संघ-राज्य वित्तीय संबंध
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वित्त आयोग –
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भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 में वित्त आयोग का उपबंध है. वित्त आयोग का सर्वाधिक महत्व यह है कि यह भारत की वित्तीय व्ययस्था को संघीय चरित्र का बनाने का प्रयास करता है. यह ध्यान देने योग्य है कि राज्यों की आवश्यकताओं का आकलन करने और केंद्र द्वारा किसी राज्य को सहायता का पैमाना तय करने में वित्त आयोग हमेशा इस सिद्धांत के मार्गदर्शन में कार्य करता है कि “राजस्व के वितरण की योजना को राज्यों के बीच असमानताओं को कम करने का प्रयास करना चाहिए.” संविधान निर्माताओं ने इस बात को सुनिश्चित किया है कि केंद्र और राज्यों के बीच राजस्वों का वितरण इस प्रकार हो जिससे राज्यों की स्वायत्तता बाधित न हो.
अनुच्छेद 280 के अनुसार राष्ट्रपति संविधान के प्रारंभ से दो वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक पांचवे वर्ष की समाप्ति पर या ऐसे पूर्वतर समय पर जो राष्ट्रपति को आवश्यक लगे, वित्त आयोग का गठन करेगा.
वित्त आयोग अधिनियम, 1951 के अनुसार वित्त आयोग को अपने कर्तव्य के पालन में गवाहों को समन जारी करने, किसी दस्तावेज को प्रकट करने इत्यादि के सम्बन्ध में सिविल कोर्ट की सभी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं.
वित्त आयोग का गठन –
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वित्त आयोग अधिनियम, 1951 के अनुसार वित्त आयोग एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्यों से मिलकर बनता है जिनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है. अधिनियम के अनुसार आयोग का अध्यक्ष ऐसे व्यक्तियों में से चुना जाना चाहिए जिन्हें लोक कार्यों का अनुभव, जबकि अन्य सदस्यों को निम्नलिखित वर्गों में से चुना जाना चाहिए अर्थात –
1. जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के योग्यता रखते हों, या
2. जिन्हें वित्त का विशेष ज्ञान हो, या
3. जिन्हें वित्तीय मामलों और प्रशासन में व्यापक अनुभव हो, या
4. जिन्हें अर्थशास्त्र का विशेष ज्ञान हो.
वित्त आयोग का महत्व –
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वर्तमान में 14 वित्त आयोग की सिफारिशों और इससे पिछले 13 वित्त आयोगों की सिफारिशों ने यह साबित किया है कि वित्त आयोग ने भारत में संघ-राज्य संबंधों से जुड़ी कई जटिल समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है. संघ और राज्यों के बीच राजस्व के वितरण से संबंधति वर्तमान व्यवस्था लगभग वित्त आयोगों की सिफारिशों का ही परिणाम है. इससे भारत की संघीय व्यवस्था में वित्त आयोग का महत्व स्पष्ट हो जाता है.
मूलत: वित्त आयोग के गठन का उद्देश्य अनुच्छेद 269, 272, 275 और 282 के तहत उल्लिखित संघ और राज्यों के मध्य के सभी वित्तीय मामलों पर सिफारिश करने के लिये था, लेकिन योजना आयोग (अब इसका स्थान नीति आयोग ने ले लिया है) के गठन ने वित्त आयोग के इस कार्य को दो शाखाओं में बाँट दिया और वित्त आयोग की भूमिका गैर-योजना व्यय तक सीमित हो गयी.
वस्तुत: वित्त से सम्बंधित मामलों में सिफारिश करने के लिए एक अलग संवैधानिक निकाय का होना बहुत महत्वपूर्ण है. संविधान निर्माताओं ने वित्त आयोग की भूमिका को बहुत अच्छी तरह से स्थापित किया है. राजस्व के वितरण से सम्बंधित मामलों को संविधान में अच्छी तरह से हल किया गया है और इससे समबन्धित उपबंध न तो बहुत कठोर हैं और न ही भ्रमित करते हैं. हालाँकि मुख्य करों की वसूली संघ सरकार के द्वारा की जाती है, फिर भी कुछ ऐसे कर हैं जो केवल राज्यों द्वारा वसूले जाते हैं. तथापि, करों के वितरण के मामलों को हल करने में वित्त आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और निश्चय ही भविष्य में भी आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेगी.
वित्त आयोग के कार्य –
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आयोग का कार्य वस्तुत: संघ और राज्यों के बीच मध्यस्थता का होता है और वित्त आयोग के निर्णय/सिफारिशें सामान्यत: अंतिम होते हैं जिनके अनुसार ही संघ-राज्य वित्तीय सम्बन्ध निर्धारित होते हैं. संविधान के अनुच्छेद 280(3) में वित्त आयोग के कार्यों का विवरण है जिसके अनुसार वित्त आयोग राष्ट्रपति को निम्नलिखित के बारे में सिफारिश करेगा, अर्थात –
(क) संघ और राज्यों के बीच करों के शुद्ध आगमों के, जो इस अध्याय के अधीन उनमें विभाजित किये जाने हैं या किये जाएं, वितरण के बारे में और राज्यों के बीच ऐसे आगमों के तत्संबंधी भाग के आबंटन के बारे में,
(ख) भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व में सहायता अनुदान को शासित करने वाले सिद्धांतो के बारे में;
(खख) राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गयी सिफारिशों के आधार पर राज्य में पंचायतों के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए किसी राज्य की संचित निधि के संवर्धन के लिए आवश्यक अध्युपायों के बारे में;
(ग) राज्य के वित्त आयोग द्वारा की गयी सिफारिशों के आधार पर राज्य में नगरपालिकाओं के संसाधनों की अनुपूर्ति के लिए किसी राज्य की संचित निधि के संवर्धन के लिए आवश्यक अध्युपायों के बारे में;
(घ) सुदृढ़ वित्त के हित में राष्ट्रपति द्वारा आयोग को निर्दिष्ट किये गए किसी अन्य विषय के बारे में.
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