बस से उतरने के बाद मैंने सामने दिखायी दे रही सड़क की ओर चलना शुरु कर दिया। यह सड़क 200-300 बाद चिल्का झील किनारे जाकर समाप्त हो जाती है जहाँ यह सड़क समाप्त होती है ठीक वही से चिल्का के अन्दर बने टापुओं तक तक आने-जाने के एकमात्र साधान बडी व छोटी मोटर बोट चलनी आरम्भ होती है। जिस समय मैं किनारे पर पहुँचा था ठीक उसी समय बड़ी नाव चिल्का के किसी टापू पर जाने के लिये तैयार खड़ी थी मेरे नाव में चढ़ते ही नाव का सायरन बज गया। नाव वालों ने नाव का लंगर उठा दिया और नाव चिल्का झील में स्थित किसी टापू की सैर कराने के लिये रवाना हो गयी। नाव में चढ़ने से पहले ही मुझे बस में पास बैठी सवारियों से काफ़ी जानकारी मिल चुकी थी। बड़ी नाव में किसी टापू तक जाने का भाड़ा मात्र 6 रुपये ही था। जबकि जिस टापू तक हम जा रहे थे उसकी दूरी ही कम से कम 8 किमी के आसपास तो रही होगी। बड़ी नाव शुरु में तो थोड़ी धीमे-धीमे चली लेकिन उसके बाद नाव ने तेजी से चलते हुए अपनी यात्रा जारी रखी।
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वो दूर उस टापू पर जाना है? |
धीरे-धीरे किनारा दूर होता चला गया। मोटर बोट या स्टीमर पता नहीं उसका नाम क्या था? मैंने इससे पहले समुन्द्र में कई यात्रा की है। जैसे कन्याकुमारी विवेकानन्द स्मारक, ओखा में भेंट द्धारका। जैसे-जैसे नाव किनारे से दूर होती जा रही थी वैसे ही समुन्द्री यात्रा करने का अहसास होता जा रहा था। यहाँ चिल्का झील में कई लोग छोटी नाव से मछलियाँ पकड़ रहे थे। उनके पास नाव चलाने के चप्पू थे। जिससे वे अपनी नाव चला रहे थे। झील में हमारी नाव एक तय मार्ग से होकर आगे बढ़ रही थी। जिससे मुझे लगा कि झील में पानी की मात्रा बहुत ज्यादा नहीं है पानी की गहराई कम होने से बड़ी नाव को एक खास मार्ग से निकालना पड़ता है नहीं तो पानी के अन्दर जमीन में जाकर नाव धँसने की आशंका हो जाती है। बीच-बीच में दो-तीन जगह जमीन का कुछ हिस्सा पानी से बाहर झांकता भी दिखायी दे जाता था।
टापू की ओर जाते समय एक छॊटी सी नाव दिखायी दी जो हमारी नाव के एकदम करीब से होकर गयी थी। यह नाव सामने की दिशा से आ रही थी। इस छोटी नाव पर बहुत सारी बाइक लदी हुई थी। इतनी छोटी सी नाव पर इतना वजन देखकर मेरे मन में नाव डूबने की कई घटनाएँ याद हो आयी। ऐसी ही एक घटना अपने घुमक्कड़ साथी मनु त्यागी के साथ गंगासागर में घट चुकी है। नाव में खड़े-खड़े कब 45 मिनट बीते पता ही नहीं लगा। मात्र 45 मिनट की यात्रा थी जो जल्द ही समाप्त हो गयी। दूसरा किनारा आ गया। कहन को चिल्का एक झील है लेकिन यह इतनी विशाल है कि देखकर लगता है किसी समुन्द्री टापू पर आ गये हो। टापू पर आने के बाद नाव के लंगर डालते ही लोगों ने नाव से उतरना शुरु कर दिया। मैंने भी नाव से उतरकर टापू पर कुछ दूर तक टहलकर आने की सोची। नाव वाले उस बन्दे से जिसने पैसे लिये थे पहले ही पता कर लिया था कि यह नाव एक घन्टा रुकने के बाद वापिस जायेगी। इस तरह कुल मिलाकर एक घन्टा मेरे पास था जिसे मैं यहाँ घूमकर बिता सकता था।
बड़ी नाव में अबकी बार ट्रक भी लद कर जाने वाले थे जब हम नाव से उतर बाहर टापू पर आ रहे थे तो वही एक बड़ा ट्रक व छोटी गाडियाँ वहाँ खड़े हुए थे। उन्होंने अपने वाहन नाव में लादने शुरु कर दिये। मैंने टापू की ओर चलना शुरु किया। टापू किनारे चिल्का इस टापू की संख्या लिखी हुई थी। जिसे देखने पर पता लगता है कि चिल्का में तो सैकडो टापू है। जिस टापू पर हम गये थे इसकी संख्या 229 है। यह संख्या टापू की है या कुछ निश्चित स्थानों इसके बारे में मुझे नहीं पता। किनारे पर एक दुकान थी वहाँ काफ़ी लोग बैठे हुए थे। थोड़ी देर आसपास घूमने के बाद मैं वापिस नाव के पास आ गया। क्या पता नाव जल्दी भर जाये और निकल जाये तो यहाँ से 7-8 किमी दूर पानी में पार जाना मुसीबत हो जायेगा। जब मैं वापिस नाव के पास पहुँचा तो देखा कि नाव में सभी वाहन लद चुके है। आते समय नाव में काफ़ी जगह खाली थी जबकि अब खड़े होने के लिये स्थान तलाश करना पड़ा। वापसी की इस इस समुन्द्री यात्रा में दूसरे टापू भी मिलते गये। जिनके नजदीक से होते हुए हमारी नाव का आना-जाना हुआ था। अबकी बार भी उसी मार्ग से नाव का जाना हुआ जहाँ से होते हुए यहाँ आयी थी।
चिल्का अथवा चिलिका झील में समुन्द्री जल का प्रवाह दिखायी नहीं देता है। यह भारत की सबसे बड़ी और सम्भवत: विश्व में दूसरे नम्बर की झील है। लगभग एक हजार वर्ग किमी में फ़ैली हुई है। इस झील का ड़ील डौल लम्बाई लगभग 70 किमी व चौड़ाई लगभग 30 के करीब व इसकी औसत गहराई मात्र तीन मीटर बतायी गयी है। देखा जाये तो यह समुन्द्र का ही भाग है लेकिन महानदी जो मिट्टी अपने साथ बहाकर लाती है उसके कारण यह समुन्द्र से अलग हो गयी है इसलिये यह खारे पानी की छीछली झील बन गयी है। बताया जाता है कि दिसम्बर से जून तक इसका पानी खारापन लिये हुए होता है लेकिन बरसात होने के कारण इसके पानी में खारापन काफ़ी हद तक कम हो जाता है। इसमें मछलियों की लगभग 200 से भी ज्यादा प्रजाति पायी जाति है।
नाव से उतरने के बाद वापसी की यात्रा करने के लिये उसी जगह पहुँचा जहाँ बस ने उतारा था लेकिन वहाँ बस नहीं थी जो ट्रक हमारे साथ बड़ी नाव में इस पार आया था वह ट्रक बस स्टैन्ड़ की आता दिखायी दिया। मैंने सोचा कि चलो हाथ देकर देखता हूँ अगर इस ट्रक वाले ने बैठा लिया तो आगे की पुरी तक की यात्रा इस ट्रक से की जाये। मेरे हाथ देते ही ट्रक ने ट्रक रोक दिया। चालक उडिया भाषा में बोला था मुझे नहीं पता उसने क्या कहा था, जहाँ तक मेरा ख्याल है कि उसने यही कहा होगा कहाँ जाना है? जब मैंने कहा पुरी तो उसने हाथ के इशारे से ट्रक में बैठने को कहा। ट्रक के आगे से घूमते हुए मैं ट्रक के दूसरी ओर पहुँच गया। दरवाजा खोलकर सबसे पहले अपना बैग ट्रक में फ़ैंका उसके बाद अपने आप को ट्रक में चढ़ाया। मेरे अन्दर बैठने के बाद ट्रक पुरी की ओर चल दिया।
ट्रक की यात्रा करते समय इतना सुकून मिला था कि इसके सामने बस की यात्रा कुछ भी नहीं थी। ट्रक चालक बहुत अच्छा इन्सान था। पुरी आने तक कई जगह सवारियों ने हाथ दिये। ट्रक चालक हाथ देने वालों से पहले ही यह पूछता था कि कहाँ जाओगे उसके बाद नजदीक की सवारियाँ उसने बैठायी ही नहीं। बस में जाते समय बीच में ब्रहमगिरी नामक जगह आयी थी। इसके बारे में बहुत सुना था। यहाँ पर कुछ गुफ़ाएँ आदि होने के बारे जानकरी मिलती है लेकिन मेरी इच्छा इस यात्रा में गुफ़ा देखने की नहीं थी। अगले कुछ सालों सपरिवार यहाँ पुन: आगमन होगा तब इसे भी देखा जायेगा। इस यात्रा में तो पुरी से ही निपट लिया जाये। यहाँ से दो-तीन सवारियाँ अपने ट्रक में सवार हो गयी थी लेकिन उसने सिर्फ़ पुरी की सवारियाँ ही ट्रक में बैठायी थी। इन सवारियों के साथ मेरी काफ़ी बातचीत हुई जिससे पुरी तक की यात्रा कब समाप्त हुई ध्यान ही नहीं रहा।
जहाँ बस से इस चिल्का तक के सफ़र में तीन घन्टे लगे थे वही ट्रक ने मात्र सवा घन्टे में ही पुरी शहर में पहुँचा दिया था। जब ट्रक उस चौराहे पर पहुँचा जहाँ से भुवनेश्वर वाला मार्ग अलग होता है तो ट्रक में मेरे साथ बैठा एक अन्य बन्दा भी उस चौराहे पर ही ट्रक से उतर गया था। ट्रक से पुरी पहुँचकर कुछ दूर तक पैदल चलते रहे। लेकिन मेरे साथ वाले सज्जन के पास दो बैग थे जिस कारण उन्होंने एक पैड़ल रिक्शा कर लिया। पैड़ल रिक्शा वाले ने उस जगह से स्टेशन तक 20 रुपये किराया माँगा था। ट्रक से उतरने के बाद रिक्शा में बैठकर रथ यात्रा मार्ग पर पहुँचे। यहाँ रिक्शा से उतरने के बाद मैंने 10 रुपये देने चाहे तो उन सज्जन ने मना कर दिया कि आप तो बेवजह मेरे साथ बैठे हो, जबकि आपने मात्र 600-700 मीटर ही रिक्शा में यात्रा की है। वे रिक्शा में बैठ रथ यात्रा मार्ग पार कर किसी गली में घुस गये। जबकि मैं पुरी के बस अडड़े की ओर चल दिया।
पुरी के बस स्टैन्ड़ को सुबह तो देखा ही था इसलिये यहाँ पहुँचने में ज्यादा दिक्कत नहीं आयी। यहाँ से कोणार्क जाने वाली बस में बैठने का विचार आया क्योंकि कल तो मुझे वापसी पुरी से ही ट्रेन में बैठ क जाना ही था। सोचा चलो कोणार्क में सूर्योदय भी देख लिया जायेगा कि कैसा रहता है। एक बस में मैं बैठ कर कोणार्क के लिये निकल पड़ा। कोणार्क वाला मार्ग बस स्टैन्ड़ से आगे निकलते ही सीधा-सीधा चलते रहने पर आ जाता है यदि यहाँ से उल्टे हाथ मुड़ गये तो भुवनेश्वर जाने वाला मार्ग शुरु हो जाता है। कोणार्क वाले मार्ग पर आगे जाने पर वन्यजीव अभ्यारण के बोर्ड़ सड़क किनारे लगे हुए दिखायी देते है। मुझे इस अभ्यारण के बारे में जानकारी नहीं थी। बस ने डेढ़ दो घन्टे की यात्रा में कोणार्क पहुँचा दिया था। सबसे पहले रात्रि विश्राम के लिये कमरा तलाश करना था। लेकिन बस में साथ वाले यात्रियों ने बताया था कि शाम 05:30 मिनट पर कोणार्क में प्रवेश बन्द हो जाता है इसलिये सबसे पहले टिकट ले लेना। मैंने सबसे पहले टिकट लिया समय देखा मात्र 5 मिनट बचे थे। (यात्रा अभी जारी है)
Puri se chilka jheel ghum k waps aane me kitna time lg jata hai