसल चुनाव मुश्किल होता है। इन क्षेत्रों में निर्वनीकरण के कारण मृदा का अपरदन होता है तथा ढालों की अधिकता हो जाती है। मृदा निम्नीकरण के कारण यहां भू-स्खलन की घटनाएं सामान्य हैं। मिट्टी में अम्ल की मात्रा, विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा तथा मनाली क्षेत्रों में, बढ़ जाती है। अवक्रमित पहाड़ियों पर अत्यधिक मात्रा में मृदा अपवाह तथा मृदा विन्यास में भिन्नता के कारण सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
5. कृषि पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
15. उष्ण उपार्द्र (आर्द्र) से आर्द्र (प्रति-आर्द्र युक्त) जलोढ़-अवसादी मृदा युक्त, पारिस्थितिकीय क्षेत्र Hot sub-humid (moist) to humid (inclusion of perhumid) eco-region with alluvium-derived soils
यह क्षेत्र कुल 12.1 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर फैला हुआ है, जो कि भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3.7 प्रतिशत भू-भाग है। इसका विस्तार असम के ब्रह्मपुत्र मैदान तथा प. बंगाल राज्य के गंगा नदी के मैदान तक है।
1. कृषि-जलवायु: यहां की जलवायु गर्मियों में अति उष्ण तथा सर्दियों में हल्की ठण्डी से अति ठंडी होती जाती है। वार्षिक वर्षा गंगा के मैदानी भागों में 1400-1600 मि.मी. तथा 1800-2000 मि.मी. वर्षा त्रिपुरा मैदान के बराक बेसिन तथा तीस्ता-ब्रह्मपुत्र मैदानों में होती है। वार्षिक वर्षा अनुपात से अधिक होती है। यहां अधिकतम वर्षा जून से अक्टूबर महीने के बीच होती है, जो अधिकांशतः मध्य फरवरी तक चलती है। वर्षा उत्तरी और पूर्वी भाग की ओर तीव्रता से होती है। यहां मृदा में आर्द्रता आंशिक तौर पर संचित 90 दिनों के लिए कम हो जाती है या मृदा शुष्क हो जाती है, किंतु तीस्ता घाटी, बराक-ब्रह्मपुत्र घाटी तथा कूसीयारा घाटी (त्रिपुरा) मैदान में आर्द्रता अधिकतम 90 संचित (Cumulatine) के लिए कम नहीं होती। मृदा का तापमान अतिऊष्मीय रहता है। फसल वृद्धि काल 210 दिन होता है।
2. मृदा: यहां की मृदा हल्की से तीव्र अम्लीय है तथा इसमें सामान्यतः निम्न संतृप्तिकरण (जेहिन्ग, काना गढ़ तथा जोरहट श्रेणी) है।
3. भूमि-उपयोग: यहां प्राकृतिक वनस्पति के रूप में उष्णकटिबंधीय आर्द्र तथा शुष्क पर्णपाती वन पाए जाते हैं। चावल आधारित कृषि ब्रह्मपुत्र, तीस्ता, गंगा के मैदानों में की जाती है, क्योंकि इन क्षेत्रों में वर्षा भारी मात्रा में होती है। वर्षा सिंचित क्षेत्रों में मुख्य फसल के रूप में चावल तथा जूट की खेती की जाती है। पश्चिमी हिमालय की उत्तरी गिरिपाद पर्वत श्रेणियों तथा तीस्ता और ब्रह्मपुत्र नदी क्षेत्रों में रोपित फसलों के रूप में चाय तथा बागवानी फसलों के रूप में अनन्नास, नींबू, केला आदि की खेती की जाती है। अवशिष्ट/आर्दता युक्त मिट्टी में चावल, जूट, दलहन, तिलहन आदि रबी की फसलें उगाई जाती हैं। सिंचाई के द्वारा चावल, गेंहूं, गन्ना आदि फसलों की खेती गंगा तथा तीस्ता मैदानों में की जाती है।
4. कमियां: इन क्षेत्रों में बाढ़ तथा पानी का जमाव एक प्रमुख समस्या है। क्षारों तथा पोषक तत्वों के अत्यधिक मात्रा में रिसाव के कारण, विशेष रूप से ब्रह्मपुत्र के मैदानों में, भूमि का निम्न स्तर हो जाता है। मृदा अम्लता के कारण पोषक तत्वों में असंतुलन पैदा हो जाता है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
16. भूरी एवं लाल पहाड़ी मृदायुक्त गर्म उपार्द्र पारिस्थितिक क्षेत्र Warm sub-humid eco-region with brown and red hill soils
यह कृषि पारिस्थितिकी प्रदेश कुल 9.6 मिलियन हेक्टेयर (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 2.9 प्रतिशत) भाग पर फैला हुआ है। इसका विस्तार बंगाल के उत्तरी पहाड़ियों से लेकर असम के उत्तरी भाग, अरुणाचल प्रदेश तथा सिक्किम तक है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में गर्मियों में गर्मी तथा सर्दियों में अति सर्द मौसम होता है। वार्षिक वर्षा 2000 मि.मी. तक होती है। वर्षा ऋतु के खत्म होने के बाद बहुत कम समय तक मौसमी जल की कमी होती है। फसल वृद्धि काल इन क्षेत्रों में 270 दिन का होता है। इन क्षेत्रों में मृदा आर्द्रता होती है।
2. मृदा: इन क्षेत्रों की हल्की से थोड़ी भारी दोमट, भूरी वन मृदाएं पाई जाती हैं, जिसमें निम्न आधार स्तर वाले उच्च गहन कार्बनिक पदार्थ भी होते हैं। इस क्षेत्र की मिट्टियां जरमोटली (Germotali) श्रेणी की हैं, जो थोड़ी अम्लीय एवं आधार में लगभग 50 प्रतिशत जटिल विनिमय प्रकार की होती हैं।
3. भूमि-उपयोग: उपोष्णकटिबंधीय देवदार वृक्ष तथा आर्द्र सदावहार वन प्राकृतिक वनस्पतियां हैं। इन क्षेत्रों में परम्परागत कृषि के रूप में झूम कृषि की जाती है। ज्वार आदि की खेती परम्परागत तरीके से उच्च प्रदेशों के समतल क्षेत्रों में की जाती है। आलू, मक्का, बाजरा तथा धान की खेती निम्न घाटियों में की जाती है। वर्षा सिंचित तथा अन्य सिंचाईयुक्त कृषि भी इन क्षेत्रों में की जाती है, जिसमें चावल, मक्का, बाजरा, आलू, शकरकंद, तिल तथा दालों आदि की खेती निचली घाटियों में तथा अन्य मैदानों पर कपास, मेस्टा तथा गन्ने की खेती की जाती है। सब्जियों तथा रोपण फसलें पहाड़ी भूमि पर एवं औषधीय एवं बागवानी पौधों (अनन्नास, नीबू, सेब, नाशपाती, आडू तथा केला) की खेती पहाड़ी भूमि पर की जाती है।
4. कमियां: कठोर जलवायु दशाओं के कारण यहां फसल चुनाव प्रतिरोधित है। इसका बनी रहती है। खाड़ी ढालू भूमि का अपवाह तथा अपरदन अधिक मात्रा में होता रहता है। झूम कृषि तथा निर्वनीकरण के कारण भूमि अवनतिकरण होता रहता है। अत्यधिक वर्षा के कारण मृदा विक्षालन (Leaching) तथा मृदा उत्पादकता न्यून स्तर तक पहुंच जाती है। इन क्षेत्रों में साधारणतः एकल-कृषि अपनायी जाती है।
5. कृषि पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
17. लाल तथा लेटेराइट मृदायुक्त गर्म प्रति-आर्द्र पारिस्थितिकी क्षेत्र Warm Perhumid eco-region with red and lateritic soils
यह कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र कुल 10.6 मिलियन हेक्टेयर (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3.3 प्रतिशत भाग) पर आच्छादित है। यह क्षेत्र उत्तर-पूर्वी पहाड़ियां (पूर्वांचल) पहाड़ियों से लेकर नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम तथा त्रिपुरा के दक्षिणी भाग तक फैला हुआ है।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में गर्मियों में गर्म मौसम तथा सर्दियों में अति ठंड युक्त जलवायु होती है। वार्षिक वर्षा 2000 से 3000 मि.मी. के बीच होती है, जो वार्षिक अनुपात से अधिक है। इन क्षेत्रों में आर्द्रता सूचकांक 100 प्रतिशत तक होता है, जिसके परिणामस्वरूप परिस्थितिकी उप-क्षेत्र प्रति आर्द्र हो जाता है। जल घटाव मानसून के बाद लगभग 100-150 मि.मी. तक होता है। मृदा में आर्द्रता होती है तथा मृदा तापमान अतिऊष्मीय (घाटियों में) अथवा ऊष्मीय (उच्च भौगोलिक क्षेत्रों में) होता है। फसल वृद्धि काल 270 दिन का होता है।
2. मृदाएं: हल्की से अत्यधिक गहरी दोमट, लाल एवं लेटेराइट तथा लाल व पीली प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं। ये मृदाएं दायलोग श्रेणियों, जो अम्लीय एवं क्षारीय तथा थोड़ी जटिल प्रकार की होती हैं।
3. भूमि-उपयोग: इन क्षेत्रों में सदाबहार तथा उष्णकटिबंधीय आर्द्र पतझड़ वन पाए जाते हैं। परम्परागत रूप से झूम कृषि की जाती है। घाटियों में चावल की खेती प्रमुख रूप से की जाती है। चावल, बाजरा, मक्का तथा आलू के साथ-साथ रोपण फसलें (चाय, कॉफी, रबड़) तथा बागवानी फसलें (संतरा, अनन्नास) आदि की खेती पहाड़ियों के समतल क्षेत्रों पर की जाती है। वर्षा विशेष रूप से चावल तथा जूट की खेती में मदद करती है। वर्षाकाल खत्म होने के बाद तिलहन, दलहन (मूंग, उड़द, मसूर) की खेती की जाती है।
4. कमियां: निर्वनीकरण तथा हस्तांतरण कृषि के कारण अत्यधिक मृदा अपरदन होता है। अधिक वर्षा के कारण मृदा विक्षालन के कारण मृदा भं पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। वर्षा ऋतु के खत्म होने के बाद बहुत कम तापमान के कारण बहुत सारी फसले नहीं उगाई जा सकती हैं। लोगों के पास बहुत कम सीमांत भूमि है अतः आधुनिक कृषि पद्धतियां नहीं अपनाई जा सकतीं।
5. कृषि-पारिस्थितिकीय उप-क्षेत्र:
18. तटीय जलोढ़-अवसादी मृदायुक्त उष्ण उपार्द्र से अर्द्ध-शुष्क पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot sub-humid to semi-arid eco-region with coastal alluvium-derived soils
यह पारिस्थितिकी क्षेत्र कन्याकुमारी के दक्षिण-पूर्वी तटीय मैदान से लेकर गंगा के डेल्टा तक फैला हुआ है। इसका कुल क्षेत्र 8.5 मिलियन हेक्टेयर (जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.6 प्रतिशत) है।
1. कृषि-जलवायु: पूर्वी तटीय क्षेत्रों में जलवायु की स्थिति अर्द्ध-शुष्क, उपार्द्र प्रकार की होती है। वार्षिक वर्षा 900-1100 मी. होती है। यह वर्षा कन्याकुमारी तथा तमिलनाडु के दक्षिण तंजौर जिले के बीच तथा तमिलनाडु में उत्तरी चेन्नई तथा आंध्र प्रदेश में पश्चिमी गोदावरी के बीच होती है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वृष्टि 1700-1800 मि.मी. होती है। वार्षिक जल घटाव 800-1000 मि.मी. होता है। फसल वृद्धि काल 90-150 दिन का होता है। नागपट्टनम और चेन्नई के बीच पूर्वी तटीय मैदान से लेकर उत्तर-पश्चिमी तटीय पट्टी तक, जिसमें आंध्र प्रदेश, ओडीशा, पश्चिम बंगाल भी शामिल है, 1200-1600 मि.मी. वार्षिक वर्षा होती है। इस वार्षिक वर्षा का 4/5 भाग जून से सितंबर माह तक प्राप्त हो जाता है। वार्षिक वृष्टि मांग नए क्षेत्रों में 1400-1700 मि.मी. तक है। वार्षिक जल घटाव 600-800 मि.मी. तक होता है। इन क्षेत्रों में फसल वृद्धि काल 150 से 210 दिन वार्षिक होता है। मृदा तापमान का स्तर समअतिऊष्मीय (isohyperthermiC) (वार्षिक मृदा तापमान 22°C से अधिक रहता है तथा गर्मियों एवं सर्दियों में तापमान में 5°C से कम का अंतर होता है)।
2. मृदा: इन प्रदेशों में मोटो एवं कालाथुर श्रेणियों की मृदाएं पाई जाती हैं, जो धीरे संतुलित रूप में सांद्रित तथा चिकनी हो जाती हैं। इस क्षेत्र की मृदाओं में धनायन विनिमय क्षमता प्रबल होती है। कालाथुर मृदाओं में फूलने, सिकुड़ने तथा भुरभुरेपन की संभावना प्रबल रहती है।
3. भूमि उपयोग: इन क्षेत्रों में रबी व खरीब के मौसम में प्रमुख फसल के रूप में चावल की ही कृषि की जाती है। नारियल रोपण कृषि के रूप में इन क्षेत्रों में मुख्य है। धान की कटाई के बाद, उसकी आर्द्र मृदा में दालें (उड़द तथा मसूर) तथा तिलहन फसलें (सूरजमुखी, मूंगफली) आदि की खेती की जाती है। तटीय क्षेत्रों में पानी भर जाने से लोग मत्स्य क्रिया जैसे कायों से अपनी आर्थिक स्थिति में वृद्धि करते हैं। ध्यातव्य है कि, इन क्षेत्रों में मत्स्यन एक प्रमुख आर्थिक गतिविधि है।
4. कमियां: इन क्षेत्रों में मिट्टी की अपवाह प्रणाली अपूर्ण होती है तथा ऑक्सीजन की मिट्टी में उपलब्धता सीमित मात्रा में होने कारण उत्पादन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। खराब अपवाह के कारण भी मृदा में लवणता और क्षारीयता की वृद्धि होती है, जो फसल उत्पादकता को प्रभावित करती है। मानसून के समय चक्रवातों तथा चक्रवाती झंझावातों के कारण फसलों को भयंकर नुकसान पहुंचता है।
5. कृषि-पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
19. लाल लेटेराइट तथा कछारी-अवसादी मृदा युक्त उष्ण आर्द्र प्रति-आर्द्र पारिस्थितिकी प्रदेश Hot humid perhumid eco-region with red, lateritic and alluvium-derived soils
यह कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र कुल 11.1 मिलियन हेक्टेयर भूमि (भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र 3.6 प्रतिशत) पर आच्छादित है। इसका विस्तार सह्याद्री से लेकर महाराष्ट्र के पश्चिमी तटीय मैदान, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु की नीलगिरि पहाड़ियों तक है।
1. कृषि-जलवायु: यहां गर्मियों में उष्ण एवं आर्द्र तथा सर्दियां कम ठण्डी होती हैं। इन क्षेत्रों में माध्य वार्षिक तापमान 25°C से 28°C के बीच होता है। गर्मी तथा सर्दी में मृदा तापमान के मध्य अंतर 5°C से कम होता है। इसके अधिकांश भागों में वार्षिक वर्षा 2000 मि.मी. होती है, जबकि वार्षिक मांग 1400-1600 मि.मी. तक है। मौसमी जल घटाव 800-400 मि.मी. (फरवरी एवं मार्च में तथा अप्रैल के पहले सप्ताह में) होता है। फसल वृद्धि काल 150 से 210 दिन तथा कुछ क्षेत्रों में 210 दिन से अधिक होता है। मृदा तापमान समअतिऊष्मीय (isohyperthermiC) रहता है।
2. मृदाएं: लाल तथा लेटेराइट मृदाएं प्रमुख रूप से सह्याद्रि पवनाविमुखी पार्श्व भाग तथा कछारी-अवसादी मृदाएं तटीय मैदानों में पाई जाती हैं। तिरुवनंतपुरम् तथा कुन्नामंगलम् श्रेणियों में गहरी, चिकनी, संतुलित मात्रा में अम्लीय प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं। मिट्टी की धारण क्षमता एवं अंतर्निहित उर्वरता बहुत कम होती है।
3. भूमि-प्रयोग: इन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन पाये जाते हैं। चावल, टैपियोका (tapioca), नारियल तथा मसाले आदि की खेती बहुतायत में की जाती है।
4. कमियां: अधिक मात्रा में विक्षालन (रिसाव) के परिणामस्वरूप पौधों को पोषक तत्वों की पूरी मात्रा नहीं मिल पाती। तटीय क्षेत्रों में जल-भराव का भी फसलों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। खड़े ढालों के कारण मृदा का अपरदन होता है। जल प्लावित क्षेत्र स्थानीय दलदलों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
5. कृषि पारिस्थितिक उप-क्षेत्र:
20. लाल दोमट तथा बलुई मिट्टी युक्त उष्णार्द्र प्रति-आर्द्र द्वीपीय पारिस्थितिकी क्षेत्र Hot humid per-humid Island eco-region with red loamy and sandy soils
यह कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र 0.8 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र (भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 0.3 प्रतिशत) पर फैला हुआ है। इन क्षेत्रों में पूर्व में अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह तथा पश्चिम में लक्षद्वीप स्थित हैं।
1. कृषि-जलवायु: इन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय जलवायु पाई जाती है अर्थात् गर्मियों तथा सर्दियों के माध्य औसत तापमानों में अंतर होता है। अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह में वार्षिक वर्षा 3000 मि.मी. तथा लक्षद्वीप में 1600 मि.मी. तक वर्षा होती है। मौसमी जल घटाव 300-400 मि.मी. होता है। यह घटाव मानसून काल में जनवरी से मार्च के बीच में होता है। फसल वृद्धि काल 210 दिन का होता है। मृदा आर्द्रता में मौसमी अनियमित रहती है तथा मृदा का तापमान समअतिऊष्मीय होता है।
2. मृदाएं: अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूहों में मृदाएं मध्यम से गहरी, लाल दोमट तथा तटीय क्षेत्रों में कछारी-अवसादी प्रकार की होती है। इन क्षेत्रों की मृदाएं अहोरगांव, धानीखरी तथा गारूचरमा (Ahargaon, Dhanikhari and Garucharma) की हैं, जो शुरू में अतिसान्द्रयुक्त अम्लीय तथा संतुलित से संतृप्त होती हैं। लक्षद्वीप द्वीप समूह की मृदा एवं उच्च चूर्णीय (चूनायुक्त) तथा बलुई प्रकार की होती हैं।
3. भूमि उपयोग: इन क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, समुद्रतटीय तथा दलदलीय वर्षा वन; प्रमुख रूप से पाये जाते हैं। अण्डमान का दो-तिहाई भाग वनों से ढका हुआ है। धान यहां की मुख्य फसल है, रोपण पौधों के रूप में नारियल, सुपारी, कसावा, मिर्च, आदि की खेती की जाती है। लक्षद्वीप में धान की खेती निम्न स्थल कृषि भूमि की दशा में की जाती है। यहां प्रमुख रोपण फसल नारियल है। समुद्री मत्स्यपालन यहां के लोगों का प्रमुख व्यवसाय है।
4. कमियां: उष्णकटिबंधीय वर्षा वन युक्त पारिस्थितिकी क्षेत्र के कारण अधिक मात्रा में मृदा अपरदन होता है। पोषणीय पौधों को (जैसे- ताड़, खजूर) के वृक्ष लगाकर हम इस पारिस्थितिकीय तंत्र को बनाए रख सकते हैं। बाढ़ग्रस्त तटीय मैदानों में, लवणीय दलदल तथा सल्फेट अम्ल युक्त मृदा बन जाती है। इसलिए यह क्षेत्र अब मैन्ग्रोव क्षेत्र के रूप में बदल चुका है।
5. कृषि पारिस्थितिकी उप-क्षेत्र:
bharat Kristi paristhitiki shetra
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