संविधान सभा में देवनागरी में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने को लेकर एक से अधिक विचार थे और आज भी इस मुद्दे पर पूरी सहमति नहीं है। हमें उन असहमतियों को समझने और उनका सम्मान करने की आदत डालनी चाहिए। लेकिन तमाम असहमतियों के बीच एक व्यापक सहमति भी थी कि किसी भारतीय भाषा को ही राजकाज और शिक्षा आदि का माध्यम बनाना चाहिए। इस बात को लेकर भी एक बड़ा समूह सहमत था कि हिन्दी/हिन्दुस्तानी/उर्दू कही जाने वाली जिस भाषा में हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से में लोग बोलते-बतियाते हैं उसमें संपर्क भाषा बनने की सम्भावना है। इस भाषा की कौन-सी शैली राजभाषा बनेगी इसको लेकर असहमतियाँ थी। यह भाषा किस लिपि में लिखी जाएगी उसको लेकर भी सहमति नहीं थी। अन्त में एक पक्ष की बात स्वीकृत हुई, लेकिन ऐसा नहीं है दूसरे पक्ष के लोगों के पास तर्क नहीं थे।
अगर थोड़ी देर के लिए हम व्यापक सहमति को समझने की कोशिश करें तो हमें एक बार फिर से इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आखिर स्वाधीनता आन्दोलन से निकले हमारे ये नेता क्यों चाहते थे कि देश का राजकाज भारतीय भाषाओँ में चले और कोई भारतीय भाषा ही केन्द्र और प्रान्तों के बीच संवाद की भाषा बने? जाहिर है कि वे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य का सपना देख रहे थे जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी थी। एक ऐसे नागरिक की कल्पना थी जो बौद्धिक दृष्टि से पिछलग्गू नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर हो। यही स्वराज (अर्थात अपने ऊपर अपना ही राज) की कल्पना थी। इस कल्पना में आज भी शक्ति है। इसमें आज भी आकर्षण है।
आजादी के बाद से आज तक अगर एक नजर डालें तो हमें दिखता है कि भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा इस बीच भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही साक्षर हुआ है। ये भारतीय भाषाएँ हैं हिन्दी, उर्दू, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगू आदि। आजादी के समय 100 में 12 लोग साक्षर थे। आज 100 में लगभग 74 लोग साक्षर हैं। इस बीच भारत की आबादी भी बढ़ी है, तो इसका अर्थ है आज ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है जो हिन्दी में पढ़ना-लिखना जानते हैं। फिर इसका अर्थ क्या यह है कि आज हमारा बौद्धिक पिछलग्गूपन कम हो गया है? मैं अपनी ओर से इस प्रश्न का जवाब नहीं देना चाहता। मैं चाहता हूँ कि आप इस प्रश्न पर स्वयं विचार करें। लेकिन कुछ तथ्य हैं जिसे आप भी अनदेखा नहीं करना चाहेंगे। मसलन जिस अनुपात में लोगों ने हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखा है उस अनुपात में हिन्दी की किताबों और पत्रिकाओं की बिक्री नहीं बढ़ी है। दूसरा तथ्य जो साल दर साल स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों के सामने आता है वह यह है कि पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाले बहुत सारे बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ नहीं पढ़ पाते।
अगर हम पहले उन विद्यार्थियों की बात करें जो पाँचवी कक्षा में आकर दूसरी कक्षा का पाठ नहीं पढ़ पा रहे हैं और इस कारण पाँचवी से आठवीं तक पहुँचते-पहुँचते कभी न कभी पढाई छोड़ देते हैं तो स्कूली शिक्षा की एक महत्वपूर्ण चुनौती से हमारा सामना होता है। कुछ लोग मानते हैं कि मोटे तौर पर प्राथमिक कक्षाओं में विद्यार्थी ‘पढ़ना सीखते हैं’ और उच्च-प्राथमिक स्तर के बाद वे ‘सीखने के लिए पढ़ते हैं।’ अँग्रेजी में इसे कहते हैं From ‘LEARN to READ’ in primary classes to ‘READ to LEARN’ in upper primary and secondary grades. स्वतंत्र ढ़ंग से पढ़ पाने की क्षमता और किसी चीज को स्वतंत्र ढंग से पढ़कर, जाँचकर देखने की इच्छा का होना हमें बौद्धिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनाता है। यही बौद्धिक स्वराज है जिसका सपना हिन्दी को राजभाषा बनाते समय देखा गया था। इस स्वराज की स्थापना स्कूलों में होनी है। इसकी स्थापना पहली से तीसरी-चौथी कक्षा में होनी है। इस बात की गंभीरता को अगर हम समझेंगे तो हमें समझ में आएगा कि शिक्षक को राष्ट्रनिर्माता कहना भाषा का महज आलंकारिक प्रयोग नहीं है।
अब अगर उन साक्षरों की बात करें जिन्हें पढ़ना-लिखना तो आ गया, लेकिन जो पढ़ना-लिखना नहीं चाहते तो इसकी तह में भी हम स्कूलों में चल रहे साक्षरता के अभ्यासों को ही पाएँगे। हम स्कूलों में पढ़ने का चस्का नहीं लगा पा रहे हैं। एक बार जब एक विद्यार्थी पढ़ना-लिखना सीख गया फिर भी अगर हम उच्च-प्राथमिक स्तर और उससे आगे हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ा रहे हैं तो हमारे पास उसका कोई व्यापक उद्देश्य होना चाहिए। पढ़ाते हुए हमें उन उद्देश्यों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। उच्च-प्राथमिक स्तर और माध्यमिक स्तर पर हिन्दी भाषा पढ़ाने का व्यापक उद्देश्य क्या है?
पाँचवी कक्षा तक स्वतंत्र रूप से पढ़ने और अपनी बातों को भाषा में लिख पाने की क्षमता विकसित हो जानी चाहिए। उच्च प्राथमिक स्तर पर भाषा-शिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य शिक्षार्थी को अपने भाषिक व्यवहार के प्रति अधिक से अधिक सजग करना है। ऐसा इसलिए कि विज्ञान, समाज-विज्ञान आदि विषयों में सटीक और सधी हुई भाषा के प्रयोग की दरकार होती है। शिक्षाविद् वायगोत्स्की ने कहीं लिखा है कि भाषा उस शीशे की खिड़की की तरह है जिससे हम बाहर की दुनिया को देखते हैं। जब हम बाहर की दुनिया को देख रहे होते हैं तो हमारा ध्यान शीशे पर नहीं होता है। जब हमारा ध्यान शीशे पर जाता है तब हम समझ पाते हैं कि बाहर का संसार जैसा हमें दिख रहा होता उसमें उस शीशे का भी कुछ योगदान है।
कक्षा में सार्थक ढंग से साहित्य की चर्चा करते हुए हम भाषा में अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया के बारे में विद्यार्थियों को सजग और जिज्ञासु बना सकते हैं। एक सफल कवि अपनी विशिष्ट भाव-भंगिमा, सौन्दर्यानुभव और विलक्षण अर्थ-छवि को भाषा में संभव बनाने के लिए भाषा की बहुस्तरीय व्यंजक शक्ति के प्रति यथासंभव सचेत रहता है। 1
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