ANCIENT JAT HISTORY
5000–JATS vs 60,000–rajputs जाट-राजपुत
Posted on July 9, 2017 by ANCIENT JAT/GETAE HISTORY
–अपने ही घर मे मुट्ठी भर जाट सैनिकों से हार गए थे राजस्थान के सारे बड़े राजघराने,1767 की बात है जब पूरे राजस्थान में जाट महाराजा जवाहर सिंह की तूती बोलती थी,जाट महाराजा जवाहर सिंह का राज्य उनके पिता सूरजमल जाट से बड़ा हो चुका था,दिल्ली विजय ,राजपूतो ओर मुघलो से परगने जीत कर अब जवाहर सिंह ने साबित कर दिया था कि उत्तर भारत मे उन जैसा कोई वीर नही,पर महाराज की राठोरो से दोस्ती थी पश्चिम राजस्थान के राठौर उनसे जब मिलते तो पगड़ी बदलते थे महाराज ने कभी ये नही सोचा था कि एक जाट राजा को धोखे से मारने के लिए पूरे राजस्थान की 8 राजपूत जातियां मिलकर षड्यंत्र रच रही थी,महाराज को ये नही पता था कि हर राठौर या हर राजपूत जयचंद होता है इन काले पीले अनार्य कुत्तो पर कभी कभी यकीन नही किया जा सकता ये सिर्फ पीठ पीछे ही वार करते है,राठौर ने शक्ति प्रदर्शन के लिए महाराज को राजपुताना में घूमने के लिए कहा और साथ मे महाराज माता किशोरी जी को भी साथ ले आये ताकि वो पुष्कर स्नान कर सके और जाट वंश की ताकत भी देख सके,साथ मे प्रताप सिंह नरुका नाम का राजपूत भी था जिसे महाराज ने शरण दे रखी थी ये प्रताप सिंह नरुका आधे राजपुताना का दुश्मन था पर किसी की हिम्मत नही हुई कि महाराज से नरुका को मांग ले,बाद में यही प्रताप सिंह आस्तीन का सांप निकला ओर अपना गंदा रंडपुटी खून दिखाया-
1767 में 5 हज़ार का एक जत्था लेकर महाराज जयपुर में ढोल बाजे के साथ घुसे किसी की हिम्मत नही हुई बस राजपूत उन्हें देखते ही रहे चूड़ियां पहन कर–आगे पढ़िए-
—मांवडा-मंढोली युद्ध:ठाकुर देशराज के इतिहास में
ठाकुर देशराज[6] लिखते हैं कि भारतेन्दु जवाहरसिंह ने पुष्कर स्नान के उद्देश्य से सेनासहित यात्रा शुरू की। प्रतापसिंह भी महाराज के साथ था। जाट-सैनिकों के हाथ में बसन्ती झण्डे फहरा रहे थे। जयपुर नरेश के इन जाटवीरों की यात्रा का समाचार सुन कान खड़े हो गए। वह घबड़ा-सा गया। हालांकि जवाहरसिंह इस समय किसी ऐसे इरादे में नहीं गए थे, पर यात्रा की शाही ढंग से। जयपुर नरेश या किसी अन्य ने उनके साथ कोई छेड़-छाड़ नही की और वह गाजे-बाजे के साथ निश्चित स्थान पर पहुंच गए।
स्नान-ध्यान करने के पश्चात् भी महाराज कुछ दिन वहां रहे। राजा विजयसिंह से उनकी मित्रता हुई। इधर महाराज के जाते ही राजपूत सामंतो में तूफान-सा मच गया। उधर के शासित जाट और इस शासक जाट राजा को वे एक दृष्टि से देखने
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-656
लगे। इस क्षुद्र विचार के उत्पन्न होते ही सामंतों का संतुलन बिगड़ गया और वे झुण्ड जयपुर नरेश के पास पहुंचकर उन्हें उकसाने लगे। परन्तु जाट सैनिकों से जिन्हें कि उन्होंने जाते देख लिया था, उनकी वीरता और अधिक तादात को देखकर, आमने-सामने का युद्ध करने की इनकी हिम्मत न पड़ती थी।
जवाहरसिंह को अपनी बहादुर कौम के साथ लगाव था, उसकी यात्रा का एकमात्र उद्देश्य पुष्कर-स्नान ही नहीं था, वरन् वहां की जाट-जनता की हालत को देखना भी था। उनको मालूम हुआ कि तौरावाटी (जयपुर का एक प्रान्त) में अधिक संख्या जाट निवास करते हैं तो उधर वापस लौटने का निश्चय किया। राजपूतों ने लौटते समय उन पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी। यहां तक कि जो निराश्रित प्रतापसिंह भागकर भरतपुर राज की शरण में गया था और उन्होंने आश्रय ही नहीं, कई वर्ष तक अपने यहां सकुशल और सुरक्षित रखा था, षड्यन्त्र में शामिल हो गया। उसने महाराज की ताकत का सारा भेद दे दिया। राजपूत तंग रास्ते, नाले वगैरह में महाराज जवाहरसिंह के पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे। वे ऐसा अवसर देख रहे थे कि जाट वीर एक-दूसरे से अलग होकर दो-तीन भागों में दिखलाई पड़ें तभी उन पर आक्रमण कर दिया जाए।
तारीख 14 दिसम्बर 1767 को महाराज जवाहरसिंह एक तंग रास्ते और नाले में से निकले। स्वभावतः ही ऐसे स्थान पर एक साथ बहुत कम सैनिक चल सकते हैं। ऐसी हालत में वैसे ही जाट एक लम्बी कतार में जा रहे थे। सामान वगैरह दो-तीन मील आगे निकल चुका था। आमने-सामने के डर से युद्ध न करने वाले राजपूतों ने इसी समय धावा बोल दिया। विश्वास-घातक प्रतापसिंह पहले ही महाराज जवाहरसिंह का साथ छोड़कर चल दिया था। घमासान युद्ध हुआ। जाट वीरों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया और युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर टूट पड़े। जयपुर नरेश ने भी अपमान से क्रोध में भरकर राजपूत सरदारों को एकत्रित किया। जयपुर के जागीरदार राजपूतों के 10 वर्ष के बालक को छोड़कर सभी इस युद्ध में शामिल हुए थे। सब सरदार छिन्न-भिन्न रास्ते जाते हुए जाट-सैनिकों पर पिल पड़े। जाट सैनिकों ने भी घिर कर युद्ध के इस आह्नान को स्वीकार किया और घमासान युद्ध छेड़ दिया। आक्रमणकारियों की पैदल सेना और तोपखाना बहुत कम रफ्तार से चलते थे। जाट-सैनिकों ने इसका फायदा उठाया और घाटी में घुसे। करीब मध्यान्ह के दोनों सेनाएं अच्छी तरह भिड़ीं। इस समय महाराज जवाहरसिंह जी की ओर से मैडिक और समरू की सेनाओं ने बड़ी वीरता और चतुराई से युद्ध किया। जाट-सैनिकों ने जयपुर के राजा को परास्त किया। परन्तु जाटों की ओर से सेना संगठित और संचालित होकर युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित न होने के कारण इस लड़ाई मे महाराज जवाहरसिंह को सफलता नहीं मिली। लेकिन वह स्वयं सदा की भांति असाधारण वीरता और जोश के साथ अंधेरा होने तक युद्ध करते रहे।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-657
जयपुर सेना का प्रधान सेनापति दलेलसिंह, अपनी तीन पीढ़ियों के साथ मारा गया। यद्यपि इस युद्ध में महाराज को विजय न मिली और हानि भी बहुत उठानी पड़ी, परन्तु साथ ही शत्रु का भी कम नुकसान नहीं हुआ। कहते हैं युद्ध में आए हुए करीब करीब समस्त जागीरदार काम आये और उनके पीछे जो 8-10 साल के बालक बच रहे थे, वे वंश चलाने के लिए शेष रहे थे।
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Ye baat kabki lode
Jara ja ke dekh yudh me top ka parthm
Pryog babar ne kiya tha
Lode
Teri ma kichut
Ye galat jankari he