बोहरा शिया और सुन्नी दोनों होते हैं। दाऊदी बोहरा शियाओं से समानता रखते हैं। वहीं सुन्नी बोहराहनफी इस्लामिक कानून को मानते हैं। भारत में 20 लाख से ज्यादा बोहरा समुदाय की आबादी है।
दाऊदी बोहरा समुदाय की विरासत फ़ातिमी इमामों से जुड़ी है, जिन्हें मुहम्मद (570-632) का वंशज माना जाता है।यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अक़ीदा (श्रद्धा) रखता है।
आम धर्मगुरुओं के मुकाबले सैयदना का अपने समुदाय में एक अलग ही रुतबा है, एक तरह से वे अपने समुदाय के शासक हैं। मुंबई में अपने भव्य और विशाल आवास सैफ़ी महल में अपने विशाल कुनबे के साथ रहते हुए वे हर आधुनिक भौतिक सुविधाओं का तो उपयोग करते हैं, लेकिन अपने सामुदायिक अनुयायियों पर शासन करने के उनके तौर तरीके मध्ययुगीन राजाओं-नवाबों की तरह हैं। उनकी नियुक्ति भी योग्यता के आधार पर या लोकतांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि वंशवादी व्यवस्था के तहत होती है, जो कि इस्लामी उसूलों के अनुरूप नहीं हैं।ऐसा है समुदाय का इतिहासदाऊदी बोहरा समुदाय की विरासत फातिमी इमामों से जुड़ी है, जिन्हें पैगंबर हज़रत मोहम्मद का वंशज माना जाता है। यह समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति ही अपना अकीदा (श्रद्धा) रखता है। दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल कासिम थे. उनके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई, जो दाई-अल-मुतलक सैयदना कहलाते हैं। दाई-अल-मुतलक का मतलब होता है-सुपर अथॉरिटी यानी सर्वोच्च सत्ता, जिसके निजाम में कोई भी भीतरी या बाहरी शक्ति दखल नहीं दे सकती या जिसके आदेश-निर्देश को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती। सरकार या अदालत के समक्ष भी नहीं।
बोहरा' गुजराती शब्द 'वहौराउ' अर्थात 'व्यापार' का अपभ्रंश है, यह समुदाय मुस्ताली मत का हिस्सा है, जो 11वीं शताब्दी में उत्तरी मिस्र से धर्म प्रचारकों के माध्यम से भारत में आया था। दाऊदी बोहरा समुदाय को आम तौर पर पढा-लिखा, मेहनती, कारोबारी और समृद्ध होने के साथ ही आधुनिक जीवनशैली वाला है लेकिन साथ ही धर्मभीरू समुदाय माना जाता है। अपनी इसी धर्मभीरुता के चलते वह अपने धर्मगुरू के प्रति पूरी तरह समर्पित रहते हुए उनके हर उचित-अनुचित आदेशों का निष्ठापूर्वक पालन करता है।
देश-विदेश में जहां-जहां भी बोहरा धर्मावलंबी बसे हैं, वहां सैयदना की ओर से अपने दूत नियुक्त किए जाते हैं, जिन्हें आमिल कहा जाता है। ये आमिल ही सैयदना के फरमान को अपने समुदाय के लोगों तक पहुंचाते हैं और उस पर अमल भी कराते हैं। स्थानीय स्तर पर सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों पर भी इन आमिलों का ही नियंत्रण रहता है। एक निश्चित अवधि के बाद इन आमिलों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला भी होता रहता है।
बोहरा धर्मगुरू सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था के मुताबिक बोहरा समुदाय में हर सामाजिक, धार्मिक, पारिवारिक और व्यावसायिक कार्य के लिए सैयदना की रज़ा (अनुमति) अनिवार्य होती है और यह अनुमति हासिल करने के लिए निर्धारित शुल्क चुकाना होता है। शादी-ब्याह, बच्चे का नामकरण, विदेश यात्रा, हज, नए कारोबार की शुरुआत, मृतक परिजन का अंतिम संस्कार आदि सभी कुछ सैयदना की अनुमति से और निर्धारित शुल्क चुकाने के बाद ही संभव हो पाता है। यही नहीं, सैयदना के दीदार करने और उनका हाथ अपने सिर पर रखवाने और उनके हाथ चूमने (बोसा लेने) का भी काफी बडा शुल्क सैयदना के अनुयायियों को चुकाना होता है. इसके अलावा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वार्षिक आमदनी का एक निश्चित हिस्सा दान के रूप में देना होता है। आमिलों के माध्यम से इकट्ठा किया गया यह सारा पैसा सैयदना के खजाने में जमा होता है।बेहिसाब दौलत के मालिक हैं सैयदनादाई-अल-मुतलक यानी सैयदना दाऊदी बोहरों के सर्वोच्च आध्यात्मिक धर्मगुरू ही नहीं बल्कि समुदाय के तमाम सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और पारमार्थिक ट्रस्टों के मुख्य ट्रस्टी भी होते हैं। इन्हीं ट्रस्टों के ज़रिए समुदाय की तमाम मस्जिदों, मुसाफिरखानों, शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, दरगाहों और कब्रिस्तानों का प्रबंधन और नियंत्रण होता है। इन ट्रस्टों की कुल संपत्ति पचास हजार करोड़ रुपए से अधिक की बताई जाती है। बोहरा समाज के सुधारवादी आंदोलन से जुडे कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन ट्रस्टों के आय-व्यय तथा समाज के लोगों से अलग-अलग तरीके जुटाए गए धन का कोई लोकतांत्रिक लेखा-जोखा समाज के लोगों के सामने पेश नहीं किया जाता। जबकि सैयदना के समर्थकों का दावा है कि इस पैसे का इस्तेमाल शैक्षणिक संस्थानों और अस्पतालों के संचालन तथा अन्य पारमार्थिक कार्यों में खर्च किया जाता है।
सैयदना की बनाई हुई व्यवस्था का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति या उसके परिवार की बराअत (सामाजिक बहिष्कार) का फ़रमान सैयदना की ओर से जारी कर दिया जाता है। सैयदना के आदेश के मुताबिक समाज से बहिष्कृत व्यक्ति या परिवार से समाज का कोई भी व्यक्ति किसी भी स्तर पर संबंध नहीं रख सकता। बहिष्कृत व्यक्ति अपने परिवार में या समाज में न तो किसी शादी में शरीक हो सकता है और न ही किसी मय्यत (शवयात्रा) में। बहिष्कृत परिवार में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो उसके शव को बोहरा समुदाय के कब्रस्तान में दफनाने भी नहीं दिया जाता।
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