मानवाधिकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार समकालीन समय में राजनीति विज्ञान के अनुशासन के महत्वपूर्ण सरोकार के रूप में उभरा है। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के युग में जहां बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में त्वरित परिवर्तन हो रहे हैं, मानवाधिकार के मुíे को ज्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। मानवाधिकार के विमर्श के अंतर्गत व्यकित के सरोकार पर राज्य की अपेक्षा ज्यादा बल दिया जा रहा है तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत लाभों एवं संसाधनों का जो असमान वितरण हो रहा है और उनसे लोगों के बीच जो असमानताएं एवं गरीबी बढ़ रही है उसने मानवाधिकार के मुíे को और भी अधिक ध्यानाकर्षण का विषय बना दिया है। इस अध्याय का मुख्य उíेश्य मानवाधिकार की संकल्पना के विभिन्न अर्थों तथा उसके संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न दृषिटकोणों का विश्लेषण करना है। इसके अंतर्गत मानवाधिकार संकल्पना की व्युत्पत्ति एवं तातिवक निहितार्थ को परिभाषित करते हुए उन विविध सैद्धानितक अभिमान्यताओं पर भी विचार किया जाएगा जिनमें इस धारणा की जड़ें निहित हैं।
एक सर्वव्यापक दृषिट से मानवाधिकार की संकल्पना की सटीक परिभाषा के संदर्भ विद्वानों के बीच एकमतता का अभाव रहा है। परिभाषा की जटिलता का मुख्य कारण है कि विभिन्न दार्शनिक दृषिटकोण द्वारा इसे अपने-अपने तरीके से नैतिक औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गर्इ है। अत: इस विषय के एक प्रमुख ज्ञाता ने यह कहा कि Þइसे परिभाषित करने के संदर्भ में हमें उपयोगितावाद और गैर-उपयोगितावाद के टकराव, समानता एवं स्वतंत्रता के मूल्यों के टकराव तथा असीमित एवं सापेक्ष अधिकारों के टकराव इत्यादि सभी प्रकार की नैतिक तर्कसंगतता के प्रश्नों का सामना करना पड़ता हैß (ैीमेजंबा रू 2002ए 34)। इसके अलावा, इस संदर्भ में उदारवादी एवं माक्र्सवादी दृषिटकोणों के बीच के वैचारिक मतभेदों के कारण भी मानवाधिकार की प्रकृति एवं विषय-वस्तु, सुरक्षा के उपलब्ध स्तर, मानवाधिकार संरक्षण हेतु संस्थागत प्रणाली इत्यादि के संदर्भ में इसके क्रियान्वयन की गत्यात्मकता को सुनिशिचत करने में कठिनार्इ आती है।
मानवाधिकार की अवधारणा के संदर्भ में इसके आधारभूत दार्शनिक विवाद की जड़े निरंकुशवाद या सार्वभौमवाद तथा सांस्कृतिक सापेक्षावाद के परस्पर विरोधी तर्कों में निहित है। उदारवादी विचारधारा से प्रभावित सार्वभौमवाद (न्दपअमतेंसपेउ) के प्रतिपादकों के तर्क अनुसार मानवाधिकार बरताव का साधिकार है जो मनुष्य को मनुष्य होने के नाते प्राप्त है। अत: ये अधिकार सार्वभौम एवं अनुलंधनीय है। इसके लिए किसी व्यकित का संबंध किसी समाज या संस्कृति विशेष से होना जरूरी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र (1948) को कर्इ देशों द्वारा अपनाए जाने के बाद उपरोक्त तर्क को व्यापक मान्यता मिली है।
हालांकि सार्वभौमिक मानवाधिकार की धारणा की संस्कृति सापेक्षवाद के समर्थकों ने लौकिक एवं स्थानिक संकीर्णतावाद की दृषिट से आलोचनाएं भी की हैं। लौकिक दृषिट से उन्होंने यह तर्क दिया है कि 18वीं सदी के 'प्रबोधन युग में विकसित मानवाधिकार की संकल्पना का सरोकार केवल राज्य के विरूद्ध व्यकित के अधिकारों को सुरक्षित एवं संवद्र्धित करने तक सीमित रहा। मानवाधिकार के विचार की सिथति को अविभाज्य एवं अनुलंघनीय बनाए जाने के उत्साह में वे एक एैसी सार्वभौमिक मानवाधिकार की अवधारणा को विकसित करने में विफल रहे जो राज्य एवं व्यकित दोनों के हितों एवं आवश्यकता को ध्यान में रख सके।
दूसरे, स्थानिक दृषिट से भी सांस्कृतिक सापेक्षवादियों ने सार्वभौमवाद की आलोचना की है। उनका तर्क है मानवाधिकार की अवधारणा तथाकथित पाश्चात्य यूरोपीय संस्कृति से उदभूत हुर्इ है। मानवाधिकार का सांस्कृतिक संकीर्णतावादी तर्क विश्व के विभिन्न भागों में बसे लोगों की सांस्कृतिक भिन्नता एवं सांस्कृतिक सीमाओं पर ध्यानाकर्षण करता है। अत: किसी विशेष प्रकार की सिथति में किसी देश एवं संस्कृति के अंतर्गत पनपे किसी विचार या धारणा को पूरे विश्व के लोगों, जिनकी भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक प्रणाली है, पर लागू करना असंगत है। इस तरह के विचारों को अन्य संस्कृतियों पर थोपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का परिचायक है। इस प्रकार सापेक्षवादियों द्वारा सार्वभौमवाद की इहलौकिक एवं स्थानिक संकीर्णतावादी आलोचना मुख्यत: द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में समाजवादी अथवा विकासशील तृतीय विश्व के देशों के दावों से प्रेरित है। उल्लेखनीय है कि सांस्कृतिक संकीर्णतावादी समालोचना, जो कि पाश्चात्य यूरोपीय संस्कृति से भिन्न संस्कृतियों से जुड़ी हुर्इ है, के अतिरिक्त भी सार्वभौमिक मानवाधिकार की धारणा को आलोचित किया गया है। इस संदर्भ में उदारवादी परंपरा की अभिमान्यता पर दो आरोप लगाए गए हैं। प्रथम, यह कि मानवाधिकार के प्रवक्ताओं ने समिषिटवाद की जगह व्यकितवाद को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है। फलत: समिषिटवादी व समूहवादी अधिकार एवं मूल्यों की अवहेलना हो गयी है जिसके परिणाम समाज के लिए घातक हो सकते हैं।
दूसरे, मानवाधिकार के विचार को इसलिए भी आलोचित किया गया है कि यह व्यकित में अलगाववादी प्रवृति का विकास करता है। यह अधिकार की नकारात्मक प्रवृति का परिणाम है। आलोचकों का यह तर्क है कि व्यकित के अहस्तांतरणीय एवं अनुलंघनीय अधिकार की नकारात्मक धारणा संबंधी उदारवादी मान्यता जीवन की बढ़ती हुर्इ जटिलता और मानव कल्याणार्थ राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता की प्रतिबद्धता के कारण कभी भी वास्तविक नहीं हो सकती। विकास के परिप्रेक्ष्य में भी कुछ मामलों में व्यकित के मूलभूत नकारात्मक अधिकार प्रतिबंधित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, पारिसिथतिकीय संकटग्रस्त क्षेत्र में शहरीकरण को रोकने तथा इसके पर्यावरणीय प्रणाली को सुरक्षित रखने के लिए आवाजाही की स्वतंत्रता, व्यवसाय की स्वतंत्रता (किसी क्षेत्र में) तथा कहीं भी बसने की स्वतंत्रता इत्यादि को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
मानवाधिकार के उदारवादी दृषिटकोण को माक्र्सवादी दृषिट से भी आलोचित किया गया है। मानवाधिकार के संदर्भ में, विशेषकर तृतीय विश्व के देशों के परिप्रेक्ष्य को लेकर उदारवादी एवं माक्र्सवादी विचारधारा परस्पर विरोधी विचारधाराएं रही हैं। उदारवादी दृषिटकोण यदि 18वीं सदी के प्रबोधन युग के मानवतावादी दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है तो माक्र्सवादी दृषिटकोण का विकास लेनिन एवं माओ की रचनाओं से हुआ। किंतु मानवाधिकार के संदर्भ में दोनों ही विचारधाराओं की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। चाहे वो संपत्ति संबंधी विचार हो या वर्ग संघर्ष संबंधी; चाहे वो व्यकितवाद संबंधी विचार हो या समतावाद संबंधी; चाहे वो राज्य की भूमिका की बात हो या सामान्य हित का संदर्भ रहा हो; उदारवादी दृषिटकोण एवं माक्र्सवादी दृषिटकोण के मतभेद काफी गहरे हैं।
दोनों दृषिटकोणों के बीच मतभेद सिर्फ 'लोकतंत्र और 'स्वतंत्रता के अर्थान्वयन को लेकर नहीं है, बलिक मानवाधिकार को वास्तविक आधार प्रदान करने के संदर्भ में भी है। उदारवादियों ने मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणापत्र के आधाभूत तत्व के रूप में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार पर ज्यादा बल दिया है जबकि माक्र्सवादियों ने इस संदर्भ में सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार पर अत्यधिक बल दिया है। फलत: उदावादियों द्वारा प्रस्तावित मानवाधिकार की धारणा माक्र्सवादियों को रास नहीं आती है।
अंत में, मानवाधिकार की शाबिदक व्युत्पत्ति की दृषिट से इसके अर्थ के संदर्भ में सहमति पर पहुंचने की कोशिश की जा सकती है। मानवाधिकार दो शब्दों के योग से बना है - मानव (भ्नउंद) और अधिकार (त्पहीजे) जिसका सामान्य सा अभिप्राय मानव के अधिकार से है। एक विद्वान ने लिखा कि Þ मानवाधिकार के उल्लेख का निहितार्थ व्यकित के ऐसे अधिकारों से है जो उन्हें मनुष्य होने के नाते जन्म लेने से ही प्राप्त होते हैं। वस्तुत: यहां मानवाधिकार के उल्लेख का निहितार्थ ऐसे आत्म-साक्ष्य के रूप में नहीं है कि जिन्हें ये अधिकार प्राप्त हैं वे मानव हैं, बलिक इसका आशय है कि उन अधिकारों की उपलबिध के लिए मानव होना जरूरी है। दूसरी दृषिट से क्या ऐसे अधिकार मनुष्य को सिर्फ मनुष्य होने के नाते प्राप्त है, चाहे उनकी भिन्न सामाजिक परिसिथतियां व गुणों के स्तर हों? राज्य एवं व्यकित द्वारा इस प्रश्न का जो प्रत्युत्तर होगा उसका मानवाधिकार संरक्षण के संदर्भ में ठोस प्रभाव होगाß (ैीमेजंबा रू 2002ए 33)।
शेस्टैक (ैीमेजंबा) के अनुसार, Þजब हम मानवाधिकार के दूसरे शब्द अधिकार (त्पहीजे) का अर्थान्वयन करते हैं तो भी पारिभाषिक प्रक्रिया सरल नहीं होती। वस्तुत: अधिकार एक चैमेलियन जैसा पद है जिसके कर्इ विधिक निहितार्थ हो सकते हैं। अधिकार की परिभाषा कभी कुछ करने के साधिकार के रूप में की जाती है जिसमें कत्र्तव्य शामिल होते हैं। कभी इसका आशय ऐसी क्षमता से लिया जाता है कि उसकी कानूनी हस्ती को कोर्इ डिगा नहीं सकता। इसका निहितार्थ विधिक संबंधों को स्थापित करने की शकित से भी है। ये सभी पद अधिकार के साथ जुड़े हैं और प्रत्येक के संरक्षण के तरीके भिन्न हैं और जो भिन्न परिणाम पैदा करते हैंß (ैीमेजंबा रू 2002ए 33)। इस प्रकार, मानवाधिकार की शाबिदक व्युत्पत्ति के अभितार्थ में निहित प्रश्न के प्रत्युत्तर की समीक्षा चिंतकों के दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में निहित नैतिक मूल्य-निर्धारण के संदर्भ में की जा सकती है जिससे इस अवधारणा के विभिन्न अर्थों के स्पष्टीकरण में मदद मिलेगी।
मानव अधिकार का बोध
(Understanding Human Rights)
सामान्यत: मानवाधिकार को अधिकार के एक व्यापक विमर्श के रूप में देखा जाता है। वस्तुत: अधिकार की संकल्पना एक जटिल एवं बहुअर्थी संकल्पना है। अमूमन, अन्य लोगों के साथ संबंध में अधिकार प्राप्त लोगों के लिए अधिकार एक उपलबिध के समान है। विधिक सिद्धान्तकार हाफेल्ड के अनुसार अधिकार को व्यकित के दाबे और कत्र्तव्य के परस्पर संवाद के रूप में देखा जा सकता है। उनके अनुसार अधिकार को अधिकार प्राप्त व्यकित के दावे के रूप में देखा जा सकता है। इसका निहितार्थ है कि बदले में दूसरे लोगों का यह कत्र्तव्य है कि वह अधिकार प्राप्त व्यकित की मांग के दावे को स्वीकार करे। सामान्य शब्दों में, अधिकार विशेषाधिकार एवं शकित से भिन्न एक विचार है जो व्यकित के परस्पर सकारात्मक, मूल्य तटस्थ एवं सामान्य संबंध की अपेक्षा करता है। इस प्रकार अधिकार किसी व्यकित के वे दावे हैं जो समाज में दूसरे व्यकितयों द्वारा स्वीकार्य है।
मानवाधिकार की सार्वभौमिक स्वीकृति से संबंधी उपयर्ुक्त तर्क-वितर्क के विश्लेषण के पश्चात मानवाधिकार की धारणा की व्यापक समझ को विकसित करना सरल हो जाता है। इस धारणा को समझने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि उन तमाम तर्क-वितर्क को ध्यान में रखा जाए जो इसके विचारकों ने प्रस्तुत किए हैं। इस संदर्भ में, आरंभिक तौर पर सुभाष काश्यप ने मानवाधिकार की परिभाषा ऐसे मौलिक अधिकार के रूप में की है जो विश्व के प्रत्येक भाग में रहने वाले पुरूषों एवं महिलाओं को वहां मनुष्य के रूप में जन्म लेने से ही प्राप्त होते हैंß (ज्ञेंीलंच रू 1978 रू 2)।
इस अर्थ में, मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य होने के नाते प्राप्त होते हैं - उनकी जाति, राष्ट्रीयता या किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता के आधार पर नहीं। ये अधिकार मानवीय गरिमा और उपयुक्त जीवन स्तर के न्यूनतम शर्तों को व्यक्त करते हैं। ये न तो अर्जित किए जा सकते हैं न ही वंशानुगत ह
मानवाधिकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार समकालीन समय में राजनीति विज्ञान के अनुशासन के महत्वपूर्ण सरोकार के रूप में उभरा है। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के युग में जहां बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में त्वरित परिवर्तन हो रहे हैं, मानवाधिकार के मुíे को ज्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। मानवाधिकार के विमर्श के अंतर्गत व्यकित के सरोकार पर राज्य की अपेक्षा ज्यादा बल दिया जा रहा है तथा वैश्वीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत लाभों एवं संसाधनों का जो असमान वितरण हो रहा है और उनसे लोगों के बीच जो असमानताएं एवं गरीबी बढ़ रही है उसने मानवाधिकार के मुíे को और भी अधिक ध्यानाकर्षण का विषय बना दिया है। इस अध्याय का मुख्य उíेश्य मानवाधिकार की संकल्पना के विभिन्न अर्थों तथा उसके संदर्भ में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न दृषिटकोणों का विश्लेषण करना है। इसके अंतर्गत मानवाधिकार संकल्पना की व्युत्पत्ति एवं तातिवक निहितार्थ को परिभाषित करते हुए उन विविध सैद्धानितक अभिमान्यताओं पर भी विचार किया जाएगा जिनमें इस धारणा की जड़ें निहित हैं।
एक सर्वव्यापक दृषिट से मानवाधिकार की संकल्पना की सटीक परिभाषा के संदर्भ विद्वानों के बीच एकमतता का अभाव रहा है। परिभाषा की जटिलता का मुख्य कारण है कि विभिन्न दार्शनिक दृषिटकोण द्वारा इसे अपने-अपने तरीके से नैतिक औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गर्इ है। अत: इस विषय के एक प्रमुख ज्ञाता ने यह कहा कि Þइसे परिभाषित करने के संदर्भ में हमें उपयोगितावाद और गैर-उपयोगितावाद के टकराव, समानता एवं स्वतंत्रता के मूल्यों के टकराव तथा असीमित एवं सापेक्ष अधिकारों के टकराव इत्यादि सभी प्रकार की नैतिक तर्कसंगतता के प्रश्नों का सामना करना पड़ता हैß (ैीमेजंबा रू 2002ए 34)। इसके अलावा, इस संदर्भ में उदारवादी एवं माक्र्सवादी दृषिटकोणों के बीच के वैचारिक मतभेदों के कारण भी मानवाधिकार की प्रकृति एवं विषय-वस्तु, सुरक्षा के उपलब्ध स्तर, मानवाधिकार संरक्षण हेतु संस्थागत प्रणाली इत्यादि के संदर्भ में इसके क्रियान्वयन की गत्यात्मकता को सुनिशिचत करने में कठिनार्इ आती है।
मानवाधिकार की अवधारणा के संदर्भ में इसके आधारभूत दार्शनिक विवाद की जड़े निरंकुशवाद या सार्वभौमवाद तथा सांस्कृतिक सापेक्षावाद के परस्पर विरोधी तर्कों में निहित है। उदारवादी विचारधारा से प्रभावित सार्वभौमवाद (न्दपअमतेंसपेउ) के प्रतिपादकों के तर्क अनुसार मानवाधिकार बरताव का साधिकार है जो मनुष्य को मनुष्य होने के नाते प्राप्त है। अत: ये अधिकार सार्वभौम एवं अनुलंधनीय है। इसके लिए किसी व्यकित का संबंध किसी समाज या संस्कृति विशेष से होना जरूरी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र (1948) को कर्इ देशों द्वारा अपनाए जाने के बाद उपरोक्त तर्क को व्यापक मान्यता मिली है।
हालांकि सार्वभौमिक मानवाधिकार की धारणा की संस्कृति सापेक्षवाद के समर्थकों ने लौकिक एवं स्थानिक संकीर्णतावाद की दृषिट से आलोचनाएं भी की हैं। लौकिक दृषिट से उन्होंने यह तर्क दिया है कि 18वीं सदी के 'प्रबोधन युग में विकसित मानवाधिकार की संकल्पना का सरोकार केवल राज्य के विरूद्ध व्यकित के अधिकारों को सुरक्षित एवं संवद्र्धित करने तक सीमित रहा। मानवाधिकार के विचार की सिथति को अविभाज्य एवं अनुलंघनीय बनाए जाने के उत्साह में वे एक एैसी सार्वभौमिक मानवाधिकार की अवधारणा को विकसित करने में विफल रहे जो राज्य एवं व्यकित दोनों के हितों एवं आवश्यकता को ध्यान में रख सके।
दूसरे, स्थानिक दृषिट से भी सांस्कृतिक सापेक्षवादियों ने सार्वभौमवाद की आलोचना की है। उनका तर्क है मानवाधिकार की अवधारणा तथाकथित पाश्चात्य यूरोपीय संस्कृति से उदभूत हुर्इ है। मानवाधिकार का सांस्कृतिक संकीर्णतावादी तर्क विश्व के विभिन्न भागों में बसे लोगों की सांस्कृतिक भिन्नता एवं सांस्कृतिक सीमाओं पर ध्यानाकर्षण करता है। अत: किसी विशेष प्रकार की सिथति में किसी देश एवं संस्कृति के अंतर्गत पनपे किसी विचार या धारणा को पूरे विश्व के लोगों, जिनकी भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक प्रणाली है, पर लागू करना असंगत है। इस तरह के विचारों को अन्य संस्कृतियों पर थोपना सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का परिचायक है। इस प्रकार सापेक्षवादियों द्वारा सार्वभौमवाद की इहलौकिक एवं स्थानिक संकीर्णतावादी आलोचना मुख्यत: द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में समाजवादी अथवा विकासशील तृतीय विश्व के देशों के दावों से प्रेरित है। उल्लेखनीय है कि सांस्कृतिक संकीर्णतावादी समालोचना, जो कि पाश्चात्य यूरोपीय संस्कृति से भिन्न संस्कृतियों से जुड़ी हुर्इ है, के अतिरिक्त भी सार्वभौमिक मानवाधिकार की धारणा को आलोचित किया गया है। इस संदर्भ में उदारवादी परंपरा की अभिमान्यता पर दो आरोप लगाए गए हैं। प्रथम, यह कि मानवाधिकार के प्रवक्ताओं ने समिषिटवाद की जगह व्यकितवाद को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है। फलत: समिषिटवादी व समूहवादी अधिकार एवं मूल्यों की अवहेलना हो गयी है जिसके परिणाम समाज के लिए घातक हो सकते हैं।
दूसरे, मानवाधिकार के विचार को इसलिए भी आलोचित किया गया है कि यह व्यकित में अलगाववादी प्रवृति का विकास करता है। यह अधिकार की नकारात्मक प्रवृति का परिणाम है। आलोचकों का यह तर्क है कि व्यकित के अहस्तांतरणीय एवं अनुलंघनीय अधिकार की नकारात्मक धारणा संबंधी उदारवादी मान्यता जीवन की बढ़ती हुर्इ जटिलता और मानव कल्याणार्थ राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता की प्रतिबद्धता के कारण कभी भी वास्तविक नहीं हो सकती। विकास के परिप्रेक्ष्य में भी कुछ मामलों में व्यकित के मूलभूत नकारात्मक अधिकार प्रतिबंधित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, पारिसिथतिकीय संकटग्रस्त क्षेत्र में शहरीकरण को रोकने तथा इसके पर्यावरणीय प्रणाली को सुरक्षित रखने के लिए आवाजाही की स्वतंत्रता, व्यवसाय की स्वतंत्रता (किसी क्षेत्र में) तथा कहीं भी बसने की स्वतंत्रता इत्यादि को प्रतिबंधित किया जा सकता है।
मानवाधिकार के उदारवादी दृषिटकोण को माक्र्सवादी दृषिट से भी आलोचित किया गया है। मानवाधिकार के संदर्भ में, विशेषकर तृतीय विश्व के देशों के परिप्रेक्ष्य को लेकर उदारवादी एवं माक्र्सवादी विचारधारा परस्पर विरोधी विचारधाराएं रही हैं। उदारवादी दृषिटकोण यदि 18वीं सदी के प्रबोधन युग के मानवतावादी दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है तो माक्र्सवादी दृषिटकोण का विकास लेनिन एवं माओ की रचनाओं से हुआ। किंतु मानवाधिकार के संदर्भ में दोनों ही विचारधाराओं की भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं। चाहे वो संपत्ति संबंधी विचार हो या वर्ग संघर्ष संबंधी; चाहे वो व्यकितवाद संबंधी विचार हो या समतावाद संबंधी; चाहे वो राज्य की भूमिका की बात हो या सामान्य हित का संदर्भ रहा हो; उदारवादी दृषिटकोण एवं माक्र्सवादी दृषिटकोण के मतभेद काफी गहरे हैं।
दोनों दृषिटकोणों के बीच मतभेद सिर्फ 'लोकतंत्र और 'स्वतंत्रता के अर्थान्वयन को लेकर नहीं है, बलिक मानवाधिकार को वास्तविक आधार प्रदान करने के संदर्भ में भी है। उदारवादियों ने मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणापत्र के आधाभूत तत्व के रूप में नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार पर ज्यादा बल दिया है जबकि माक्र्सवादियों ने इस संदर्भ में सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार पर अत्यधिक बल दिया है। फलत: उदावादियों द्वारा प्रस्तावित मानवाधिकार की धारणा माक्र्सवादियों को रास नहीं आती है।
अंत में, मानवाधिकार की शाबिदक व्युत्पत्ति की दृषिट से इसके अर्थ के संदर्भ में सहमति पर पहुंचने की कोशिश की जा सकती है। मानवाधिकार दो शब्दों के योग से बना है - मानव (भ्नउंद) और अधिकार (त्पहीजे) जिसका सामान्य सा अभिप्राय मानव के अधिकार से है। एक विद्वान ने लिखा कि Þ मानवाधिकार के उल्लेख का निहितार्थ व्यकित के ऐसे अधिकारों से है जो उन्हें मनुष्य होने के नाते जन्म लेने से ही प्राप्त होते हैं। वस्तुत: यहां मानवाधिकार के उल्लेख का निहितार्थ ऐसे आत्म-साक्ष्य के रूप में नहीं है कि जिन्हें ये अधिकार प्राप्त हैं वे मानव हैं, बलिक इसका आशय है कि उन अधिकारों की उपलबिध के लिए मानव होना जरूरी है। दूसरी दृषिट से क्या ऐसे अधिकार मनुष्य को सिर्फ मनुष्य होने के नाते प्राप्त है, चाहे उनकी भिन्न सामाजिक परिसिथतियां व गुणों के स्तर हों? राज्य एवं व्यकित द्वारा इस प्रश्न का जो प्रत्युत्तर होगा उसका मानवाधिकार संरक्षण के संदर्भ में ठोस प्रभाव होगाß (ैीमेजंबा रू 2002ए 33)।
शेस्टैक (ैीमेजंबा) के अनुसार, Þजब हम मानवाधिकार के दूसरे शब्द अधिकार (त्पहीजे) का अर्थान्वयन करते हैं तो भी पारिभाषिक प्रक्रिया सरल नहीं होती। वस्तुत: अधिकार एक चैमेलियन जैसा पद है जिसके कर्इ विधिक निहितार्थ हो सकते हैं। अधिकार की परिभाषा कभी कुछ करने के साधिकार के रूप में की जाती है जिसमें कत्र्तव्य शामिल होते हैं। कभी इसका आशय ऐसी क्षमता से लिया जाता है कि उसकी कानूनी हस्ती को कोर्इ डिगा नहीं सकता। इसका निहितार्थ विधिक संबंधों को स्थापित करने की शकित से भी है। ये सभी पद अधिकार के साथ जुड़े हैं और प्रत्येक के संरक्षण के तरीके भिन्न हैं और जो भिन्न परिणाम पैदा करते हैंß (ैीमेजंबा रू 2002ए 33)। इस प्रकार, मानवाधिकार की शाबिदक व्युत्पत्ति के अभितार्थ में निहित प्रश्न के प्रत्युत्तर की समीक्षा चिंतकों के दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में निहित नैतिक मूल्य-निर्धारण के संदर्भ में की जा सकती है जिससे इस अवधारणा के विभिन्न अर्थों के स्पष्टीकरण में मदद मिलेगी।
मानव अधिकार का बोध
(Understanding Human Rights)
सामान्यत: मानवाधिकार को अधिकार के एक व्यापक विमर्श के रूप में देखा जाता है। वस्तुत: अधिकार की संकल्पना एक जटिल एवं बहुअर्थी संकल्पना है। अमूमन, अन्य लोगों के साथ संबंध में अधिकार प्राप्त लोगों के लिए अधिकार एक उपलबिध के समान है। विधिक सिद्धान्तकार हाफेल्ड के अनुसार अधिकार को व्यकित के दाबे और कत्र्तव्य के परस्पर संवाद के रूप में देखा जा सकता है। उनके अनुसार अधिकार को अधिकार प्राप्त व्यकित के दावे के रूप में देखा जा सकता है। इसका निहितार्थ है कि बदले में दूसरे लोगों का यह कत्र्तव्य है कि वह अधिकार प्राप्त व्यकित की मांग के दावे को स्वीकार करे। सामान्य शब्दों में, अधिकार विशेषाधिकार एवं शकित से भिन्न एक विचार है जो व्यकित के परस्पर सकारात्मक, मूल्य तटस्थ एवं सामान्य संबंध की अपेक्षा करता है। इस प्रकार अधिकार किसी व्यकित के वे दावे हैं जो समाज में दूसरे व्यकितयों द्वारा स्वीकार्य है।
मानवाधिकार की सार्वभौमिक स्वीकृति से संबंधी उपयर्ुक्त तर्क-वितर्क के विश्लेषण के पश्चात मानवाधिकार की धारणा की व्यापक समझ को विकसित करना सरल हो जाता है। इस धारणा को समझने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि उन तमाम तर्क-वितर्क को ध्यान में रखा जाए जो इसके विचारकों ने प्रस्तुत किए हैं। इस संदर्भ में, आरंभिक तौर पर सुभाष काश्यप ने मानवाधिकार की परिभाषा ऐसे मौलिक अधिकार के रूप में की है जो विश्व के प्रत्येक भाग में रहने वाले पुरूषों एवं महिलाओं को वहां मनुष्य के रूप में जन्म लेने से ही प्राप्त होते हैंß (ज्ञेंीलंच रू 1978 रू 2)।
इस अर्थ में, मानवाधिकार ऐसे अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य होने के नाते प्राप्त होते हैं - उनकी जाति, राष्ट्रीयता या किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता के आधार पर नहीं। ये अधिकार मानवीय गरिमा और उपयुक्त जीवन स्तर के न्यूनतम शर्तों को व्यक्त करते हैं। ये न तो अर्जित किए जा सकते हैं न ही वंशानुगत होते हैं और न ही किसी समझौते के माध्यम से निर्मित किए जा सकते हैं।
दूसरी तरह से मानवाधिकार की परिभाषा व्यकित (सभी पुरूष एवं महिलाएं) के परस्पर संबंधों तथा व्यकित एवं राज्य के परस्पर संबंधों के संदर्भ में भी की जाती है। क्योंकि व्यकित के परस्पर व्यवहार को भी राज्य नियंत्रित करता है और राज्य के प्रति जो वे व्यवहार करते हैं उसी आधार पर राज्य बदले में उनके मानवाधिकार की रक्षा एवं स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करता है। बेनेट (ठमददमज) ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि Þव्यकित के मानवाधिकार का प्रश्न व्यकित के परस्पर संबंधों तथा व्यकित एवं सरकारी प्राधिकारों, स्थानीय से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक, के सह संबंधों के साथ सम्बद्ध है। मानवाधिकार में व्यकितगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता के वे क्षेत्र शामिल है, जो सरकारी हस्तक्षेप से या तो मुक्त हैं, क्योंकि व्यकित की गरिमा एवं कल्याण के साथ उनका सरोकार है, अथवा वे उनकी गारंटी, संरक्षण एवं प्रोत्साहन के सशक्त माध्यम हैंß (ठमददमजज रू 1988 रू 260)।
मानवाधिकार की इस तरह की परिभाषा इस अवधारणा को संकटपूर्ण सिथति में ला खड़ा करती है जहां समुदाय एवं सरकारी संरचना इसका प्रमुख केन्द्र-बिंदु बन जाते हैं। ऐसे परिदृश्य में खतरा यह बन जाता है कि यदि हम मानवाधिकार की परिभाषा समय एवं स्थान के संदर्भ में करते हैं तो कहीं यह नागरिकता अधिकार तक सीमित होकर नहीं रह जाए। ऐसी सिथति और भी खतरनाक तब हो जाती है जब किसी व्यकित को अपने मानवाधिकार की रक्षा के लिए दूसरे राज्य में शरण लेना पड़ता है। उदाहरणार्थ, तस्लीमा नसरीन को न सिर्फ उसके अपने राज्य ने अवांछित घोषित कर दिया, बलिक जब उसने भारत में शरण ली तो भारत में भी उसे राजनीतिक दबाब के कारण अवांछित घोषित कर दिया। ऐसे में मानवाधिकार के बारे में सबसे उपयुक्त बात यह हो सकती है कि चूंकि मनुष्य एक मनुष्य है, पशु नहीं; इसलिए उसके साथ बरताव भी मानवीय होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, यह भी अपेक्षित है कि मानवाधिकार का उपभोग व्यकित मानव होने के नाते करें चाहे, वो किसी भी राज्य, क्षेत्र, स्थान एवं संस्कृति विशेष के हों।
द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में सकारात्मक उदारवाद के विकास के फलस्वरूप कर्इ विद्वानों ने मानवाधिकार की परिभाषा लास्कीवादी विमर्श के रूप में करने की कोशिश की एवं व्यकित के गरिमामय एवं परिपूर्ण जीवन को सुनिशिचत करने के लिए मानवाधिकार के सहज विकासात्मक मूल्यों के संवद्र्धन पर बल दिया। इस संदर्भ में एक लेखक ने लिखा है कि मानवाधिकार की संकल्पना राज्य एवं सरकार की सत्ता के विरूद्ध व्यकित की रक्षा से निकट रूप में जुड़ी हुर्इ है। यह राज्य द्वारा ऐसे सामाजिक वातावरण सृजित किए जाने पर भी बल देती है जिसमें व्यकित के व्यकितत्व का पूर्ण विकास संभव हो पाए। इसी प्रकार विकासात्मक मानवाधिकार के एक अन्य समर्थक ने यह तर्क दिया है कि मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो व्यकित को जीने के लिए, उसके असितत्व के लिए एवं व्यकितत्व के विकास के लिए परमावश्यक है।
इस तरह के वैचारीकरण के अंतर्गत मानव जाति को प्रमुखता दी गर्इ है। इसमें मानवाधिकार की नकारात्मक अधिकार संबंधी धारणा जो व्यकित को अलग-थलग रखती है और राज्य के हस्तक्षेप को नकारती है, के विपरीत यह राज्य पर सकारात्मक दायित्व डालती है कि राज्य लोगों के अच्छे जीवन के लिए न्यूनतम आवश्यक दशाएं तैयार करे ताकि वे एक अच्छा जीवन ही नहीं, बलिक गरिमामयी जीवन जी सके। उनके मानवाधिकारों का संरक्षण एवं संवद्र्धन और उनके व्यकितत्व का विकास हो सके। जिन देशों की सामाजिक-आर्थिक सिथति दयनीय है वहां इस तरह का विचार ज्यादा कारगर साबित होता है क्योंकि अच्छे जीवन के लिए न्यूनतम आवश्यक दशाओं के निर्माण का दायित्व सरकार के कंधों पर होता है ताकि व्यकित समाज में एक अर्थपूर्ण एवं प्रभावी जिंदगी जी सकें।
समग्रत: यह कहा जा सकता है कि मानवीय जीवन के एक अनिवार्य, अनुलंघनीय तत्व एवं मूल्य के रूप में मानवाधिकार की अवधारणा को विभिन्न विचारकों द्वारा व्यक्त विभिन्न दृषिटकोणों के संदर्भ में समझना होगा, क्योंकि मानवाधिकार का स्वरूप बहुआयामी एवं बहुअर्थी रहा है। इस संदर्भ में एकमतता के बावजूद मानवाधिकार के संयुक्त राष्ट्र संस्था (केन्द्र) ने इसे अंतिम रूप से उन अधिकारों के रूप में परिभाषित किया है जो हमारी प्रवृति में निहित हैं और जिनके बिना मानवीय जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मानवाधिकार को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है - एक ऐसे अधिकार जो गरिमामयी मानवीय जीवन के लिए आवश्यक है और दूसरे, ऐसे अधिकार जो मानवीय व्यकितत्व के विकास के लिए जरूरी हैं। (ळनींए त्वल रू 2004 रू2)। उल्लेखनीय है कि चूंकि ये सभी अधिकार विश्व के सभी देशों के संविधानों द्वारा मौलिक अधिकार की श्रेणी में नहीं रखे गये हैं, अत: इनके पीछे कोर्इ कानूनी शकित नहीं, फिर भी न्यूनाधिक सभी देशों के प्रशासनिक क्रियाकलाप में इन्हें मूलभूत माना जाता है।
इसमें संदेह नही कि विश्व के कर्इ देशों की विधिक प्रणाली में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। फलत: विश्व के कर्इ देशों ने अपनी संवैधानिक प्रणाली के अंतर्गत मानवाधिकार की सिथति को सुदृढ़ करने के लिए, उसके स्तर को ऊपर उठाने के लिए ठोस प्रयत्न किए हैं ताकि ना सिर्फ नागरिकों को, बलिक विदेशियों के साथ भी तर्कसंगत, उचित एवं सम्मानपूर्ण व्यवहार किया जा सके। इसके अलावे, विभिन्न देशों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों एवं परिषदों का गठन भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम माने जा सकते हैं जो मानवाधिकार के संरक्षण एवं संवद्र्धन हेतु कटिबद्ध दिखते हैं, क्रियाशील हैं। फिर भी विश्व के कर्इ ऐसे देश हैं जो मानवाधिकार के मौजूदा विमर्श को या तो स्वीकार नहीं करते या वहां मानवाधिकार का स्तर काफी खराब रहा है। यह अभी भी एक अन्तर्राष्ट्रीय चुनौती के रूप में खड़ा है।
मानवाधिकार : एक विकासात्मक परिप्रेक्ष्य
(Human Rights : An Evolutionary Framework)
मानवाधिकार का विचार विकास की एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। सामाजिक समझौतावादी चिंतन के विकास से लेकर अब तक मानवाधिकार के विचार ने विकास एवं विस्तार का एक लंबा रास्ता तय किया है। वस्तुत: मानवीय संगठन के हर स्वरूप में शासकों द्वारा शासितों के शोषण की प्रवृति रही है। इसने लोगों के मानवाधिकार के संरक्षण एवं संवद्र्धन की आवश्यकता के तथ्य को उजागर किया। यही कारण है कि ऐतिहासिक विकास की दृषिट से मानवाधिकार के विचार के तत्व एवं सामाजिक क्रियाशीलता में परिर्वन होते रहे हैं (ज्ञंउमदां मजण्ंसण् रू 1978रूटप्)।
मानवाधिकार के वैचारिक बोध को विकसित करने में सेस फिलंटरमैन (ब्मेे थ्सपदजमतउंद) पीटर बेयर (च्मजमत ठंमीत) तथा कैरेक वसाक (ज्ञंतमा टेंां) जैसे विद्धानों का बड़ा योगदान रहा है। इन्होंने मानवाधिकार के विकास के विभिन्न चरणों की प्रकृति को दर्शाने का भरसक प्रयास किया तथा राज्य एवं समाज की बदलती हुर्इ प्रकृति के अंतर्गत मानवाधिकार के विकासात्मक स्वरूप का विश्लेषण किया है। उल्लेखनीय है कि नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार लंबे समय तक मानवाधिकार का मूल तत्व बना रहा, जबकि सामाजिक व आर्थिक अधिकार को बल मुख्यत: अमरीका की 'न्यू डील नीति एवं कर्इ यूरोपीय देशों में लोककल्याणोन्मुख मजदूर दल की सरकार की स्थापना के परिप्रेक्ष्य में मिला। किंतु इसका वास्तविक स्वरूप समाजवादी अथवा साम्यवादी देशों के उदभव एवं द्वितीय विश्व-युद्धोपरांत नवोदित तृतीय विश्व के राष्ट्रों के संदर्भ में उभर कर सामने आया।
ऐसा तर्क दिया जाता है कि पाश्चात्य देशों में लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना से मानवाधिकार के विचार को बल मिला। मानवाधिकार के विकास की पहली पीढ़ी के अधिकार के रूप में लोगों को नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए जिनकी प्रकृति नकारात्मक रही, क्योंकि इनमें राज्य कोर्इ हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। इस प्रकार इसमें दो प्रकार के अधिकार निहित थे- व्यकितगत अधिकार; जिसमें जीवन एवं स्वतंत्रता का अधिकार; दासता व प्रताड़ना से सुरक्षा; बलात देश निकाला से संरक्षण; एकांतता, विवाह, परिवार बसाने, बच्चों के अधिकार, इत्यादि शामिल थे, तथा दूसरे, राजनीतिक सवतंत्रता एवं राजनीतिक अधिकार, जिसमें सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन में भागीदारी के अधिकार इत्यादि शामिल थे। इन अधिकारों को मुख्यत: शास्त्रीय मानवाधिकार के रूप में जाना जाता है, क्योंकि ये राज्य एवं व्यकित के परस्पर दायित्व के बारे में ज्यादा संवेदनशील नहीं हैं।
द्वितीय विश्व युद्धोपरांत एशिया एवं अफ्रीका में नये-नये राष्ट्र-राज्यों के उदय के फलस्वरूप मानवाधिकार की दूसरी पीढ़ी के अधिकारों को बल मिला तथा सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों को नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों की पूर्व शर्त माना गया। इसमें इस बात पर बल दिया गया कि स्वतंत्रता का अधिकार, विचार एवं अभिव्यकित का अधिकार, आने-जाने की स्वतंत्रता के अधिकार इत्यादि कभी भी वास्तविक नहीें हो सकते यदि व्यकित के पास काम पाने, शरण, भोजन, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि के अधिकार के साथ-साथ शोषण के विरूद्ध अधिकार, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अधिकार उपलब्ध ना हों। मानवाधिकार के इस पहलू पर समाजवादी राज्यों के चिंतन का प्रभाव रहा है जिसने नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार संबंधी पाश्चात्य धारणा को खोखली बताया क्योंकि यह व्यकित को सशक्त, सामथ्र्यवान एवं गरिमामयी जीवन उपलब्ध कराने का झूठा दावा करती है। इसके विपरीत, मानवाधिकार की दूसरी पीढ़ी के अंतर्गत राज्य पर यह सकारात्मक दायित्व डाला गया है कि वह सामान्य लोगों के खुशहाल एवं स्वायत्त जीवन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उन्हें समुचित सामाजिक एवं आर्थिक सुविधाएं उपलब्ध कराये।
मानवाधिकार की तीसरी पीढ़ी के अधिकारों का विकास वैयकितक संदर्भ के विरूद्ध सामूहिक संदर्भ को प्राथमिकता दिये जाने पर बल देने के परिणामस्वरूप हुआ। ऐसा महसूस किया गया कि विश्व के विभिन्न भागों में कर्इ ऐसे समूह एवं समुदाय हैं जो अपने को दीनहीन, अवांछित एवं वंचित सिथति में महसूस करते हैं, जिनकी आवश्यकता प्रणाली भिन्न हैं। अत: उनके अधिकार की मांग भी भिन्न प्रकृति की हैं। फलत: मानवाधिकार के समर्थकों एवं दार्शनिकों ने इन समूहों के विशेषाधिकारों पर बल दिया। इसके विकास में समाजवादी चिंतन ने बड़ा योगदान दिया। तृतीय विश्व के समाजवादी एवं विकासशील देशों के विद्वानों ने सामूहिक अधिकार के संदर्भ में विकास का अधिकार, शांति एवं सुरक्षा का अधिकार, प्राकृतिक संसाधनों के अर्जन का अधिकार, सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने का अधिकार इत्यादि पर बल दिया। मौजूदा उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के युग में राष्ट्र के सामूहिक अधिकार के रूप में पर्यावरण संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के अधिकार पर विशेष रूप से बल दिया गया। तीसरी पीढ़ी के अधिकारों के अंतर्गत समाज के दबे, कुचले, शोषित, प्रताडि़त, वंचित एवं हासिए पर रहे लोगों के अधिकारों पर बल दिया गया है। इसमें महिलाओं, बच्चों, अशक्त लोगों, शरणार्थियों, अल्पसंख्यकों, जनजातियों, भूमिहीनों एवं बंधुआ मजदूरों, असंगठित श्रमिकों, किसानों, कैदियों, विस्थापितों इत्यादि के अधिकार की मांगें भी शामिल हैं।
मानवाधिकार का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य
(Theoretical Perspective of Human Rights)
मानवाधिकार की अवधारणा को व्यापक रूप से इसे इसके आधारभूत सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। इसमें मानवाधिकार संबंधी शास्त्रीय एवं समसामयिक अभिमान्यताओं का उल्लेख किया जा सकता है, जिससे मानवाधिकार के विशद स्वरूप एवं वैचारिक विमर्श को समझना सरल हो जाता है।
मानवाधिकार का उदारवादी परिप्रेक्ष्य
(Libral Perspective of Human Rights)
मानवाधिकार के उदारवादी दृषिटकोण की जड़ें प्राकृतिक अधिकार-संबंधी सामाजिक समझौतावादी सिद्धांत में ढूंढ़ी जा सकती है। जान लाक पहला विचारक था जिसने जीवन-स्वतंत्रता एवं संपत्ति संबंधी प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। बाद में, जर्मी बेंथम एवं जान राल्स जैसे विचारकों ने अधिकार की धारणा को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की किन्तु, इसका केन्द्रीय विषय राज्य के विरूद्ध व्यकित का अधिकार ही रहा। प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मानवीय जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए परमावश्यक एवं अनुल्लंघनीय है। प्राकृतिक अधिकार राज्य की सत्ता की सीमाएं भी बताते हैं।
उल्लेखनीय है कि उपयोगितावादी विचारकों ने भी प्राकृतिक अधिकारों को महत्व तो दिया है, किन्तु उन्हें उपयोगिता के मूल्य पर आधारित करने का प्रयास किया है। बेंथम जैसे उपयोगितावादी विचारक ने इसे सुख-दुख की कसौटी पर मापने की कोशिश की है। उनका तर्क है कि वही अधिकार व्यकित के लिए उपयोगी हैं जिनसे अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख की उपलबिध हो। यहां उपयोगितावादी विचार प्राकृतिक अधिकार के सिद्धांत के विपरीत हो जाता है, जो वितरणात्मक और वैयकितक प्रकृति का ज्यादा है। अत: उपयोगितावादी सिद्धांत में समतावादी रूझान ज्यादा दिखता है, फिर भी इसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह व्यकितगत हित को सामूहिक हित के लिए परित्याग कर देता है।
वर्तमान समय में अधिकार-संबंधी दर्शन का उदारवादी विमर्श मुख्यत: न्याय के सिद्धांत पर आधारित हो गया है। इसे जान राल्स ने दार्शनिक आधार प्रदान करने की कोशिश की है। राल्स ने सामाजिक-समझौते के सिद्धांत को पुनर्जीवित करते हुए अपने वितरणात्मक न्याय-सिद्धांत के अंतर्गत न्याय के दो सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। उसका प्रथम सिद्धांत समान स्वतंत्रता के नियमों का प्रतिपादन करता है। उसका दूसरा सिद्धांत समान अवसर का सिद्धांत का प्रतिपादन करता है। इसी सिद्धांत के अंतर्गत उसने भेदमूलक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। जान राल्स भेदमूलक सिद्धांत को अंतिम विकल्प के रूप में देखता है। इस प्रकार, जान राल्स ने स्वतंत्रता एवं समानता की अवधारणाओं को समाविष्ट करते हुए सामाजिक न्याय के व्यापक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। उसके सिद्धांत में मानवाधिकार का ध्येय न्याय की उपलबिध है। वस्तुत:, जान राल्स ने एक सुव्यवसिथत समाज के अंतर्गत सामूहिक सहयोग के माध्यम से न्याय के सिद्धांत की उपलबिधयों की बात की है, उसका न्याय सिद्धांत तातिवक भी है और प्रक्रियात्मक भी।
हालांकि, राल्स के न्याय-सिद्धांत की आलोचनाएं भी हुर्इ हैं फिर भी, उदार लोकतांत्रिक राज्यों मे यह आज भी चिन्तन, मनन एवं विश्लेषण का केन्द्र बना हुआ है।
मानवाधिकार का माक्र्सवादी परिप्रेक्ष्य
(Marxist Perspective of Human Rights)
मानवाधिकार संबंधी माक्र्सवादी दृषिटकोण मुख्यत: इसके उदारवादी दृषिटकोण के विरूद्ध एक तीखी प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ। माक्र्सवादी दृषिटकोण ने ना केवल प्रकृतिक अधिकारों के सिद्धांत पर कुठाराघात किया बलिक इसे आदर्शवादी और अनैतिहासिक भी बताया। माक्र्सवादियों के अनुसार उदारवादी समाज में पूंजीपति उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार कर लेते हैं फलत: व्यकित के मानवाधिकार की धारणा एक बुजर्ुवावादी भ्रांति के अलावा और कुछ नहीं है। माक्र्स के अनुसार व्यकित का अधिकार एक अहंवादी व्यकित के अधिकार के सिवा कुछ नहीं है। यह व्यकित को, व्यकित से एवं व्यकित को समुदाय से विलग कर देता है। उदारवादी समाज में चूंकि व्यकित मुख्य रूप से निजी सम्पत्ति की संस्था के माध्यम से परिभाषित होता है और व्यकित के व्यकितगत अधिकार की मान्यता का निहितार्थ ऐतिहासिक दासता के सिवा कुछ नहीं है। अस्तु, माक्र्सवादी दृषिटकोण के अनुसार मानवाधिकार की उदारवादी धारणा ने व्यकितगत अधिकार की वेदी पर सामुदायिक एवं सामूहिक अधिकार की तिलांजलि दे दी है।
व्यकित मेें आत्मविकास एवं अपनी आवश्यकताओं को समग्र रूप से प्रापित की उसकी क्षमता में माक्र्सवाद का अदम्य विश्वास है। माक्र्सवाद की यह मान्यता है कि चूंकि पूंजीवादी समाज आर्थिक लाभ एवं स्वहित के लिए कार्य करता है, अत: ऐसे समाज में व्यकित के व्यकितत्व का समग्र विकास संभव नहीं है। इसके विपरीत, समाजवादी समाज में पुरूष एवं महिलाओं को अपने व्यकितत्व के सर्वांगीण विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त होते हैं क्योंकि इसमें वर्ग संघर्ष एवं वर्ग विभाजन नहीं होता। गैर-साम्यवादी समाज में इस तरह की संभावना नहीं होती। साम्यवादी समाज में प्राकृतिक दशा में निहित व्यकितगत अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती हैं, क्योंकि ये कुछ निशिचत शर्तों पर आधारित होते हैं और राज्य व्यकित पर कुछ दायित्व भी डालता है और समय-समय पर व्यकित पर व्यकित के अधिकारों को सीमित ही करता है।
माक्र्सवादी दृषिटकोण के अंतर्गत उदारवाद की व्यकितगत अधिकार संबंधी धारणा की जगह सामाजिक अधिकार के विचार को ज्यादा महत्व दिया जाता है। मानवीय प्रकृति एवं व्यकित के सामाजिक जीवन के विषय में भ्रांतिपूर्ण दृषिट के कारण माक्र्सवाद को आलोचित भी किया गया है। आलोचकों ने इसे एक पैत्रिक सिद्धांत कहा है, क्योंकि ऐसे समाज में सर्वाधिकारवादी राजनीतिक आमसत्ता समाज के मूल्य-चयन का दिशा-निर्देशन करती है। इतना ही नहीं, पुरूष एवं महिलाओं की इच्छाओं के विपरीत आम लोगों की सत्ता अपने विचारों को उन पर थोप देती है। इस प्रकार के जाति वर्ग का सृजन पितृसत्तावाद का ही एक प्रारूप है जो न केवल अनुभवातीत कारणों की अनदेखी करता है बलिक वैयकितकता को नजर अंदाज करता है। व्यावहारिक दृषिट से साम्यवादी राष्ट्रों द्वारा समाज के पूर्ववर्ती दावे को स्थापित करने के प्रयत्न के कारण व्यकितगत नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार का व्यवसिथत दमन हो जाता है।
मानवाधिकार का नारीवादी दृषिटकोण
(Feminist perspective on Human Rights)
एक विचारधारात्मक ढांचे के रूप में नारीवाद मानवाधिकार विमर्श के अंतर्गत एक सशक्त बौद्धिक हस्तक्षेप है। एक विचारधारा के रूप में नारीवाद की जड़े 18वीं सदी में मैरी वोल्स्टोनक्राफ्ट (डंतल वससेजवदमबतंजि) की रचनाओं में ढूंढ़ी जा सकती है। आरंभिक चरण में नारीवाद एक उत्तर-भौतिकवादी विचारधारा थी जिसका मुख्य बल जीवन के स्तर एवं गुणवत्ता पर रहा। राजनीतिक दृषिट से नारीवाद ने इस तथ्य पर बल दिया कि सार्वजनिक जीवन सिर्फ पुरूषों के लिए ही क्यों और निजी जीवन जैसे बच्चों का पालन-पोषण, घरेलू रख-रखाव आदि महिलाओं के लिए ही क्यों? क्यों महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से निष्काषित किया जाता है? क्यों पुरूष घरेलू कार्यों का प्रबंध नहीं कर सकते? एक लेखक ने लिखा कि Þनारीवाद ने उदारवाद एवं उदारवादी राज्य की मुख्य अभिमान्यता - निजी और सार्वजनिक का भेद - पर सवाल खड़ा किया है। इस तरह के विभाजन को दो तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। नारीवादियों का तर्क है कि सार्वजनिक जगत ने महिलाओं को इससे निष्काषित कर दिया और उन्हें निजी वस्तु बना डाला है; दूसरी तरफ निजी जीवन से मनुष्य के निष्कासन से घरेलू कार्य एवं बच्चों की देख-भाल प्रभावित होती है (ठतवूपदह रू 2002 रू 282)। इस प्रकार मानवाधिकार संबंधी नारीवादी दृषिटकोण मानवाधिकार को लैंगिक रूप से तटस्थ नहीं मानता है।
नारीवादी दृषिटकोण का मुख्य सरोकार अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में लैंगिक दृषिटकोण से मानवाधिकार के संरक्षण एवं संवद्र्धन के तथ्य पर ध्यानाकर्षण करना है। नारीवादियों ने अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के राज्याभिमुख एवं व्यकितवादी स्वरूप को उजागर किया है। मानवाधिकार के अन्तर्राष्ट्रीय कानून संबंधी नारीवादी आलोचना के कुछ प्रमुख तर्क हैं। प्रथम, मानवाधिकार कानून का ऐसा ढांचा, महिलाओं की विशिष्ट सिथति, शरीर वैज्ञानिक भेद, उनकी सामाजिक व आर्थिक दशा एवं राजनीति में उनकी निशिचत भागीदारी इत्यादि को यदि पूरी तरह नजरअंदाज नहीं करता, तो उन पर पूरी तरह बल भी नहीं देता। अत: मानवाधिकार कानून का मौजूदा ढांचा समाज में महिलाओं के लिए महत्वहीन है और पुरूषों की सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करता है। दूसरे, राज्य के आंतरिक व्यवहार और लोगों के निजी जीवन को एक साथ रखकर मानवाधिकार कानून की संस्था इसके महत्व को इतना कम कर देती है कि यह विश्व के तमाम लोगों के लिए निरर्थक हो जाता है। विभिन्न देशों के आंतरिक ढांचे के अंतर्गत जो मानवाधिकार का व्यवहार है वह मानवाधिकार संरक्षण एवं संवद्र्धन संबंधी राज्य के प्रयत्नों एवं कवायदों को किसी भी जांच से मुक्त कर देता है। नारीवादियों के लिए सबसे निराशाजनक बात तो यह है कि महिलाओं को या निजी जीवन को मानवाधिकार के संदर्भ में सार्वजनिक जीवन से पृथक रख दिया जाता है।
अत: नारीवादी दृषिटकोण मानवाधिकार की पूरी संकल्पना को इस तरह से पुनर्परिभाषित किए जाने पर बल देता है कि वह लैंगिक दृषिट से निजी जीवन के प्रति भी संवेदनशील हो। दूसरी तरफ, नारीवादी मानवाधिकार संबंधी दृषिटकोण के संदर्भ में नारीवादियों की भिन्न मान्यताएं एवं सरोकार हैं। मानवतावादी महिला समूह ने अपना ज्यादा ध्यान महिलाओं के विरूद्ध हिंसात्मक कार्रवाही पर दिया है। पारंपरिक सामाजिक समूह ने महिलाओं की स्वास्थ्य समस्या, सामाजिक कुरीतियों, नारी उत्पीड़न आदि को अपना मुíा बनाया है। कुछ महिला समूहों ने घरेलू हिंसा, यौन शोषण, बलात्कार आदि को अपना प्रमुख सरोकार बनाया है। कुछ नारीवादी समूहों ने देह व्यापार एवं बलात वेश्यावृति के प्रश्न को उठा रखा है। इतना ही नहीं, नारीवादियों ने वर्तमान समय में इस्लाम धर्म के अंतर्गत धार्मिक अतिवाद के नाम पर महिलाओं के साथ जो दुव्र्यवहार किया जा रहा है और जिस प्रकार उनका शोषण एवं दमन हो रहा है, उनको अपने आंदोलन का मुíा बना रखा है। संक्षेप में, नारीवादी मानवाधिकार कानून के विस्तृत ढांचे में उपयर्ुक्त सभी मामलों को शामिल किए जाने की बात करते हैंं, तथा राष्ट्रीय स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक मानवाधिकार कानून के ढांचे को लैंगिक दृषिट से संवेदनशील बनाने पर जोर देते हैं। इतना ही नहीं ये निजी जीवन के राजनीतिकरण का तथा पुरूष प्रधान समाज का विरोध करते हैं तथा महिला की विशिष्ट सिथति एवं भिन्न आवश्यकता प्रणाली के संदर्भ में मानवाधिकार को पुन: परिभाषित किए जाने पर भी बल देते हैं।
मानवाधिकार एवं तृतीय विश्व का परिप्रेक्ष्य
(Human Rights and Third World Perspective)
मानवाधिकार संबंधी तृतीय विश्व के दृषिटकोण के विकास में मुख्यत: उन राष्ट्रों व विद्वानों का योगदान रहा है जो मानवाधिकार की पाश्चात्यवादी धारणा के विरोधी रहे हैं, क्योंकि पाश्चात्यवादी धारणा राष्ट्रों के बीच जटिल सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक-सांस्कृतिक विशिष्टता एवं विविधता को नजरअंदाज करते हुए पूरे विश्व में मानवाधिकार की यूरोपीय धारणा का सार्वभौमीकरण करना चाहती है। सांस्कृतिक सापेक्षवाद के संदर्भ में तृतीय विश्व का दृषिटकोण मुख्यत: दो सिद्धांतों से प्रभावित है। प्रथम, ऐसे सिद्धांतकारों के सिद्धांत से जो मानवाधिकार की पाश्चात्य धारणा के सार्वभौमीकरण के विरूद्ध हैं क्योंकि इसका प्रयोग यूरोपीय राष्ट्र यह दर्शाने के लिए करते हैं कि विकासशील देशों में मानवाधिकार के संरक्षण एवं संवद्र्धन का रिकार्ड खराब रहा है। चीन ने इस तथ्य को उजागर कर तृतीय विश्व के संदर्भ में मानवाधिकार को नए सिरे से परिभाषित किए जाने पर बल दिया है। दूसरे, उन सिद्धांतकारों के विचार जो विभिन्न राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता के संदर्भ में मानवाधिकार को परिभाषित किए जाने पर बल देते हैं। उनका तर्क है कि मानवाधिकार का ऐसा कोर्इ सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं हो सकता जिसे समान रूप से सभी देशों पर लागू किया जा सके।
वैचारिक दृषिट से मानवाधिकार संबंधी तृतीय विश्व की धारणा मानवाधिकार की संकल्पना को विभिन्न देशों की विशिष्ट सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में सैद्धांतीकरण की बात करती है। इसका प्रमुख तर्क है कि Þमूल्यों को जटिल समग्र के अंग के रूप में समझा जाना चाहिए और यही जटिल समग्र संस्कृति है। जब हम मानवाधिकार के सार्वभौमीकरण की बात करते हैं तो हमें किसी देश की संस्कृति विशेष पर उसके प्रभाव को भी देखना होगा। कुछ संस्कृति विशेष के लिए वे अधिकार केन्द्रीय हो सकते हैं किंतु कुछ देशों में उन्हें कुछ संसोधन के बाद ही लागू किया जा सकता है, ताकि उस संस्कृति के साथ उसका तादात्म्य स्थापित हो पाये; तथा कुछ देशों के लिए वे बिल्कुल महत्वहीन हो सकते हैंß (भ्वउिंद ंदक ळतंींउय 2006 रू 447)। इस प्रकार मानवाधिकार संबंधी तृतीय विश्व के दृषिटकोण का मुख्य तत्व 'सांस्कृतिक सापेक्षवाद (ब्नसजनतंस त्मसंजपअपेउ) का सिद्धांत है। इसका सामान्य निहितार्थ है कि मानवाधिकार को कभी भी इसके सार्वभौमीकरण के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता।
मानवाधिकार संबंधी तृतीय विष्व के परिप्रेक्ष्य का सार यह है कि मानवाधिकारों को राष्ट्रों के संस्कृति के सापेक्ष होना चाहिए। उदाहरणार्थ, यदि कोर्इ अपने माता-पिता की असमर्थता को देखते हुए अपने परिवार के जीवन यापन के लिए कार्य करता है तो उसे बाल श्रम की श्रेणी में रख दिया जाता है, इसकी मानवाधिकार की पाश्चात्य धारणा अनुमति नहीं देता। दूसरी तरफ, विकासशील देशों की सामाजिक-आर्थिक प्रणाली ऐसी है कि सभी लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता है। बीमार माता-पिता के इलाज एवं परिवार का खर्च वहन करने के लिए यहां बच्चों को कार्य करना पड़ता है। अत: इसे भी बाल श्रम की श्रेणी में रख देना न्याय संगत नहीं लगता। अत: इस दृषिटकोण के समर्थकों का कहना है कि मानवाधिकार के संदर्भ में सभी देशों के बारे में समान मापदंड अपनाना असंगत है।
इसका अर्थ यह नहीं कि इस दृषिटकोण के समर्थक मानवाधिकार के नैतिक पहलू को नजरअंदाज करते हैं। उनका तर्क है कि मानवाधिकार की नैतिकता का सार्वभौमीकरण स्वीकार्य है, किन्तु इस संदर्भ में राष्ट्रों की सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विशिष्टताओं को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस प्रकार, उनका मुख्य विरोधी मानवाधिकार के सार्वभौमिक कार्यान्वयन से है।
संक्षेप में, मानवाधिकार की तृतीय विश्व की धारणा पाश्चात्य यूरोपीय धारणा के वर्चस्ववाद का विरोध करती है जो विकासशील देशों में मानवाधिकार के हनन एवं खराब सिथति का धौंस देकर वहां हस्तक्षेप करते हैं। उल्लेखनीय है कि यूरोपीय देशों की परिस्थतियां विकासशील देशों से भिन्न है। अधिकतर यूरोपीय देशों में सामाजिक एकरूपता, आर्थिक स्मृद्धि, राजनीति लोकतंत्र तथा न्यूनाधिक सांस्कृतिक एकता का तत्व विधमान है, अत: वे अपनी परिसिथतियों के अनुकूल मानवाधिकार के ढांचे को लागू कर सकते हैं। किंतु मानवाधिकार के इसी ढांचे को विकासशील देशों पर लागू करना अतार्किक है क्योंकि इन देशों की संस्कृतियां यूरोपीय देशों से भिन्न एवं अलग हैं। ऐसी सिथति में मानवाधिकार का नैतिक आदर्श ही धूमिल पड़ जाता है। यही कारण है कि कर्इ विकासशील देशों ने मानवाधिकार की पाश्चात्य यूरोपीय धारणा पर सवालिया निशान लगाया है तथा मानवाधिकार की एक वैकलिपक प्रणाली की खोज पर बल दिया है जो उनकी सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रणाली के अनुरूप हो।
निष्कर्षात्मक अवलोकन
(Concluding Observations)
समग्रत: यह कहा जा सकता है कि समसामयिक युग में मानवाधिकार का विचार राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत एक सशक्त एवं महत्वपूर्ण संकल्पना के रूप में उभरा है। हालांकि मानवाधिकार के अर्थान्वयन, परिभाषा एवं स्वरूप के संदर्भ में यूरोपीय एवं गैर-यूरोपीय विद्वानों के बीच एकमतता का अभाव रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणापत्र को अपनाये जाने के बावजूद विश्व के अन्य भागों में इसके सिद्धांतकार इसे अपनी-अपनी विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हैं। यही कारण है कि मानवाधिकार के संदर्भ में कर्इ प्रकार के दृषिटकोणों का विकास हुआ है। इससे मानवाधिकार के संदर्भ में व्यापक समझ विकसित करने में पर्याप्त सहायता मिलती है। यह सच है कि मानवाधिकार के संदर्भ में जितने दृषिटकोणों का विकास हुआ है, सभी की अपनी-अपनी निशिचत सीमाएं हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि मानवाधिकार के विमर्श के प्रति एक ऐसा समान दृषिटकोण का प्रतिपादन किया जाए जो यूरोपीय देशों के लिए भी स्वीकार्य हो और गैर यूरोपीय देशों के लिए भी।
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मानव अधिकार के अर्थ एवं प्रकृति को स्पष्ट कीजिए।
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Manav Adhikar ki prakrutik