मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार और भारत सरकार अधिनियम, 1919
अगस्त घोषेणा के पश्चात् मांटेग्यू के साथ एक उच्चस्तरीय दल स्थिति का अध्ययन करने भारत आया। दल के अध्ययन के आधार पर जुलाई 1918 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। यह रिपोर्ट 1919 के भारत सरकार अधिनियम (Government of India Act of 1919) का आधार बनी। इसी के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 1919 में भारत के औपनिवेशिक प्रशासन के लिये नया विधान बनाया जो 1921 में क्रियान्वित किया गया। 1919 का अधिनियम भारत के विकास में एक दौर का सूचक था, जिसकी विशेषता थी ‘उत्तरदायी शासन की प्रगति'।
भारत सरकार अधिनियम 1919 बनाने के लिये उत्तरदायी कारक
- भारतीय परिषद अधिनियम 1909 से कांग्रेस के नरमदल के सदस्य संतुष्ट नहीं हुए थे।
- प्रथम महायुद्ध में भारतीयों ने अंग्रेजी सरकार को पूर्ण सहयोग दिया था फलतः युद्धोपरांत उन्हें ऐसे किसी अधिनियम की आशा थी।
- कांग्रेस-लीग समझौता।
- भारतीयों द्वारा स्वशासन की तीव्र मांग।
- लार्ड माटेग्यू जैसे उदार व्यक्ति का भारत सचिव पद पर नियुक्त होना, इत्यादि।
इस अधिनियम के पारित होने के समय मांटेग्यू भारत सचिव तथा चेम्सफोर्ड वायसराय थे, इसीलिये इस अधिनियम को ‘मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार' या मांटफोर्ड सुधार भी कहते हैं। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार की मुख्य धारायें इस प्रकार थीं-
प्रांतीय सरकार- द्वैध शासन प्रणाली की शुरुआत
कार्यपालिका
द्वैध शासन प्रणाली- वर्ष 1919 के अधिनियम की सबसे मुख्य विशेषता थी, प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिये द्वैध शासन व्यवस्था की शुरूआत। इस प्रणाली के जन्मदाता सर लियोनिल कॉटिश थे, जिन्होंने सर भूपेन्द्र नाथ बसु के लिये एक सत्र में इस व्यवस्था का स्पष्टीकरण किया था।
- इस व्यवस्था को लार्ड मांटेग्यू तथा चैम्सफोर्ड ने अपना कर प्रांतीय सरकारों में पूर्ण स्थान दिया। इस प्रणाली के आधार पर प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद को दो भागों में विभक्त किया गया। पहले भाग में गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी के सदस्य तथा दूसरे भाग में गवर्नर तथा उसके मंत्रीगण थे।
- प्रांतीय विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया- (क) आरक्षित विषय तथा (ख) हस्तांतरित विषय। आरक्षित विषयों में सभी महत्वपूर्ण विषय जैसे- कानून एवं व्यवस्था, वित्त, भू-राजस्व, सिंचाई, खनिज संसाधन इत्यादि सम्मिलित थे तथा हस्तांतरित विषयों में- शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय प्रशासन, उद्योग, कृषि तथा आबकारी इत्यादि सम्मिलित थे। आरक्षित विषयों का शासन गवर्नर अपनी कार्यकारी परिषद की सलाह से तथा हस्तांतरित विषयों का भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था।
- मंत्री, व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी थे तथा यदि व्यवस्थापिका उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दे, तो उन्हें त्यागपत्र देना पड़ता था। जबकि गवर्नर की कार्यकारी-परिषद के सदस्य व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे।
- प्रांतों में संविधानिक तंत्र के विफल होने पर गवर्नर राज्य के प्रशासन एवं हस्तांतरित विषयों का दायित्व अपने ऊपर ले सकता था।
- भारत सचिव तथा गवर्नर-जनरल आवश्यकता पड़ने पर ‘आरक्षित विषयों' में हस्तक्षेप कर सकते थे, किन्तु हस्तांतरित विषयों में उन्हें हस्तक्षेप करने की शक्ति नहीं थी।
व्यवस्थापिका
- प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या में बहुत वृद्धि कर दी गयी। इन सदस्यों में 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होते थे।
- मताधिकार में वृद्धि कर दी गयी तथा साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का और ज्यादा विस्तार कर दिया गया।
- महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया।
- प्रांतीय व्यवस्थापिका सभायें किसी भी प्रस्ताव को प्रस्तुत कर सकती थीं, किन्तु उसे पारित होने के लिये गवर्नर की सहमति अनिवार्य थी। गवर्नर को प्रस्तावों को अस्वीकार करने तथा अध्यादेश जारी करने का अधिकार था।
- व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्य बजट को अस्वीकार कर सकते थे, किन्तु गवर्नर आवश्यक समझे तो सदस्यों की अनुमति के बिना भी उसे पास कर सकता था।
- सदस्यों को बोलने का अधिकार तथा स्वतंत्रता थी।
- प्रांतीय परिषदों को अब विधान परिषदों की संज्ञा दी गई।
केंद्रीय सरकार-अनुत्तरदायी शासन की व्यवस्था यथावत
कार्यपालिका
- गवर्नर-जनरल मुख्य कार्यपालिका अधिकारी था।
- सभी विषयों को दो भागों में बांटा गया- (क) केंद्रीय एवं (ख) प्रांतीय।
- गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में 3 भारतीय नियुक्त किये गये और उन्हें विधि, शिक्षा, श्रम, स्वास्थ्य तथा उद्योग विभाग सौंप दिए गए।
- प्रांतों के आरक्षित विषयों में गवर्नर-जनरल को पूर्ण अधिकार प्राप्त था।
- गवर्नर-जनरल को मांगों (grants) पर कटौती का अधिकार था। साथ ही वह केंद्रीय व्यवस्थापिका द्वारा अस्वीकार किये गये प्रस्तावों को पारित कर अध्यादेश जारी कर सकता था।
व्यवस्थापिका
- केंद्रीय व्यवस्थापिका को द्विसदनीय संस्था बना दिया गया- (क) केंद्रीय विधान सभा तथा (ख) राज्य परिषद।
- केंद्रीय विधान सभा निम्न सदन थी तथा राज्य परिषद उच्च सदन। केंद्रीय विधान सभा की सदस्य संख्या 145 थी, जिसमें 104 निर्वाचित तथा 41 मनोनीत किये जाने की व्यवस्था थी। 104 निर्वाचित सदस्यों में से- 52 सामान्य, 30 मुसलमान, 2 सिख तथा 20 विशेष सदस्य थे। जबकि उच्च सदन या राज्य परिषद की सदस्य संख्या 60 थी, जिसमें 26 मनोनीत एवं 34 निर्वाचित थे। 34 निर्वाचित सदस्यो में 20 सामान्य, 10 मुसलमान, 3 यूरोपीय और 1 सिख था।
- राज्य परिषद् का कार्यकाल 5 वर्ष था तथा केवल पुरुष (Male) ही इसके सदस्य बन सकते थे, जबकि केंद्रीय विधान सभा का कार्यकाल 3 वर्ष था परंतु गवर्नर-जनरल की इच्छा पर बढ़ाया भी जा सकता था।
- सदस्य प्रश्न पूछ सकते थे, अनुपूरक मांगे प्रस्तुत कर सकते थे, स्थगन प्रस्ताव ला सकते थे तथा बजट को अस्वीकार कर सकते थे। किंतु अभी भी बजट का 75 प्रतिशत हिस्सा सदस्यों की सहमति के बिना भी पारित किया जा सकता था।
- कुछ भारतीय सदस्यों को सरकार की स्थायी समितियों, जैसे-वित्त समिति अथवा सार्वजनिक लेखा समिति में नियुक्त किया गया।
भारत सरकार अधिनियम 1919 का मूल्यांकन
महत्व
- भारत सरकार अधिनियम 1919 का भारत के सांविधानिक विकास के इतिह्रास में महत्वपूर्ण स्थान है। उसने प्रांतीय विधान सभाओं के सदस्यों के लिये पहली बार बड़े पैमाने पर व्यवस्था की। इस व्यवस्था से देश के मतदाताओं में मत देने की व्यावहारिक समझ विकसित हुई।
- इसने भारत में प्रांतीय स्वशासन तथा आशिक रूप से ही सही उत्तरदायी शासन प्रणाली की व्यवस्था की।
- अधिनियम ने केंद्र में द्विसदनीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था की।
- केंद्र में कार्यकारी परिषद में भारतीयों को पहले से तिगुना प्रतिनिधित्व दिया गया।
- भारत मंत्री के वेतन एवं भत्तों को भारतीय राजस्व के स्थान पर ब्रिटिश राजस्व से दिया जाने लगा।
- एक नये पदाधिकारी भारतीय उच्चायुक्त की नियुक्ति की गयी।
दोष
इस अधिनियम की अनेक कमियां या दोष थे, जो इस प्रकार हैं-
- मताधिकार बहुत सीमित था।
- केंद्र में, सदस्यों का गवर्नर-जनरल एवं उसकी कार्यकारिणी परिषद पर कोई नियंत्रण नहीं था।
- केंद्र में, विषयों का विभाजन संतोषजनक नहीं था।
- केंद्रीय व्यवस्थापिका के लिये प्रांतों के मध्य सीटों का बंटवारा ‘प्रांतों के महत्व' पर आधरित था। जैसे- पंजाब का सैनिक महत्व एवं बम्बई का वाणिज्यिक महत्व।
- प्रांतीय स्तर पर प्रशासन का दी स्वतंत्र भागों में बंटवारा-राजनीति के सिद्धांत तथा व्यवहार के विरुद्ध था। विषयों का आरक्षित तथा हस्तांतरित होना भी अव्यवहारिक था।
- प्रांतीय मंत्रियों का वित्त (Finance) एवं नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं था। इससे कालांतर में दोनों के मध्य टकराव बढ़ गया। नौकरशाही, मंत्रियों की अवहेलना भी करता था तथा महत्वपूर्ण विषयों पर मंत्रियों से मंत्रणा नहीं की जाती थी। यथार्थ में मंत्रियों पर गवर्नर का पूर्ण नियंत्रण था।
- संयुक्त उत्तरदायित्व का पूर्ण अभाव था।
अधिनियम के संबंध में कांग्रेस की प्रतिक्रिया
1918 में बम्बई में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हसन इमाम की अध्यक्षता में आयोजित किया गया, जिसमें 1919 के भारत सरकार अधिनियम को निराशाजनकएवंअसंतोषकारी घोषित किया गया। अधिवेशन में कांग्रेसियों ने प्रभावी स्व-शासन की मांग की।
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रौलेट एक्ट Rowlatt Act
1919 का वर्ष भारत के लिये अत्यन्त सोच एवं असंतोष का वर्ष था। देश में फैल रही राष्ट्रीयता की भावना तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुलचने के लिये ब्रिटेन को पुनः शक्ति की आवश्यकता थी क्योंकि भारत के रक्षा अधिनियम की शक्ति समाप्त प्राय थी।
इसी संदर्भ में सरकार ने सर सिडनी रौलेट (Sidney Rowlatt) की नियुक्ति की, जिन्हें इस बात की जांच करनी थी कि भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने वाले लोग कहां तक फैले हुये हैं और उनसे निपटने के लिये किस प्रकार के कानूनों की आवश्यकता है। इस संबंध में सर सिडनी रौलेट की समिति ने जो सिफारिशें कीं उन्हें ही रौलेट अधिनियम या रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है।
इस एक्ट के अंतर्गत एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गयी, जिसमें उच्च न्यायालय के तीन वकील थे। यह न्यायालय ऐसे साक्ष्यों को मान्य कर सकता था, जो विधि के अंतर्गत मान्य नहीं थे। इसके निर्णय के विरुद्ध कहीं भी अपील नहीं की जा सकती थी। न्यायालय द्वारा बनाये गये नियम के अनुसार, प्रांतीय सरकारों को बिना वारंट के तलाशी, गिरफ्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने आदि की असाधारण शक्तियां दे दी गयीं। युद्ध काल में तो यह विधेयक उचित माना जा सकता था किंतु शांतिकाल में यह पूर्णतया अनुचित था। भारतवासियों ने इस विधेयक को काला कानून कहा तथा इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।