Kalidas Ke Mahakavya कालिदास के महाकाव्य

कालिदास के महाकाव्य



Pradeep Chawla on 12-05-2019

महाकवि कालिदास एवं उनका महाकाव्य रघुवंश


महर्षि वाल्मीकि एवं महर्षि वेदव्यास के पश्चात जिस महाकवि ने भारतीय साहित्य और चेतना पर दूर तक अमिट छाप छोड़ी है, वह कालिदास हैं। कम ही कवि ऐसे होते हैं जिन्हें किसी राष्ट्र की समूची सांस्Ñतिक चेतना को मुखरित करने की कला पर अधिकार होता है। कालिदास ऐसे ही कवि हैं। भारतवर्ष के )षियों,
सन्तों, कलाकारों और राजपुरुषों और विचारकों ने जो कुछ उत्तम और महान दिया है, उसके सहस्त्राों वर्ष के इतिहास का जो कुछ सौन्दर्य है, उसने मनुष्य को पशु-सुलभ ध्रातल से उठाकर देवत्व में प्रतिषिठत करने की जितनी विधियों का संधन किया है उन सब को ललित-मोहन और सशक्त वाणी देने का काम कालिदास ने किया है।1
सम्पूर्ण भारतीय मनीषा ने कालिदास की इस महिमा को स्वीकारा है और उन्हें राष्ट्रीय कवि की उपाधि से सम्मानित किया है।
सैकड़ों वर्षों तक उनकी ललित-गहन कविता ने आनन्द और प्रेरणा दी है। वाल्मीकि और व्यास की भांति उनकी कविता ने भी महनीय और उदात्त चरित्राों की सृषिट की है। जहां भी कालिदास की तत्वान्वेषिणी दृषिट गर्इ है वहीं उसने जीवन के किसी न किसी अदृष्ट पक्ष को उदघाटित किया है। साहित्य और चिंतन की इतनी बड़ी विरासत के साथ न्याय करने की क्षमता हर किसी कवि में नहीं होती और यदि कालिदास यह कर सके तो यह उनकी अर्थग्राहिका शकित और मर्मभेदिनी दृषिट का परिचायक है।
परन्तु जिस कवि ने भारत की अन्तरात्मा को वाणी दी, वे अपने जीवन के विषय में सर्वथा मौन है। यही कारण है कि उनकी सिथति-काल, जन्म-स्थान तथा व्यकितगत जीवन को लेकर बड़ा मत-वैभिन्नय है। उनकी रचनाओं के अनुशीलन करने के पश्चात हम इतना ही जान पाते हैं कि वे ऐसे युग में हुए जबकि देश में शानित और समृ(ि विधमान थी। विद्वानों के अनुसार उज्जैन के सम्राट वीर विक्रमादित्य उनके आश्रयदाता थे और वे स्वयं भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। परम्परा से उनके विषय में यह जनश्रुति चली आ रही है कि वे विदेशी हूण आक्रमणकारियों पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में र्इसवी पूर्व सन 57 में अपने नाम से विक्रम संवत्सर का प्रवर्तन करने वाले सम्राट विक्रमादित्य की राज्य सभा के नवरत्नों में से एक थे। कथा-सरित्सागर के अनुसार विक्रमादित्य और उनके पिता महेन्द्रादित्य दोनों ही भगवान शिव के परमभक्त थे। महाकवि कालिदास भी शिवभक्त थे। इस आधर पर कालिदास का समय र्इसवी पूर्व प्रथम शताब्दी ही स्वीÑत होता है।
इसके विपरीत अन्य विद्वानों की धरणा है कि महाकवि कालिदास भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युग में अर्थात गुप्त शासकों के काल 320 र्इ.-510 र्इ.. में हुए। जैसा कि कालिदास के विषय में प्रसि( है वे ऐनिद्रय विषयों, कलात्मक सौन्दर्य एवं भोगयुक्त भावनाओं के मर्मज्ञ सर्वोत्Ñष्ट कवि थे अत: हो सकता है कि वे ऐश्वर्य-
प्रधन गुप्तयुग की देन हों। गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास में चरम भौतिक उन्नति तथा वैभव का काल माना जाता है। कालिदास के विषय में कहा जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य की उपाधि धरण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय 375-415 र्इ.. के उत्तरकालिक समय में अपना साहितियक जीवन प्रारम्भ किया, कुमारगुप्त प्रथम के वे समकालीन रहे तथा स्कन्दगुप्त के शासन काल में भी कुछ समय तक उनकी साहित्य साध्ना चलती रही। इस


(1आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी : कालिदास की लालित्य-योजना, पृष्ठ 9)
प्रकार वे तीन प्रख्यात गुप्त शासकों-चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमार गुप्त और स्कन्दगुप्त-की राजसभा में रहे। अतएव उन्हें भारतीय चेतना एवं समृ(ि के सुवर्ण युग से सम्ब( माना जाता है। कालिदास के विषय में विद्वानों के इन विभिन्न विचारों और मतों को देखते हुए कालिदास का कोर्इ निशिचत समय ज्ञात कर पाना वस्तुत: बहुत कठिन है। र्इसवी सन 634 के ऐहोल शिलालेख में कालिदास के नाम का उल्लेख मिलता है तथा र्इसवी सन 472 के लिखे वत्सभê किे मन्दसौर शिलालेख के कुछ पध तो कालिदास के )तुसंहार तथा मेघदूत खंडकाव्यों के पधों का अनुकरण मात्रा प्रतीत होते हैं। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि कालिदास के काल की परवर्ती सीमा र्इसवी सन की पांचवी शताब्दी से पीछे नहीं ले जायी जा सकती। इसके अतिरिक्त कालिदास ने भास को अपना पूर्वनाटककार माना है और अपनी रचनाओं में उसके नाम का विशेष रूप से उल्लेख किया है। अत: कालिदास नाटककार भास र्इ. पूर्व तृतीय-चतुर्थ शताब्दी. से परवर्ती बैठते हैं। कालिदास का काव्य महाकवि अश्वघोष के काव्य से बहुत मिलता-जुलता है और अश्वघोष का काल निशिचत रूप से र्इसा की प्रथम शताब्दी माना गया है, क्योंकि वे राजा कनिष्क प्रथम शताब्दी र्इ.. के समकालीन थे। विद्वानों का अधिकतर झुकाव कालिदास को अश्वघोष का परवर्ती मानने का है, परन्तु ठोस प्रमाणों के अभाव में कालिदास का काल अनिशिचत ही है। महाकवि कालिदास के जन्म स्थान के विषय में भी संस्Ñत साहित्य के इतिहास के समालोचकों में पर्याप्त मतभेद है। इस संदर्भ में स्वर्गीय डा. लक्ष्मीध्र जी के वचन èयान देने योग्य हैं। वे कहते हैं- कालिदास इतने व्यापक और सार्वभौम संवेदनाओं के कवि हैं और उनका मन राष्ट्रीयता की भावना से इतना ओत-प्रोत है कि उनकी रचनाओं के आधर पर यह जान लेना कि भारतवर्ष के किस विशेष भाग या भागों में वे उत्पन्न हुए और कहां उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत किया, सुलभ नहीं। महाकवि कालिदास इस विशाल देश के कोने-कोने से सुपरिचित हैं तथा उन्होंने अपनी Ñतियों में इस देश के विभिन्न भू-भागों, पशुओं, पक्षियों, पेड़-पौधें, और यहां के निवासियों की रीतियों, प्रथाओं और विश्वासों का इतना यथार्थ चित्राण प्रस्तुत किया है कि देश के किसी विशेष स्थान या प्रान्त को उनकी जन्म-भूमि सि( करना व्यावहारिक दृषिट से असम्भव प्रतीत होता है। विद्वानों ने कालिदास को बंगाल, काश्मीर, मालवा, विदर्भ, गढ़वाल प्रान्त के निवासी बताकर मत-भिन्नता प्रकट की है। अतएव कालिदास के जन्म स्थान की समस्या का कोर्इ हल अभी तक नहीं निकला है और यह समस्या अभी तक उसी प्रकार उलझी हुर्इ है। इस सन्दर्भ में केवल एक ही बात कुछ निश्चय के साथ कहीं जा सकती है कि कालिदास ने अपने जीवन का बहुत-सा भाग मालवा देश में, विशेष रूप से उज्जैन नगर में व्यतीत किया होगा क्योंकि इसके सौंदर्य और वैभव का उन्होंने रचनाओं में बड़ी तन्मयता और रुचि के साथ वर्णन किया है और इससे सम्बनिध्त अपने अनुभवों को विशेष वाणी दी है।
इस महान कवि के व्यकितगत जीवन के विषय में भी हमें वास्तविक ज्ञान उपलब्ध् नहीं है। किसी विश्वसनीय प्रमाण के न होने से कालिदास के जीवन के विषय में अनेक प्रकार की कथाएं कलिपत कर ली गर्इ हैं। इनमें से अत्यधिक लोकप्रिय कथा उनके बारे में यह सुनने में आती है कि वे जन्म से वज्रमूर्ख थे और कुछ पणिडतों के षडयंत्रा के कारण उनका विवाह विधोत्तमा नामक विदुषी राजकुमारी से हो गया। विधोत्तमा ने शास्त्राार्थ में पणिडतों को पराजित कर दिया था और उन्होंने अपनी पराजय का बदला चुकाने के लिए धेखे का एक जाल बिछाया और राजकुमारी का मूर्ख कालिदास से विवाह करवा दिया। उनके विषय में एक अन्य अत्यधिक लोक-प्रचलित यह कथा प्रसि( है कि लंका की राजनर्तकी ने जिसके साथ वे अपने आश्रयदाता विक्रमादित्य के साथ किसी कारण से झगड़ा हो जाने के कारण गुप्त रूप से निवास कर रहें थे, उनकी हत्या कर दी।1
कालिदास के बहुत बाद के कुछ कवियों जैसे बल्लाल ने उन्हें धरा नगरी के सम्राट भोज का राजकवि बताया है और कुछ ने सोचे-समझे बिना ही उन्हें परवर्ती कवियों जैसे दंडी, भवभूति आदि का समकालीन बना दिया है। कालिदास की Ñतियों का अनुशीलन करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वे जाति से ब्राह्राण और भगवान शिव के परमभक्त थे तथापि विष्णु एवं अन्य अवतारों एवं देवताओं के प्रति उनकी रुचि उनके स्मार्त होने की परिचायिका है। उन्होंने प्राचीन ध्र्मग्रंथों और शास्त्राों एवं भारतीय दर्शन के विभिन्न सि(ांतों का गहन अèययन किया था तथा व्याकरण, राजनीति, छन्द-शास्त्रा, काव्य-शास्त्रा जैसे दुरूह विषयों का भी उन्हें पूर्ण ज्ञान था।
कालिदास को बहुत से ग्रंथों का रचयिता माना जाता है। प्रोपफेसर एम. आर. काले ने लगभग चालीस 40. ऐसे ग्रंथों का उल्लेख किया है कि जिन्हें कालिदास द्वारा लिखा माना जाता है। परन्तु इनमें से केवल सात ही ऐसे ग्रंथ हैं जिन्हें विद्वान सर्वसम्मति से कालिदास द्वारा लिखा स्वीकार करते हैं। वे ग्रंथ हैं-
क. )तुसंहार और मेघदूत- दो खण्ड काव्य।
ख. कुमारसम्भवम और रघुवंशम- दो महाकाव्य।
ग. मालविकागिनमित्राम, विक्रमोर्वशीयम और अभिज्ञान-शाकुन्तलम- तीन नाटक।
यहां हम रघुवंशम महाकाव्य पर ही विचार करेंगे।
रघुवंश महाकाव्य कालिदास की नैसर्गिक प्रतिभा का पफल है। इसके उन्नीस 19. सर्ग है। इसमें सूर्य-वंश के विश्व-विदित यशस्वी राजाओं के जीवन-चरित्रा का वर्णन है। तथापि कालिदास से पूर्व भी कुछ कवि पूर्वसूरय:. जैसे महर्षि वाल्मीकि, महाकवि भास आदि इस विषय को लेकर काव्य लिख चुके थे और स्वयं कालिदास ने भी अपने रघुवंश महाकाव्य के आरम्भ में इस बात को स्वीकार किया है तथापि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती महाकवि
1 यह किवदंती सुनने में आती है कि एक बार कालिदास ने अपने आश्रयदाता सम्राट विक्रमादित्य को किसी कारणवश रुष्ट कर दिया और इस पर उस राजा ने कालिदास को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। निर्वासित होकर कालिदास लंका देश में चले गये और वहां गुप्त रूप से राजनर्तकी के पास रहने लगे। उध्र विक्रमादित्य को भी अपनी भूल पर पश्चात्ताप होने लगा और वे स्वयं कालिदास की खोज में उज्जैन नगरी से निकल पड़े। ढूढ़ते-ढूढ़ते वे लंका देश में पहुंचे और जब उनके सम्मान में वहां के नरेश ने नृत्य समारोह का आयोजन किया तो उस अवसर पर उनकी भेंट राजनर्तकी से हुर्इ और उसके सौंदर्य पर मुग्ध् होकर उन्होंने कहा-
कमले कमलोत्पत्ति: श्रूयते न तु दृश्यते
अर्थात कमला लक्ष्मी का कमल में से जन्म सुना तो जाता है परन्तु देखा कभी नहीं गया. और तत्काल ही उन्होंने घोषणा की कि जो इस अध्ूरे पध को इसके अनुरुप दूसरी सुंदर पंकित रचकर पूर्ण करेगा उसे प्रचुर ध्नराशि पारितोषिक के रूप में दी जायेगी। राजनर्तकी ने पूरी घटना कालिदास को सुनार्इ और उनसे इस अपूर्ण पध की पूर्ति करने की प्रार्थना की। कालिदास ने तुरन्त ही इस प्रकार पध को पूर्ण कर दिया-
बाले! तव मुखाम्भोजे कथमिन्दीवरद्वयम
अर्थात हे सुंदरी ! देखो यह कैसा आश्चर्य है कि तुम्हारे कमल जैसे मुख में दो कमल उत्पन्न हुए दिखार्इ देते हैं।
इस पर राजनर्तकी ने पारितोषिक के ध्न के लोभ में आकर कालिदास की हत्या कर दी।

वाल्मीकि की रामायणी कथा का आँख मूंद कर अनुकरण नहीं किया है। वाल्मीकिÑत रामायण की कथा अयोèयानगरी में महाराजा दशरथ के राज्य से प्रारम्भ होती है और श्री राम के पुत्राों तथा भार्इयों के वृत्तान्त के उल्लेख के साथ समाप्त होती है। परन्तु महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य की कथा श्री राम के पूर्वज राजा दिलीप के वर्णन से प्रारम्भ होती है तथा विषयासक्त राजा अगिनवर्ण की मृत्यु के वर्णन के साथ अकस्मात ही समाप्त हो जाती है। कभी-कभी विद्वान रघुवंश के पौराणिक पात्राों तथा आध गुप्त सम्राटों के ऐतिहासिक चरित्रा में परस्पर समानता ढूढ़ने का प्रयास करते हैं। परन्तु इस प्रकार की तुलना तथा विस्तार में जाने से पूर्व रघुवंश की विस्तृत विषय सूची को उसके प्रत्येक सर्ग के सारांश के साथ जान लेना अधिक उपयुक्त होगा। अत: सबसे पहले रघुवंश के प्रत्येक सर्ग की विषय वस्तु का सार नीचे क्रमपूर्वक दिया जाता है-
प्रथम सर्ग
वैवस्वत मनु के वंश में महाराज दिलीप नामक सुप्रसि( सम्राट हुए। मगध् देश की राजकुमारी सुदक्षिणा उनकी रानी बनी। दुर्भाग्य से दिलीप को सुदक्षिणा से कोर्इ संतान नहीं हुर्इ। दिलीप इस बात से बहुत खिन्न रहते थे। एक दिन वे सुदक्षिणा को अपने साथ लेकर इस सम्बन्ध् में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे।
तब )षि ने èयान लगाकर राजा के सन्तान न होने का यह कारण ज्ञात किया कि एक बार स्वर्गलोक से भूलोक को लौटते हुए राजा ने मार्ग में खड़ी दिव्य गौ सुरभि कामध्ेनु. के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित नहीं किया था।
इस उपेक्षावृत्ति से रुष्ट होकर सुरभि ने राजा को शाप दिया कि उसको तब तक सन्तान नहीं होगी जब तक वह उसकी पुत्राी ननिदनी गौ को सेवा से संतुष्ट नहीं कर लेगा। सौभाग्य से सुरभि की पुत्राी नंदिनी गौ उस समय )षि के आश्रम में ही विधमान थी। अत: )षि ने राजा को आदेश दिया कि वह अपनी रानी के साथ नंदिनी
की सेवा करके उसे प्रसन्न करे और पुत्रा-प्रापित के लिए उसका आशीर्वाद प्राप्त करे। राजा एवं रानी नियमापेक्षा से महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में मुनिवृत्ति से रहने लगे।
द्वितीय सर्ग
महाराजा दिलीप और महारानी सुदक्षिणा ने परम भकित और निष्ठा के साथ ननिदनी की सेवा आरम्भ कर दी। एक दिन जब राजा दिलीप हिमालय पर्वत के सौंदर्य को मुग्ध् होकर देख रहे थे, तो सहसा पर्वत की गुपफा से निकलकर किसी सिंह ने ननिदनी गाय को पकड़ लिया। गौ के प्राणों की रक्षा के लिए राजा ने अपने को
बलिदान करना चाहा। ध्र्मनिष्ठ राजा को प्राणों की अपेक्षा गोरक्षा अधिक प्रिय था। एक गाय की रक्षार्थ चक्रवर्तित्व का बलिदान भारत ही की देन है। परन्तु राजा दिलीप के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब सिंह ने मनुष्य की वाणी में कहा कि वह शिव का सेवक है। उसने राजा को गौ की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से रोका। राजा पिफर भी सिंह से प्रार्थना करते रहे और गौ के स्थान पर उसे अपना शरीर भोजन के रूप में देने का आग्रह करते रहे। राजा की ऐसी बलिदान तथा आत्म-त्याग की भावना को देखकर ननिदनी अत्यन्त प्रसन्न हुर्इ और इस सारे रहस्य को खोलते हुए उसने कहा कि उसने राजा की परीक्षा लेने के लिए यह माया रची थी। वस्तुत: वहां कोर्इ सिंह नहीं था। प्रसन्न होकर उस नंदिनी गाय ने राजा को वर दिया कि उसको पुत्रा होगा।
तृतीय सर्ग
समय आने पर सुदक्षिणा ने पुत्रा को जन्म दिया। इस सर्ग में राजकुमार रघु के जन्म और उसकी शिक्षा का वर्णन है। दिलीप ने अपने पुत्रा राजकुमार रघु को अश्वमेध् यज्ञ के अश्व का संरक्षक नियुक्त किया। अश्व-रक्षा रूप अपने कत्र्तव्य के पालन में राजकुमार को देवराज इन्द्र के विरु( भी यु( करना पड़ा। यधपि वे इन्द्र के अधिकार से अश्व को मुक्त कराने में सपफल नहीं हुए, तथापि उन्होंने इस साहसिक कार्य से अपने पिता दिलीप को संतुष्ट कर उनकी इच्छा पूर्ण की। तदन्तर )षि के उपदेश से राजा दिलीप प्रजापालन का उत्तरदायित्व अपने पुत्रा रघु को सौंप कर स्वयं वन में तपस्या करने के लिए चले गये।
चतुर्थ सर्ग
शासक के रूप में रघु अपने पिता दिलीप से भी श्रेष्ठ सि( हुए। इस सर्ग में कवि ने रघु की दिगिवजय का सजीव चित्रा प्रस्तुत करते हुए उनकी विजय यात्राा में आने वाले स्थानों, उनके पिता द्वारा किये गये यु(ों तथा उनके हाथों पराजित राजाओं तथा जातियों का ही विशद वर्णन किया है।
प×चम सर्ग
दिगिवजय के पश्चात रघु ने विश्वजित यज्ञ किया जिसमें उन्होंने अपना सारा ध्न यज्ञ की दक्षिणा के रूप में ब्राह्राणों में बाँट दिया। इस विश्वजित यज्ञ के परिणामस्वरूप जब रघु सर्वथा निधर््न हो गये तो एक दिन )षि कौत्स दान मांगने के लिए उनके पास पहुंचे। इस पर रघु कुछ समय के लिए किंकत्र्तव्यविमूढ़
बने रहे परन्तु पिफर भी उन्होंने ध्नाध्ीश कुबेर से )षि को देने के लिए आवश्यक ध्न की याचना की।
कुबेर ने प्रसन्न होकर स्वेच्छा से रघु के कोष को स्वर्ण की प्रचुर वर्षा करके भर दिया। )षि कौत्स ने अपनी इच्छा पूर्ण हो जाने पर प्रसन्न होकर रघु को आशीर्वाद दिया, तदनुसार उनके अज नामक पुत्रा उत्पन्न हुआ। जब राजकुमार अज युवा हुए तो राजा भोज ने उन्हें अपनी पुत्राी इन्दुमती के स्वयंवर में आमनित्रात किया।
षष्ठ सर्ग
इस सर्ग में इन्दुमती के स्वयंवर का यथार्थ चित्राण है जिसमें राजकुमारी इन्दुमती ने स्वयंवर में आए अन्य राजकुमारों की उपेक्षा करके अज के गले में पुष्पों की माला पहनाकर उन्हें अपना पति चुना।
सप्तम सर्ग
अज और इन्दुमती दोनों का विधिपूर्वक विवाह हुआ। पर जब नव विवाहित दम्पत्ति अयोèया को लौट रहे थे, मार्ग में स्वयंवर में निराश राजकुमारों ने बदला लेने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया। परन्तु अज ने अकेले होने पर भी इन सुसंगठित राजकुमारों का वीरतापूर्वक सामना किया और उन्हें पराजित कर उनके
दर्प को नष्ट कर दिया।
अष्टम सर्ग
सम्राट रघु राजनीति से सन्यास लेकर तपोवन में चले जाते हैं। इस सर्ग में कवि ने बड़ी कुशलता से अज के राज्य तथा उनके पिता रघु के सन्यास की तुलना की है। कुछ काल के पश्चात रघु योग-समाधि द्वारा अपना शरीर त्याग देते हैं और अज से दशरथ नामक पुत्रा उत्पन्न होता है। अज पर भीषण विपत्ति आती है। उनकी रानी इन्दुमती पर स्वर्ग से पुष्पों की माला टूट कर गिरती है और उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। इस सर्ग के उत्तरार्( में अज के विलाप का वर्णन है जो सम्पूर्ण रघुवंश में उच्चकोटि का काव्यांश माना जाता है।
नवम सर्ग
विशेष : इस सर्ग से लेकर 15 सर्ग तक रघुवंश की कथा वाल्मीकि की रामायण की कथा से बहुत मिलती है। जब युवराज दशरथ वर्महर अर्थात शस्त्रा धरण करने के योग्य हुए तब अज ने उन्हें राजा नियुक्त किया और स्वयं प्रायोपवेशन अर्थात आमरण व्रत आरम्भ कर दिया। इस सर्ग में दशरथ के आखेट का बड़ा ही भव्य वर्णन है जिससे उन्होंने भूल से किसी अन्ध्े मुनि के पुत्रा श्रवण कुमार को मार दिया। अपने पुत्रा की मृत्यु पर दु:खी होकर अन्ध्े मुनि ने शाप दिया कि राजा दशरथ की भी वृ(ावस्था में पुत्रा-वियोग के दु:ख में मृत्यु होगी।

दशम सर्ग
दशरथ ने पुत्रा-प्रापित के उíेश्य से पुत्रोषिट यज्ञ आरम्भ कर दिया। इसी अवधि में देवताओं ने भगवान विष्णु से रावण को नष्ट करने की प्रार्थना की। अत: भगवान विष्णु ने दशरथ के पुत्रा के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेने का निश्चय किया।



एकादश सर्ग
इस सर्ग में श्रीराम के शैशव का वर्णन है। वे और लक्ष्मण दोनों भार्इ दुष्ट राक्षसों से यज्ञ की रक्षा करने के लिए मुनि विश्वामित्रा के साथ जाते हैं। मार्ग में श्रीराम ताड़का राक्षसी को मारते हैं और विश्वामित्रा से अनेक प्रकार के गुप्त अस्त्रा प्राप्त करते हैं। विश्वामित्रा के यज्ञ के सपफलतापूर्वक समाप्त हो जाने पर श्री राम राजा जनक की नगरी मिथिला की ओर प्रस्थान करते हैं और मार्ग में शाप के कारण पत्थर की बनी हुर्इ गौतम की पत्नी अहिल्या का उ(ार करते हैं। मिथिला पहुंचकर राम शिव का विशाल ध्नुष तोड़ने में अपना पराक्रम दिखाकर बदले में जनक-पुत्राी सीता का पाणिग्रहण करते हैं। तब राजा दशरथ को मिथिला में बुलाया जाता है और अन्य पुत्राों लक्ष्मण, भरत तथा शत्राुèन का जनक तथा उनके भ्राता कुशèवज की पुत्रियों के साथ बड़ी ध्ूमधम से विवाह होता है। विवाह के बाद जब दशरथ अपने परिवार के साथ मिथिला से अयोèया लौट रहे होते हैं तब मार्ग में उनकी परशुराम से भेंट होती है जो अपने इष्टदेव शिव के ध्नुष-भंग का समाचार सुनकर आग-बबूला हो इसका बदला लेने के लिए उधत होते हैं। तब राम मदमत्त परशुराम के गर्व को नष्ट कर उन्हें नम्रता का पाठ पढ़ाते हैं तथा अपने विष्णु होने का प्रमाण देते हैं। इसके बाद लोग सुरक्षित तथा प्रसन्न अयोèया लौटते हैं।



द्वादश सर्ग
इस सर्ग में घटनाओं की भरमार है क्योंकि इसमें रामायण के पांच काण्डों की घटनाओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। दशरथ ने यह जानकर कि अब वृ(ावस्था आ पहुंची है राम का यौवराज्याभिषेक करके उन्हें अयोèया का राज-पाट सौंपना चाहा। परन्तु दशरथ की अभिलाषा पर उस समय पानी पिफर गया जब कैकेयी ने दशरथ से राम का वनवास और भरत का राज्याभिषेक मांगा। राम 14 वर्ष के लिए वनवास को चले गये और वहां रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। सुग्रीव और हनुमान जैसे वानरों की सहायता से राम ने अन्य राक्षसों सहित रावण का वध् किया और अगिन द्वारा सीता को पवित्रा घोषित कर दिये जाने पर उन्होंने उसे पुन: स्वीकार कर लिया।



त्रायोदश सर्ग
इस सर्ग और विगत सर्ग 12. में इस दृषिट से वैषम्य है कि जहां पिछले सर्ग में घटनाओं की भरमार है वहां इस सर्ग में केवल एक ही घटना का विशद चित्राण है और यह घटना है-राम, लक्ष्मण और सीता के आकाश मार्ग से विमान द्वारा लंका से अयोèया तक की यात्राा। वर्णन की दृषिट से इस सर्ग का अत्यधिक महत्त्व
है। इस सर्ग में समुद्र का, प्रयाग में गंगा-यमुना नदियों के संगम का तथा जनस्थान से तपोवनों का वर्णन अत्यन्त मोहक है और कालिदास की संवेदना जमकर खिली है।



चतुर्दश सर्ग
अयोèया लौटकर राम अपनी विध्वा माता से मिलते हैं। राम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में अयोèया में कुछ समय के लिए पिफर उत्सवों की ध्ूम मच जाती है। परन्तु हर्ष और उल्लास की यह बहार अधिक समय तक नहीं रहती क्योंकि राम को जब अपने गुप्तचर से ज्ञात होता है कि अयोèया के एक. धेबी नागरिक को
सीता के चरित्रा पर, रावण के घर में उसके निवास करने के कारण, सन्देह है तो उन्हें विवश होकर न चाहते हुए भी सीता का परित्याग करना पड़ता है। इस व्यवहार से सीता को अपने जीवन के प्रति गहरी अरुचि हो जाती है। परन्तु पिफर भी आत्महत्या न कर इसलिए जीवित रहना चाहती है क्योंकि उसके गर्भ में राम की वंशध्र सन्तान है। वन में परित्यक्ता दु:खी सीता को वाल्मीकि सान्त्वना देते हैं और उसे अपने आश्रम में ले जाते हैं। वहां सीता, समय आने पर जुड़वां बालकों लव और कुश. को जन्म देती है।




पंचदश सर्ग
बारहवें सर्ग के समान यह सर्ग भी घटनाओं से भरा पड़ा है। सर्ग के आरम्भ में यमुना तट के निवासी )षि-मुनि, दुष्ट लवण से अपनी रक्षा करने के लिए राम से प्रार्थना करते हैं। तब राम द्वारा नियुक्त शत्राुघ्न लवण का वध् कर देते हैं। अयोèया में किसी ब्राह्राण बालक की अकाल मृत्यु हो जाती है और उस बालक को पुनर्जीवित करने के उíेश्य से राम को शूद्र होने पर भी तप करते हुए शम्बूक शूद्र की हत्या करनी पड़ती है। राम अश्वमेघ यज्ञ करते हैं जिसमें राम के पुत्रा, कुश और लव उपसिथत होते हैं जो वाल्मीकि द्वारा रचित राम-कथा गाकर सुनाते हैं। वाल्मीकि और राम के आग्रह करने पर सीता प्रजा के सामने उपसिथत होती है किंतु तभी पृथ्वी माता से प्रार्थना करती है कि यदि उसका सीता का. चरित्रा निष्कलंक और पवित्रा है तो वह पृथ्वी. अपनी गोद में स्थान दे दे। सीता की इच्छा पूर्ण होती है और वह पृथ्वी की गोद में समा जाती है। इस घटना से राम अत्यंत व्यथित हो उठते हैं और वे अपने राज्य को अपने तथा भाइयों के पुत्राों में विभक्त कर साकेतधम चले जाते हैं। राक्षसों के नाश का उनका लक्ष्य पूरा हो गया। यहीं पर कथावस्तु का मुख्य भाग सम्पूर्णता को प्राप्त करता है।



पोडश सर्ग
इस सर्ग में घटनाओं का उलटा क्रम चलता है। सूर्यवंश के यशस्वी राजाओं की उज्जवल परम्परा का पर्यवसान होने से सूर्यवंश का पतन प्रारम्भ हो जाता है। राम के पुत्रा कुश, जिन्होंने अयोèया के बदले कुशावती को अपनी राजधनी बनाया एक दिन स्वप्न में अयोèया नगरी की अधिष्ठाती देवी को अपने सम्मुख खड़ा देखते हैं जो उन्हें बताती है कि कुशावती के राजधनी बन जाने से अयोèया नगरी की दशा बहुत बुरी हो गर्इ है। अत: कुश पिफर अयोèया को अपनी राजधनी बना लेते हैं। एक बार सरयू नदी में जल क्रीड़ा करते हुए कुश के हाथ का कंकण जल में गिरकर खो जाता है। सर्पों के राजा कुमुद कुश को कंकण लौटाते हुए अपनी बहन कुमद्वती को भी उसे अर्पित कर देते हैं।



सप्तदश सर्ग
इस सर्ग में कुमद्वती से उत्पन्न कुश के पुत्रा अतिथि राजा के सपफल शासन का बहुत विस्तृत वृतान्त है।



अष्टादश सर्ग
इस सर्ग में अनेक राजाओं का उल्लेख आता है परन्तु उनके नाम को गिनाने के सिवाय उनके विषय में और कुछ नहीं कहा गया है।



एकोनविंशति सर्ग
इसमें रघुकुल के अनितम सम्राट अगिनवर्ण का वर्णन है जो अत्यन्त विषयासक्त और स्त्राी लम्पट होने के कारण क्षय रोग से पीडि़त होकर मर जाता है।


रघवंश महाकाव्य की समीक्षा
रघुवंश की उपयुक्त कथावस्तु को पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि यधपि महाकवि कालिदास पर आदिकवि वाल्मीकि का प्रभाव स्पष्ट है तथापि दोनों में वह अन्तर स्पष्ट है कि वाल्मीकि रामायण में सूर्यकुल के राजाओं की वंशावली का जो क्रम उल्लखित है, रघुवंश में उसका अक्षरश: अनुकरण नहीं हुआ है, अपितु रामायण से रघुवंश का क्रम भिन्न है।


1 रघुवंश में वर्णित सूर्यकुल के राजाओं की वंशावली का क्रम रामायण की अपेक्षा वायुपुराण तथा विष्णुपुराण में अंकित क्रम से, विशेष रूप में वायुपुराण के क्रम से बहुत मेल खाता है।


2 वास्तव में देखा जाये तो रघुवंश में 19 सर्गों में से केवल सात सर्गों की कथा ही वाल्मीकि-रामायण की कथा के साथ-साथ चलती है। वहां भी हमें दृषिटकोण का अन्तर स्पष्ट दिखायी देता है क्योंकि रघुवंश में कालिदास वाल्मीकि के समान न तो राम के चरित्रा पर अधिक बल देते हैं और न ही वे कथा के इस भाग को सत्य
और असत्य अथवा आर्यों तथा अनार्यों राक्षसों. के मèय संघर्ष की कथा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सच पूछा जाये तो कालिदास के काव्य के नायक केवल राम नहीं अपितु राम के पूर्वज, विशेष रूप से दिलीप और रघु भी प्रतीत होते हैं।
रघुवंश की रचना में कालिदास का उíेश्य तुलनात्मक चित्राण प्रस्तुत करना दिखायी देता है। सम्भवत: अगिनवर्ण की कथा द्वारा वे यह बताना चाहते हैं कि उच्च तथा अभिजात वंश में उत्पन्न व्यकित भी यदि प्रेम के साथ खिलवाड़ करते हैं तो उनका भी शोचनीय अन्त होता है।
डाक्टर कीथ3 का विचार है कि रघुवंश में कालिदास की योगदर्शन की ओर विशेष प्रवृत्ति दिखायी देती है क्योंकि उन्होंने योगदर्शन की परिभाषिक शब्दावली जैसे धरणा, वीरासन तथा समाधि का उल्लेख करने के अतिरिक्त अपने काव्य के नायकों को भी योग द्वारा शरीर परित्याग करते तथा जन्म बन्ध्न से मुक्त होते बताया है। उन्होंने योग के द्वारा प्राप्त होने वाली अदभुत शकितयों का उल्लेख भी किया है जैसे-दरवाजे के बन्द होने पर भी भीतर प्रवेश करने की शकित तथा सीता की योग तथा अगले जन्म में अपने पति से पुनर्मिलन की प्रापित की कामना आदि।
संस्Ñत काव्य शास्त्रा की दृषिट से रघुवंश श्रव्य अर्थात वह काव्य जो केवल पढ़ा और सुना ही जाता है, नाटक आदि दृश्य काव्य के समान रंगमंच पर नहीं देखा जाता. काव्य है। वह श्लोकों में बंध प्रबन्ध् काव्य वह काव्य जिसकी कथावस्तु समग्र एवं अविचिछन्न चलती है. और संस्Ñत के महाकाव्यों की श्रेणी में अग्रगण्य है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में महाकाव्य का निम्नलिखित लक्षण दिया है-
सर्गबन्धे महाकाव्यं तत्रौको नायक: सुर: ।
सद्वंश्य: क्षत्रियो वापि ध्ीरोदात्तगुणानिवत: ।।
एकवंशभवा भूपा: कुलजा बहवो¿पि वा ।
शृõारवीरशान्तानामेको¿õी रस इष्यते ।।
अõानि सर्वे¿पि रसा: सर्वे नाटकसन्ध्य: ।
इतिहासोरवं वृत्तमन्यदवा सज्जनाश्रयम ।।
चत्वारस्तस्य वर्गा: स्युस्तेष्वेकं च पफलं भवेत।
आदौ नमसिक्रयाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा ।।
1 कल्प-भेद से लीला-भेद एवं पूर्वज संज्ञा-भेद भी सम्भव ही है। सम्भवत: रघुवंशम महाकाव्य एवं वायुपुराण का आधर का कल्परहा होगा तथा आदिकवि वाल्मीकि विरचित रामायण महाकाव्य की कथा का आधर भिन्न कल्प रहा हो। कल्पभेद शंका निवारणमें प्रभूत सहायक सि( होता है।
2 भास के प्रतिमा नाटक में भी राम के पूर्वजों का उसी क्रम से वर्णन मिलता है जिस क्रम से रघुवंश में प्रस्तुत किया गया है।
3 कीथ : संस्Ñत साहित्य का इतिहास, पृ. 45 ।

क्वचिनिनन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम।
एकवृत्तमयै: पधैरवसाने¿न्यवृत्तकै:।।
नातिस्वल्पा नातिदीर्घा: सर्गा अष्टाधिका इह।
नानावृत्तमय: क्वापि सर्ग: कश्चन दृश्यते।।
सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथाया: सूचनं भवेत।
सन्èयासूर्येन्दुरजनीप्रदोषèवान्तवासरा:।।
प्रातर्मèयाâनमृगयाशैलतर्ुवनसागरा:।
सम्भोगविप्रलम्भौ च मृनिस्वर्गपुरèवरा:।।
रणप्रयाणोपयममन्त्रापुत्राोदयादय:।
वर्णनीया यथायोग्यं साõोपाõो अमी इह।। साहित्यदर्पण 6, 315-342.
महाकाव्य वह रचना है जो सर्गों में विभक्त होती है। इसका नायक देवता अथवा उच्चकुलोत्पन्न क्षत्रिय होता है जिसमें ध्ीरोदात्त गुण होते हैं। कहीं कहीं महाकाव्य में एक वंश में उत्पन्न सत्कुलीन अनेक राजा भी नायक होते हैं। श्रृंगार, वीर, शान्त इनमें से कोर्इ एक रस महाकाव्य का अõी अर्थात प्रधन रस होता है तथा अन्य रस इसमें गौण अर्थात अप्रधन होते हैं। इसमें सब नाटय-सनिध्याँ रहती हैं। इसकी मुख्य कथा या तो ऐतिहासिक होती है अथवा सज्जनकुलीन व्यकित से संबंधित कोर्इ प्रसि( कथा होती है। ध्र्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इस चतर्ुवर्ग में से कोर्इ एक महाकाव्य का पफल होता है। इसके आरम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार या इसमें वर्णनीय वस्तु का निर्देश होता है। इसमें प्रसõानुसार कहीं दुष्टों की निन्दा और कहीं सज्जनों के गुणों का वर्णन होता है। इसमें न बहुत छोटे, और न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते हैं। उनमें प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द होता है। किन्तु सर्ग के अनितम पध का छन्द पूरे सर्ग में प्रयुक्त एक ही छन्द से भिन्न होता है। कहीं कहीं एक सर्ग में एक छन्द के प्रयोग की अपेक्षा अनेक छन्दों का प्रयोग भी मिलता है। सर्ग के अन्त में अगले सर्ग में आने वाली कथा की सूचना होनी चाहिए। इसमें जहां जहां आवश्यक हो, वहां वहां संèया, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, अन्ध्कार, दिन, प्रात:काल, मèयान्ह, मृगया शिकार., पर्वत, छह. )तुएं, वन, समुद्र, सम्भोग, वियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्राा, विवाह, मन्त्रा, पुत्रा का जन्म, अभ्युदय उन्नति.,ऐश्वर्य आदि का यथोचित साõोपांõ वर्णन होना चाहिये।
यदि हम महाकाव्य की उपयर्ुक्त परिभाषा का विश्लेषण करके देखें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि महाकाव्य की परिभाषा में दो भाग हैं-अÄगी अर्थात प्रमुख भाग तथा अग् अर्थात सहायक या गौण भाग। प्रथम अर्थात प्रमुख भाग में महाकाव्य के उन आवश्यक गुणों का सनिनवेश होता है जिनके अभाव में काव्य को महाकाव्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। इस प्रसंग में यह बात विचारणीय है कि साधरणतया काव्य रचना का प्रयोजन जीवन का उल्लासपूर्ण चित्राण माना जाता है। कवि की Ñति तभी महान हो सकती है जबकि उसमें मानव के विस्तीर्ण और नानाविध् जीवन का उसके पूर्णरूप में समावेश हो। मानव-जीवन को उसकी समग्रता में जानने के लिए तीन बातें èयान देने योग्य हैं-मानव का व्यकितत्व, समाज के ढांचे में उसकी सिथति और उसका उत्तरदायित्व तथा उसके चारों और पफैली विशाल प्रÑति से उसका सम्बन्ध्। इसीलिए तो महाकाव्य की परिभाषा में एक और नायक, मनोभाव, कथा, सूर्योदय, संèया, )तुओं तथा पर्वतों तथा दूसरी ओर नगरों, विवाहों, यु(ों आदि के वर्णन के विषय में नियमों का विधन किया गया है जिससे मानव जीवन का सम्पूर्ण चित्रा विविध्ता तथा विस्तार के साथ महाकाव्य में उतर सके।

महाकाव्य की परिभाषा का दूसरा भाग उसके बाá आकार या रूप से, जो प्रथम भाग की अपेक्षा गौण है, सम्ब( है, जैसे-महाकाव्यों में सर्गों की संख्या का निर्धरण तथा एक सर्ग में एक ही छन्द के प्रयोग का विधन आदि। महाकाव्य के विषय में आचार्य दण्डी का कथन समीचीन है कि-
न्यूनमप्यत्रा यै: कैशिचदÄगै: काव्यं न दुष्यति काव्यादर्श 1.20.
अर्थात महाकाव्य में उपयर्ुक्त परिभाषा में से कुछ अंगों की कमी भी हो तो भी उसमें दोष नहीं माना जाता।.
इस प्रकार दण्डी के मत में, महाकाव्य के उपयुक्त नियमों में से कुछ नियमों की कमी भी रह जाये तो भी वह ग्राá है, उसमें दोष नहीं आता।
रघुवंश में सर्वप्रथम अदभुत बात यह है कि इस काव्य के पात्राों में से हम किसी एक को इसका नायक नहीं कह सकते। प्रत्युत वैवस्वत मनु के वंश में जन्म लेने वाले अनेक प्रतापी सम्राट इसके नायक हैं। दिलीप, रघु, राम जैसे यशस्वी नरेशों में ध्ीरोदात्त नायक के सभी गुण जैसे- साहस, संयम, औदार्य आदि विधमान हैं।
रघुवंश की कथा सुप्रसि( है तथा रामायण और पुराणों से ग्रहण की गर्इ है। यह कथा अत्यन्त रोचक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी है क्योंकि इसमें स्त्राी पुरुष सभी प्रकार के पात्राों के जीवन के विविध् रूपों में चित्राण करते हुए उनके उत्थान और पतन के कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। जिस राजवंश ने अनेक महान और आदर्श राजाओं को जन्म दिया, उसी के अनितम उत्तराधिकारी को बहुत दुर्बल और विलासी चित्रित किया गया है।
इस काव्य का अंगी अर्थात प्रधन रस तो श्रृंगार है परन्तु अन्य रसों का-जैसे रघु के दिगिवजय के प्रसंग में वीर, अजविलाप में करुण, रघु के सन्यास में शान्त तथा सरयू नदी के जल में से कुमुद के आविर्भाव में अदभुत रस का प्रयोग भी प्रशंसनीय तथा प्रभावोत्पादक है। इस प्रसंग में राइडर महोदय की निम्नलिखित
उकित èयान देने योग्य है-
हमें रघुवंश को ऐसा काव्य समझना चाहिये जिसमें नैसर्गिक कथा की अपेक्षा उसमें आर्इ अकेली घटनाओं का पाठक पर अधिक प्रभाव पड़ता है।
रघुवंश में प्रÑति तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न रूपों के वर्णनों की प्रचुरता है। जैसे-13वें सर्ग में समुद्र तथा प्रयाग स्नान में गंगा, यमुना नदियों के संगम का वर्णन, चौथे सर्ग में रघु की दिगिवजय, सातवें सर्ग में इन्दुमती का स्वयंवर, दसवें सर्ग में आखेट विहार तथा 16वें सर्ग में उजड़ी हुर्इ अयोèया के वर्णन विशेष रूप से उल्लेख के योग्य हैं।
इस महाकाव्य का आरम्भ मंगलाचरण से होता है जिसमें कवि जगत के माता पिता भगवान शिव और भगवती पार्वती को प्रणाम करके उनके प्रति अपनी भकित व्यक्त करता है। जैसाकि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है, रघुवंश के 19 सर्ग हैं जिनमें कवि ने एक पूरे सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग किया है, केवल सर्ग के अनितम श्लोक में परिवर्तन के उíेश्य से भिन्न छन्द का प्रयोग किया है। इन सर्गों के अन्त में परिवर्तन के उíेश्य से प्रयुक्त कालिदास के प्रिय छन्द हैं- अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, मालिनी, वसन्ततिलका तथा पुषिपताग्रा। सम्पूर्ण महाकाव्य में भाषा मध्ुर तथा सरल है। यह विविध् अलंकार से विभूषित है जिनमें उपमा अलंकार प्रमुख है। कालिदास में भाषा को अलंकारों से लादने की प्रवृत्ति नहीं है इसके विपरीत वे शब्दालंकारों का तो बहुत कम प्रयोग करते हैं और अर्थालंकारों का भी अलंकारों का भी अलंकारों के प्रदर्शन के उíेश्य से नहीं अपितु रस और भाव-पोषण के लिए ही प्रयोग करते हैं। कालिदास की भाषा काव्य के गुणों-प्रसाद और माध्ुर्य से सुशोभित है और इस कारण से उनकी काव्यशैली वैदर्भी मानी जाती है।

इन विशिष्ट गुणों के कारण ही रघुवंश को महाकाव्य का एक आदर्श उदाहरण माना जाता है और इसमें कोर्इ आश्चर्य नहीं कि संस्Ñत के आलोचकों ने इसके मूल्य को परखते हुए इसकी प्रशसित में यहां तक कह दिया है कि-
क इह रघुकारे न रमते।
अर्थात कौन है जो रघुकार—रघुवंश के लेखक महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य में आनन्द से झूम नहीं उठता?
सहायक ग्रन्थ:
1. महाकवि कालिदास-वासुदेव विष्णु मिराशी
2. संस्Ñत साहित्य का इतिहास-डा. ए. बी. कीथ
3. महाकवि कालिदास अंग्रेजी.-के. सी. रामास्वामी शास्त्राी
4. संस्Ñत साहित्य का इतिहास अंग्रेजी.-डा. एस. के. डे
5. बिबिलयोग्रापफी आपफ कालिदास-डा. एस. पी. नारंग
6. कालिदास की लालित्य योजना-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
7. महाकवि कालिदास-रमाशंकर त्रिपाठी
8. संस्Ñत साहित्य का नवीन इतिहास-Ñष्ण चैतन्य हिन्दी रुपान्तर : रामकुमार राय.




सम्बन्धित प्रश्न



Comments बिशन भट्ट on 24-02-2023

संपूर्ण रघुवंश महाकाव्य पुस्तक संस्कृत व हिन्दी में पुस्तक चााहिए

Arun on 20-02-2022

तुलसीदास द्वारा रचित 10 सवैयों

Arun on 20-02-2022

Tulsidas dwara Rachit 10 सवैयों


mittal gurjar on 15-04-2020

Kalidas Rachit do mahakavya ke naam likhiye

विराट on 14-04-2020

कालिदास द्वारा रचित दो महाकाव्यों के नाम
बताईए





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