Bharateey Paramparik Veshbhusha भारतीय पारंपरिक वेशभूषा

भारतीय पारंपरिक वेशभूषा



GkExams on 10-02-2019

मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उनसे निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन है। 5 हजार वर्ष पूर्व हड़प्पा के अवशेषों में चांदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरपीय लोगों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी, तब तक योरप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचलित हुआ, जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस। इसलिए यह कहना कि हर तरह के परिधानों का आविष्कार भारत में ही हुआ और भारतीय परिधानों का विकसित रूप ही हैं आज के आधुनिक परिधान, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारतीय वस्त्रों के कलात्मक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से लेकर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग-बिरंगे परिधान, ठंड से पूर्णत: सुरक्षित सुंदर कश्मीरी शॉल भारत के प्राचीन कलात्मक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे, जो ईसा से 200 वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है। परिधान का आविष्कार तो भारत में ही हुआ, लेकिन ग्रीक, रोमन, फारस, हूण, कुषाण, मंगोल, मुगल आदि के काल में भारतीय परिधानों की वेशभूषा में परिवर्तन होते रहे। हालांकि परिवर्तन के चलते कई नए वस्त्र में प्रचलन में आए और पहले की अपेक्षा भारतीयों ने इनमें खुद को ज्यादा आरामदायक महसूस भी किया लेकिन अंग्रेजों के काल में भारतीयों की वेशभूषा बिलकुल ही बदल गई। पेंट, शर्ट, कोट और जींस को हम आधुनिक परिधान कहते हैं, पाश्चात्य नहीं। आधुनिकता और पाश्चात्यता में फर्क है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ऐसे कई परिधान, वस्त्र या ड्रेस विकसित हुए जिन्हें आज हम पश्चिमी सभ्यता की देन कहते हैं। हालांकि हर तरह के परिधान पहनने में किसी भी प्रकार का कोई गुरेज नहीं, लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि हम क्यों पहनते हैं वैसे परिधान, जो हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाते हैं? भाषा, भूषा, भोजन और भजन से ही हमारी पहचान है। मुगल और अंग्रेजों ने पहले हमारी भाषा बदली, फिर हमारी भूषा बदली और अब हम मुगल, पाश्चात्य संगत, संगीत के दीवाने हैं। पिज्जा-बर्गर, कोला और बीयर पी-खाकर खुद को आधुनिक समझते हैं। बाजार से भारतीय व्यंजन, पेय पदार्थ और देसी तड़का लगभग गायब हो गया है। प्राकृतिक जीवन के सिद्धांत को देखा जाए तो पोशाक के संबंध में हमारे भारतीय मनीषियों को इसकी गहरी समझ थी। वे इसके मनोविज्ञान को जानते थे। वे प्रकृति के इस नियम को जानते थे कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए वायु, सूर्य और प्रकाश का हमारी देह से जितना संपर्क होता रहे, उतना ही अच्छा है। आजकल तो तंग वस्त्र पहनने का प्रचलन है। जब स्त्री अधिक तंग वस्त्र पहनती हैं तो इनके रोम छिद्रों से ऑक्सीजन ग्रहण नहीं की जाती है जिसके परिणामस्वरूप त्वचा में मेलोनिन का स्तर गिरने लगता है। यही नहीं, पुरुषों और स्त्रियों में कई रोगों का कारण ही ये तंग वस्त्र बन सकते हैं। जांघ व बाजू पर अधिक तंग वस्त्र तनाव, अवसाद, अनिद्रा, मोटापा, अल्सर आदि को बुलावा देते हैं। नाभि पर तंग कपड़ों से अफरा, गैस, कोलायटिस, कब्ज, बवासीर आदि हो सकता है। छाती पर तंग वस्त्र हृदयरोग, श्वास फूलना आदि का कारण बन सकते हैं। त्वचा पर अत्यधिक रोम छिद्र होते हैं जिनसे कि त्वचा ऑक्सीजन लेती है। इसी तरह परिधान के संबंध में ऐसी कई बातें हैं, जो यहां उल्लेखित की जा सकती है। खैर...! अब हम यह बताएंगे कि हिन्दू धर्म में प्रत्येक कार्य, मौसम आदि के लिए अलग-अलग परिधानों का प्रावधान है। यदि आप उक्त परिधान या पोशाकों को पहनते हैं तो आपको अच्छा महसूस होगा। हालांकि हम यह भी बताएंगे कि अब कौन से परिधान या पहनावे प्रचलन से बाहर हो गए हैं।




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