वायुदाब व पवन पेटीयां
वायुदाब को समुद्र तल पर प्रति इकाई क्षेत्र के ऊपर वायु स्तंभ के कुल भार के रूप में परिभाषित किया जाता है। किसी विशेष बिंदु पर वायु द्वारा लगाए जाने वाले दाब की मात्रा तापमान और घनत्व से निर्धारित होती है जिसे प्रति इकाई क्षेत्र पर लगने वाले बल के रूप में मापा जाता है।
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विश्व की वायुदाब पेटीयां
1. विषुवत रेखीय निम्न वायु दाब कटिबन्ध
इसे विषुवत रेखा के समीप पाँच अंश अक्षांश तक माना जा सकता है । इस पेटी पर वर्षभर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं । इसके कारण ठण्डी हवा गर्म होकर ऊपर उठती है और ऊपर की ठण्डी हवा भारी होने के कारण नीचे आ जाती है। नीचे आने पर वह फिर से गर्म होकर ऊपर जाती है । यह क्रम वर्षभर चलता रहता है । इसलिए यहाँ वायु दाब कम रहता है। इस क्षेत्र में धरातल पर भी हवा लगभग गतिमान और शान्त होती है। इसलिए इस क्षेत्र को ‘शान्त कटिबन्ध’ या ‘डोलड्रम्स’ भी कहते हैं ।
2. उपोष्ण-उच्च दाब कटिबन्ध
इस पेटी का विस्तार दोनों गोलार्द्धों में 25° से लेकर 35°अक्षांशों के बीच है। विषुवतरेखीय निम्न वायु दाब कटिबन्ध की गर्म हवा हल्की होकर उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों की ओर बढ़ने लगती है। यही हवा ठण्डी होकर 25°-35° उत्तर एवं दक्षिण अक्षांश पर उतरने लगती है। फलतः यहाँ वायु दाब उच्च हो जाता है। यहाँ उच्च दाब पाये जाने का कारण पृथ्वी की दैनिक गति भी है। पृथ्वी के घूमने के कारण ध्रुवों के निकट की वायु इन अक्षांशों के बीच एकत्रित हो जाती है, जिससे दबाव बढ़ जाता है।
3. उपध्रुवीय निम्न दाब कटिबन्ध
दोनों गोलाद्र्धों में 60° से 70° अक्षांश रेखाओं के निकट निम्न वायु दाब का क्षेत्र पाया जाता है। यद्यपि तापमान के अनुसार यह उच्च दाब का क्षेत्र होना चाहिए था। परन्तु यहाँ निम्न दाब पाया जाता है। ऐसा पृथ्वी के घुर्णन बल के कारण होता है। पृथ्वी की गति के कारण इन अक्षांशों पर हवाएँ फैलकर बाहर की ओर चली जाती है, जिससे यहाँ निम्न दाब बन जाता है ।
4. ध्रुवीय उच्च दाब कटिबन्ध
पृथ्वी के दोनों ध्रुवों को औसतन 40 प्रतिशत ही सूर्यातव प्राप्त होता है। यहाँ सूर्य की करणें काफी तिरछी पड़ती हैं। फलस्वरूप यहाँ का तापमान बहुत कम रहता है और धरातल हमेशा बर्फ से ढँका रहता है। इस प्रकार ठण्डी और भारी हवा उच्च दाब क्षेत्र का निर्माण करती है।
कोरिऑलिस बल
इसका नाम भूगोलवेत्ता जी.जी. कोरिऑलिस के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने इसकी खोज की थी। इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं। इस बल के कारण उत्तरी गोलार्द्ध की हवाएँ प्रवर्तन की दिशा से दाँयीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। ये गतिशील पवन एवं धाराएँ उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाहिने ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। यही कारण है कि हवाएँ टेढ़े मार्ग पर चलती हैं। यह नियम बड़े क्षेत्रों पर चलने वाली स्थायी पवनों, छोटे चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों पर लागू होता है। इस नियम का प्रभाव महासागरीय धाराओं, ज्वारीय गतियों, राकेटों, आदि पर भी देखा जाता है।
पवन
पृथ्वी के सतह पर क्षैतिज दिशा में प्रवाहित होने वाली वायु को पवन कहते हैं। पवनों की गति प्रत्यक्ष रूप से वायुदाब द्वारा नियंत्रित होती है। वायुदाब की विषमताओं को संतुलित करने की दिशा में यह प्रकृति का एक स्वाभाविक प्रयास है। पृथ्वी की सतह पर क्षैतिज रूप से पवन, उच्च दाब वायु क्षेत्र से निम्न वायु दाब क्षेत्रों की ओर प्रवाहित होती है, जिसे वायुदाब केन्द्रों के परिवर्तन के मध्य निर्धारित किया जाता है।
I. ग्रहीय पवनें:
ग्रहीय पवनें, हवा के सामान्य वैश्विक परिसंचरण का प्रमुख घटक हैं। इन्हें पूरे विश्व में विश्व स्तर पर अपने प्रसार के कारण ग्रहीय पवन के रूप में जाना जाता है। दुनिया भर में तापमान और दबाव भिन्नता का कारण यही ग्रहीय पवनें होती हैं।
ग्रहीय पवनों के बारे में चर्चा इस प्रकार है:
(a) व्यापारिक पवनें - वे हवाएँ, जो उपोष्ण उच्च दाब क्षेत्रों से भूमध्य रेखीय निम्न दाब की ओर, उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर-पूर्व और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व दिशाओं से चलती हैं। इसलिए इनको उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवन और दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवन कहा जाता है।
इस प्रकार की पवनें वर्ष भर एक ही दिशा में निरन्तर बहती हैं। सामान्यतः इस प्रकार की पवन को उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर से दक्षिण दिशा में तथा दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण से उत्तरी दिशा में प्रवाहित होना चाहिए, किन्तु फ़ेरेल के नियम एवं कोरोऑलिस बल के कारण ये उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दायीं और तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाती हैं।
व्यापरिक पवनों को अंग्रेज़ी में ‘ट्रेड विंड्स’ कहते हैं। यहाँ ‘ट्रेड’ शब्द जर्मन भाषा से लिया गया है, जिसका तात्पर्य 'निर्दिष्ट पथ'या 'मार्ग' से है। इससे स्पष्ट है कि ये हवाएँ एक निर्दिष्ट पथ पर वर्ष भर एक ही दिशा में बहती रहती हैं। उत्तरी गोलार्ध में ये हवाएँ उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हैं। वहीं दक्षिणी गोलार्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर होती है।
(b) पछुआ पवन-
पछुआ पवन पृथ्वी के दोनों गोलार्द्धों में प्रवाहित होने वाली स्थायी पवनें हैं। इन पवनों की पश्चिमी दिशा के कारण ही इन्हें 'पछुआ पवन' कहा जाता है। पछुआ हवाएँ दोनों गोलार्द्धों, उपोष्ण उच्च वायुदाब कटिबन्धों से उपध्रुवीय निम्न वायुदाब कटिबन्धों की ओर प्रवाहित होती हैं। पछुआ पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं। इन हवाओं का सर्वश्रेष्ठ विकास 35º से 65º 40 डिग्री दक्षिणी अक्षांशों के मध्य पाया जाता है, क्योंकि यहाँ जलराशि के विशाल विस्तार के कारण पवनों की गति अपेक्षाकृत तेज़ होती तथा दिशा निश्चित रहती है। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में आसमान उच्च दाब वाले विशाल स्थल खंड तथा वायु दाब के परिवर्तनशील मौसमी प्रारूप के कारण इस पवन का सामान्य पश्चिमी दिशा से प्रवाह अस्पष्ट हो जाता है।
© ध्रुवीय पवनें -
वे ठण्डे ध्रुव प्रदेशों से ध्रुव-वृतीय कम दाब की मेखलाओं की ओर बहती हैं। इनका क्षेत्र 60° से 70° अक्षांशों तक विस्तृत है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये उत्तर-पूर्व की दिशा से चलती हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में इनकी दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। ये पवनें अत्यन्त ठण्डी होती हैं, इसलिए इनके सम्पर्क में आने वाले क्षेत्रों का तापमान बहुत नीचे गिर जाता है। पछुआ से मिलकर ये चक्रवातों और प्रतिचक्रवातों को जन्म देती हैं।
सामयिक पवनें
स्थायी रूप से तापमान एवं वायुदाब की विशेष दशाओं के कारण जब पवनें किसी निश्चित अवधि में बहती हैं तो उन्हें अस्थायी (Temporary) या सामयिक (Seasonal) पवनें कहा जाता है। ये पवनें तीन प्रकार की होती हैं-
II. सामयिक पवनें:
समुदी व सागरीय समीर एवं मानसून पवनें सामयिक पवनें कहलाती हैं। स्थलीय व सागरीय समीर प्रतिदिन बहती हैं, जबकि मानसून की पवनें सामयिक होती हैं। सामयिक पवनें निम्न प्रकार की होती है:
(a) मानसून पवनें
(b) स्थलीय व सागरीय समीर
© पर्वतीय तथा घाटी समीर
सामयिक पवनें
1. समुदी या सागरीय समीर - दिन के समय सूर्य की गर्मी से स्थल भाग जल भाग की अपेक्षा अधिक गरम हो जाता है। अत: स्थल भाग पर अधिक ताप से उत्पन्न निम्न वायुदाब तथा जल भाग पर कम तापमान होने से अधिक वायुदाब स्थापित हो जाता है। परिणामस्वरूप दिन को सागर से स्थल की ओर पवनें बहने लगती हैं। ये पवने दिन के दस बजे से सूर्यास्त तक बहती हैं और कभी-कभी 30-40 किमीं तक स्थल भाग में भीतर प्रवेश कर जाती हैं। इस पवनों से स्थल भाग का तापमान गिर जाता है और कुछ वर्षा भी होती है। इस प्रकार मौसम की दैनिक अवस्थाओं पर इनका बड़ा प्रभाव पड़ता है। सागर से बहने के कारण इनको सागरीय समुदी) पवन कहा जाता है।
2. स्थलीय समीर - रात्रि के समय स्थल भाग में तापमान की कमी और समुद्री भाग पर तापक्रम की अधिकता (जल स्थल की अपेक्षा धीरे-धीरे ठण्डा होता है) के कारण स्थलीय भाग में अधिक वायुदाब तथा समुद्री भाग पर न्यून वायु भार रहता है, इस कारण प्रायः समुद्री तटों पर सूर्यास्त से प्रातः 8 बजे तक स्थल की ओर से हवाएँ समुद्र की ओर बहती हैं। इनको स्थलीय पवन कहते हैं।
3. पर्वतीय तथा घाटी समीर - ये भी तापमान के दैनिक परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। रात्रि के समय पर्वत शिखर से जो पवने घाटी के तल की ओर चलती हैं, उन्हें पर्वतीय पवनें कहा जाता है। दिन के समय जो पवने घाटी के तल से पर्वत शिखर की ओर बहती हैं, उन्हें घाटी पवनें कहा जाता है। सूर्योदय के साथ सूर्य की किरणे सर्वप्रथम पर्वत शिखरों का स्पर्श करती हैं। इसी कारण घाटी की अपेक्षा वे शीघ्र गर्म हो जाते हैं तथा संवाहन के कारण उनकी वायु ऊपर उठ जाती है। परिणामस्वरूप घाटी के तल से अपेक्षाकृत ठण्डी पवनें शिखर की ओर आने लगती हैं। इन्हें घाटी समीर कहते हैं जबकि रात्रि के समय तीव्र विकिरण के कारण पर्वतशिखर शीघ्र ठण्डा हो जाता है तथा घाटी अपेक्षाकृत गरम रहती है। फलतः पर्वतशिखर की वायु सघन तथा भारी होने के कारण नीचे उतरती है, जबकि घाटी की वायु अपेक्षाकृत हल्की होने के कारण ऊपर उठ जाती है। इन्हें पर्वतीय समीर कहते हैं।
III. स्थानीय पवनें
ये स्थानीय पवनें विश्व के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में चलती हैं।
गर्म हवाएं
सिरोको - सहारा मरुस्थल
लेवेचे - स्पेन
खामसिन - मिस्र
हरमटान - सहारा डेजर्ट
सेंटा एना - यूएसए
जोंडा - अर्जेंटीना
ब्रिक फील्डर - ऑस्ट्रेलिया
ठंडी हवाएं
मिस्ट्रल - स्पेन और फ्रांस
बोरा - एड्रियाटिक तट
पाम्पेरो - अर्जेंटीना
बुरान - साइबेरिया
जेट धाराएं
जेट धाराएं ऊपरी क्षोभमंडल (9 -14 किमी) में चलती हैं, जो उच्च गति हवाओं (95-190 किमी/ घंटा) के बैंड हैं। यह शब्द 1947 में कार्ल गुस्टाफ रॉस्बी द्वारा प्रयोग किया गया था। इसकी औसत गति सीमा शीत ऋतु में उच्चतम लगभग 120 किमी/ घंटा तथा ग्रीष्म ऋतु में निम्नतम लगभग 50 किमी/ घंटा होती है। जेट धाराओं के दो सबसे महत्वपूर्ण प्रकार पोलर जेट धाराएं और सबट्रॉपिकल जेट धाराएं हैं।
Vayudab kise kahte
Rekhachitr me parthvi ko bhin bhin daab pattiyo me bataya
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