पल्लव साहित्य, कला एवं प्रशासन Pallava Literature, Art and Administration
साहित्य- कांची
शिक्षा का महान् केन्द्र था। माना जाता है कि ह्वेनसांग एवं दिगनाग ने
यहां शिक्षा पायी थी। पल्लव काल में साहित्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई।
पल्लव शासक साहित्य प्रेमी थे और कुछ स्वयं लेखक और कवि थे। पल्लवों की
राजधानी कांची साहित्य और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी। संस्कृत की इस
काल में विशेष उन्नति हुई और उसे राजभाषा का पद प्राप्त हुआ। पल्लव राजा
सिंह विष्णु ने महाकवि भारवि को अपने दरबार में निमंत्रित किया था। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन् ने मत्तविलास प्रहसन नामक परिहाल नाटक लिखा। यह नाटक तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालता है। उन्होंने भागवदज्जुक भी लिखी। प्रसिद्ध विद्वान् दंडिन सम्भवतः नरसिंह वर्मन् द्वितीय की राज्य सभा की शोभा बढ़ाते थे। जिन्होंने दशकुमार चरित् की रचना की। मातृदेव भी पल्लवों के दरबार में थे।
कला- पल्लव
काल स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशेष प्रगति का काल रहा है। इस काल में
अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण किया गया। ये मन्दिर विशाल ठोस चट्टानों को
काटकर बनाये गये। सर्वप्रथम त्रिचनापल्ली में दरी मन्दिरों का निर्माण किया
गया। महाबलिपुरम् में रथ मन्दिरों का निर्माण कराया गया। महाबलिपुरम् में शोर मन्दिर जैसे
विशाल और भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने
महाबलिपुरम् में विशाल ठोस चट्टानों को काटकर मन्दिर बनाने की कला की
आधारशिला रखी। ये मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला के सुन्दरतम नमूने हैं।
बाराह मन्दिर में स्तम्भों वाला एक बरामदा है और ये स्तम्भ बैठे हुए शेर पर
टिके हुए हैं। पल्लव कला की एक विशेषता गंगावतरण का दृश्य है जिसमें गंगा
को देवताओं, पशुओं सहित पृथ्वी पर उतरते हुए दिखाया गया है। पल्लव काल में
वास्तुकला की कई शैलियां प्रचलित हुई।
महेन्द्र
शैली, पल्लव नरेश महेन्द्र प्रथम के शासन-काल और संरक्षण में जन्मी और
विकसित पल्लव कला की एक महत्त्वपूर्ण शैली है। वास्तुकला की दृष्टि से
महेन्द्र शैली का विकास तीन चरणों में हुआ- प्रथम चरण की शैली की विशिष्टता
गुफा-मंडपों का निर्माण है। महेन्द्र वर्मन् ने तोण्डमंलम् में, शिलाओं को
तराश कर गुफा-मंडपों के निर्माण की एक अपूर्व परम्परा का प्रवर्त्तन किया।
इस चरण में विकसित महेन्द्र शैली के मंडप प्रायः सादे होते थे और उनके
अद्धस्तम्भ ऊपर से नीचे तक एक ही प्रकार के हैं। मंडपों के अग्र भाग पर
द्वारपालों का अकन किया गया है । इस शैली के अंतर्गत आने वाले मंडपों में
मुक्तम का कल भडकम मंडप, वल्लभ का वृहत वसन्तेश्वर मंडप और तिरूचीरपल्ली का
ललिताकुर पल्लवेश्वर गृह मंडप अधिक प्रसिद्ध हैं।
महेन्द्र
शैली का दूसरा चरण, महेन्द्र वर्मन् की मृत्यु के बाद विकसित हुआ। इस चरण
के अन्तर्गत नरसिंह वर्मन् प्रथम मामल्ल, परमेश्वर वर्मन् प्रथम और नरसिंह
वर्मन् द्वितीय राजसिंह द्वारा निर्मित मंडप आते हैं। इस चरण की शैलीगत
विशेषताएं सामान्यत: प्रथम चरण के अनुरूप हैं। केवल स्तम्भों की बनावट में
पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। स्तम्भ पहले की अपेक्षा अधिक ऊँचे और पतले
हैं। इस चरण के मंडपों में मुख्य हैं- तिरुक्लुक्करनम् का ओरूकुल मंडप,
महाबलिपुरम् का कोकिल मंडप, महाबलिपुरम् का धर्मराज मंडप सिलुवंगकुप्पम का
अतिरण चंड का मंडप। महेन्द्र शैली के तीसरे चरण के मंडप पूर्ववर्ती मंडपों
से कई दृष्टियों से भिन्न हैं। इस चरण के मंडपों में किलमाविलंगै का विष्णु
मंडप, वल्लभ के शिव और विष्णु मन्दिर उल्लेखनीय हैं।
पल्लव
स्थापत्य कला की अन्य प्रमुख शैली मामल्ज शैली है। इसके अन्तर्गत दो
शैलियाँ आती हैं- मंडप और रथ। मामल्ल शैली के मंडप महेन्द्र शैली की
अपेक्षा अधिक अलंकृत और परिष्कृत हैं। इस शैली के सभी मंडप महाबलीपुरम् में
हैं। मामल्ल शैली के मंडप अपनी मूर्ति सम्पदा के लिए सुविश्रुत हैं।
मामल्ल शैली के अन्तर्गत आने वाले मंडपों में आदि वराह मंडप, रामानुज मंडप
और महिषमर्दिनी मंडप। मामल्ल शैली के अन्तर्गत ही सिंहाधार स्तम्भों की
रचना हुई। मामल्ल शैली की सर्वोत्कृष्ट विशिष्टता एकाश्मक रथों का निर्माण
है। इसके अनुसार प्रकृत शिला के अनावश्यक अंश को निकाल कर रथ का अपेक्षित
स्वरूप उत्कीर्ण करने की परम्परा मामल्ल शैली में ही विकसित हुई। इस शैली
में निर्मित रथ आज भी पल्लव कला की उपलब्धियों के मूक साक्षी के रूप में
विद्यमान हैं।
महेन्द्रवर्मन् शैली- इस शैली में मंदिर सादे बने हुए थे।
मामल्ल शैली या नरसिंहवर्मन् शैली- इस शैली में मंडप एवं रथ का प्रयोग हुआ।
राजसिंह शैली- इस शैली में स्वतंत्र रूप से मंदिर बनाए जाते थे।
नन्दीवर्मन् शैली- वस्तुत: यह काल पल्लव वास्तुकला शैली के अवसान को रेखांकित करता है।
पल्लव शासन-पद्धति-
पल्लव शासन पद्धति में प्रशासन का केन्द्र बिन्दु राजा था। राजा भारी-भरकम
उपाधि लेते थे जैसे अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध यज्ञी राजा को प्रशासन
में सहायता और परामर्श देने के लिए मंत्री होते थे। प्रशासनिक सुविधा के
लिए राज्य विभिन्न भागों में विभाजित था जिसका प्रशासन चलाने के लिए
अधिकारी नियुक्त थे। साम्राज्य का विभाजन राष्ट्रों (प्रान्त) में किया गया
और राष्ट्र के प्रमुख अधिकारी को विषयिक कहा जाता था। राष्ट्र कोट्टम में विभाजित था जिसके अधिकारी को देशांतिक कहा
जाता था। सम्राट् का एक निजी मंत्री (प्राइवेट सेक्रेटरी) हुआ करता था जो
उसके आदेशों को लिखा करता था और उनकी घोषणा करता था। राजकीय कर एकत्र करने
के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त थे जिन्हें मण्डपी कहते थे और वह स्थान जहां कर जमा होता था, उसे, मंडप कहते थे। राजा निम्नलिखित अधिकारियों की सहायता से प्रशासन का संचालन करता था-
मंत्रिपरिषद्- (रहस्यदिकदास),
अमात्य, महादंडनायक, जिलाधिकारी-(रतिक), ग्राम मुखिया (ग्राम भोजक),
युवराज, महासेनापति, गौल्मिक, चुंगी अधिकारी-मंडवस।
प्रशासन
की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्रामवासियों को ग्राम का प्रशासन चलाने में
काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रत्येक ग्राम की एक ग्राम सभा होती थी।
ग्राम सभा की उपसमितियां होती थीं जो उद्यान, मन्दिर, तालाब इत्यादि का
प्रबन्ध करती थी। ग्राम सभाओं को सीमित स्थानीय न्याय-सम्बन्धी अधिकार भी
प्राप्त थे। वे सार्वजनिक दानों का प्रबन्ध करती थीं। ग्राम की सीमाएँ साफ
तौर पर निश्चित कर दी जाती थीं और किसान की भूमि का माप करके उसका रिकार्ड
रखा जाता था। प्रशासनिक विभाजन-मंडल (राज्य)- राष्ट्रिक, नाडू
(जिला)-देशातिक- कोट्टम (ग्राम समूह) इसके ऊपर कोई अधिकारी नहीं था।
पल्लव साहित्य, कला एवं प्रशासन Pallava Literature, Art and Administration
साहित्य- कांची
शिक्षा का महान् केन्द्र था। माना जाता है कि ह्वेनसांग एवं दिगनाग ने
यहां शिक्षा पायी थी। पल्लव काल में साहित्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई।
पल्लव शासक साहित्य प्रेमी थे और कुछ स्वयं लेखक और कवि थे। पल्लवों की
राजधानी कांची साहित्य और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी। संस्कृत की इस
काल में विशेष उन्नति हुई और उसे राजभाषा का पद प्राप्त हुआ। पल्लव राजा
सिंह विष्णु ने महाकवि भारवि को अपने दरबार में निमंत्रित किया था। पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन् ने मत्तविलास प्रहसन नामक परिहाल नाटक लिखा। यह नाटक तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालता है। उन्होंने भागवदज्जुक भी लिखी। प्रसिद्ध विद्वान् दंडिन सम्भवतः नरसिंह वर्मन् द्वितीय की राज्य सभा की शोभा बढ़ाते थे। जिन्होंने दशकुमार चरित् की रचना की। मातृदेव भी पल्लवों के दरबार में थे।
कला- पल्लव
काल स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशेष प्रगति का काल रहा है। इस काल में
अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण किया गया। ये मन्दिर विशाल ठोस चट्टानों को
काटकर बनाये गये। सर्वप्रथम त्रिचनापल्ली में दरी मन्दिरों का निर्माण किया
गया। महाबलिपुरम् में रथ मन्दिरों का निर्माण कराया गया। महाबलिपुरम् में शोर मन्दिर जैसे
विशाल और भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया। महेन्द्रवर्मन प्रथम ने
महाबलिपुरम् में विशाल ठोस चट्टानों को काटकर मन्दिर बनाने की कला की
आधारशिला रखी। ये मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला के सुन्दरतम नमूने हैं।
बाराह मन्दिर में स्तम्भों वाला एक बरामदा है और ये स्तम्भ बैठे हुए शेर पर
टिके हुए हैं। पल्लव कला की एक विशेषता गंगावतरण का दृश्य है जिसमें गंगा
को देवताओं, पशुओं सहित पृथ्वी पर उतरते हुए दिखाया गया है। पल्लव काल में
वास्तुकला की कई शैलियां प्रचलित हुई।
महेन्द्र
शैली, पल्लव नरेश महेन्द्र प्रथम के शासन-काल और संरक्षण में जन्मी और
विकसित पल्लव कला की एक महत्त्वपूर्ण शैली है। वास्तुकला की दृष्टि से
महेन्द्र शैली का विकास तीन चरणों में हुआ- प्रथम चरण की शैली की विशिष्टता
गुफा-मंडपों का निर्माण है। महेन्द्र वर्मन् ने तोण्डमंलम् में, शिलाओं को
तराश कर गुफा-मंडपों के निर्माण की एक अपूर्व परम्परा का प्रवर्त्तन किया।
इस चरण में विकसित महेन्द्र शैली के मंडप प्रायः सादे होते थे और उनके
अद्धस्तम्भ ऊपर से नीचे तक एक ही प्रकार के हैं। मंडपों के अग्र भाग पर
द्वारपालों का अकन किया गया है । इस शैली के अंतर्गत आने वाले मंडपों में
मुक्तम का कल भडकम मंडप, वल्लभ का वृहत वसन्तेश्वर मंडप और तिरूचीरपल्ली का
ललिताकुर पल्लवेश्वर गृह मंडप अधिक प्रसिद्ध हैं।
महेन्द्र
शैली का दूसरा चरण, महेन्द्र वर्मन् की मृत्यु के बाद विकसित हुआ। इस चरण
के अन्तर्गत नरसिंह वर्मन् प्रथम मामल्ल, परमेश्वर वर्मन् प्रथम और नरसिंह
वर्मन् द्वितीय राजसिंह द्वारा निर्मित मंडप आते हैं। इस चरण की शैलीगत
विशेषताएं सामान्यत: प्रथम चरण के अनुरूप हैं। केवल स्तम्भों की बनावट में
पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। स्तम्भ पहले की अपेक्षा अधिक ऊँचे और पतले
हैं। इस चरण के मंडपों में मुख्य हैं- तिरुक्लुक्करनम् का ओरूकुल मंडप,
महाबलिपुरम् का कोकिल मंडप, महाबलिपुरम् का धर्मराज मंडप सिलुवंगकुप्पम का
अतिरण चंड का मंडप। महेन्द्र शैली के तीसरे चरण के मंडप पूर्ववर्ती मंडपों
से कई दृष्टियों से भिन्न हैं। इस चरण के मंडपों में किलमाविलंगै का विष्णु
मंडप, वल्लभ के शिव और विष्णु मन्दिर उल्लेखनीय हैं।
पल्लव
स्थापत्य कला की अन्य प्रमुख शैली मामल्ज शैली है। इसके अन्तर्गत दो
शैलियाँ आती हैं- मंडप और रथ। मामल्ल शैली के मंडप महेन्द्र शैली की
अपेक्षा अधिक अलंकृत और परिष्कृत हैं। इस शैली के सभी मंडप महाबलीपुरम् में
हैं। मामल्ल शैली के मंडप अपनी मूर्ति सम्पदा के लिए सुविश्रुत हैं।
मामल्ल शैली के अन्तर्गत आने वाले मंडपों में आदि वराह मंडप, रामानुज मंडप
और महिषमर्दिनी मंडप। मामल्ल शैली के अन्तर्गत ही सिंहाधार स्तम्भों की
रचना हुई। मामल्ल शैली की सर्वोत्कृष्ट विशिष्टता एकाश्मक रथों का निर्माण
है। इसके अनुसार प्रकृत शिला के अनावश्यक अंश को निकाल कर रथ का अपेक्षित
स्वरूप उत्कीर्ण करने की परम्परा मामल्ल शैली में ही विकसित हुई। इस शैली
में निर्मित रथ आज भी पल्लव कला की उपलब्धियों के मूक साक्षी के रूप में
विद्यमान हैं।
महेन्द्रवर्मन् शैली- इस शैली में मंदिर सादे बने हुए थे।
मामल्ल शैली या नरसिंहवर्मन् शैली- इस शैली में मंडप एवं रथ का प्रयोग हुआ।
राजसिंह शैली- इस शैली में स्वतंत्र रूप से मंदिर बनाए जाते थे।
नन्दीवर्मन् शैली- वस्तुत: यह काल पल्लव वास्तुकला शैली के अवसान को रेखांकित करता है।
पल्लव शासन-पद्धति-
पल्लव शासन पद्धति में प्रशासन का केन्द्र बिन्दु राजा था। राजा भारी-भरकम
उपाधि लेते थे जैसे अग्निष्टोम, वाजपेय, अश्वमेध यज्ञी राजा को प्रशासन
में सहायता और परामर्श देने के लिए मंत्री होते थे। प्रशासनिक सुविधा के
लिए राज्य विभिन्न भागों में विभाजित था जिसका प्रशासन चलाने के लिए
अधिकारी नियुक्त थे। साम्राज्य का विभाजन राष्ट्रों (प्रान्त) में किया गया
और राष्ट्र के प्रमुख अधिकारी को विषयिक कहा जाता था। राष्ट्र कोट्टम में विभाजित था जिसके अधिकारी को देशांतिक कहा
जाता था। सम्राट् का एक निजी मंत्री (प्राइवेट सेक्रेटरी) हुआ करता था जो
उसके आदेशों को लिखा करता था और उनकी घोषणा करता था। राजकीय कर एकत्र करने
के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त थे जिन्हें मण्डपी कहते थे और वह स्थान जहां कर जमा होता था, उसे, मंडप कहते थे। राजा निम्नलिखित अधिकारियों की सहायता से प्रशासन का संचालन करता था-
मंत्रिपरिषद्- (रहस्यदिकदास),
अमात्य, महादंडनायक, जिलाधिकारी-(रतिक), ग्राम मुखिया (ग्राम भोजक),
युवराज, महासेनापति, गौल्मिक, चुंगी अधिकारी-मंडवस।
प्रशासन
की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्रामवासियों को ग्राम का प्रशासन चलाने में
काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रत्येक ग्राम की एक ग्राम सभा होती थी।
ग्राम सभा की उपसमितियां होती थीं जो उद्यान, मन्दिर, तालाब इत्यादि का
प्रबन्ध करती थी। ग्राम सभाओं को सीमित स्थानीय न्याय-सम्बन्धी अधिकार भी
प्राप्त थे। वे सार्वजनिक दानों का प्रबन्ध करती थीं। ग्राम की सीमाएँ साफ
तौर पर निश्चित कर दी जाती थीं और किसान की भूमि का माप करके उसका रिकार्ड
रखा जाता था। प्रशासनिक विभाजन-मंडल (राज्य)- राष्ट्रिक, नाडू
(जिला)-देशातिक- कोट्टम (ग्राम समूह) इसके ऊपर कोई अधिकारी नहीं था।
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