1. साल 2008 की एक रिपोर्ट की मुताबिक, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में सबसे विशाल पर्यावरणीय पदचिन्ह (इकोलॉजिकल फुटप्रिंट) भारत का ही है। हमारे पास जितने प्राकृतिक संसाधन हैं, हमारे देश के लोग उससे दोगुनी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं। ऊपर से, भारत में प्रकृति की मनुष्यों के भरण-पोषण की क्षमता पिछले चार दशकों के दौरान घटकर महज आधी रह गई है।1
2. देश के सबसे अमीर लोगों (यानी आबादी के सबसे अमीर 0.01 प्रतिशत तबके) के प्रति व्यक्ति पर्यावरणीय पदचिन्ह देश की सबसे गरीब 40 प्रतिशत आबादी के मुकाबले 330 गुना ज्यादा है। ये किसी औद्योगिक, सम्पन्न देश के औसत नागरिक के पर्यावरणीय पदचिन्ह से भी 12 गुना ज्यादा है। भारत के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह अमीर देशों के सामान्य नागरिकों से दो तिहाई और देश के 40 प्रतिशत निर्धनतम लोगों के पर्यावरणीय पदचिन्ह से 17 गुना ज्यादा है। इस तरह, अगर भारत के किसी व्यक्ति के पास एक कार और एक लैपटॉप है तो वह 17 बेहद निर्धन भारतीयों के बराबर संसाधनों का दोहन करता है। इस तरह का व्यक्ति लगभग 2.3 औसत विश्व नागरिकों (2007 में वैश्विक प्रति व्यक्ति आय लगभग 10,000 डॉलर थी) के बराबर संसाधनों का उपभोग कर लेता है।2
3. पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट रिपोर्ट, 2009 के मुताबिक भारत की खाद्य सुरक्षा भविष्य में आने वाले वायुमंडलीय परिवर्तन के कारण खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे सूखे व बाढ़ों की बारम्बारता व सघनता बढ़ जाएगी और छोटे व सीमान्त किसानों की उपज पर सीधा असर पड़ेगा। यानी पूरे देश में कृषि उपज उल्लेखनीय रूप से घटने वाली है।3
4. वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में फिलहाल भारत का हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के नाते उसका यह हिस्सा भी हर साल बढ़ता जा रहा है। अनुमान लगाया जाता है कि अगर मौजूदा रुझान कायम रहा तो 2030 तक भारत का औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन स्तर तीन गुना हो जाएगा।4
5. भारत की आधी से ज्यादा ऊर्जा कोयले से आती है। ज्यादातर कोयला खानों को सम्भालने वाले कोल इंडिया के मुताबिक, हमारे इस्तेमाल योग्य कोयला भंडार उतने बड़े नहीं है जितना पहले माना जाता था। मौजूदा विकास दर के हिसाब से ये भंडार तकरीबन 80 साल तक ही चल पाएँगे। लेकिन आने वाले दौर की अनुमानित वृद्धि दर के हिसाब से देखें तो इन भंडारों की उम्र सिर्फ 3-4 दशक ही बची है।5 इसके बावजूद गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोतों के लिये हमारा केन्द्रीय बजट कुल ऊर्जा बजट का सिर्फ 1.28 प्रतिशत है।6
6. पानी का बारहमासी संकट देश के नये-नये इलाकों को अपनी चपेट में लेता जा रहा है। भूमिगत पानी के सालाना अतिदोहन की सबसे ऊँची दर भारत की ही है। देश के बहुत सारे भागों में जमीन से पानी निकालने की दर जमीन में पानी के संरक्षण से दोगुना पहुँच चुकी है। जैसे-जैसे भूमिगत जल भण्डार सूखते जा रहे हैं, जलस्तर गिरता जा रहा है। कई जगह (जैसे पंजाब में ) तो जलस्तर हर साल 3-10 फुट तक गिरता जा रहा है जैसे-जैसे वायुमंडलीय परिवर्तन की वजह से तापमान बढ़ रहा है, देश में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता, जो 2001 में 1820 घन मीटर प्रति वर्ष थी वह 2050 तक गिरकर केवल 1140 घनमीटर वार्षिक के स्तर पर पहुँच जाएगी। भले ही बारिश के मौसम में बारिश घनी हो जाए लेकिन तब तक बारिश के दिनों में 15 दिन की गिरावट आ चुकी होगी।7
7. 2009 का साल पिछले कई दशकों के दौरान भारत में सबसे ज्यादा सूखे का साल रहा। उस साल मानसून में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पंजाब जैसे कुछ कृषि क्षेत्रों में तो ये इससे भी काफी ज्यादा थी। इससे खेती पर बहुत गहरे असर पड़े थे।8
8. खेती की उपज के लिये मिट्टी की ऊपरी सतह बहुत कीमती होती है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आईसीएआर) के मुताबिक हर साल प्रति हेक्टेयर 16 टन ऊपरी मिट्टी यानी पूरे देश में लगभग 5 अरब टन उपजाऊ मिट्टी खत्म होती जा रही है। इस ऊपरी परत को बनने में हजारों साल लगते हैं। बंगलुरु के आस-पास सूखे से जूझ रहे गाँवों के किसान भूखमरी से निपटने के लिये हर रोज अपने खेतों से लगभग 1000 ट्रक मिट्टी खोदकर बंगलुरु में चल रहे निर्माण कार्यों के लिये बेचते हैं।9
9. 1990 से 2000 के बीच पुनर्वृक्षारोपण की दर 0.57 प्रतिशत सालाना थी। 2000 से 2005 के बीच यह मात्र 0.05 प्रतिशत रह गई थी। अब घने या मध्यम स्तर तक घने जंगल भारत के 12 प्रतिशत से भी कम भू-भाग पर रह गए हैं। इतना ही क्षेत्रफल खुले जंगलों या झाड़ीदार जंगलों का है।10
10. 1980-81 के बाद जितनी वन भूमि का सफाया किया गया है उसमें से लगभग 55 प्रतिशत 2001 के बाद हुआ है। 1980-81 के बाद खानों के लिये जितने जंगलों की सफाई हुई है उनमें से 70 प्रतिशत 1997 से 2007 के बीच काटे गए हैं। वैश्वीकरण ने जंगलों की कटाई और जमीन को अनुपजाऊ बनाने में बहुत तेजी ला दी है। यह परिघटना अस्सी के दशक तक काफी हद तक अंकुश में थी।11
11. भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा जैव विविधता वाले इलाकों में से एक है। हमारे यहाँ 1,30,000 से ज्यादा पादप और जन्तु प्रजातियाँ हैं और फसलों व मवेशियों में जबर्दस्त विविधता है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मुताबिक, हमारी कम-से-कम 10 प्रतिशत पादप एवं जन्तु प्रजातियाँ खतरे में पड़ चुकी प्रजातियों की सूची में जा चुकी हैं। अगर वायुमंडलीय परिवर्तन की वजह से केवल 2 प्रतिशत तापमान भी बढ़ जाता है तो भारत की 15-40 प्रतिशत जन्तु एवं पादप प्रजातियाँ समाप्त हो जाएँगी। जंगली इलाकों में जलाशयों के निर्माण से कुछ बेहतरीन जंगलों और जैवविविधता से भरे अनूठे प्राकृतिक क्षेत्रों (इकोसिस्टम्स) का विनाश हो चुका है। जल विद्युत और खनन परियोजनाओं के लिये जंगलों की कटाई हमारी जैव विविधता के लिये सम्भवतः सबसे बड़ा खतरा है। देश के असंख्य पवित्र वन या अन्य समुदाय संरक्षित क्षेत्र, जिनको परम्परागत रूप से ग्रामीण समुदाय सुरक्षित रखते थे, आर्थिक विकास के इस हमले की वजह से खतरे में पड़ने लगे हैं।12
12. भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी अपनी आजीविका और रोजी-रोटी के लिये जमीन से जुड़े व्यवसायों, जंगलों, जलाशयों और समुद्री पर्यावासों पर यानी स्थानीय प्राकृतिक क्षेत्रों पर आश्रित है। पानी, भोजन, ईंधन, आवास, चारा और औषधियाँ, सब कुछ उन्हें यहीं से मिलता है। पौधों की लगभग 10,000 और पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ जैव विविधता और आजीविका के इस आपसी सम्बन्ध को सम्भाले हुए हैं। देश भर में 27.5 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिये लघु वन उत्पादों पर आश्रित हैं। पर्यावरणीय विनाश इन लोगों के जीवन और आजीविका को सीधे प्रभावित करता है।13
पर्यावरण 13. भारत की 7,500 किलोमीटर लम्बी तटरेखा पर 12 बड़े और 185 छोटे बन्दरगाह हैं। इनके अलावा यहाँ दर्जनों ऑयल रिफाइनरी और पेट्रोरसायन संयंत्र तथा अन्य विषैले उद्योग हैं। बहुत सारे ऐसे संयंत्र अभी योजना के चरण में हैं जो समुद्री इलाकों और तटों के लिये और तबाही ला सकते हैं।14
14. केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, 187 तटीय नगर व कस्बे हर रोज 5.5 अरब लीटर गन्दा पानी समुद्र में छोड़ते हैं। भारतीय तट रेखा के आस-पास लगभग 25 करोड़ लोग रहते हैं जिनमें से बहुत सारे मछुवारे हैं जो लगभग 3,600 गाँवों में रहते हैं। इनके अलावा 4,000 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा विस्तार वाले वर्षा वन (मैनग्रोव) हैं जो चक्रवात/साइक्लोन से आबादी को बचाने में बहुत अहम भूमिका अदा करते हैं। मछुवाही जैसे परम्परागत रोजगार और नाजुक समुद्री इलाके, दोनों ही गम्भीर खतरे में पड़ते जा रहे हैं क्योंकि देश की आर्थिक तरक्की के कारण संसाधनों पर अभूतपूर्व दबाव पड़ने लगा है।15
15. साल 2005 में भारत में 1,46,000 टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2012 तक इसकी मात्रा 8,00,000 टन तक पहुँच जाने की आशंका है। 1992 की बेसल कन्वेंशन को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 में एक आदेश जारी करके देश में विषैले कचरे के आयात पर पाबन्दी लगाने का आदेश दिया था। इसके बावजूद, रीसाइक्लिंग योग्य सामग्री के नाम पर विषैला इलेक्ट्रॉनिक कचरा अभी भी देश में लाया जा रहा है। पिछले कुछ सालों के दौरान पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने कई कम्पनियों को हजारों टन विषैला ई-कचरा आयात करने के परमिट जारी किये हैं।16
16. कई तरह के खतरनाक और विषैले कचरे का आयात वैश्वीकरण के दौर में बहुत तेजी से बढ़ा है। मिसाल के तौर पर, 2003-04 में प्लास्टिक कचरे का आयात 1,01,312 टन था जो 2008-09 में 4,65,921 टन हो चुका था। इसके अलावा हजारों टन धातु कचरा भी आया किया जात है जिसमें अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के युद्धों से निकला हुआ धातु कचरा भी शामिल है। कई बार इसमें जिन्दा विस्फोटक उपकरण भी आ जाते हैं जो रीसाइक्लिंग कारखानों में जब-तब फटते रहते हैं।17
17. पर्यावरण की रक्षा के लिये कार्यरत संगठन कल्पवृक्ष के मुताबिक भारत सरकार हर रोज तीन खनन, औद्योगिक या अवरचनागत परियोजनाओं को मंजूरी दे रही है। इस अध्ययन को लिखने के समय भारत सरकार के पास 6000 से ज्यादा परियोजनाएँ थीं जिन पर 6 क्षेत्रीय कार्यालयों के जरिये नजर रखी जाती है। इस काम के लिये प्रति कार्यालय 2-4 अधिकारियों का स्टाफ रखा गया है। जिन परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी दी जा चुकी है उनका 3-4 साल में एक बार जायजा लिया जाता है। इन्हीं सब तथ्यों की वजह से अनिवार्य पर्यावरणीय कानूनों का अनुपालन इतना मुश्किल हो गया है। इसके बावजूद, इस पर्यावरणीय मंजूरी को आसान बनाने के लिये पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान सम्बन्धित अधिसूचनाओं में 30 से ज्यादा संशोधन (अधिकांशतः उनको कमजोर करने के लिये) किये गये हैं।18
18. अर्थव्यवस्था की कई शाखाओं की शानदार विकास दर के बावजूद सीधे पर्यावरणीय कामों और नियमन पर बजट का बहुत थोड़ा हिस्सा ही खर्च हो रहा है (1 प्रतिशत से भी काफी कम, 2009-10 में यह निवेश आज तक का सबसे कम था)।19
समाज की दशा - राजा, रंक और दौलत वाले
1. लन्दन स्थित न्यू इकॉनॉमिक्स फ़ाउंडेशन (एनईएफ) ने विश्व बैंक के आँकडों के आधार पर हिसाब लगाकर बताया है कि अगर 1990 से 2001 के बीच दुनिया की प्रति व्यक्ति आय में 100 डॉलर की वृद्धि हुयी है तो उसमें से केवल 0.60 डॉलर वृद्धि ही अपनी असली मंजिल तक पहुँची है जिसने एक डॉलर प्रतिदिन से भी नीचे जीवनयापन करने वालों की गरीबी पर अंकुश लगाने में योगदान दिया है। इसका मतलब ये है कि अगर हमें गरीबों की आय में एक डॉलर प्रतिदिन का इजाफा करना है तो गैर-गरीबों को 165 डॉलर अतिरिक्त देने होंगे।20
2. जब 1991 में आर्थिक सुधारों का सिलसिला शुरू हुआ था तब मानव विकास सूचकांक (जिसमें साक्षरता, जीवन प्रत्याशा/औसत उम्र तथा प्रति व्यक्ति आय शामिल है) पर भारत दुनिया के देशों की सूची में 123वें स्थान पर हुआ करता था। 2009 में हमारा देश 134वें स्थान पर जा पहुँचा है।21
3. भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र की समस्याओं पर विचार करने के लिए बनायी गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के मुताबिक, 2007 में भारत की 77 प्रतिशत आबादी (यानी 83.6 करोड़ लोग) 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम आय पर जीवनयापन कर रहे थे। इसका मतलब है कि हमारे पास इतनी भयानक विपन्नता में जीने वाली आबादी आजादी के समय की कुल भारतीय आबादी से लगभग ढ़ाई गुना हो चुकी है।22
4. गरीबी के अध्ययन के लिए बनायी गयी तेंडुलकर कमेटी, जिसने 2009 में योजना आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, के मुताबिक 2004-05 में भारत में गरीबों का अनुपात ग्रामीण इलाकों में 41.8 प्रतिशत और शहरों में 25.7 प्रतिशत था। इस अध्ययन के लिए गरीबी की रेखा का पैमाना गाँवों में 15 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और शहरों व कस्बों में लगभग 20 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तय किया गया था।23
5. आज हिन्दुस्तान की प्रति व्यक्ति आय 150 रुपये प्रतिदिन है। देश के 80 प्रतिशत लोगों की दैनिक आय इससे कम है।24
6. दुनिया भर में अल्पपोषित लोगों की सबसे बड़ी आबादी हिन्दुस्तान में बसती है। यह आबादी सारे उप-सहारा अफ्रीका के अल्पपोषित लोगों की कुल संख्या से भी ज्यादा है। एफएओ ने 2004-06 की अवधि के लिए यह आबादी 25.1 करोड़, यानी देश की कुल आबादी का एक चौथाई बतायी थी। इसमें जनसंख्या वृद्धि और जीवन प्रत्याशा में इज़ाफे का सिर्फ आंशिक योगदान है। अभी भी हमारे पास पर्याप्त भोजन है, एफसीआई के गोदाम अनाज से पटे रहते है और इसके बावजूद 20 करोड़ से ज्यादा लोग रोज भूखे पेट सोते है और 5 करोड़ से ज्यादा ऐसे है जो भुखमरी की कगार पर साँस ले रहे हैं।25
7. 2005-10 के बीच देश के विभिन्न राज्यों में गुजरात की विकास दर सबसे ज्यादा (दो अंकों वाली) रही है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, गुजरात में 1992-93 में तीन वर्ष से कम आयु वाले ऐसे बच्चों की संख्या 44 प्रतिशत थी, जिनका विकास अवरुद्ध है। 2005-06 में भी यहाँ ऐसे बच्चों की संख्या 42 प्रतिशत थी (बाद के आँकड़े उपलब्ध नहीं है)। सामान्य से कम वजन वाले बच्चों का अनुपात भी सुधारों के इस दौर में लगभग पहले जैसा ही रहा है (47-48 प्रतिशत)।26
8. भारत की ‘विकास’ परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो चुके, या परियोजना प्रभावित लोगों की संख्या 1947 से अब तक लगभग 6 करोड़ रही है। योजना आयोग द्वारा लगभग 2.1 करोड़ विस्थापितों पर किए गए अध्ययनों से पता चला कि उनमें से 40 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी लोग रहे हैं जबकि भारत की कुल आबादी में आदिवासियों का हिस्सा केवल 8 प्रतिशत है।27
9. 2008-09 में किए गए एनएसएस सर्वेक्षणों के मुताबिक, भारतीय शहरों में 49,000 झुग्गी-बस्तियाँ हैं। 2003 के एक संयुक्त राष्ट्र अध्ययन में बताया गया था कि भारत की आधी से ज्यादा शहरी आबादी झुग्गी-बस्तियों (पुनर्वास बस्तियों सहित) में रहती है। पूरी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या एक तिहाई है।28
10. भारतीय अर्थव्यवस्था के औपचारिक (संगठित) क्षेत्र में रोजगारों की संख्या 1991 से 2007 के बीच तकरीबन 2.7 करोड़ के आसपास ही थमी रही है। यह संख्या भारत की कुल श्रमशक्ति के 6 प्रतिशत से भी कम है।29
11. 1991 में अनाजों और दालों की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 510 ग्राम थी जो 2007 में 443 ग्राम प्रति व्यक्ति तक गिर गयी थी।30
12. अप्रैल 2009 में भारत में मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों की संख्या 40.3 करोड़ थी। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत यानी 18.7 करोड़ लोग ऐसे थे जिनके पास किसी बैंक में खाता नहीं है। भारत के 6 लाख गाँवों में से केवल 5.2 प्रतिशत गाँव ऐसे हैं जहाँ किसी बैंक की कोई शाखा है। इसकी वजह से ही ज्यादातर किसान महाजनों और सूदखोरों के चंगुल में फँसे रहते है।31
13. कर्जों के बोझ से तंग आकर 1997-2008 के बीच दो लाख किसान ख़ुदकुशी कर चुके थे (सुधारों के शुरू होने के बाद इस संख्या में तेजी से इज़ाफा हुआ है)। इन 10 सालों के दौरान औसतन लगभग हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा था।32
14. 2009 के नीलसन सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 22 करोड़ परिवारों में से केवल 25 लाख परिवार ऐसे हैं जिनके पास कार और कम्प्यूटर दोनों साधन है। विदेशों में सैर-सपाटे के लिए जाने वाले परिवारों की संख्या केवल एक लाख है।33
15. तकरीबन 60 प्रतिशत भारतीयों के पास अभी भी समुचित स्वच्छता सुविधाएँ नहीं हैं। युनीसेफ के मुताबिक, बेहतर पेयजल स्रोत 88 प्रतिशत आबादी (1990 में 72 प्रतिशत) के लिए ही उपलब्ध है।34
16. एक हाई-नेट-वर्थ-इण्डीविजुअल ऐसे करोड़पति व्यक्ति को माना जाता है जिसकी कुल निवेश योग्य सम्पदा (निजी घर, जमीन और/या सम्पत्ति के अलावा) कम से कम 4.5 करोड़ रुपये है। मेरिल लिंच के मुताबिक, भारत में 2010 में ऐसे लोगों की संख्या 1,26,700 थी। यों तो देश की कुल आबादी में इनका हिस्सा केवल 0.01 प्रतिशत ही बैठता है लेकिन इनकी सम्पदा का मूल्य भारत की जीडीपी के लगभग एक तिहाई के बराबर बैठता है।35
17. नैशनल इलेक्शन वॉच द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, वर्तमान लोकसभा के 543 में से 300 सदस्य डॉलर मिलियनेयर्स (यानी 4.5 करोड़ से ज्यादा सम्पत्ति वाले) हैं। 2004 में हुए पिछले आम चुनावों में चुनकर आए सांसदों में उनकी संख्या इससे केवल आधी थी। 543 सांसदों की कुल सम्पत्ति 2,800 करोड़ रुपये के आसपास बैठती है और इस तरह औसतन हर सांसद एक डॉलर मिलियनेयर है। 64 केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्रियों की सम्पत्ति 10 करोड़ डॉलर है।36
18. निजीकरण का शिकंजा प्राकृतिक संसाधनों को भी तेजी से अपनी चपेट में लेता जा रहा है। नदियों के लम्बे-लम्बे टुकड़े कॉरपोरेट खरीदारों को बेचे जा चुके हैं। उदाहरण के लिये छत्तीसगढ़ की शिवनाथ, केलू और कुकरूट नदियों को देखा जा सकता है।37
अर्थव्यवस्था की दशा
1. साल 2003-08 के दौरान हमारे देश ने अब तक की सबसे शानदार विकास दर दर्ज की है। इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर औसतन 8-9 प्रतिशत सालाना रही है। परन्तु 2007-08 में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं से शुरू हुयी महामन्दी का इस उछाह पर भी सीधा असर पड़ा है। 2008-12 के दौरान भारत की विकास (जीडीपी) दर 6.7-8.4 प्रतिशत के बीच झूलती रही है। 2012 के यूरो ज़ोन संकट के कारण तथा आंशिक रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था के भीतर मैन्यूफेक्चरिंग एवं खेती में आए ठहराव की वजह से विकास दर और भी नीचे चली गयी है। 2011-12 की चौथी तिमाही में विकास दर 5.3 प्रतिशत रही जो तकरीबन नौ साल में सबसे कम विकास दर थी। 31 मार्च 2012 को खत्म हुयी तिमाही में मैन्यूफेक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर 0.3 प्रतिशत पर पहुँच गयी थी जो 2010-11 को इसी तिमाही में 7.3 प्रतिशत थी। कृषि उपज में भी कुछ ऐसा ही रुझान दिखाई दिया। इस तिमाही में कृषि उपज में केवल 1.7 प्रतिशत का इज़ाफा दर्ज किया गया जबकि 2010-11 की चौथी तिमाही में ये इज़ाफा 7.5 प्रतिशत था। संकटों में फँसीं विश्व अर्थव्यवस्था के साथ गहरे तौर पर बँधे होने की वजह से आने वाले दौर की तस्वीर बेहद अनिश्चित दिखाई देने लगी है।38
2. 1991 से अब तक औद्योगिक उत्पादन तिगुना हो गया है जबकि बिजली उत्पादन दुगने से भी ऊपर चला गया है। बुनियादी ढ़ाँचे का फैलाव भी प्रभावशाली रहा है। संचार साधनों तथा वायु, रेल एवं सड़क यातायात की गुणवत्ता में भारी विस्तार और सुधार आया है।39
3. 2009 में हमारे यहाँ 2700 से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ काम कर रही थीं।40
4. दिनोंदिन बहिर्मुखी होती जा रही अर्थव्यवस्था में देश के विदेशी कर्जे को भी उसके विदेशी मुद्रा भण्डार के साथ मिलाकर देखना जरूरी है। 1991 में विदेशी कर्जा 83 अरब डॉलर था जो 2008 में 224 अरब डॉलर पहुँच गया था। यह कर्जा जीडीपी का लगभग 20 प्रतिशत था। पिछले कुछ सालों में यह कर्ज और तेजी से बढ़ा है। मार्च 2011 और मार्च 2012 के बीच ये 306 अरब डॉलर से बढ़कर 345 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। इसकी तुलना विदेशी मुद्रा भण्डार से की जा सकती है जो 1991 में लगभग शून्य पर पहुँच गया था और 2012 में 287 अरब डॉलर था। पिछले कुछ समय में भारत से पूँजी के निर्गम की वजह से मुद्रा भण्डार में कुछ गिरावट आयी है। जुलाई 2011 में ये 314 अरब डॉलर था जो साल भर बाद 287 अरब डॉलर रह गया था।41
5. भारत का व्यापार घाटा (आयात और निर्यात का फासला) नब्बे के दशक की शुरुआत से ही तेजी से बढ़ने लगा था। सेवा व्यापार ने आंशिक रूप से इसकी भरपाई तो कर दी है लेकिन यह फासला देश के विदेशी मुद्रा भण्डार में गिरावट का स्पष्ट संकेत है। 2004 में हमारा घाटा जीडीपी का 0.4 प्रतिशत था जो 2011-12 में बढ़कर 3.6 प्रतिशत तक जा चुका था।42
6. साल 2011-12 में भारत सरकार के कुल बजट व्यय का 30 प्रतिशत खर्चा कर्जों का ब्याज चुकाने में जा रहा था। इस प्रकार, यह सरकार के खर्चों का सबसे बड़ा मद है। इसके मुकाबले रक्षा पर 8 प्रतिशत और स्वास्थ्य व शिक्षा पर कुल मिलाकर 2 प्रतिशत से भी कम खर्चा किया जा रहा है।43
7. 2007-08 से शुरू हुई वैश्विक मन्दी के दौरान भारत सरकार को भी अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर दखल देना पड़ा ताकि सितम्बर 2008 के बाद अन्तरराष्ट्रीय बाजारों के चरमराने का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर न पड़े। 2008-09 में सरकार को अर्थव्यवस्था में कुल 1200 अरब रुपये (27 अरब डॉलर) की पूँजी झोंकनी पड़ी जो जीडीपी के 2 प्रतिशत से ज्यादा बैठती है
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