Bharat Me Bhumi Upyog Praroop Ka Varnnan Karein भारत में भूमि उपयोग प्रारूप का वर्णन करें

भारत में भूमि उपयोग प्रारूप का वर्णन करें



GkExams on 18-12-2018

देश का कुल क्षेत्रफल उस सीमा को निर्धारित करता है जहाँ तक विकास प्रक्रिया के दौरान उत्पत्ति के साधन के रूप में भूमि का समतल विस्तार संभव होता है। जैसे-जैसे विकास प्रक्रिया आगे बढ़ती है और नये मोड़ लेती है, समतल भूमि की माँग बढ़ती है, नये कार्यों और उद्योगों के लिये भूमि की आवश्यकता होती है व परम्परागत उपयोगों में अधिक मात्रा में भूमि की माँग की जाती है। सामान्यतया इन नये उपयोगों अथवा परम्परागत उपयोगों में बढ़ती हुई भूमि की माँग की आपूर्ति के लिये कृषि के अंतर्गत भूमि को काटना पड़ता है और इस प्रकार भूमि कृषि उपयोग से गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त होने लगती है। एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिये जिसकी मुख्य विशेषतायें श्रम अतिरेक व कृषि उत्पादों के अभाव की स्थिति का बना रहना है। कृषि उपयोग से गैर कृषि उपयोगों में भूमि का चला जाना गंभीर समस्या का रूप धारण कर सकता है। जहाँ इस प्रक्रिया से एक ओर सामान्य कृषक के निर्वाह श्रोत का विनाश होता है, दूसरी ओर समग्र अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से कृषि पदार्थों की माँग और पूर्ति में गंभीर असंतुलन उत्पन्न हो सकते हैं। कृषि पदार्थों की आपूर्ति में अर्थव्यवस्था में अनेक अन्य गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकती है। इसलिये यह आवश्यक समझा जाता है कि विकास प्रक्रिया के दौरान जैसे-जैसे समतल भूमि की माँग बढ़ती है उसी के साथ ही बंजर परती तथा बेकार पड़ी भूमि को कृषि अथवा गैर कृषि कार्यों के योग्य बनाने के लिये प्रयास करना चाहिए। प्रयास यह होना चाहिए कि खेती-बाड़ी के लिये उपलब्ध भूमि के क्षेत्र में किसी प्रकार की कमी न आये वरन जहाँ तक संभव हो कृषि योग्य परती भूमि में सुधार करें। कृषि कार्यों के लिये उपलब्ध भूमि में वृद्धि ही की जानी चाहिए।

भूमि समस्त गतिविधियों का आधार है, इस पर ही समस्त गतिविधियों और आर्थिक क्रियाओं का सृजन और विकास होता है। भूमि संसाधन की दृष्टि से भारत एक संपन्न देश है। यहाँ का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 328.8 मिलियन हेक्टेयर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश है। यह आवासी, औद्योगिक और परिवहन व्यवस्था का आधार होने के साथ-साथ खनिजों का श्रोत, फसल एवं वनोपज का आधार और उनमें विविधता का पोषक है। भारतीय कृषि की विविधितायुक्त प्रचुरता विश्व की कई अर्थव्यवस्थाओं के लिये दुर्लभ है। इस बहुमूल्य संसाधन के समुचित उपयोग और प्रबंध की आवश्यकता है। समुचित भूमि उपयोग द्वारा राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करते हुए इसके गुणधर्म को अक्षुण्य रखते हुए, इस अगली पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा सकता है। समुचित भूमि उपयोग और प्रबंध इस कारण भी आवश्यक है क्योंकि जनसंख्या की दृष्टि से यहाँ का भौगोलिक क्षेत्रफल अपेक्षाकृत कम है। यहाँ का भौगोलिक क्षेत्रफल विश्व के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत भाग है। जबकि यहाँ विश्व की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है।

भूमि उपयोग के आंकड़े विद्यमान भूमि क्षेत्र का प्रयोगवार विवरण प्रस्तुत करते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि किसी भूमिखंड को सक्षमतापूर्वक कैसे कृषि योग्य बनाया जा सकता है। भूमि उपयोग का विभाजन मुख्य रूप से इस तथ्य पर आधारित है कि भूमि की प्रकृति कृषित भूमि की ओर बढ़ने की है अथवा चारागाह या वनों के अंतर्गत बढ़ने की है। भूमि उपयोग का विवरण वन, कृषि उपयोग में प्रयुक्त बंजर तथा कृषि के अयोग्य भूमि, स्थायी चारागाह, वृक्ष एवं बागों वाली भूमि, कृषि योग्य खाली भूमि, चालू परती भूमि अन्य परती भूमि और शुद्ध कृषि भूमि नामक नौ शीर्षकों में प्रस्तुत किया जाता है। यह विवरण खाद्य एवं कृषि मंत्रालय द्वारा 1948 में नियुक्त टेक्नीकल कमेटी ऑन कोऑरडीनेशन ऑफ एग्रीकल्चरल स्टैटिस्टिक्स, की संस्तुति पर आधारित है। इस संदर्भ में भूमि उपयोग के ढाँचे का अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो जाता है। भूमि उपयोग के ढांचे संबंद्ध आंकड़ों का अध्ययन कर हम यह जान सकते हैं कि भावी विकास प्रक्रिया में भूमि तत्व की क्या भूमिका हो सकती है। कितनी अतिरिक्त भूमि किस क्षेत्र और कहाँ से प्राप्त करवायी जा सकती है।

1. भूमि उपयोग का प्रारूप एवं श्रेणियाँ :-


भूमि उपयोग का तात्पर्य मानव द्वारा धरातल के विविध रूपों (पर्वत, पहाड़ मरू भूमि दलदल, खदान, यातायात, आवास, कृषि, पशुपालन तथा खनिज) में प्रयोग किये जाने वाले कार्यों से है। भूमि का प्रमुख उपयोग फसलों के उत्पादन के लिये किया जाता है। इसका अन्य उपयोग यातायात, मनोरंजन, आवास, उद्योग तथा व्यवसाय आदि जैसे कार्यों के लिये भी होता है। बहुधा भूमि का उपयोग बहुउद्देशीय हुआ करता है। यथा वन की भूमि का उपयोग चारागाह के रूप में तो होता ही है, साथ ही साथ उसे मनोरंजन के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है, दूसरी ओर यह भी देखना आवश्यक है कि भूमि के किसी बड़े भाग का दुरुपयोग भी न हो और यदि ऐसा होता है तो उसे उपयोग योग्य बनाया जाये, ऐसे भू-भाग जो बेकार पड़े हैं उन्हें कृषि योग्य बनाया जाये। भूमि उपयोग की योजना भूमि के अधिक प्रभावी विचार संगत और सुधरे उपयोग की संभावनाओं और उनमें सन्निहित विभिन्न क्षमताओं का आकलन मात्र तक ही सीमित न हो बल्कि वह अधिक व्यवहारिक हो जो अगली पीढ़ी के लिये भी संप्रेषण की क्षमता बनाये रखने के उद्देश्य से प्रेरित हो सके। व्यक्ति और समाज दोनों की खुशहाली बढ़ाने में सक्षम हो किसी क्षेत्र की भूमि उपयोग योजना ऐसे प्रयत्नों से प्रेरित होनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र की भूमि के चप्पे-चप्पे का अधिक लाभप्रद उपयोग किया जा सके यह उपयोग उस भूभाग की क्षमता पर भी निर्भर होगा। किसी भी भूमि उपयोग की योजना में भी वैज्ञानिक उपयोग में सन्निहित वास्तविक क्षमताओं का निश्चय करना भी आवश्यक होता है जिससे उसके अधिकतम संभव उपयोग का निर्धारण किया जा सके।

यद्यपि भूमि प्रयोग, भूमि उपयोग तथा भूमि संसाधन उपयोग प्राय: एक दूसरे के पर्याय के रूप प्रयोग किये जाते हैं, परंतु इनके मध्य एक सूक्ष्म अंतर है। अर्थशास्त्री और भूगोलविद इनकी अलग-अलग व्याख्यायें प्रस्तुत करते हैं। प्राकृतिक परिवेश में भूमि प्रयोग एक तत्सामयिक प्रक्रिया है जबकि मानवीय इच्छाओं के रूप में अपनाया गया भूमि उपयोग एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इससे सतत एवं क्रमबद्ध विकास का स्वरूप लक्षित होता है। वुड के अनुसार भूमि प्रयोग केवल प्राकृतिक भूदृश्य के संदर्भ में ही नहीं अपितु मानवीय क्रियाओं पर आधारित उपयोगी सुधारों के रूप में भी प्रयुक्त होना चाहिए। बेंजरी भी उपयुक्त विद्वानों के विचारों से पूर्ण सहमत हैं और उन्हीं की कथन की पुष्टि करते हुए कहते हैं भूमि उपयोग प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही उपादानों के संयोग का प्रतिफल है। डा. सिंह के अनुसार कृषि से पूर्व की अवस्था के लिये जिसके अंतर्गत प्राकृतिक परिवेश का पूर्णतया अनुसरण किया जाता हो। ‘भूमि प्रयोग’ शब्द अधिक उपयुक्त होगा। परंतु जब मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भूमि के उचित या अनुचित प्रयोग के पश्चात ‘‘भूमि उपयोग’’ कहना अधिक संगत होगा।

उपयुक्त विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि भूमि के प्रयोग तथा उपयोग में अंतर है। दोनों ही शब्द भूमि की दो अवस्थाओं के लिये प्रयुक्त होते हैं। कालक्रम के अनुसार इन्हें कृषि विकास की दो विभिन्न अवस्थाओं से संबंधित कहा जा सकता है। इनके अंतर को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है, कि भूमि प्रयोग का अभिप्राय उस भू भाग से है जो प्रकृति प्रदत्त विशेषताओं के अनुरूप हो तथा भूमि उपयोग से तात्पर्य भूमि प्रयोग की शोषण प्रक्रिया से है जिसमें भूमि का व्यावहारिक उपयोग किसी निश्चित उद्देश्य या योजना से संबंद्ध होता है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने भूमि उपयोग के स्थान पर ‘भूमि संसाधन उपयोग’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस संदर्भ में उनका कथन है कि जब मनुष्य भूमि का उपयोग अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं के अनुरूप करने में सक्षम हो जाता है तो उस समय भूमि एक संसाधन के रूप में परिवर्तित हो जाती है, दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब किसी क्षेत्र का भूमि उपयोग वहाँ भी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में संपन्न किया जा रहा हो और प्राकृतिक पर्यावरण का प्रभाव कम हो गया हो तो उस अवस्था को ‘भूमि संसाधन उपयोग’ कहा जा सकता है।

बारलो के अनुसार ‘‘भूमि संसाधन उपयोग’’ भूमि समस्या एवं उसके नियोजन की विवेचना की वह धुरी है जिसके अध्ययन के लिये उन्होंने निम्नलिखित पाँच महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण बताये हैं-

1. आर्थिक दृष्टि से संपन्न समाज की स्थापना।
2. भूमि संसाधन उपयोग की अवस्था तथा अनुकूलतम उपयोग का निर्धारण।
3. विभिन्न लागत कारकों, (श्रम और पूँजी आदि) के अनुपात में भूमि से अधिकतम लाभ की योजना।
4. फसलगत भूमि के उपयोग में माँग के आधार पर लाभदायक सामंजस्य तथा परिवर्तन का सुझाव।
5. किसी क्षेत्र के लिये अनुकूलतम एवं बहुउद्देशीय भूमि उपयोग का विवेचन करना तथा उसके सुझावों को क्षेत्रीय अंगीकरण हेतु समन्वित करना।

कैरियल महोदय, के अनुसार ‘‘भूमि प्रयोग’’ ‘भूमि उपयोग’ तथा भूमि संसाधन उपयोग तीनों ही भूमि विकास की विशिष्ट परिस्थितियों के घोतक हैं, इन परिस्थितियों का संबंध भूमि उपयोग के विकास की तीन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से हैं जो क्रमश: अलग-अलग समयों में संपन्न होती है। डा. सिंह ने इन दशाओं को निम्न रूप में व्यक्त किया है।

क्र.

1.

2.

3.

4.

5.

6.

शब्दावलियाँ

कृषि विकास की अवस्थायें

प्रमुख सामाजिक व्यवस्थायें

भूमि प्रयोग

कृषि के पूर्व की अवस्था

आखेट फल संकलन अवस्था

भूमि उपयोग (विस्तृत)

स्थानांतरणशील एवं जीवन निर्वहन अवस्था

जनजातीय व्यवस्था

भूमि उपयोग (गहन)

जीवन निर्वहन गहन कृषि व्यवस्था

परम्परागत सामाजिक व्यवस्था

भूमि संसाधन उपयोग

व्यापारिक कृषि अवस्था

विकसित एवं आधुनिक समाज व्यवस्था

नगरीय भूमि संसाधन उपयोग (प्रारंभिक)

गहन व्यापारिक कृषि अवस्था

अधिक विकसित एवं आधुनिक सामाजिक व्यवस्था

नगरीय भूमि संसाधन उपयोग (आदर्श)

आवासीय एवं व्यावसायिक कृषि अवस्था

सर्वाधिक विकसित व्यवस्था।

उपर्युक्त सारणी से स्पष्ट है कि कृषि कार्य से पूर्व सर्वत्र वन, मरू भूमि, पर्वत पठार जैसे भू आकृतियों का अधिपत्य था। इस दशा में भूमि प्रयोग न्यूनतम लाभदायी भूमि उपयोग ही संभव था। इस अवस्था में जहाँ कहीं अनुकूल दशायें सुलभ थी अस्थायी कृषि का प्रादुर्भाव हुआ। तीव्र गति से जनसंख्या बढ़ने के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में वृद्धि हुई और अकृति क्षेत्र उत्तरोत्तर सिकुड़ता गया। ऐसी दशा में कृषि अप्राप्य क्षेत्र में वृद्धि एवं कृषित क्षमता में ह्रास होगा, परंतु शस्य क्रम में गहनता तथा कृषि क्षमता में वृद्धि होगी। इस अवस्था में कृषकों का झुकाव यांतरिक कृषि पद्धति की ओर तथा माँग और पूर्ति पर आधारित मुद्रा दायिनी फसलों की कृषि की ओर अधिक होगा, इस अवस्था को कृषि विकास की व्यवहारिक अवस्था या ‘भूमि संसाधन उपयोग’ कहा जा सकता है। नगरीय भूमि संसाधन उपयोग की अवस्था में कृषि अप्राप्य क्षेत्र की अपेक्षा कृषित क्षेत्र कम होता जाता है तथा तीव्र गति से नकदीकरण के फलस्वरूप उसमें क्रमश: कमी होती जाती है। भूमि उपयोग मानव उपयोगिता के आधार पर एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधन के रूप में प्रस्तुत होता है। स्पष्ट है कि भूमि उपयोग का स्वरूप मानव सभ्यता के विकास और मानव की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित होता रहा और होता रहेगा यह परिवर्तन कृषि विकास की अवस्थाओं के रूप में लक्षित हुआ है और होता रहेगा। कृषि कार्य की विविधिता एवं विशिष्टता भूमि उपयोग के विकास कार्य एवं क्रम को व्यक्त करती है जो व्यक्ति के जीवन-यापन की आवश्यकताओं से लेकर उसके आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकास को पूर्णतया प्रभावित किये हुए हैं। शोधगत क्षेत्र के जन जीवन में भूमि उपयोग का मुख्य अर्थ कृषि कार्य से है जो इस ग्राम्य प्रधान क्षेत्र की अर्थव्यवस्था की मुख्य कुंजी है।

अ. जनपद में सामान्य भूमि उपयोग -


खाद्य एवं कृषि मंत्रालय द्वारा 1948 में नियुक्त ‘टेक्नीकल कमेटी ऑन को-ऑरडीनेशन ऑफ एग्रीकलचरल स्टैटिस्टिक्स, की संस्तुति के आधार पर प्रतापगढ़ जनपद के सामान्य भूमि उपयोग की विभिन्न श्रेणियों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।

1. वन :-
भारतीय अर्थव्यवस्था की भौगोलिक स्थिति, भौतिक संरचना और विविध प्रकार की जलवायु, विभिन्न प्रकार की वृक्ष और वनस्पतियों के उद्गम और विकास की पोषक है। इसी कारण भारत में विभिन्न प्रकार की वन और वनस्पतियाँ पायी जाती हैं। मानव सभ्यता के प्रत्येक चरण में वनों में स्वतंत्र चर के रूप में जीवन और वनस्पति जगत को आश्रय दिया है। वन संपदा के इसी आधारित महत्त्व के कारण इनके संवर्धन और संरक्षण का दायित्व समाज पर नीति वचनों और धर्म वाक्यों के द्वारा डाला गया था इसका प्रभाव इस स्तर तक रहा कि वृक्षा रोपण और उसके प्रभावी विकास प्रयास को पुत्र से भी अधिक श्रेयस्कर माना जाने लगा था प्रकृति की उदारता और वनों के प्रति अनुकूल सामाजिक दृष्टिकोण के कारण वर्तमान उपभोक्तावादी सभ्यता से पूर्व भारत भूमि वन रूप हरित कवच से आच्छादित और आभूषित थी, वन, वन्यजीव और मनुष्य का अद्भुत समन्वय था। प्राकृतिक पर्यावरण नितांत मनोरम और संतुलित था परंतु पिछले लगभग तीन सौ वर्षों में मनुष्य अपने तत्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वनों का अत्यंत निर्दयतापूर्वक शोषण और विनाश किया है।

अर्थव्यवस्था के पर्यावरणीय संतुलन और वनों से मिलने वाले अधिक लाभों की दृष्टि से अर्थव्यवस्था के भौगोलिक क्षेत्रफल में अपेक्षित स्तर तक वनों का होना आवश्यक है। और आज जब अर्थ व्यवस्थाओं में औद्योगिक क्रियाओं को प्रमुखता और प्रोत्साहन दिया जा रहा है तब वन क्षेत्र का अपेक्षित मानक से कम होना अर्थव्यवस्था के लिये घातक भी होगा। समान्यतया यह अपेक्षा की जाती है कि देश के 33 प्रतिशत भूभाग पर वनों का होना आवश्यक है। परंतु भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल पर वन क्षेत्र इस स्तर से अत्यंत कम रहा है। ब्रिटिश शासन काल में वनों के विकास के लिये जो कुछ प्रयास हुए उनका वन क्षेत्र के प्रसार में कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं हुआ। वन संपदा विदोहन की ब्रिटिश सरकार द्वारा आरंभ की गयी नीति स्वतंत्रता के बाद भी कुछ समय तक चलती रही वन और वृक्षों वाली भूमि को फसलों के अंतर्गत लाया गया। फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ाकर उत्पादन बढ़ाने की प्रक्रिया जारी रही। परिणाम स्वरूप कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में वनों की भागीदारी 1950-51 में घटकर 22 प्रतिशत रही गयी।

वन संपदा प्रकृति की एक अप्रतिम कृति है। यह एक नवकरीण संपदा है। जिसका अस्तित्व समाज को तत्कालिक लाभ तो देता ही है साथ ही साथ परोक्ष रूप से जीव-जगत के अस्तित्व का आधार भी होता है। यह आर्थिक दृष्टि से तो लाभदायक है ही, साथ ही साथ यह पर्यावरण की दृष्टि से भी अत्यधिक उपयोगी है। वनों से प्राप्त लाभों को परम्परागत रूप में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष लाभों में विभाजित किया जा सकता है। वनों से प्राप्त प्रत्यक्ष लाभ में वनोपज को सम्मिलित किया जाता है। समस्त वनोपज को प्रधान तथा गौड़ वनोपज नामक शीर्षकों में विभक्त किया जाता है। प्रधान वनोपज में इमारती तथा जलाऊ लकड़ी को सम्मिलित किया जाता है जबकि गौड़ वनोपज में बांस और बेंत पशुओं के लिये चारा, अन्य घास, गोंद, राल, बीड़ी के लिये पत्तियाँ लाख इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। गौड़ वनोपज से ही रबर, दिया-सलाई, कागज, प्लाईबुड, रेशम, वार्निश आदि के उद्योग चलाये जाते हैं।

प्रत्यक्ष लाभों के अतिरिक्त वनों से कई परोक्ष लाभ भी मिलते हैं। वन क्षेत्र में उगने वाले विभिन्न पौधे और वनस्पतियों के अवशेष सड़कर वहाँ की मिट्टी में स्वाभाविक रूप में मिलते रहते हैं जिससे भूमि की उर्वरता बढ़ती है। समाजोपयोगी समस्त पशु पक्षियों के लिये आश्रय स्थल वन ही है। वन अर्थव्यवस्था पर्यावरणीय संतुलन को बनाते हैं वे जलवायु के असमायिक बदलाव अनावृष्टि, अल्पवृष्टि और अतिवृष्टि को नियंत्रित करते हैं। भूमि की जल अवशोषण शक्ति बढ़ाकर वे भूमिगत जल स्रोतों की क्षमता को बढ़ाते हैं। स्वयं कार्बनडाई ऑक्साइड को अवशोषण कर वातावरण को विषाक्त होने से बचाते हैं एवं जीव-जगत के स्वषन के आधार पर ऑक्सीजन का सृजन करते हैं। अब तो यह भी स्पष्ट हो गया है कि ताप में सर्वाधिक वृद्धि और ओजोन पर्त का क्षतिग्रस्त होना भी वनों की कमी के कारण है इसके लिये वनों का अपेक्षित स्तर तक प्रसार आवश्यक है। वनों की उपादेयता के संदर्भ में जेएस कालिंस का विचार अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है कि वृक्ष पर्वतों को थामें रहते हैं, वे तूफानी वर्षा को नियंत्रित करते हैं और नदियों में अनुशासन रखते हैं, उनके अनुचित स्थान परविर्तन और तदजन्य विनाश को रोकते हैं। वन विभिन्न झरनों को बनाये रखते हैं और पक्षियों का पोषण करते हैं। वन क्षेत्र के अंतर्गत वे सभी भूमियाँ सम्मिलित की जाती हैं जो किसी राज्य की अधिनियम के अनुसार वन क्षेत्र के रूप में प्रशासित हैं। वे चाहे राजकीय स्वामित्व में हो अथवा निजी स्वामित्व में हों वनों में पैदा की जानी वाली फसलों का क्षेत्र वनों के अंतर्गत चारागाह वाली जमीन या चारागहा के रूप में खुले छोड़े गये क्षेत्र भी वनों के अंतर्गत आते हैं।

2. गैर कृषि प्रयोग में प्रयुक्त भूमि :-
इस शीर्षक में उन भूमियों को सम्मिलित किया जाता है जो भवन, सड़क, रेलमार्ग आदि के प्रयोग में हैं, इसी प्रकार वे भूमियाँ जो जल प्रवाहों, नदियों या नहरों के अंतर्गत हैं, भी इस वर्ग में सम्मिलित हैं इसके अतिरिक्त अन्य गैर कृषि प्रयोगों की भूमियाँ भी इसके अंतर्गत सम्मिलित होती हैं।

3. बंजर और गैर कृषि योग्य भूमियाँ :-
इस श्रेणी में वे सभी भूमियाँ सम्मिलित हैं जो बंजर हैं या कृषि योग्य नहीं है। इस कोटि में पर्वतीय, पठारी और रेगिस्तानी भूमियाँ आती हैं। इन भूमियों को अत्यधिक लागत के बिना फसलों के अंतर्गत नहीं लाया जा सकता है। बंजर और गैर कृषि योग्य भूमियाँ कृषि क्षेत्र के मध्य हो सकती हैं या इसके पृथक क्षेत्र में हो सकती है।

4. स्थायी चारागाह :-
इसके अंतर्गत चराईवाली सभी भूमियाँ सम्मिलित हैं। इस प्रकार की भूमियाँ घास स्थली हो सकती हैं या स्थायी चारागाह के रूप में। ग्राम समूहों के चारागाह भी इसी कोटि में आते हैं।

5. विविध वृक्षों एवं बागों वाली भूमियाँ :-
इस कोटि में कृषि योग्य वह सभी भूमियाँ सम्मिलित की जाती हैं जिन्हें शुद्ध कृषि क्षेत्र में सम्मिलित नहीं किया जाता है। किंतु कतिपय कृषिगत प्रयोग में लायी जा सकती हैं। इसके अंतर्गत छोटे पेड़ छावन वाली घासें बांस की झाड़ ईंधन वाली लकड़ी के वृक्ष सम्मिलित किये जाते हैं जो भूमि के उपयोग वितरण में बागान शीर्षक में सम्मिलित नहीं है।

6. कृषि योग्य व्यर्थ भूमि :-
इस श्रेणी में वह भूमि सम्मिलित है जो खेती के लिये उपलब्ध है परंतु जिस पर चालू वर्ष और पिछले पाँच वर्षों या उससे अधिक समय से फसल नहीं उगाई गयी है ऐसी भूमियाँ परती हो सकती हैं या झाड़ियों और जंगल वाली हो सकती हैं, यह भूमियाँ किसी अन्य प्रयोग में नहीं लायी जा सकती है वह भूमि जिससे एक बार खेती की गयी है परंतु पिछले पाँच वर्षों से खेती नहीं की गयी वह भूमियाँ भी इसी श्रेणी में आती हैं।

7. वर्तमान परती भूमि :-
इसी श्रेणी में वह कृषित क्षेत्र सम्मिलित किया जा सकता है जिसे केवल चालू वर्ष में परती रखा जाता है, उदाहरण के लिये यदि किसी पौधशाला वाले क्षेत्र को उसी वर्ष पुन: किसी फसल के लिये प्रयोग नहीं किया जाता तो उसे चालू परती कहा जाता है।

8. अन्य परती भूमि :-
अन्य परती भूमि के अंतर्गत वे भूमियाँ हैं जो पहले कृषि के अंतर्गत थी परंतु अब स्थायी रूप से एक वर्ष की अवधि से अधिक परंतु 5 वर्ष की अवधि से कम अवधि से खेती के अंतर्गत नहीं है। जमीन का खेती से बाहर होने के कई कारण हो सकते हैं। यथा कृषकों की गरीबी, पानी की अपर्याप्त पूर्ति, विषम जलवायु, नदियाँ और नहरों की भूमियाँ और खेती का गैर लाभदायक होना आदि।

9. शुद्ध कृषित क्षेत्र :-
इस श्रेणी में फसल तथा फसलोत्पादन के रूप में शुद्ध बोया गया क्षेत्र सम्मिलित किया जाता है। एक बार से अधिक बोये गये क्षेत्र की गणना भी एक बार की जाती है। यह कुल बोये गये क्षेत्र से कम होता है। क्योंकि कुल बोये गये क्षेत्र और एक बार से अधिक बोये गये क्षेत्र का योग होता है।




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Comments Prashansa on 21-11-2023

Bharat mein bhoomi ke upyog ka varanan karen

Harsh on 13-11-2023

Sandhan niyojan ki avasyakata kyo padati hai

Srishti Mishra on 11-10-2020

Bharat mein Bhumi upyog prarup ka varnan Karen San 1960 se 16 ke antargat Kshetra mein mahatvpurn vriddhi Hui hai iska kya Karan hai






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