Urja Ke Gair Paramparagat Stroton ऊर्जा के गैर परंपरागत स्रोतों

ऊर्जा के गैर परंपरागत स्रोतों



GkExams on 08-02-2019


परम्परागत उर्जा के स्रोत

आज भी ऊर्जा के परम्परागत स्रोत महत्वपूर्ण हैं, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, तथापि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोतों अथवा वैकल्पिक स्रोतों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। इससे एक ओर जहां ऊर्जा की मांग एवं आपूर्ति के बीच का अन्तर कम हो जाएगा, वहीं दूसरी ओर पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण होगा, पर्यावरण पर दबाव कम होगा, प्रदूषण नियंत्रित होगा, ऊर्जा लागत कम होगी और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक जीवन स्तर में भी सुधार हो पाएगा।


वर्तमान में भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है, जिन्होंने 1973 से ही नए तथा पुनरोपयोगी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने के लिए अनुसंधान और विकास कार्य आरंभ कर दिए थे। परन्तु, एक स्थायी ऊर्जा आधार के निर्माण में पुनरोपयोगी ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग के उत्तरोत्तर बढ़ते महत्व को तेल संकट के तत्काल बाद 1970 के दशक के आरंभ में पहचाना जा सका।


आज पुनरोपयोगी और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के दायरे में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल विद्युत्, बायो गैस, हाइड्रोजन, इंधन कोशिकाएं, विद्युत् वहां, समुद्री उर्जा, भू-तापीय उर्जा, आदि जैसी नवीन प्रौद्योगिकियां आती हैं।

सौर ऊर्जा

सूर्य ऊर्जा का सर्वाधिक व्यापक एवं अपरिमित स्रोत है, जो वातावरण में फोटॉन (छोटी-छोटी प्रकाश-तरंग-पेटिकाएं) के रूप में विकिरण से ऊर्जा का संचार करता है। संभवतः पृथ्वी पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रासायनिक अभिक्रिया प्रकाश-संश्लेषण को माना जा सकता है, जो सूर्य के प्रकाश की हरे पौधों के साथ होती है। इसीलिए, सौर ऊर्जा को पृथ्वी पर जीवन का प्रमुख संवाहक माना जाता है। अनुमानतः सूर्य की कुल ऊर्जा क्षमता-75000 x 1018 किलोवाट का मात्र एक प्रतिशत ही पृथ्वी की समस्त ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है।


भारत को प्रतिवर्ष 5000 ट्रिलियन किलोवाट घंटा के बराबर ऊर्जा मिलती है। प्रतिदिन का औसत भौगोलिक स्थिति के अनुसार 4-7 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर है। वैश्विक सौर रेडिएशन का वार्षिक प्रतिशत भारत में प्रतिदिन 5.5 किलोवाट घंटा प्रति वर्ग मीटर है। गौरतलब है कि उच्चतम वार्षिक रेडिएशन लद्दाख, पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात में और निम्नतम रेडिएशन पूर्वोत्तर क्षेत्रों में प्राप्त होता है। हम इसका प्रयोग दो रूप से कर सकते हैं- सौर फोटो-वोल्टेइक और सौर तापीय।


चूंकि मानव सौर ऊर्जा का उपयोग अनेक कार्यों में करता है इसलिए इसका व्यावहारिक उपयोग करने के लिए सौर ऊर्जा को अधिकाधिक क्षेत्र से एकत्र करने या दोनों की प्राप्ति हेतु उचित साधन आवश्यक होते हैं। इसलिए इसके दोहन हेतु कुछ युक्तियां उपयोग में लाई जाती प्रकाश-वोल्टीय सेल या सौर सेल।


व्यापारिक उपयोग हेतु सौर शक्ति टॉवर का उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाता है। इसमें सौर ऊष्मकों में अनेक छोटे-छोटे दर्पण इस प्रकार व्यवस्थित होते हैं कि सभी सौर विकिरणों को एक छोटे क्षेत्र में संकेन्द्रित करें। इन सौर संकेंद्रकों द्वारा पानी गर्म किया जाता है तथा इस गर्म पानी की भाप विद्युत जनित्रों के टरबाइनों को घुमाने के काम में लाई जाती है। भारत सन् 1962 में विश्व का वह पहला देश बन गया जहां सौर-कुकरों का व्यापारिक स्तर पर उत्पादन किया गया।


सौर ऊर्जा को सीधे विद्युत में परिवर्तित करने की युक्तियां सौर सेल (solar Cells) कहलाती हैं। सर्वप्रथम व्यावहारिक सौर सेल 1954 में बनाया गया जो लगभग 1% सौर ऊर्जा को विद्युत में परिवर्तित कर सकता था। वहीं आधुनिक सौर सेलों की दक्षता 25% हैं। इनके निर्माण में सिलिकन का प्रयोग होता है। एक सामान्य सौर सेल लगभग 2 वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्रफल वाला अतिशुद्ध सिलिकन का टुकड़ा होता है जिसे धूप में रखने पर वह 0.7 वाट (लगभग) विद्युत उत्पन्न करता है। जब बहुत अधिक संख्या में सौर सेलों को जोड़कर इनका उपयोग किया जाता है तो इस व्यवस्था को सौर पैनल कहते हैं। सिलिकन का लाभ यह है कि यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है तथा पर्यावरण हितैषी है तथा पृथ्वी पर पाए जाने वाले तत्वों में सिलिकन दूसरे स्थान पर है परंतु सौर सेल बनाने हेतु विशेष श्रेणी के सिलिकन की उपलब्धता सीमित है। सौर सेल विद्युत् के स्वच्छ पर्यावरण हितैषी तथा प्रदुषण रहित स्रोत है परन्तु फिर भी इनका उपयोग सीमित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु हो रहा है।


ऊर्जा मंत्रालय ने छोटे स्थल पर उपयोग के लिए 25 एवं 100 किलोवाट की दो सौर फोटोवोल्टाइक ऊर्जा परियोजनाओं की स्थापना की। ये परियोजनाएं थीं- बड़े शहरी केन्द्रों में व्यस्त समय में भार की बचत करने के प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक भवनों की छतों पर लगायी जाने वाली प्रणालियां एवं दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रिड के अन्तिम सिरों वाले हिस्सों में वितरित ग्रिड टी एवं डी प्रणालियां। इसके अतिरिक्त, 25 किलोवाट की दो अन्य परियोजनाएं कोयम्बटूर के-एस.एन. पलायम और एस.जी. पलायम गांवों में शुरू की गई हैं। पश्चिम बंगाल के सागर द्वीप में सौर फोटोवोल्टाइक ऊर्जा प्रणालियों के उपयोग से सौर ऊर्जा उपयोग में लायी जा रही है। सौर फोटोवोल्टाइक ऊर्जा संयंत्र की 26 किलोवाट की क्षमता का एक संयंत्र लक्षद्वीप में लगाया गया है।


भाप पैदा करने के लिए सौर ऊर्जा संकेद्रण संग्राहक लगाए गए हैं। उल्लेखनीय है कि खाना बनाने के लिए विश्व की सबसे बड़ी सौर वाष्प प्रणाली आध्र प्रदेश में तिरूमला में स्थापित की गई। गांवों में डिश और कुकरों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। सौर ऊर्जा से हवा को गर्म कर उससे कृषि एवं औद्योगिक उत्पादों को सुखाने की प्रणाली भी इस्तेमाल की जा रही है। इससे पारम्परिक ईंधन की काफी बचत हुई है। फोटोवोल्टाइक प्रदर्शन और उपयोग कार्यक्रम के अंतर्गत देशभर में दुर्गम स्थानों में स्थित गांवों और बस्तियों में भी बिजली उपलब्ध कराई गई है। खाना पकाने, सुखाने और ऊर्जा को परिष्कृत करने के लिए उद्योगों और संस्थानों में सौर एयर हीटिंग/स्टीम जनरेटिंग प्रणाली को बढ़ावा दिया जा रहा है। सौर ऊर्जा प्रणाली को अनिवार्य बनाने के लिए इमारत उपनियमों में संशोधन किया गया है एवं प्रावधान किया गया है कि ऐसी इमारतें और हाउसिंग परिसर बनाए जाएं जहां पानी गर्म करने के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल हो। परंपरागत बिजली संरक्षण के साथ सर्दियों और गर्मियों में आरामदायक और बेहतर जीवन-स्तर के लिए ऐसी इमारतों के निर्माण को बढ़ावा दिया जा रहा है जिनमें सौर ऊर्जा से जुड़ी प्रणालियों को लगाया जा सके।

पवन ऊर्जा

वायु की गति के कारण अर्जित गतिज ऊर्जा पवन ऊर्जा होती है। यह एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। कई शताब्दियों से पवन का ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रयोग होता रहा है, जैसे-अनाज फटकने में, पवन चालित नौकाओं आदि में। आधुनिक पवन चक्कियों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि वे पवन ऊर्जा को यांत्रिक या विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें।


पवन ऊर्जा का इस्तेमाल विद्युत उत्पन्न करने के अतिरिक्त, सिंचाई के लिए जल की पम्पिंग में किया जा सकता है। गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय (एमएनईएस) की वार्षिक रिपोर्ट (2004-05) के अनुसार, भारत में तटीय पवन ऊर्जा क्षमता 45,000 मेगावाट मूल्यांकित की गई है जोकि पवन उर्जा सृजन के लिए उपलब्ध भूमि का 1% है। हालाँकि तकनीकी क्षमता को 13,000 मेगावाट के लगभग सीमित किया गया है। पवन ऊर्जा उत्पादन क्षमता में विश्व में भारत का पांचवां स्थान है।


गुजरात, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और ओडीशा जैसे तटीय राज्यों का पवन ऊर्जा के संदर्भ में बेहतर स्थान है, क्योंकि इन राज्यों के तटीय क्षेत्रों में पवन की गति निरंतर 10 किमी. प्रति घंटा से भी अधिक रहती है। घरेलू और साथ ही निर्यात बाजार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विंड टरबाइन्स और इनके साधक (कम्पोनेंट) के निर्माण में उल्लेखनीय संवृद्धि दर्ज की गई है।


पवन ऊर्जा की क्षमता के मामले में गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र अग्रणी राज्य हैं। वर्ष 2009-10 के अनुसार, देश में तमिलनाडु ने कन्याकुमारी के पास मुपडंल पेरुगुंडी में सर्वाधिक विंड टरबाइन्स स्थापित किए हैं। पवन ऊर्जा प्रौद्योगिकी केंद्र चेन्नई में स्थापित किया गया है।

महासागरीय ऊर्जा

महासागर तापांतर, तरंगों, ज्चार-भाटा और महासागरीय धाराओं के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा का स्रोत है, जिससे पर्यावरण-अनुकूल तरीके से विद्युत उत्पन्न की जा सकती है। ज्वारीय ऊर्जा, तरंग ऊर्जा तथा समुद्री तापीय ऊर्जा रूपांतरण तीन बेहद उन्नत प्रविधियां हैं। वर्तमान में व्यापक प्रौद्योगिकीय अन्तराल और सीमित संसाधनों के कारण समुद्र से उर्जा प्राप्त करने की सीमित मात्रा है।


समुद्री तापीय ऊर्जा रूपांतरण तकनीक (ओटीईसी) ने समुद्र की ऊपरी सतह के तापमान और 1,000 मीटर या अधिक की गहराई के तापमान के बीच तापांतर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए बेहतर काम किया। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों में, यह रणनीति बेहतर तरीके से काम करती है क्योंकि यहां पर समुद्री तापमान 25°C तक हो जाता है।


भारत के 6,000 किमी. लंबे तट क्षेत्र में तरंग ऊर्जा क्षमता लगभग 40,000 मेगावाट अनुमानित की गई है। तरंग ऊर्जा के लिए आदर्श अविस्थितियां अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में व्यापारिक पवनों की पेटियों में चिन्हित किए गए हैं। चेन्नई के भारतीय प्रौद्योगिकी संसथान के महासागर अभियांत्रिकी केंद्र के वैज्ञानिकों ने केरल में तिरुवनंतपुरम के नजदीक, विझिन्जम फिशिंग हार्बर में एक बड़ा संयंत्र लगाने में सफलता प्राप्त की है।


जहाँ ज्वार तरंगों की ऊंचाई अधिक होती है, बहन महासागर के ज्वारों द्वारा विद्युत् उत्पादित की जा सकती है। महासागर ऊर्जा के सभी रूपों में ज्चारीय ऊर्जा से सर्वाधिक ऊर्जा उत्पादन की क्षमता है। भारत में, ज्वारीय ऊर्जा के क्षमतावान क्षेत्रों के रूप में पश्चिमी तट पर गुजरात में कच्छ एवं खम्भात की खाड़ी तथा पूर्वी तट पर पश्चिम बंगाल में सुन्दरवन की पहचान की गई है।


सुन्दरबन क्षेत्र के दुर्गादुआनी क्रीक में फरवरी 2008 में पश्चिम बंगाल नवीकरणीय ऊर्जा विकास एजेंसी (डब्ल्यूबीआरईडीए) द्वारा 3.75 मेगावाट क्षमता का ज्वारीय शक्ति प्रोजेक्ट स्थापित किया गया। इस प्रोजेक्ट का मुख्य उद्देश्य पश्चिम बंगाल के दक्षिण में 24 परगना जिले में स्थित गोसाबा और बाली विजयनगर द्वीपों के 11 गांवों में विद्युत आपूर्ति करना है।

ऊर्जा स्रोत के तौर पर ज्चार क्रीक समस्याएं

इसे बेहद ऊंची ज्वार श्रेणी की आवश्यकता होती है (5 मीटर से ऊंची)


उच्च क्षमता के क्षेत्र सुदूरवर्ती क्षेत्रों में हैं तथा ऊर्जा का पारेषण बेहद खर्चीला है


चौड़े मुंह वाली खाड़ी या एश्चुअरी बांध निर्माण कार्य को बेहद खर्चीला बना देती हैं


मुख्य ज्वार ऊर्जा क्षेत्र मुश्किल ही उच्च ऊर्जा मांग को पूरा कर पाते हैं, क्योंकि ज्वार प्रत्येक दिन चक्रीय तरीके से स्थान परिवर्तन करते हैं।

भूतापीय ऊर्जा

भूतापीय ऊर्जा-प्रणाली के अन्तर्गत भूगर्भीय ताप एवं जल की अभिक्रिया से गर्म वाष्प उत्पन्न कर उर्जा का उत्पादन किया जाता है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए अनेक प्रविधियां अपनायी जाती हैं।


भारत में भूतापीय ऊर्जा स्रोत के उपयोग के लिए सीमित कार्य क्षेत्र है। हालांकि, नेशनल एयरोनॉटिकल लेबोरेटरी (एन.ए.एल.) के तत्वावधान में हिमाचल प्रदेश में मणिकर्ण में एक पायलट पावर परियोजना और लद्दाख की पूर्ण घाटी में, (जम्मू-कश्मीर) अन्वेषणात्मक अध्ययन किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (एन.जी.आर.आई.) हैदराबाद द्वारा पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र पर किया गया अध्ययन झारखण्ड में सूरजखंड और उत्तराखण्ड में तपोवन में शक्तिशाली भूतापीय स्थलों के अस्तित्व को दर्शाता है।

बायोमास ऊर्जा

यह जैव उर्जा का एक रूप है। जैविक पदार्थों का उपयोग उर्जा उत्पादन के लिए किया जाता है। पादप एंजाइम, जीवाणु आदि ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। जैव पदार्थों से ऊर्जा प्राप्त करने की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। एक तो पादप को सीधे जलाकर उर्जा प्राप्त की जाती है, जिससे प्राप्त ऊर्जा की मात्रा भी कम होती है और उससे प्रदूषण भी फैलता है। परन्तु, यदि वैज्ञानिक तकनीक से जैवाण्विक संवर्द्धन द्वारा मीथेन का निर्माण कर अथवा यीस्ट फर्मेण्टेशन से इथेनॉल का निर्माण कर उर्जा प्रापर की जाती है, तो इससे अधिक उर्जा भी प्राप्त होती है और प्रदूषण भी कम फैलता है। बायोमास या जैव ऊर्जा मुख्यतः पौधों और कूड़ों-कचड़ों से प्राप्त की जा रही है। पौधों से बायोमास प्राप्त करने के लिए तीव्र विकास वाले पौधों को बेकार पड़ी जमीन पर उत्पादित किया जा रहा है। इनसे प्राप्त लकड़ियों के गैसीकरण से ऊर्जा प्राप्त की जाती है।


बायोमास उर्जा पर राष्ट्रीय कार्यक्रम का उद्देश्य विविध प्रकार की बायोमास सामग्री का अधिकतम उपयोग करना है। इसमें वन और कृषि उद्योग आधारित अवशिष्ट, उर्जा समर्पित वृक्षारोपण के अतिरिक्त दक्ष और आधुनिक तकनीकी परिवर्तन के माध्यम से वन और कृषि अवशिष्टों से ऊर्जा उत्पादन शामिल है। इसमें दहन एवं गैसीकरण तकनीक शामिल हैं। इसके लिए बने संयंत्रों में गेस/भाप टरबाइन, दोहरा ईधन इंजन या इनका मिश्रण, जिनका उपयोग केवल बिजली उत्पादन या ऊर्जा के एक से अधिक प्रकारों के सह-उत्पादन के लिए कैप्टिव उपयोग या ग्रिड बेचने के लिए किया जाता है। ये अक्षय हैं, व्यापक रूप से उपलब्ध हैं तथा कार्बन तटस्थ हैं और साथ ही साथ इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचुर उत्पादनकारी रोजगार देने की क्षमता भी है।


एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक विश्व की प्राथमिक ऊर्जा उपयोग का 15-50% बायोमास से प्राप्त हो सकता है। गौरतलब है कि इस समय विश्व की प्राथमिक ऊर्जा का लगभग 11 प्रतिशत बायोमास द्वारा ही पूरा होता है। परंतु ये ईंधन अधिक ऊष्मा उत्पन्न नहीं करते एवं इन्हें जलाने पर अत्यधिक धुआं निकलता है इसलिए इसे प्रोन्नत करने हेतु प्रौद्योगिकी की जरूरत है। भारत में, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा बायोमास क उत्पादनकारी उपयोग के लिए तीन मुख्य प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा दिया जा रहा है, वे हैं-चीनी मिलों में खोई आधारित सह-उत्पादन, बायोमास विद्युत् उत्पादन तथा तापीय एवं विद्युतीय अनुप्रयोगों के लिए बायोमास गैसीकरण। पूरे विश्व में चीनी उद्योग में पारंपरिक रूप से खोई आधारित सह-उत्पादन का उपयोग भाप में आत्म-संपन्नता प्राप्त करने के लिए किया जाता है एवं बिजली के उत्पादन एवं परिचालन की किफायती बनाने के लिए किया जाता है। भारत आज विश्व में चीनी मिलों में आधुनिक सह-उत्पादन परियोजना को लागू करने वाला सबसे अग्रणी देश है। भारत अपने कृषि, कृषि आधारित उद्योग एवं वानिकी प्रचालन के द्वारा प्रचुर मात्र में बायोमास सामग्री का उत्पादन करता है।

जैव ईंधन

जैव ईंधन मुख्यतः सम्मिलित बायोमास से उत्पन्न होता है अथवा कृषि या खाद्य उत्पाद या खाना बनाने और वनस्पति तेलों के उत्पादन की प्रक्रिया से उत्पन्न अवशेष और औद्योगिक संसाधन के उप-उत्पाद से उत्पन्न होता है। जैव ईंधन में किसी प्रकार का पेट्रोलियम पदार्थ नहीं होता है किंतु इसे किसी भी स्तर पर पेट्रोलियम ईंधन के साथ जैव ईंधन का रूप भी दिया जा सकता है। इसका उपयोग परंपरागत निवारक उपकरण या डीजल इंजन में बिना प्रमुख संशोधनों के साथ उपयोग किया जा सकता है। जैव ईंधन का प्रयोग सरल है, यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला सल्फर तथा गंध से पूर्णतया मुक्त है।


इथेनॉल, का प्रयोग मुख्य रूप से रसायन उद्योगों, दवा क्षेत्र में कच्चे माल के तौर पर होता है। जटरोफा कुरकास, करंज, होग इत्यादि अन्य खाद्य एवं गैर-खाद्य शक्तिशाली जैव ईंधन हैं। ग्यारहवीं योजना के दौरान भारत सरकार ने प्रथम चरण में 4,00,000 हेक्टेयर पर जट्रोफा की खेती का विचार किया और दूसरे चरण में 2.5 मिलियन हेक्टेयर पर इसकी खेती करने की रणनीति बनाई जिससे वाहन ईंधन की बढ़ती आवश्यकता को पूरा किया जा सके।


जैव ईंधन ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है जिसका देश के कुल ईंधन उपयोग में एक-तिहाई योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत लगभग 90 प्रतिशत है। जैव ईधन का व्यापक उपयोग खाना बनाने और उष्णता प्राप्त करने में किया जाता है। उपयोग किये जाने वाले जैव ईंधन में शामिल हैं- कृषि अवशेष, लकड़ी, कोयला और सूखे गोबर जेट्रोफा इत्यादि। यह स्थानीय रूप से उपलब्ध होता है। जीवाश्म ईंधन की तुलना में यह एक स्वच्छ ईधन है। एक प्रकार से जैव ईंधन, कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर हमारे परिवेश को भी स्वच्छ रखता है। इसके अतिरिक्त इसमें कुछ समस्याएं भी आती हैं जैसे- ईंधन को एकत्रित करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। खाना बनाते समय और घर में रोशनदानी (वेंटीलेशन) नहीं होने के कारण गोबर से बनी ईंधन वातावरण को प्रदूषित करती है जिससे स्वास्थ्य गंभीर रूप से प्रभावित होता है। जैव ईंधन के लगातार और पर्याप्त रूप से उपयोग न करने के कारण वनस्पति का नुकसान होता है जिसके चलते पर्यावरण के स्तर में गिरावट आती है।





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Comments Shivam on 07-10-2020

Bharat Bharat ke manchitra per ab ke unke Karan wale 4 rajyon ke chitran Karen





तितली par nibandh गुप्त साम्राज्य का पतन प्रकाश का वर्ण विक्षेपण भारत में निम्नलिखित में कौन - सा दबाव समूह की भूमिका निभाता है - उत्तरी ध्रुव किसने खोजा मो. युनूस ने किस पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया ? बंटाने जलाशय योजना किन दो राज्य की संयुक्त सिंचाई परियोजना है ? किशनगंज जहाँ सर्वाधिक औसत वर्षा होती है, बिहार के किस प्रादेशिक प्रदेश में पड़ता है ? आयरन एंड स्टील इंडस्ट्री इन इंडिया इन हिंदी आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय भारत में प्रथम खनिज नीति कब घोषित हुई - अपभ्रंश भाषा का विकास भारतीय संविधान में प्रदत मूलभूत अधिकारों को निलंबित करने वाली सत्ता है - निम्नलिखित में से कौन - सा कथन सत्य है - चमगादड़ को घर से कैसे भगाएं कृषि उपकरण सब्सिडी राजस्थान राज्य के पूर्वी मैदानी भौतिक भाग में वर्षा का वार्षिक औसत हैं - वीर हनुमान मंदिर jaipur rajasthan ब्रिटिश सरकार भारतीयों केा आधुनिक शिक्षा देना चाहती थी , इसमें उनका उद्देश्य क्या था ? एण्डीज पर्वत उदाहरण है -

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