ग्रामीण विकास एवं बहुआयामी अवधारणा है जिसका विश्लेशण दो दृष्टिकोणोंके आधार पर किया गया है: संकुचित एवं व्यापक दृष्टिकोण। संकुचित दृष्टि सेग्रामीण विकास का अभिप्राय है विविध कार्यक्रमेां, जैसे- कृषि, पशुपालन, ग्रामीणहस्तकला एवं उद्योग, ग्रामीण मूल संरचना में बदलाव, आदि के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रोंका विकास करना।
वृहद दृष्टि से ग्रामीण विकास का अर्थ है ग्रामीण जनों के जीवन में गुणात्मकउन्नति हेतु सामाजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक, प्रोद्योगिक एवं संरचनात्मक परिवर्तनकरना।
विश्व बैंक (1975) के अनुसार ‘‘ग्रामीण विकास एक विशिष्ट समूह- ग्रामीण निर्धनोंके आर्थिक एवं सामाजिक जीवन को उन्नत करने की एक रणनीति है।’’
बसन्तदेसार्इ (1988) ने भी इसी रुप में ग्रामीण विकास को परिभाशित करते हुए कहा कि,‘‘ग्रामीण विकास एक अभिगम है जिसके द्वारा ग्रामीण जनसंख्या के जीवन कीगुणवत्ता में उन्नयन हेतु क्षेत्रीय स्त्रोतों के बेहतर उपयोग एवं संरचनात्मक सुविधाओंके निर्माण के आधार पर उनका सामाजिक आर्थिक विकास किया जाता है एवंउनके नियोजन एवं आय के अवसरों को बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं।‘‘
क्रॅाप (1992) ने ग्रामीण विकास को एक प्रक्रिया बताया जिसका उद्देष्य सामूहिकप्रयासों के माध्यम से नगरीय क्षेत्र के बाहर रहने वाले व्यक्तियों के जनजीवन कोसुधारना एवं स्वावलम्बी बनाना है।
जान हैरिस (1986) ने यह बताया कि ग्रामीणविकास एक नीति एवं प्रक्रिया है जिसका आविर्भाव विष्वबैंक एवं संयुक्त राश्ट्रसंस्थाओं की नियोजित विकास की नयी रणनीति के विशेष परिप्रेक्ष्य में हुआ है।ग्रामीण विकास की उपरोक्त परिभाशाओं के विष्लेशण में यह तथ्य उल्लेखनीय है किग्रामीण विकास की रणनीति में राज्य की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया है। राज्यके हस्तक्षेप के वगैर ग्रामवासियों के निजी अथवा सामूहिक प्रयासों, स्वयंसेवीसंगठनों के प्रयासों के आधार पर भी ग्रामीण जनजीवन को उन्नत करने के प्रयासहोते रहे हैं, इन प्रयासों को ग्रामीण विकास की परिधि में शामिल किया जा सकताहै। किन्तु नियोजित ग्रामीण विकास प्रारुप में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयीहै। इन परिभाशाओं के विष्लेशण से दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी उभरता है किग्रामीण विकास सिर्फ कृषि व्यस्था एवं कृषि उत्पादन के साधन एवं सम्बन्धों मेंपरिवर्तन तक ही सीमित नहीं है बल्कि ग्रामीण परिप्रक्ष्य में सामाजिक, आर्थिक,सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, संरचनात्मक सभी पहलुओं में विकास की प्रक्रियायें ग्रामीणविकास की परिधि में शामिल हैं।
ग्रामीण पुनर्निर्माण के उपागम एवं रणनीतियाँ
भारत में ग्रामीण विकास की रणनीति अलग-अलग अवस्थाओं में बदलती रहीहै। इसका कारण यह है कि ग्रामीण विकास के प्रति दृष्टिकोण बदलता रहा है।वस्तुत: ग्रामीण भारत को विकसित करने हेतु राज्य द्वारा अपनाये गये प्रमुख अभिगम(दृष्टिकोण) हैं-
1. बहुद्देशीय अभिगम
बहुद्देशीय अभिगम की प्रमुख मान्यता यह थी किगावों में लोगों के सामाजिक आर्थिक विकास हेतु यह आवश्यक है कि उनकीप्रवृत्तियों एवं व्यवहारों को बदलने का संगठित प्रयास किया जाय। इस दृष्टिकोणके आधार पर 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की रणनीति अपनार्इ गयीजिसमें राज्य के सहयेाग से लोगों के सामूहिक एवं बहुद्देषीय प्रयास को शामिलकरते हुए उनके भौतिक एवं मानव संसाधनों को विकसित करने का लक्ष्य निर्धारितकिया गया। इस प्रकार बहुद्देषीय उपागम के अन्तर्गत एक शैक्षिक एवंसंगठनात्मक प्रक्रिया के रुप में सामाजिक आर्थिक विकास के अवरोधों को दूर करनेपर बल दिया गया।
2. जनतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अभिगम
इस दृष्टिकोण की प्रमुख मान्यता यहथी कि ग्रामीण विकास के लिए प्रशासन का विकेन्द्रीकरण एवं लोगों की जनतांत्रिकसहभागिता का बढ़ाया जाना आवष्यक है। इस अभिगम के अनुरुप भारत मेंपंचायती राज संस्थाओं का विकास किया गया एवं क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय विकासकार्यक्रमों के निर्धारण एवं क्रियान्वयन के द्वारा ग्रामीण संरचना में परिर्वन कीरणनीति अपनार्इ गयी।
3. अधोमुखी रिसाव (ट्रिकल डाउन) अभिगम
स्वतंत्रता के पश्चात् 1950 केआरम्भिक दशक में राज्य की रणनीति इन मान्यताओं पर आधारित थी कि जिसप्रकार बोतल के ऊपर रखी कुप्पी में तेल डालने पर स्वाभाविक रुप से उसकी पेंदीमें पहुँच जाता है एवं तेल के रिसने की प्रक्रिया को कुछ देर जारी रखा जाय तोबोतल भर जाती है उसी प्रकार आर्थिक लाभ भी ऊपर से रिसते हुए ग्रामीणनिर्धनों तक पहुँच जायेगा। 1950 के आरम्भ में पाश्चात्य आर्थिक विषेशज्ञों ने यहमत दिया कि ग्रामीण विकास समेत सभी प्रकार का विकास आर्थिक प्रगति पर हीआधारित है इसलिए कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि करके ग्रामीण निर्धनता को दूर कियाजा सकता है। एक दषक के अनुभवों के आधार पर उन्हें यह आभास हुआ किउनकी रणनीति ग्रामीण निर्धनता को दूर करने में असफल रही है। तत्पश्चात्अर्थषास्त्रियों एवं समाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। नये दृष्टिकोण की मान्यतायह थी कि आर्थिक प्रगति के अलावा शिक्षा को माध्यम बनाना होगा एवं ग्रामीणजनता को शिक्षित करके उनमें जागरुकता लानी होगी। इस दृष्टिकोण परआधारित प्रयास का परिणाम यह निकला कि षिक्षित ग्रामीणों ने हल चलाने एवंकृषि कार्य रकने से इन्कार कर दिया, उनकी अभिरुचि केवल “वेत वसन कार्य(व्हाइट कलर वर्क) करने की बन गयी। तब 1960 में यह दृष्टिकोण पनपा किलोगों की अभिवृत्तियों एवं उत्प्रेरकों में परिवर्तन किये वगैर ग्रामीण विकास सम्भवनहीं। 1960 के दषक के परिणाम के आधार पर यह अनुभव हुआ कि कुछ प्रकार कीआर्थिक प्रगति ने सामाजिक न्याय में वृद्धि की है किन्तु अन्य अनेक प्रकार कीप्रगति ने सामाजिक असमानता को बढ़ाया है। 1970 के दषक में योजनाकारों एवंसमाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। इस नये दृष्टिकोण की मान्यता यह थी किसामाजिक आर्थिक विकास के लाभ स्वत: रिसते हुए ग्रामीण निर्धनों तक पहुँचने कीधारणा भ्रामक है। अत: ग्रामीण विकास हेतु भूमिहीनों, लघु किसानों एवं कृषि परविषेश रुप से ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस अभिगम के अन्तर्गत सामाजिकप्राथमिकताओं के निर्धारण एवं आर्थिक प्रगति एवं सामाजिक न्याय में संतुलनकायम रखने पर बल दिया गया।
4. जन सहभागिता अभिगम
जन सहभागिता उपागम की प्रमुख मान्यता यह थीकि ग्रामीण विकास की पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकासकी पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकास के लिए किये जानेवाले प्रषासन को न सिर्फ लोगों के लिए बल्कि लोगों के साथ मिलकर किये जानेवाले प्रषासन के रुप में परिवर्तित करना होगा। ग्रामीण जनों से आषय यह है किवे लोग जो विकास की प्रक्रिया से अछूते रह गये हैं तथा जो विकास की प्रक्रिया केषिकार हुए हैं अथवा ठगे गये हैं। सहीाागिता का आषय यह है कि ग्रामीण विकासहेतु स्त्रोतों के आवंटन एवं वितरण में इन ग्रामीण समूहों की भागीदारी बढ़ाना।जनसहभागिता अभिगम पर आधारित रणनीति को क्रियान्वित करने की दिषा मेंसामुदायिक विकास कार्यक्रमों के विस्तार, विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों केविकास, स्वयंसेवी संस्थाओं, संयुक्त समितियों, ग्राम पंचायतों, आदि को प्रोत्साहितकरने के तमाम प्रयास किये गये।
5. लक्ष्य समूह अभिगम
ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से प्राप्तपरिणामों के आधार पर यह अनुभव हो गया था कि ये कार्यक्रम ग्रामीण समुदाय मेंअसमानता दूर करने में असफल रहे हैं। ग्रामीण विसंगतियों में सुधार हेतु यहदृष्टिकोण विकसित हुआ कि विविध समूहों- भूमिहीन मजदूरों, ग्रामीण महिलााओं,ग्रामीण षिषुओं, छोटे किसानों, जनजातियों, आदि को लक्ष्य बनाकर तदनुरुपविकास कार्यक्रम चलाने होंगे। इस दृष्टिकोण के आधार पर देा प्रकार के प्रयासकिये गये: (अ) भूमि सुधार के माध्यम से भूमिहीनों को भू-स्वामित्व दिलाने के प्रयासकिये गये, एवं (ब) मुर्गीपालन, पषुपालन तथा अन्य सहयोगी कार्यक्रमों के जरियेरोजगार के अवसर विकसित किये गये। ग्रामीण महिलाओं एवं षिषुओं, जनजातियोंतथा अन्य लक्ष्य समूहों के लिए पृथक-पृथक कार्यक्रम चलाये गये।
6. क्षेत्रीय विकास अभिगम
ग्रामीण विकास के क्षेत्रीय अभिगम की मान्यता यहथी कि भारत के विषाल भौगोलिक क्षेत्रों में अनेक गुणात्मक भिन्नतायें हैं। पर्वतीयक्षेत्र, मैदानी क्षेत्र, रेगिस्तानी क्षेत्र, जनजाति बहुल क्षेत्र आदि की समस्यायें समरुपीयनहीं हैं। अत: ग्रामीण विकास की रणनीति में क्षेत्र विषेश की समस्याओं को आधारबनाया जाना चाहिए। इस उपागम के अनुरुप अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों के लिएपृथक-पृथक विकास कार्यक्रम निर्धारित किये गये तथा उनका क्रियान्वयन कियागया।
7. समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम
1970 के दषक के अन्त तक ग्रामीणविकास की रणनीतियों एवं कार्यक्रमों की असफलता से सबक लेते हुए एक नयादृष्टिकोण विकसित हुआ जो समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम के नाम से जानाजाता है। इस अभिगम की मान्यता यह है कि ग्रामीण विकास के परम्परागतदृष्टिकोण में मूलभूत दोष यह था कि वे ग्रामीण निर्धनों के विपरीत ग्रामीण धनिकोंके पक्षधर थे तथा उनके कार्यक्रमों एवं क्रियान्वयन पद्धतियों में कर्इ अन्य कमियॉ थींजिसके परिणामस्वरुप अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सका। समन्वित ग्रामीण विकासअभिगम के अन्तर्गत जहाँ एक ओर ग्रामीण जनजीवन के विविध पहलुओं- आर्थिक,सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, प्रौद्योगिक को एक साथ समन्वित करके ग्रामीणविकास के कार्यक्रमों के निर्धारण पर बल दिया गया वहीं दूसरी ओर विकस केलाभों के वितरण को महत्वपूर्ण माना गया।इन विविध अभिगमों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीणविकास के प्रति चिन्तन की दिषायें समय-समय पर बदलती रही हैं।
इन परिवर्तितदृष्टिकोणों पर आधारित रणनीतियों एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में भी तद्नरुपपरिवर्तन होता रहा है।
8. स्वयं सेवा समूह एवं लघु वित्त अभिगम
1990 के दशक के उत्तर्राद्ध सेलेकर वर्तमान में ग्रामीण विकास की मुख्य रणनीति है स्वयं सहायता समूहों कानिर्माण करना तथा वित्तीय संस्थाओं जैसे ग्रामीण बैंक, नाबार्ड, आदि द्वारा उन्हें लघुअनुदान प्रदान करते हुए स्वावलम्बी समूह के रूप में उनका विकास करना। इसदृष्टि से ग्रामीण निर्धन महिलाओं एवं पुरूषों के छोटे-छोटे समूह, जिसमें 10-15सदस्य शामिल हैं, विभिन्न प्रकार के उद्यम में संलग्न हैं तथा एक स्वयं सहायतासमूह के रूप में विकसित हो रहे हैं। इस अभिगम में वृहद् परियोजना एवं लागतकी बजाय कम पूँजी एवं लघु परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गर्इ है।
ग्रामीण पुनर्निर्माण का गांधीवादी उपागम
ग्रामीण पुनर्निर्माण का आशय है गांवों को विकसित एवं रूपान्तरित करते हुएउसका पुन: निर्माण करना। ग्रामीण विकास के उपागम विविध हैं। मोटे तौर पर इनउपागमों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: संघर्षवादी एवं प्रकार्यवादी उपागम।संघर्षवादी प्रारूप में ग्रामीण पुनर्निर्माण की प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक है। ग्रामीण अर्थव्यवस्थामें परिवर्तन के जरिये सम्पूर्ण ग्रामीण संरचना का पुनर्निर्माण संभव है जिसमेंसामाजिक संघर्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसके विपरीत प्रकार्यवादी प्रारूप मेंसामाजिक संघर्ष की बजाय अनुकूलन एवं सामंजस्य के द्वारा ग्रामीण संरचना कारूपान्तरण एवं पुनर्निर्माण किया जाता है।
महात्मा गाँधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना को दो प्रमुख आधारों पर समझाजा सकता है: प्रथम यह कि गांधीं किस प्रकार का ग्राम बनाना चाहते थे? दूसरायह कि उनकी ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना वर्तमान समाज में कितनी प्रासंगिक है?वस्तुत: गांधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण की परिकल्पना उनके विचारों एवं मूल्यों परआधारित है। गांधी के विचार, दर्शन एवं सिद्धान्त के प्रमुख अवयव हैं: सत्य के प्रतिआस्था, अहिंसा की रणनीति, विध्वंस एवं निर्माण की समकालिकता, साधन कीपवित्रता के माध्य से लक्ष्य की पूर्ति, गैर प्रतिस्पर्द्धात्मक एवं अहिंसक समाज कागठन, धरातल बद्धमूल विकास, वृहद् उद्योगों की वजाय कुटीर उद्योगों कोप्रोत्साहन, श्रम आधारित प्रौद्योगिकी की महत्ता, ग्रामीण गणराज्य एवं ग्राम स्वराजके आधार पर ग्राम स्वावलम्बन की स्थापना, इत्यादि।
गांधी की दृष्टि में विकेन्द्रित ग्रामीण विकास की रणनीति को ग्रामीणपुनर्निर्माण में आधारभूत बनाना अनिवार्य है। उन्होंने पंचायती राज के गठन पर बलदिया। गांधी ग्रामीण विकास को सम्पोषित स्वरूप प्रदान करना चाहते थे, इसलिएउन्होंने प्रकृति के दोहन की बजाय प्रकृति से तादात्म्य बनाने का सुझाव दिया।उनकी दृष्टि में नैतिक शिक्षा एवं प्रकृति से पेम्र करने की शिक्षा दी जानी चाहिए।सादा जीवन एवं उच्च विचार के अपने आदर्शों के अनुरूप उन्होंने लालच से बचनेएवं अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह कहा किप्रकृति के पास इतना पर्याप्त स्रोत है कि वह संसार के समस्त प्राणियों कीआवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है किन्तु लालच को पूरा कर पाने में सम्पूर्णपृथ्वी भी अपर्याप्त है।
गांधी की दृष्टि में ग्रामीण रूपान्तरण एवं ग्रामीण पुनर्निर्माण की सम्पूर्णप्रक्रिया में गांव की स्वाभाविक विशिश्टता सुरक्षित बनाये रखना अनिवार्य है। ग्रामीणऔद्योगिकरण के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने खादी एवं ग्रामोद्योग को विकसित करने पर बलदिया। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित आधुनिकसभ्यता को आर्थिक क्लेश का प्रमुख कारक माना तथा इससे मुक्ति हेतु उन्होंनेभारत की प्राचीन संस्कृति के मूल्यों-सत्य, अहिंसा, नैतिक प्रगति को पुनर्जीवितकरते हुए मानव विकास की परिकल्पना की। खादी आन्दोलन को औपनिवेशिकसंघर्ष का माध्यम बनाते हुए उन्होंने महिलाओं एवं समस्त ग्रामीण जनसमूहों को नसिर्फ आर्थिक एवं राजनीतिक सक्रिय भागीदार बनाया बल्कि उन्हें सशक्त एवंस्वावलम्बी बनाने का प्रयास भी किया।
गांधी की परिकल्पना में ग्रामीण उद्योग की परिधि में वे समस्त गतिविधियां,कार्य एवं व्यवसाय सम्मिलित हैं जिसमें ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के लिए वस्तुओं काउत्पादन किया जाता है, स्थानीय क्षेत्रों में उपलब्ध कच्चे माल का उपयेाग करते हुएसरल उत्पादन प्रक्रिया अपनार्इ जाती है, केवल उन्हीं उपकरणों का प्रयोग कियाजाता है जो ग्रामीणों की सीमित आर्थिक क्षमता में सम्भव हैं, जिसकी प्रौद्योगिकीनिर्जीव शक्ति-विद्युत, मोटर, इत्यादि की बजाय जीवित शक्तियों-मनुष्य, पशु, पक्षीद्वारा संचालित होती है तथा जिसमें मानव श्रम का विस्थापन नहीं किया जाता है।
गांधी ने आधुनिक मशीन आधारित उत्पादन प्रणाली की बजाय मानव श्रमआधारित उत्पादन प्रणाली पर बल दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत जैसी विशालआबादी वाले देश में अधिकांश लोगों को रोजगार प्रदान करने का यह सर्वोत्तमविकल्प है। गांधी के ग्रामोद्योग की परिकल्पना ने जहाँ एक ओर हिंसारहित, शोषणविहीन, समानता के अवसर युक्त, प्रकृति को संरक्षित एवं संपोषित करने वालेग्रामीण उद्योगों के विकास का पथ प्रदर्शित किया वहीं दूसरी ओर उत्पादन कीप्रक्रिया में मशीनों के प्रयोग, बाजार एवं साख से जुड़े प्रश्न समेत अनेक वाद-विवादभी उत्पादन किया।
स्वतंत्र भारत में बाजार के अनुभवों के आधार पर इस तरह केप्रश्न उभरे कि खादी एवं ग्रामोद्योग उत्पादों का बाजार अत्यन्त सीमित है, इनकेउत्पादकों की आर्थिक दशा दयनीय है क्योंकि मशीन आधारित उत्पादकों सेप्रतिस्पर्धा में वे पिछड़े हुए हैं, इत्यादि। इन प्रश्नों के उत्तर समय-समय परगांधीवादी परिप्रेक्ष्य में संशोधित होते रहे हैं। आरम्भिक अवस्था में खादी हेतु बाजारका प्रश्न गांधी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था। उन्होंने भारतीयों को खादी वस्त्र धारणकरने का संदेश दिया जिसमें खादी के लिए बाजार से जुड़े प्रश्न का उत्तरसन्निहित था। 1946 में गांधी ने बाजार की मांग के अनुरूप वाणिज्यक खादी एवंहैण्डलूम के अलावे पावरलूम को भी स्वीकृति दी।स्वतंत्र भारत में 1948 की प्रथम औद्योगिक नीति से लेकर 1991 की नर्इ लघुउद्यम नीति तक ग्रामीण रोजगार सृजन एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समृद्ध करनेहेतु खादी एवं ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित किया गया। किन्तु व्यावहारिक स्तर परगांधीवादी उपागम पर आधारित ग्रामीण औद्योगिकरण की प्रक्रिया भारत में ग्रामीणनिर्धनता एवं बेरोजगारी उन्मूलन में पूर्णत: सफल नहीं हो सकी तथा विविधसमस्यायें अभी भी बनी हुर्इ हैं, जैसे-
- खादी उत्पादकों की आय इतनी कम है कि इसके जरिये वे निर्धनता रेखा सेउपर उठने में असमर्थ हैं। हाल ही में महिला विकास अध्ययन केन्द्र, गुजरातद्वारा किये गये सर्वेक्षण से प्राप्त तथ्य इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं।
- खादी उत्पादकों के लिए बाजार एक प्रमुख समस्या बनी हुर्इ है।
- कोआपरेटिव संस्थाओं के जरिये खादी एवं
अन्य कुटीर उत्पादों केबाजारीकरण एवं उत्पादक सम्बन्धी संस्थागत प्रयास प्राय: असफल ही रहे हैं।गांधी के ग्रामीण पुनर्निर्माण की रणनीति का आविर्भाव एक विशिष्टऐतिहासिक एवं सामाजिक आर्थिक परिपे्रक्ष्य में हुआ। यद्यपि ग्रामीण औद्योगिकरणकी गांधीवादी परिकल्पना व्यवहार में बहुत सफल नहीं रही किन्तु इसका यह आशयनहीं कि गांधी का दृष्टिकोण अप्रासंगिक है। आधुनिकता के पक्षधर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह स्वीकार किया कि तीव्र प्रगति हेतु आधुनिक मशीनों का उपयोगआवश्यक है किन्तु भारत की बहुसंख्यक आबादी के परिप्रेक्ष्य में गांधी का मानव श्रमपर आधारित प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करने सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त प्रासंगिकहै।
ग्रामीण विकास के विविध कार्यक्रम एवं उनका मूल्यांकन
राज्य द्वारा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में लागू किये गये कार्यक्रमों को मोटे तौरपर चार भागों में बाँटा जा सकता है: (अ) आय बढ़ाने वाले कार्यक्रम (ब) रोजगारउन्मुख कार्यक्रम (स) शिक्षा एवं कल्याण कार्यक्रम (द) क्षेत्रीय कार्यक्रम।
भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात् विविध पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गतअनेकानेक ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाये गये, जिनमें से कुछ मुख्य कार्यक्रमों कोतालिका संख्या 1 के आधार पर अवलोकित किया जा सकता है:
तालिका संख्या-1
ग्रामीण विकास कार्यक्रम एवं उनका श्रेणीगत विभाजन
कार्यक्रम | लागू वर्ष |
---|
प्रथम पंचवर्षीय योजना |
|
1. सामुदायिक विकास कार्यक्रम | 1952 |
2. राष्ट्रीय विस्तार सेवा | 1953 |
द्वितीय पंचवर्षीय योजना |
|
3. खादी एवं ग्राम उद्योग आयोग | 1957 |
4. बहुद्देशीय जनजातीय विकास प्रखण्ड | 1959 |
5. पंचायती राज संस्था | 1959 |
6. पैकेज कार्यक्रम | 1960 |
7. गहन कृषि विकास कार्यक्रम | 1960 |
तृतीय पंचवर्षीय योजना |
|
8. व्यावहारिक पोशाहार कार्यक्रम | 1960 |
9. गहन चौपाया पशु विकास कार्यक्रम | 1964 |
10. गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम | 1964 |
11. उन्नत बीज किस्म योजना | 1966 |
12. राष्ट्रीय प्रदर्शन कार्यक्रम | 1966 |
वार्शिक योजना |
|
13. कृशक प्रषिक्षण एवं षिक्षा कार्यक्रम | 1966 |
14. कुँआ निर्माण योजना | 1966 |
15. वाणिज्यिक अनाज विषेश कार्यक्रम | 1966 |
16. ग्रामीण कार्य योजना | 1967 |
17. अनेक फसल योजना | 1967 |
18. जनजातीय विकास कार्यक्रम | 1968 |
19. ग्रामीण जनषक्ति कार्यक्रम | 1969 |
20. महिला एवं विद्यालय पूर्व षिषु हेतु समन्वित योजना | 1969 |
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना |
|
21. ग्रामीण नियोजन हेतु कै्रष कार्यक्रम | 1971 |
22. लघु कृशक विकास एजेन्सी | 1971 |
23. सीमान्त कृशक एवं भूमिहीन मजदूर परियोजना एजेन्सी | 1971 |
24. जनजातीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम | 1972 |
25. जनजातीय विकास पायलट परियोजना | 1972 |
26. पायलट गहन ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम | 1972 |
27. न्यूनतम आवष्यक कार्यक्रम | 1972 |
28. सूखा उन्मुख क्षेत्र कार्यक्रम | 1973 |
29. कमाण्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम | 1974 |
पंचम पंचवर्षीय योजना |
|
30. समन्वित बाल विकास सेवा | 1975 |
31. पर्वतीय क्षेत्र विकास एजेन्सी | 1975 |
32. बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम | 1975 |
33. विषेश पषु समूह उत्पादन कार्यक्रम | 1975 |
34. जिला ग्रामीण विकास एजेन्सी | 1976 |
35. कार्य हेतु अन्य येाजना | 1977 |
36. मरुस्थल क्षेत्र विकास कार्यक्रम | 1977 |
37. सम्पूर्ण ग्राम विकास योजना | 1979 |
38. ग्रामीण युवा स्वरोजगार प्रषिक्षण कार्यक्रम | 1979 |
षष्ठम पंचवर्षीय योजना |
|
39. समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम | 1980 |
40. राष्ट्रीय ग्रामीण नियोजन कार्यक्रम | 1980 |
41. ग्रामीण महिला एवं षिषु विकास कार्यक्रम | 1983 |
42. ग्रामीण भूमिहीन नियोजन प्रतिभू कार्यक्रम | 1983 |
43. इन्दिरा आवास योजना | 1985 |
सप्तम पंचवर्षीय योजना |
|
44. मातृत्व एवं षिषु स्वास्थ्य कार्यक्रम | 1985 |
45. सार्वभौमिक टीकारण कार्यक्रम | 1985 |
46. जवाहर नवोदय विद्यालय योजना | 1986 |
47. नया बीस सूत्रीय कार्यक्रम | 1986 |
48. केन्द्र प्रायोजित ग्रामीण आरोग्य कार्यक्रम | 1986 |
49. जन कार्यक्रम एवं ग्रामीण प्रोद्योगिकी उन्नयन परिशद्(कापार्ट) | 1986 |
50. बंजर भूमि विकास परियोजना | 1989 |
51. जवाहर रोजगार योजना | 1989 |
अश्टम पंचवर्षीय योजना |
|
52. षिषु संरक्षण एवं सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम | 1992 |
53. प्रधानमंत्री रोजगार योजना | 1993 |
54. नियोजन आष्वासन योजना | 1993 |
55. राष्ट्रीय मानव संसाधन विकास कार्यक्रम | 1994 |
56. परिवार साख योजना | 1994 |
57. विनियोग प्रोत्साहन योजना | 1994 |
58. समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना | 1995 |
59. राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम | 1995 |
60. राष्ट्रीय वृद्ध पेंषन कार्यक्रम | 1995 |
61. राष्ट्रीय परिवार लाभ कार्यक्रम | 1995 |
62. राष्ट्रीय मातृत्व लाभ कार्यक्रम | 1995 |
63. पल्स पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम | 1995 |
64. मिलियन कुँआ कार्यक्रम | 1996 |
65. विद्यालय स्वास्थ्य परीक्षण विषेश कार्यक्रम | 1996 |
66. परिवार कल्याण कार्यक्रम | 1996 |
नवम पंचवर्षीय येाजना |
|
67. गंगा कल्याण योजना | 1997 |
68. बालिका समृद्धि योजना | 1997 |
69. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना | 1999 |
70. जवाहर ग्राम समृद्धि योजना | 1999 |
71. ग्रामीण आवास हेतु ऋण एवं सहायता योजना | 1999 |
72. ग्रामीण आवास विकास हेतु उन्मेशीय स्त्रोत येाजना | 1999 |
73. समग्र आवास योजना | 1999 |
74. प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना | 2000 |
दसवीं पंचवर्षीय योजना |
|
75. ग्रामीण भण्डारण योजना | 2002 |
76. सर्वशिक्षा अभियान | 2002 |
77. सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना | 2003 |
78. कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना | 2004 |
79. आषा योजना | 2005 |
80. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम | 2005 |
81. ज्ञान केन्द्र योजना | 2005 |
82. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम | 2006 |
ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का मूल्याँकन
भारत में ग्रामीण विकास के विविधप्रयासों की सफलता एवं असफलता की समीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है किग्रामीण समाज एवं विशेशकर ग्रामीण निर्धनों पर ग्रामीण विकास कार्यक्रमेां की बहुतसीमित सफलता प्राप्त हुर्इ है। ग्रामीण विकास की नीतियों, कार्यक्रमों के निर्धारण एवंक्रियान्वयन में कमियों के कारण ग्रामीण रुपान्तरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण परिणामनहीं दृष्टिगोचर होता। कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के लक्ष्यों एवं उपलब्धियों के आधारपर उनका मूल्याँकन किया जा सकता है।
ग्रामीण विकास में सहकारी संस्थाओं की भूमिका
सहकारी समिति व्यक्तियों का एक स्वायत्त संगठन है जिसके सदस्यस्वेच्छया संयुक्त होकर अपनी सामान्य आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिकआवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति साझा स्वामित्व एवं जनतांत्रिक रूप सेनियंत्रित उद्यमों के आधार पर करते हैं।
भारत में औपचारिक सहकारी समितियों का प्रादुर्भाव 1904 में प्रमुखत: साखसमितियों के रूप में हुआ तथा 1912 से गैर साख सहकारी समितियाँ गठित होनेलगीं। 1928 में रायल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर ने सहकारिता के महत्व को स्पष्टकरते हुए कहा कि यदि सहयोग असफल होगा तो इसका आशय यह है कि ग्रामीणभारत में सर्वोत्तम आकांक्षाएं असफल होंगी। कृषक समाज के सामाजिक-आर्थिकपरिवर्तन में सहकारी संस्थाओं को एक महत्वपूर्ण अभिकरण माना गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सहकारिता को भारत की नियोजित आर्थिकविकास प्रक्रिया की रणनीति में शामिल किया गया तथा विभिन्न पंचवष्र्ाीय योजनाओंमें सहकारी क्षेत्रों का विस्तार होता गया। प्रथम पंचवष्र्ाीय योजना में कृषि, बाजार,कुटीर उद्योग, प्रसंस्करण उद्योग तथा आन्तरिक व्यापार, इत्यादि क्षेत्रों में सहकारीसंगठन विविध आर्थिक गतिविधियों के माध्यम बने। प्रथम पंचवष्र्ाीय योजना मेंसहकारी योजना समिति के इस सुझाव को स्वीकार किया गया कि भारत के 50प्रतिशत गांवों में 30 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को आगामी दस वर्षों में सहकारी क्षेत्रोंसे सम्बद्ध किया जाय। द्वितीय पंचवष्र्ाीय योजना में कोआपरेटिव के्रडिट सोसायटीजकी संख्या 5 मिलियन से बढ़कर 15 मिलियन तक हो गर्इ। तृतीय पंचवष्र्ाीय योजनामें सामाजिक स्थायित्व एवं आर्थिक संवृद्धि हेतु सहकारिता को महत्वपूर्ण कारक केरूप में स्वीकारा गया। चतुर्थ पंचवष्र्ाीय येाजना में कृषि सहकारी समितियों एवंउपभोक्ता सहकारी समितियों ने सहकारिता आन्दोलन को प्रमुख रूप से आगेबढ़ाया। पंचम पंचवष्र्ाीय योजना में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने, सीमांत कृषकोंएवं दुर्बल समूहों आदि लक्ष्यों पर केन्द्रीकरण करके सहकारी संस्थाओं को सुदृढ़बनाने का प्रयास किया गया। छठवीं पंचवष्र्ाीय योजना में सहकारी संस्थाओं कीसफलताओं एवं असफलताओं के मिश्रित परिणाम परिलक्षित हुए। सातवीं पंचवष्र्ाीययोजना में सहकारी इकार्इयों के गठन, पिछड़े राज्यों में विशेष कार्यक्रम बनाने तथालोक वितरण प्रणाली का विस्तार करने की रणनीति बनार्इ गर्इ। आठवीं पंचवष्र्ाीययोजना में यह अनुभव किया गया कि सरकार की आर्थिक नीतियों में कृषि सहकारीसमितियों की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेंगी। नवीं एवं दसवीं पंचवष्र्ाीय योजनाओं मेंकृषि उत्पादों के बाजारीकरण, बाजार की संरचना के निर्माण, कृषि प्रसंस्करणइकार्इयों की स्थापना से लेकर गैर कृषि क्षेत्रों में सहकारी संस्थाओं की भूमिका काविस्तार हुआ। ग्यारहवीं पंचवष्र्ाीय योजना में भी सहकारी समितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों कीविविध गतिविधियों में संलग्न हैं।
1997-98 तक भारत में प्राथमिक सहकारी समितियों की संख्या 4.88 लाखतक पहुँच गर्इ जिसमें से 1.38 लाख कृषि सहकारी समितियाँ हैं। लगभग 207.57मिलियन लोग विभिन्न सहकारी समितियों के सदस्य बने। ग्रामीण परिवारों की 67प्रतिशत आबादी सहकारी क्षेत्रों से जुड़ी।
वैश्वीकरण के नये दौर की चुनौतियों से निबटने हेतु भारत सरकार ने अप्रैल2002 में सहकारिता की राष्ट्रीय नीति बनार्इ जिसमें देश भर में सहकारी समितियोंके चतुर्दिक विकास हेतु सहायता प्रदान करने को प्रमुखता दी गर्इ है। इस नीति केअनुसार जनसहभागिता एवं सामुदायिक प्रयास की आवश्यकता वाले सहकारीसंस्थाओं को स्वायत्त, जनतांत्रिक एवं उत्तरदायी बनाने हेतु आवश्यक सहकारीसहायता की जायेगी। सरकार का हस्तक्षेप सहकारी समितियों में समय से चुनावकराने, लेखा जोखा करने तथा इसके सदस्यों के हितों की सुरक्षा करने तक हीसीमित रहेगा। सहकारी समितियों के प्रबन्धन एवं कार्यों में कोर्इ सरकारीदखलन्दाजी नहीं होगी। भारत सरकार ने सन् 2002 में नया बहुराज्यीय सहकारीसमिति अधिनियम पारित किया है जिसका लक्ष्य सहकारी संस्थाओं को पूर्णप्रकार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान करना तथा इनका जनतांत्रिक प्रबन्धन करना है।भारत की सहकाारी नीति अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता के मान्य नियमों एवंआदर्शों-पंजीकरण को सरल बनाने, संशोधन करने, आदि को प्रतिबिम्बित करती है।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सहकारी समितियाँ अपने स्रोतों एवं संसाधनों को बढ़ाने हेतुस्वतंत्र हैं तथा उनका दायित्व भी अपेक्षाकृत बढ़ गया है।
ग्रामीण विकास में सहकारी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। सहकारीसंस्थाएं कृषि एवं गैर कृषि समेत विविध क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल कीहैं। उदाहरणार्थ 1940 के दशक में दुग्ध के वितरक व्यापारियों एवं ठेकेदारों द्वारादुग्ध उत्पादकों का शोषण किया जाता था। इस शोषण के विरोध में गुजरात केकैरा जिला में सहकारी आन्दोलन शुरू हुआ, जिसके सुखद अनुभवों से प्रभावितहोकर देश के विभिन्न हिस्सों में अबतक 75000 डेयरी कोपरेटिव सोसायटी कीस्थापना हो चुकी है, जिसमें लगभग 10 मिलियन सदस्य हैं। विविध अध्ययनों सेप्राप्त तथ्य यह प्रदर्शित करते हैं कि डेयरी कोआपरेटिव ने रोजगार के श्रृजन,बाजारीकरण एवं वितरण सभी दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्र में संपोषित विकास किया है।सहकारी संस्था के अनुशासन, परिश्रम, सफार्इ, उन्नत प्रौद्योगिकी, महिलाओं कीसक्रिय भागीदारी, जनतांत्रिक नियंत्रण, इत्यादि विशेषताओं के आधार पर अमूलडेयरी सफलता का पर्याय बन गया। इसी प्रकार कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में भीकोआपरेटिव सोसायटी का उल्लेखनीय योगदान रहा है। किन्तु दूसरी ओर यह भीएक तथ्य है कि उपभोक्ता क्षेत्रों से जुड़ी अनेक सहकारी समितियाँ सीमित व्यक्तियोंको ही लाभान्वित करती रही हैं, आम जनों को इनका लाभ अपेक्षित रूप में नहींमिल सका है।
वैश्वीकरण के नये दौर में सहकारी संस्थाओं के समक्ष नर्इ चुनौतियाँ उत्पन्नहुर्इ हैं। उदाहरणार्थ डेयरी उद्योग में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं निजी पूँजीपतियों द्वाराअत्यधिक पूँजीनिवेश के परिणामस्वरूप बाजार की नियंत्रण प्रणाली पर डेयरीसहकारी समितियों का प्रभूत्व नहीं रह गया बल्कि गुणवत्ता, सफार्इ, प्रसंस्करण केमानदंड, इत्यादि में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी है तथा बाजार व्यवस्था पर निजी पूँजी कावर्चस्व बढ़ा है। इस नये परिपे्रक्ष्य में सहकारी संस्थाओं को और अधिक सक्षम बननाहोगा ताकि वे प्रतिस्पर्द्धा में अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकें।
ग्रामीण विकास से सम्बद्ध मुद्दे
ग्रामीण विकास एक बहुआयामी प्रक्रिया है। भारत में ग्रामीण विकास केअबतक के प्रयास के बावजूद कुछ समस्यायें बनी हुर्इ हैं, जैसे- पर्यावरण का क्षरण,अशिक्षा/ निरक्षरता, निर्धनता, ऋणग्रस्तता, उभरती असमानता, इत्यादि। इन मुद्दोंको भलीभाँति विश्लेषित कर ग्रामीण विकास की भावी रणनीति को अनुकूल बनायाजा सकता है।
(1) पर्यावरण का क्षरण -
विकास के भौतिकवादी प्रारूप ने भूमि, वनों, प्राकृतिकसंसाधनों के अंधाधुंध उपभोग एवं दोहन को बढ़ाया है जिसके परिणाम स्वरुपपर्यावरण का संतुलन बिगड़ा है। मानव एवं अन्य प्राणियों-पशु, पक्षी आदि के समक्षपर्यावरण के क्षरण के परिणामस्वरूप कर्इ समस्यायें उभरी हैं एवं पर्यावरण कोसंरक्षित करने हेतु वैश्विक एवं राष्ट्रीय प्रयास किये जा रहे हैं। मानव द्वारा पर्यावरणके दोहन ने निम्न समस्यायें उत्पन्न की हैं: वैश्विक गर्मी, ओजोन परत में छिद्र होना,ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, समुद्र के स्तरों में उभार, जल प्रदूषण, उर्जा संकट,वायु प्रदूषण से जुड़ी ब्याधियाँ जैसे अस्थमा में वृद्धि, लीड का विषाणुपन, जेनेटिकइंजीनियरिंग द्वारा संशोधित खाद्यानों के उत्पादन सम्बन्धी विवाद, प्लास्टिक एवंपोलीथिन के प्रयोग, गहन खेती, रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग केपरिणामस्वरूप भूमि का प्रदूषण एवं बंजर होना, नाभिकीय अस्त्र एवं नाभिकीय प्रकाशसे जुड़ी दुर्घटनाएँ, अति जनसंख्या की त्रासदी, ध्वनि प्रदूषण, बड़े-बड़े बांध केनिर्माण से उत्पन्न पर्यावरणीय प्रभाव, अति उपभोग की पूँजीवादी संस्कृति, वनों काकटाव, विशैली धातुओं के प्रयोग, क्षरण न होनेवाले कूड़े करकट का निस्तारण,इत्यादि। भारत में चिपको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन जैसे अनेकजनआन्दोलन किये गये हैं जिनमें पुरूषों एवं महिलाओं दोनों की सक्रिय भागीदारीपरिलक्षित होती है। सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, गौरा देवी, सुनीता नारायणआदि के वैयक्तिक योगदान के अतिरिक्त कुछ स्वयंसेवी संगठनों की भूमिकाउल्लेखनीय है।
(2) अशिक्षा/निरक्षरता -
अशिक्षा वस्तुत: सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धितसभी मुददों की जननी है जिसके परिणामस्वरूप निर्धनता, बेकारी, बाल श्रम, बालिकाभ्रूण हत्या, अति जनसंख्या, जैसी अनेक समस्यायें गहरी हुर्इ हैं। सामाजिक विकासके पैमाने में शिक्षा को एक महत्वपूर्ण सूचक के रूप में स्वीकारा गया है। भारत मेंहाल के दशकों में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान, नि:शुल्क प्राथमिकशिक्षा का अधिकार अधिनियम, अपरान्ह भोजन, दुर्बल समूहों को स्कालरशीप,वित्तीय सहायता, दाखिला में आरक्षण, जैसे अनेक सरकारी प्रयास किये गये हैं।दूसरी ओर अनेक गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा अभियान में सक्रिय भूमिका निभारही हैं। इन सबके बावजूद विविध अध्ययनों से प्राप्त तथ्य यह प्रदर्शित करते हैं किभारत, टर्की, इरान जैसे देशों में अभी भी निरक्षरों की संख्या काफी अधिक है जबकिश्रीलंका, म्यांमार, वियतनाम जैसे देशों ने अल्प समय में उच्च साक्षरता दर हासिलकर लिया है।
(3) ग्रामीण निर्धनता -
दुर्बल समूहों के उत्थान एवं गरीबी निवारण के विविध प्रयासोंके बावजूद भारत में निर्धनता का उन्मूलन नहीं हो सका है। सन् 2005 के विश्वबैंक के आकलन के अनुसार भारत में 41.6 प्रतिशत अर्थात 456 मिलियन व्यक्तिअन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे (प्रतिदिन 1.25 डालर से कम आय वाले) हैं। 1981में भारत में निर्धन व्यक्तियों की संख्या अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार 60 प्रतिशतथी जो 2005 तक घटकर 41 प्रतिशत हुर्इ है। भारत सरकार के योजना आयोग केआंकड़े यह दर्शाते हैं कि भारत में निर्धनों की आबादी 1977-78 में 51.3 प्रतिशत थीजो 1993-94 में घटकर 36 प्रतिशत हुर्इ तथा 2004-05 में 27.5 प्रतिशत आबादीही निर्धन है। नेशनल काउंसिल फार एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च के आकलन केअनुसार सन् 2009 में यह पाया गया कि भारत के कुल 222 मिलियन परिवारों में सेपूर्णरूपेण निर्धन (जिनकी वार्षिक आय 45000 रूपये से कम थी) 35 मिलियनपरिवार हैं, जिनमें लगभग 200 मिलियन व्यक्ति सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त 80मिलियन परिवारों की वार्षिक आय 45000 से 90000 रूपये के बीच है। हाल ही मेंजारी की गर्इ विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत मेंनिर्धनता उन्मूलन के प्रयासों के बावजूद सन् 2015 तक 53 मिलियन व्यक्ति (23.6प्रतिशत आबादी) पूर्णरूपेण निर्धन बने रहेंगे जिनकी आय 1.25 मिलियन डालरप्रतिदिन से कम होगी।
भारत में निर्धनता के तथ्य यह भी प्रदर्शित करते हैं कि निर्धनता की आवृत्तिजनजातियों, अनुसूचित जातियों में सर्वाधिक हैं। यद्यपि इस निष्कर्ष पर आम सहमतिहै कि भारत में हाल के दशकों में निर्धनों की सख्ंया घटी है किन्तु यह तथ्य अभीभी विवादस्पद बना हुआ है कि निर्धनता कहाँ तक कम हुर्इ है। इस विवाद का मूलकारण विभिन्न अभिकरणों के द्वारा आकलन की पृथक-पृथक रणनीति अपनायाजाना है। न्यूयार्क टाइम्स ने अपने अध्ययन में यह दर्शाया है कि भारत में 42.5प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के आधारपर विश्व बैंक ने यह निष्कर्ष दिया कि विश्व के सामान्य से कम भार वाले शिशुओंका 49 प्रतिशत तथा अवरूद्ध विकास वाले शिशुओं का 34 प्रतिशत भारत में रहताहै।
इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीण विकास के तमाम प्रयासों केबावजूद ग्रामीण निर्धनता की समस्या का उन्मूलन नहीं हो पाया है। ग्रामीण विकासकी भावी रणनीति में निर्धनता की समस्या को प्राथमिकता प्रदान करते हुए विकासकार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना होगा।
(4) स्वास्थ्य समस्यायें
ग्रामीण विकास के तमाम प्रयास के बावजूद ग्रामीण जनोंहेतु स्वास्थ्य एवं चिकित्सा की पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण दूर दराजके क्षेत्रों में न सिर्फ विशेषज्ञ चिकित्सकों बल्कि सामान्य चिकित्सकों का भी अभावहै। परिणामस्वरूप ग्रामीण जनों की स्वास्थ्य की दशाएं दयनीय हैं। लगभग 75प्रतिषत स्वास्थ्य संरचना,चिकित्सक एवं अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी स्रोत नगरों मेंउपलब्ध हैं जहाँ 27 प्रतिशत आबादी निवास कर रही है। ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रोंमें स्वास्थ्य दशाओं के अन्तराल के कर्इ अन्य सूचक हैं, जिन्हें तालिका में देखा जासकता है-
सूचक | ग्रामीण | नगरीय | संदर्भ वर्ष |
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जन्म दर | 30.0 | 22.6 | 1995 |
मृत्यु दर | 9.7 | 6.5 | 1997 |
शिशु मृत्यु दर | 80.0 | 42.0 | 1998 |
मातृ मृत्यु दर (प्रति एक लाख पर) | 438 | 378 | 1997 |
अप्रशिक्षित दाइयों द्वारा प्रसव कराये जाने काप्रतिशत | 71.0 | 27.0 | 1995 |
अप्रशिक्षित चिकित्सकों के कारण मृत्यु काप्रतिशत | 60.0 | 22.0 | 1995 |
कुल प्रजनन दर | 3.8 | 2.8 | 1993 |
12-13 माह की अवधि के बच्चे/बच्चियों काप्रतिशत जिन्हें सम्पूर्ण टीकाकरण सुविध प्राप्तहुर्इ | 31.0 | 51.0 | 1993 |
अस्पताल | 3968 (31%) | 7286 (69%) | 1993 |
डिस्पेन्सरी | 12284 (40%) | 15710 (60%) | 1993 |
डाक्टर | 440000 | 660000 | 1994 |
स्रोत- सेम्पल रजिस्टे्रशन सिस्टम, भारत सरकार, 1997-98 एवं दुग्गल आर.(1997) हेल्थ केयर बजट्स इन ए चैन्जिंग पोलिटिकल इकोनोमी, इकोनोमिक एण्डपोलिटिकल विकली, मर्इ 1997, 17-24
भारत में सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य निर्धारित किया गयाथा, किन्तु यह लक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं किया जा सका है। नेशनल रूरल हेल्थमिशन जैसे कार्यक्रमों के जरिये भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कीजा रही हं।ै समाजकार्य की दृष्टि से ग्रामीण आबादी की स्वास्थ्य की आवश्यकताओंको पूरा करने हेतु वर्तमान जीव चिकित्सा प्रारूप (बायोमेडिकल माडल) की बजायसमाज सांस्कृतिक स्वरूप (सोसियोकल्चरल माडल) अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिकहोगा। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के विस्तृत संशोधित प्रारूप में ग्रामीण नगरीय असमानसंरचना के पहलुओं को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालीन योजना बनानी होगी तथाग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक सशक्त करना होगा।
भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ग्रामीण ऋणग्रस्तता एकगम्भीर समस्या है। ऋणग्रस्तता का आशय है ऋण से ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऋणचुकाने की बाध्यता का होना। ग्रामीण भारत में निर्धन किसानों एवं मजदूरों द्वाराअपनी आवश्यकताओं के कारण लिया जाने वाला कर्ज जब बढ़ जाता है एवं वेअपनी कर्ज अदायगी में असमर्थ हो जाते हैं तो यह स्थिति ग्रामीण ऋणग्रस्तता कीसमस्या उत्पन्न करती है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: हमारी कमजोर वित्तीयसंरचना की सूचक है जो यह प्रदर्शित करती है कि हमारी आर्थिक व्यवस्थाजरूरतमंद किसानों, भूमिहीनों एवं कृषक मजदूरों तक पहुँचने में दुर्बल है।
ग्रामीण ऋणग्रस्तता का प्रादुर्भाव कैसे होता है? इस प्रश्न का विश्लेषण यहहै कि ग्रामीण कृषक एवं मजदूर कृषि कार्य हेतु अथवा अपने परिवार केभरण-पोषण, शादी-विवाह, बीमारी के इलाज एवं अन्य कार्य हेतु ऋण लेते हैं।अल्प आय, पारिवारिक व्यय, इत्यादि के कारण वे ऋण को चुकाने में असमर्थ होजाते हैं तथा उन ऋणों पर सूद बढ़ता जाता है। वित्तीय संस्थाओं की जटिलऔपचारिकताओं को पूरा न कर पाने एवं समय पर तत्काल ऋण प्राप्त न होने,आदि कारणों की वजह से निर्धन किसान एवं मजदूर निजी सूदखोरों एवं महाजनोंसे कर्ज लेते हैं जिनके द्वारा मनमाना सूद लेने, बेगार कराने, जैसे अनेक शोषणकिया जाता है तथा ऋणग्रस्तता की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है। रायलकमीशन ऑन लेबर, 1928 ने ब्रिटिश काल में किसानों की दशा पर अपनी रिपोर्ट मेंयह व्यक्त किया कि ‘‘भारतीय किसान ऋण में पैदा होता है, ऋण में जीवन व्यतीतकरता है तथा अपनी आगामी पीढ़ी को भी ऋणग्रस्तता की विरासत सौंप जाता है।’’
भारत सरकार के श्रम एवं नियोजन मंत्रालय से जारी प्रपत्र यह प्रदर्शित करतेहैं ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: ग्रामीण विकास में एक महत्वपूर्ण बाधा/अवरोध है।ग्रामीण ऋणग्रस्तता न सिर्फ सामाजिक आर्थिक अवसरों में असमानता को बढ़ाती हैबल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में संवृद्धि प्रक्रिया को बाधित करती है तथा ऋणग्रस्त परिवारों मेंकुंठा एवं अवसाद के कारण जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभागिता हेतु उनमेंअन्तरपीढ़िगत विकलांगता उत्पन्न करती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्टयह प्रदर्शित करती है कि भारत में ऋणग्रस्तता से ग्रसित अवसादों के कारण 2005में आत्म हत्या करने वाले व्यक्तियों में सीमांत किसानों एवं कृषक मजदूरों की संख्या15 प्रतिशत से अधिक थी। नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गानाइजेशन के आंकड़े यहदर्शाते हैं कि सन् 2002 में भारत के कुल कृषक परिवारों का 49 प्रतिशत ऋणग्रस्तहै।
बर्लिन की दीवार के ध्वस्तीकरण (1989) एंववैश्वीकरण (1991) के दौर में विश्व भर में लगभग 3 बिलियन पूँजीपति वैश्विकअर्थव्यवस्था में शामिल हुए हैं। पूँजी के वर्चस्व ने भारत समेत विश्व के स्तर परअसमानता की खार्इ को बढ़ाया है। भारत के आम जन निर्धन हैं किन्तु भारत कोउभरती आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति के रूप मे पहचान मिली है। कम आय केबावजूद भारत के दक्ष तकनीकी समूह ने विकसित एवं पूँजीपति देशों के समक्ष एकविकट चुनौती उत्पन्न किया है।
विश्व की कुल आबादी में भारत लगभग 16.9 प्रतिशत आबादी काप्रतिनिधित्व करता है। भारत में लगभग 35 प्रतिशत आबादी अन्तर्राष्ट्रीय मानकप्रतिदिन 1 डालर से कम आय के अनुसार निर्धन हैं। 2001 के आंकड़ों के अनुसारयदि अन्तर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा को प्रतिदिन 2 डालर से कम आय पर निर्धारित करदिया जाय तो भारत की 86.2 प्रतिशत आबादी निर्धनता रेखा के नीचे आ जायेगी।भारत में उभरती हुर्इ असमानता के कर्इ कारक हैं: सर्वप्रथम, भारत के कुल राष्ट्रीयउत्पाद में औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र तीव्रता से बढ़ा है किन्तु श्रमिकों की हिस्सेदारीअपेक्षित रूप में नहीं बढ़ी है। द्वितीय उच्च विकास दर के बावजूद संगठित उद्योगोंमें रोजगार के नये अवसर स्थिर हो गए हैं, असंगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसरअवश्य बढ़े हैं किन्तु असंगठित क्षेत्रों से अर्जित की गर्इ आय इतनी अल्प है किनिर्धनता रेखा से ऊपर लाने में असमर्थ है।
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