विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 19(5) के अनुसार लोक अदालत को निम्नलिखित अधिकारिता प्राप्त है-
परन्तु लोक अदालत को ऐसे किसी मामले या वाद पर अधिकारिता प्राप्त नहीं है जिसमें कोई अशमनीय अपराध किया गया हो। ऐसे प्रकरण जो न्यायालय में लम्बित पड़े हों, पक्षकारों द्वारा न्यायालय की अनुज्ञा के बिना लोक अदालत में नहीं लाये जा सकते।
धारा 20(1) यदि न्यायालय में लम्बित किसी वाद का पक्षकार यह चाहता है कि उसके प्रकरण का निपटारा लोक अदालत के माध्यम से हो, तथा उसका विरोधी पक्षकार इसके लिए सहमत हो, तो उस दशा में न्यायालय की यह संतुष्टि हो जाने पर कि मामले को लोक अदालत द्वारा शीघ्र निपटाए जाने की सम्भावना है, तो लोक अदालत उस प्रकरण का संज्ञान ले सकेगी तथा सम्बन्धित न्यायालय उस प्रकरण को लोक अदालत में भेजने के पूर्व न्यायालय उभय पक्षों को सुनवाई का समुचित अवसर देगा।
लोक अदालत को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत सिविल कार्यवाही की शक्ति होगी। दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 195, और के अध्याय 6 के प्रयोजन हेतु की कार्यवाही सिविल कार्यवाही होगी। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 193ए, 219 - 228 के तहत की गई कार्यवाही न्यायिक कार्यवाही मानी जाएगी।
वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा भारत के संविधान में अनुच्छेद 39क जोड़ा गया जिसके द्वारा शासन से अपेक्षा की गई कि वह यह सुनिश्चित करे कि भारत को कोई भी नागरिक आर्थिक या किसी अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय पाने से बंचित न रह जाये। इस उददेश्य की प्राप्ति के लिए सबसे पहले 1980 में केन्द्र सरकार के निर्देश पर सारे देश में कानूनी सहायता बोर्ड की स्थापना की गई। बाद में इसे कानूनी जामा पहनाने हेतु भारत सरकार द्वारा विधिक सेवा प्राधिकार अधिनियम 1987 पारित किया गया जो 9 नवम्बर 1995 में लागू हुआ। इस अधिनियम के अन्तर्गत विधिक सहायता एवं लोक अदालत का संचालन का अधिकार राज्य स्तर पर राज्य विधिक सेवा प्राधिकार को दिया गया।
राज्य विधिक सेवा प्राधिकारण में कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में उच्च न्यायालय के सेवानिवृत अथवा सेवारत न्यायाधीश और सदस्य सचिव के रूप में वरिष्ट जिला न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है। इसके अतिरिक्त महाधिवक्ता, सचिव वित, सचिव विधि, अध्यक्ष अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, मुख्य न्यायाधीश जी के परामर्श से दो जिला न्यायाधीश, अध्यक्ष बार काउन्सिल, इस राजय प्राधिकरण के सचिव सदस्य होते हैं और इनके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से 4 अन्य व्यक्तियों को नाम निर्दिष्ट सदस्य बनाया जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक जिले में जिला विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया है।
विधिक सेवा प्राधिकार ( संशोधन) अधिनियम, 2002 के द्वारा एक नया अध्याय जोड़कर जन उपयोगी सेवा को परिभाषित करते हुये वायु, थल, अथवा जल यातायाज सेवा जिससे यात्री या समान ढोया जाता हो, डाक, तार, दूरभाष सेवा, किसी संस्थान द्वारा शक्ति, प्रकाश या जल का आम लोगों को की गयी आपूर्ति, जन संरक्षण या स्वास्थ्य से संबंधित प्रबंध, अस्पताल या औषधालय की सेवा तथा बीमा सेवा को इसमें शामिल किया गया है। इन जन उपयोगी सेवाओं से संबंधित मामलों के लिये स्थायी लोक अदालतों की स्थापना करने के लिये आवश्यक कदम उठाये जा रहे हैं।
जन उपयोगी सेवाओं के लिये स्थापित स्थायी लोक अदालतों को जन अपराधों के लिये क्षेत्राधिकार नहीं होता है, जिसमें मामले सुलह करने योग्य नहीं रहते तथा उन वादों में भी क्षेत्राधिकार नहीं होता जिसमें सम्पति दस लाख रूपये से अधिक की होती है।
इन लोक अदालतों में आवेदन पडने पर प्रत्येक पक्ष को निदेश दिया जाता है कि वे लखित बयान दें। साथ ही उन आलेखों तथा साक्ष्यों को भी दें जिस पर वे आधारित होना चाहते हैं। इसके बाद लोक अदालत उभय पक्ष में सुलह करवाने की प्रक्रिया करता है। वह उभय पक्ष में सुलह करने के लिये शर्त भी तय करता है ताकि वे सुलह कर ले और सुलह होने पर वह एवार्ड देता है। यदि उभय पक्ष में सुलह नहीं होता है तो वह मामले का निष्पादन प्राकृतिक न्याय, कर्म विषयता, सबके लिये बराबर का व्यवहार, समानता तथा न्याय के अन्य सिद्धान्तों के आधार पर बहुमत से कर देता है। इस लोक अदालत का एवार्ड अन्तिम होता है तथा इसके संबंध में कोई मामला, वाद या इजराय में नहीं लिया जा सकता है। इस लोक अदालत में इससे संबंधित आवेदन के उपरान्त कोई भी पक्ष किसी अन्य न्यायालय में नहीं जा सकता है।
President ko kya murder Bina vajh k Kerne Ka adhikar savindhan me pardhan kiya kya
Kesi shasan vayvastha ajjj ke jamane k liye best h democratic ya rajtantra
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मेरे नाम से किसई व्यकिती ने titel suit case किया और नोटीस मे ओब्जेक्सन पेपर लगा कर नही आया और मै उस जमीन पर घर बनाना चाहता ह केस चालइ होने के बाद वो ऑब्जेक्सन लगा सकता है नही?