भारत की वनसंपदा विशाल एवं विविधतापूर्ण है जो कि विभिन्न प्रकर के उद्योगों का समर्थन करने में सक्षम हैं। इन उद्योगों के बारे में विवरण नीचे दिया गया है।
कागज उद्योग
देश की प्रथम असफल कागज मिल 1832 में सेरामपुर (बंगाल) में स्थापित की गयी। बाद में, 1870 में बालीगंज (कोलकाता के निकट) में पुनः एक मिल की स्थापना की गयी। किंतु कागज उद्योग का नियोजित विकास स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही संभव हो सका।
कागज उद्योग हेतु बांस, गूदा, छीजन, सलाई व सबाई घास, व्यर्थ कागज इत्यादि कच्चे माल की जरूरत होती है। उद्योग की अवस्थिति कच्चे माल तथा कुछ सीमा तक बाजार द्वारा प्रभावित होती है।
1950 में, यहां 17 पेपर मिल थीं जिनकी वार्षिक उत्पादन क्षमता 1.6 लाख टन थी। वर्तमान में, देश में 515 कागज मिलें हैं जिनकी वार्षिक उत्पादन क्षमता लगभग 7.4 मिलियन टन है। देश में 112 न्यूजप्रिंट मिलें हैं जिनकी वार्षिक उत्पादन क्षमता लगभग 1.69 मिलियन टन है।
कागज उद्योग का एक महत्वपूर्ण पहलू है- लघु कागज मिलों की सशक्त उपस्थिति। ये कागज उद्योग की कुल क्षमता का 50 प्रतिशत रखते हैं और देश में पेपर और पेपरबोर्ड के उत्पादन में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान करते हैं।
वैश्विक स्तर पर भारत के कागज उद्योग को विश्व के 15 सर्वोच्च पेपर उद्योगों में दर्जा हासिल है।
अच्छी गुणवत्ता वाले सेल्यूलोजिक कच्चे माल की उपलब्धता की कमी और परम्परागत तकनीकी पेपर उद्योग की वृद्धि में मुख्य बाधाएं हैं।
पेपर उद्योग को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए मूलभूत आगतों की उच्च लागत और पर्यावरणीय मुद्दों जैसे दो मुख्य कारकों पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
भौगोलिक वितरण: कागज उद्योग का राज्यवार भौगोलिक वितरण इस प्रकार है-
अन्य राज्य हैं -उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडीशा, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात और केरल।
कागज उद्योग की समस्याएं
रबड़ उद्योग
प्राकृतिक एवं कृत्रिम रबड़ इस क्षेत्र में प्रयुक्त किये जाने वाले दो महत्वपूर्ण कच्चे माल हैं। प्राकृतिक रबड़ मुख्यतः दक्षिणी राज्यों- केरल (85 प्रतिशत), कर्नाटक व तमिलनाडु से प्राप्त की जाती है। अब प्राकृतिक रबड़ का उत्पादन उड़ीसा, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर राज्य तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह जैसे गैर-परम्परागत क्षेत्रों में भी किया जाने लगा है। कृत्रिम रबड़ की प्रथम फैक्टरी बरेली में स्थापित की गयी थी।
इस उद्योग का मुख्य संकेन्द्रण हुगली बेसिन तथा मुंबई की पश्चभूमि में है। राजस्थान व केरल में भी रबड़ उद्योग के कुछ केंद्र मौजूद हैं।
रबड़ उत्पादों में टायर, ट्यूब, जूते, जलरोधी पदार्थ व वस्तुएं, औद्योगिक व शल्य चिकित्सकीय दस्ताने, संप्रेषण पेटी इत्यादि शामिल हैं।
रबड़ का सामान बनाने का उद्योग लाइसेंस मुक्त उद्योग है। उद्योग द्वारा मुख्य उत्पादों में टायर एवं ट्यूब, सर्जिकल दस्ताने, वी- बेल्ट, हाँस पाइप, खेल का सामान इत्यादि शामिल हैं। साइकिल टायर एवं ट्यूब, कैनवास हॉस, रबड़ वाशर इत्यादि जैसे कई रबड़ सामानों विशेष रूप से लघु पैमाने के उद्योग क्षेत्रों के लिए आरक्षित हैं।
गौण वनोत्पादों का प्रयोग करने वाले लघु उद्योग
माचिस उद्योग: यह उद्योग अति आधुनिक कारखानों एवं विकेन्द्रित कुटीर उद्योग में विभाजित है। कागज, लकड़ी, बांस,अमोरफस फॉस्फोरस, पोटेशियम क्लोरेट इत्यादि इस उद्योग के मुख्य कच्चे पदार्थ हैं। इस उद्योग के मुख्य केंद्र शिवकाशी, सतूर, कोविलपत्ती (तमिलनाडु), त्रिचूर, परमपवार (केरल), हैदराबाद, वारंगल (आंध्र प्रदेश), बरेली, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), बिलासपुर, जबलपुर (छत्तीसगढ़) तथा कोटा (राजस्थान) इत्यादि हैं।
बेंत उद्योग: इसके अंतर्गत छड़ी, चटाई, टोकरी, फर्नीचर इत्यादि का निर्माण किया जाता है। इस उद्योग के प्रमुख केंद्र केरल, कर्नाटक, असम, अरुणाचल प्रदश, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा एवं जम्मू-कश्मीर में स्थित हैं।
तेंदू उद्योग: इस उद्योग में तेंदूपतों का प्रयोग बीड़ी निर्माण में किया जाता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान तथा महाराष्ट्र प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।
लाख उद्योग: लाख का उपयोग, चूड़ियां, दवाइयां, सौन्दर्य-प्रसाधन, ग्रामोफोन रिकॉर्ड, सीलिंग मोम, जलपोत, रेशमी छापे इत्यादि बनाने में किया जाता है। लाख के प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में छोटा नागपुर पठार, छत्तीसगढ़, प. बंगाल, महाराष्ट्र, ओडीशा, असम तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश शामिल हैं।
रेजिन: रेजिन उत्तर प्रदेश, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश में पाये जाने वाले खैर के वृक्षों से प्राप्त होता है। इसका प्रयोग रंग-रोगन, साबुन, वार्निश, तारपीन, औषधियों एवं चिपकाने वाले पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
औषधियां: ये एट्रोपा बेलाडोना, सिनकोना, जुनीपर, सर्पगंधा, मेंथा इत्यादि जड़ी-बूटियों से प्राप्त किये जाते हैं।
कुटीर उद्योग
कुटीर उद्योग लघु उद्योग का एक रूप है जहां श्रमिकों के घर में माल का उत्पादन होता है और इसमें कर्मचारी के परिवार के सदस्य शामिल होते हैं। उत्पादों के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले उपकरण प्रौद्योगिकीय रूप से उन्नत नहीं होते बल्कि इनका इस्तेमाल सामान्य रूप से घरों में किया जाता है।
आमतौर पर कुटीर उद्योग प्रकृति में असंगठित हैं। इकाइयां उत्पादन के पारंपरिक तरीकों का उपयोग करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इन उद्योगों को शुरू किया जाता है जहां बेरोजगार और रोजगार के अंतर्गत आने वाले श्रमिक दूर-दूर तक फैले हुए होते हैं। कुटीर उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों के शेष कार्य बल को बड़ी मात्रा में रोजगार प्रदान कर अर्थव्यवस्था की समृद्धि में सहायक होता है। हालांकि, कुटीर उद्योग को उत्पादों का बड़े पैमाने पर उत्पादक के रूप में नहीं माना जा सकता है।
भारत का कुटीर उद्योग क्षेत्र बड़ा और सुव्यवस्थित है। इस क्षेत्र में निर्मित उत्पादों में व्यावहारिक रूप से प्रत्येक राज्य और क्षेत्र स्वयं का एक विशेष उत्पाद रखता है। फर्नीचर उत्पाद, कांच से निर्मित सामान, आभूषण, खेल सामान, कालीन, बेंत, बांस और सरकण्डे की टोकरी, कशीदाकारी कपड़ा एवं वस्त्र तथा अन्य बहुत से मद हैं। लखनऊ चिकन काम और कश्मीरी शॉल अपनी कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध हैं।
कुटीर उद्योगों की समस्याएं
कुटीर उद्योगों के विकास में कई कारण बाधक रहे हैं जैसे पुरानी तकनीकी, कच्चे माल की अपर्याप्त व अनियमित पूर्ति, संगठित बाजार प्रणाली का अभाव, बाजार स्थिति के बारे में अपूर्ण जानकारी, कामकाज का असंगठित व अव्यवस्थित स्वरूप, साख की अपर्याप्त उपलब्धि, आदि। इन उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए जो विभिन्न एजेंसियां बनाई गई हैं उनमें परस्पर सहयोग व तालमेल का अभाव है। कुछ राजकोषीय नीतियों के परिणामस्वरूप इन उद्योगों की क्षमता का विखण्डन होकर अनार्थिक रूप से उत्पादन होने लगा है। इन सब कारकों की वजह से लागतें बढ़ी हैं जिससे घरेलू बाजार और निर्यात बाजारों में इन उद्योगों को बड़े उद्योगों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में कठिनाई आ रही है। सरकार को विशेष रूप से शुरुआत में कुटीर उद्योगों के विकास के लिए सब्सिडी प्रदान करनी चाहिए।
भारत में कुटीर उद्योग के लाभ के लिए कार्यरत संगठन
खादी और ग्रामीण उद्योग आयोग (केवीआईसी) भारत में कुटीर उद्योग के विकास और समर्थन दोनों का काम कर रहा है। अन्य प्रमुख संगठन केन्द्रीय रेशम बोर्ड, कॉयरबोर्ड, ऑल इण्डिया हैंडलूम बोर्ड और ऑल इण्डिया हैण्डीक्राफ्ट्स बोर्ड हैं तथा अन्य संगठन जैसे वन निगम और राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम हैं। ये संगठन भारत में कुटीर उद्योगों के सार्थक विस्तार में सहायता कर रहे हैं।
पर्यटन उद्योग
पर्यटन एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक क्रिया है। यह एक विशेष क्षेत्र में वृहद आर्थिक विकास के लिए संभावनाएं प्रदान करता है। ज़िफर (1989) के अनुसार- पर्यटन सापेक्षतः प्राकृतिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप अथवा उन्हें संदूषित किए बिना यातायात के साथ एक विशेष उद्देश्यपूर्ण ढंग से दृश्यों, जंगली पौधों तथा जानवरों और उस क्षेत्र में पाये जाने वाले परम्परागत पक्षों (पूर्व तथा वर्तमान) का अवलोकन है।
भारत में मंदिर, ऐतिहासिक स्मारक एवं समुद्र तट परम्परागत रूप से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। किंतु, अब पर्यटन प्रतिरूप में परिवर्तन आ रहा है। अब प्रकृति, धरोहर एवं कृत्रिम स्थलों को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में, पारिस्थितिकी पर्यटन देर से ही सही किंतु पर्यटकों के लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र बन गया है।
भारत में पर्यटन की जड़ें यहां स्थित तीर्थ स्थलों में देखी जा सकती है। प्रारंभिक चरणों में तीर्थ स्थल आधारित पर्यटन केवल घरेलू प्रकृति का था, लेकिन वर्तमान में बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटकों के इन तीर्थ स्थलों पर आने से पर्यटन में वृद्धि हुई है। भारत में पर्यटकों के लिए अनेक चयनित पर्यटन स्थल हैं। भारतीय उप-महाद्वीप के उत्तर में 3,500 किमी. लम्बी तथा 8,848 मीटर ऊंची हिमालय पर्वत श्रेणी स्थित है। भारत सांस्कृतिक विरासत के मामले में धनी है, उदाहरण के लिए स्थापत्य कला, गुफाएं इत्यादि। साथ ही भारत की स्थलाकृति वृहद जलवायविक विविधता, सुन्दर लम्बे समुद्र तट, बाह्य तंग घाटियां तथा उष्णकटिबंधीय वन आदि आकर्षण के प्रमुख केंद्र हैं। 2002 में भारत का अंतरराष्ट्रीय पर्यटन में 0.34 प्रतिशत का योगदान था, जो कि दसवीं योजना में बढ़कर 0.52 प्रतिशत हो गया। विश्व व्यापार एवं पर्यटन परिषद के अनुसार, आने वाले दशक में भारत पर्यटन के क्षेत्र में सर्वाधिक वृद्धि करने वाले केन्द्रों में से एक होगा। घरेलू पर्यटन स्थलों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थलों का भी तेजी से विकास हो रहा है। दसवीं पंचवर्षीय योजना में रोजगार की अपार संभावनाओं वाले क्षेत्र के रूप में तथा सामाजिक-आर्थिक उपलब्धियां प्राप्त करने में पर्यटन की भूमिका की पहचान की गई। पर्यटन देश का तीसरा सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा प्राप्त करने वाला उद्योग है। भारत में पर्यटन के क्षेत्र में अपार रोजगार सम्भावनाएं हैं। वर्ष 2015 तक पर्यटन के क्षेत्र में 25 मिलियन रोजगार की संभावना है।
भारत में पर्यटन स्थल का वर्गीकरण
भारत में पर्यटन के प्रसिद्ध स्थलों का भौगोलिक स्थिति, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक महत्व के आधार पर वर्गीकरण कर सकते हैं-
प्राकृतिक पर्यावरण पर पर्यटन का प्रभाव
भारत में पर्यावरणीय सुरक्षा के साथ आधुनिकतम विकास के साथ इसे पूरे वर्ष बनाये रखने के लिए संवैधानिक प्रावधान तथा पर्यावरणीय कानून बनाये गए हैं। फिर भी, पारिस्थितिकी-पर्यटन के नाम पर पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास हुआ है। इस निम्नीकरण के कारण पर्यटन विकास पर काफी दुष्प्रभाव पड़ा है, साथ ही इससे प्राकृतिक संसाधन इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं।
पर्यटन सम्बन्धी क्रिया-कलापों के कारण पर्यावरणीय अवनति किस प्रकार हुई, उसे निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में देखा जा सकता है-
इसलिए सतत्पारिस्थितिकी पर्यटन की आवश्यकता है जो पर्यावरण संरक्षण में मददगार होगी।
ईको-टूरिज्म
ईको-टूरिज्म शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1983 में हेक्टर सेबालोस-लेसकुरियन द्वारा किया गया था। और प्रारंभिक तौर पर शिक्षा पर बल देने के साथ पारस्परिक रूप से दुर्गम क्षेत्रों के प्रकृति आधारित यात्रा का वर्णन करने के लिए किया गया था। इस अवघारणा में धारणीय पर्यटन उत्पादों और गतिविधियों के नियोजन, प्रबंधन और विकास का वैज्ञानिक रूप से आधारित उपागम का विकास किया गया है। ईको-पर्यटन कुछ नहीं बस प्रकृति आधारित पर्यटन है। इसका तात्पर्य है कि जहां तक संभव हो पर्यावरण को कम से कम प्रभावित करके वन्य जीवों और प्राकृतिक अधिवासों के संरक्षण को बनाए रखने को प्रोत्साहित किया जाए।
यह मुख्य रूप से प्रकृति के कुछ दुर्गम पहलुओं के प्रत्यक्ष मनोरंजन से सम्बद्ध है। लेकिन इससे अपेक्षा की जाती है कि, इसे पारिस्थितिकीय रूप से जिम्मेदार होना चाहिए, इसे स्थान विशेष के अनुकूल होना चाहिए और इसके परिणामस्वरूप पर्यावरणीय क्षति नहीं होनी चाहिए। यह पर्यटन विकास का एक जिम्मेदार रूप है जोकि धारणीय पारिस्थितिकी विकास की एक चाबी भी है। ईको-टूरिज्म के साथ जुड़े क्षेत्र- ऐतिहासिक, जैवकीय और सांस्कृतिक संरक्षण, परिरक्षण और सतत विकास हैं। ईको-टूरिज्म स्थानीय संस्कृतियों, वन्यजीव जोखिम, वैयक्तिक विकास और नष्ट होने वाले हमारे ग्रहों पर जीवन के नए तरीके सीखने पर बल देता है। पेशेवर लोग प्राकृतिक पर्यावरण पर परम्परागत पर्यटन के प्रतिकूल प्रभावों को न्यूनतम करने और स्थानीय लोगों की सांस्कृतिक समन्वयता में वृद्धि करने के लिए कार्यक्रमों एवं नीतियों का विकास कर रहे हैं।
ईको-टूरिज्म पर्यटन उद्योग में तेजी से बढ़ता बाजार है। ईको-टूरिज्म प्रोजेक्ट को वित्त को आकर्षित करने और धारणीय बनने के क्रम में आर्थिक रूप से मजबूत होना चाहिए। यह देश के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने में मदद कर सकता है। लेकिनईको टूरिज्म, यदि इसका भली-भांति प्रबंधन नहीं किया जाता, संसाधनों, जिन पर यह टिका हुआ है, को नष्ट कर सकता है। लापरवाह तथा अज्ञानतापूर्ण पर्यटन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है।
भारत में ईको-पर्यटन के लिए विशेष स्थान: समस्त हिमालय ईको-पर्यटकों को उनकी इच्छाओं को तृप्त करने का एक खूबसूरत अवसर प्रदान करता है। जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, की पर्याप्त संभावनाएं हैं। ऊमानंदा (पीकॉक आइलैंड), काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान (एक सींग वाले गैडे के लिए प्रसिद्ध), मानस टाइगर प्रोजेक्ट, हेफ्लॉग (जटिंगा पहाड़ी में स्वास्थ्य रिजार्ट), माजुली (विश्व में सबसे बड़ा नदी द्वीप), सुआलकूची असम में कुछ प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हैं।
हिमाचल प्रदेश में, शिमला, कुल्लू मनाली, अम्बा और कसौली कुछ आकर्षित पर्यटक स्थल हैं। कश्मीर घाटी का उल्लेख पृथ्वी पर स्वर्ग के रूप में किया जाता है। चश्मशाही झरने,शालीमार बाग, डलझील, दाचीघाम, गुलमर्ग, पहलगाम और सोनमर्ग घाटी, जम्मू के समीप पटनीटॉप और लद्दाख में बौद्ध मॉन्सटरीज मुख्य पर्यटक स्थल हैं। मणिपुर को स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ प्राकृतिक सौंदर्य और दर्शनीय मनमोहन स्थलों का वरदान मिला हुआ है। राज्य में कांगला और लोकटक झील मुख्य पर्यटक केंद्र हैं। मेघालय में महत्वपूर्ण पर्यटक स्थलों में शिलांग, बार्ड झील और लेडी हायदरी पार्क शामिल हैं। आइजवाल, चम्फई रिजार्ट, टेमदिल झील मिजोरम राज्य के दर्शनीय और आकर्षित पर्यटक स्थल हैं। त्रिपुरा में अगरतला, जम्पुई पहाड़ी और नीरमहल मुख्य स्थल हैं। फूलों की घाटी, पिंडारी ग्लेशियर, मसूरी, देहरादून, नैनीताल और रानीखेत इत्यादि जैसे पहाड़ी दर्शनीय स्थल उत्तराखण्ड में महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल हैं।
उत्तर भारत के वृहद मैदान पश्चिम में राजस्थान के मरुस्थल से पूर्व में सुंदरबन तक फैले हैं। राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, चंडीगढ़, पश्चिम बंगाल में कई पर्यटक स्थल हैं। जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, सरिस्का टाइगर अभ्यारण्य (अलवर) और जैसलमेर राजस्थान में मुख्य आकर्षण के केंद्र हैं। पिंजोर गार्डन (पिंजौर) और चक्रवर्ती झील और ओएसिस (उचना) हरियाणा में प्रसिद्ध ईको पर्यटक स्थल हैं।
पठारी क्षेत्र में, यह टाइगर भूमि है तथा यहां पर कई बाघ संरक्षण राष्ट्रीय उद्यान हैं। छत्तीसगढ़ में, चित्रकूट प्रपात, तीरथगढ़ प्रपात, कैलाश गुफाएं, गुजरात में द्वारका, पोरंबदर, समुद्री बालू तट (अहमदपुर-मांडवी), उभारत, सतपुड़ा इत्यादि; झारखण्ड में, इच्छागढ़ पक्षी अभ्यारण्य, जवाहरलाल नेहरू जूलॉजिकल गार्डन (बोकारो), टाटा स्टील जूलॉजिकल पार्क (जमशेदपुर)इत्यादि, कर्नाटक में, वृंदावन गार्डन, नंदी हिल, जोग प्रपात इत्यादिः केरल में, कई सुंदर समुद्री तट और रिजार्ट, महाराष्ट्र में अजंता, एलोरा, एलिफेंटा कार्ला गुफा, महाबलेश्वर, पनहला पहाड़ी इत्यादि; ओडीशा में चिल्का झील, उदयगिरी आदि; और तमिलनाडु में, कन्याकुमारी, ऊटी, कोडाईकनाल मुख्य ईको पर्यटक आकर्षण हैं।
द्वीपों में दर्शनीय सौंदर्य है। अंडमान, एवं निकोबार द्वीप में टॉस द्वीप और कोरबिन केव समुद्री तटी मुख्य पर्यटक स्थलों में शामिल हैं। अंडमान उष्णकटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, मैंग्रोव-लाइन क्रीक और प्रवाल पर्यटकों को एक स्मरणीय अनुभव प्रदान करते हैं। लक्षद्वीप में द्वीपों का समूह जिनका उद्गम प्रवालों से हुआ है, पर्यटकों को अत्याधिक आकर्षित करते हैं।
पारिस्थितिकी-पर्यटन के लिए योजना
अनियोजित तथा अनियंत्रित पर्यटन में वृद्धि का निश्चित रूप से पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ा है। प्रमुख व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल अलग तरह की स्थितियों का सामना कर रहे हैं। ज्यादातर मूल सुंदरता तथा इसके प्रति आकर्षण अनियोजित निर्माण के कारण खत्म होते जा रहे हैं। पर्यटन क्षेत्र को प्रभावी बनाने के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारें नई योजनाओं के साथ आगे बढ़ रही हैं। अधिकांश प्रचलित पर्यटन स्थलों पर बहुत ही संवेदनशील पारिस्थितिकीय-पर्यावरणीय तंत्र है, अतः संरक्षण तथा उन्नयन के बीच संतुलन बनाना अनिवार्य होगा, जो पारिस्थितिकी व्यवस्था एवं पर्यटन अर्थव्यवस्था दोनों के दीर्घावधि स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के क्रम में धारणीय विकास होगा। सफलतम पर्यटन के लिए स्थानीय जनता को आर्थिक रूप से कुछ पारिश्रमिक देकर प्राकृतिक संसाधनों तथा उसके पाकर्षण को बनाए रखा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए एक नोडल एजेंसी बोर्ड गठित किया है,जो पर्यटन के अंतरतम क्षेत्रों के धारणीयविकास में योगदान देगा। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश सरकार धारणीय पर्यटन को आगे बढ़ी रही है तथा कुछ निजी क्षेत्रों की एजेंसियों को, इसकी अवसंरचना के विकास के लिए आमंत्रण दे रहा है। साथ ही हिमाचल सरकार इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित कर रही है कि इन क्रिया-कलापों से विद्यमान पारिस्थितिकी तंत्र तथा पर्यावरण को कोई नुकसान न पहुंचे। सिक्किम सरकार ने भी पर्यावरण के अनुकूल एवं तीर्थ यात्रा हेतु पर्यटन का समर्थन किया है तथा तद्नुसार, पर्यटकों को सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं ताकि वे सिक्किम की जीवनशैली एवं समृद्ध धरोहर से परिचित हो सकें। अंडमान था निकोबार द्वीप भी पारिस्थितिकी अनुकूल पर्यटन के लिए जाने जाते हैं।
प्राकृतिक पर्यावरण को बिना कोई नुकसान पहुंचाए, एक उद्देश्यपूर्ण पर्यटन प्रगति के लिए अनिवार्य रूप से एक उचित मूल्य निर्धारण युक्त पर्यटन कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए। एक ऐसा धारण करने की क्षमता युक्त कार्यक्रम बनाना चाहिए जिसका संसाधनों पर कारणात्मक प्रभाव न पड़े तथा जो यातायात, ईंधन तथा पानी आदि के लिए भी उपयुक्त हों। पर्यटन का पर्यावरणीय दशा तथा सामंजस्य पूर्ण विकास किया जाना चाहिए। पर्यटन की अव्यवस्थित वृद्धि पर रोक लगाई जानी चाहिए तथा पर्यटकों के लिए भी संवेदनशील क्षेत्रों (पहाड़ी, दाल, तटीय क्षेत्र, द्वीप तथा वन्य जीव अभ्यारण्य) में असुरक्षित क्रियाओं पर कड़े कानून बनाए जाने चाहिए।
पर्यटन को पारिस्थितिकी मित्र बनाने के लिए पर्यटकों को कुछ सुझावों का पालन करना चाहिए। पर्यटकों को अपघटित न होने वाले कूड़े, जैसे-खाली बोतलें, टिन, प्लास्टिक की थैलियां, आदि; को वापिस लाने के लिए थैले ले जाने चाहिए। इस प्रकार के कूड़े को केवल नगर निगम के कूड़ेदान में ही डालना चाहिए। शिविर इत्यादि के आस-पास अस्थाई शौचालय होने की स्थिति में मल त्याग के तुरंत पश्चात् उसे बालू या मिट्टी से ढक देना चाहिए। शिविर पानी के स्रोत से कम-से-कम 30 मीटर दूर होना चाहिए। पर्यटकों को पौधों तथा वनस्पतियों आदि से छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए। वैसे भी यह हिमालय क्षेत्रों में पूरी तरह से अवैध माना जाता है। खाना आदि बनाने के लिए लकड़ी आदि का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए बल्कि अपने साथ स्टोव, गैस स्टोव लेकर चलना चाहिए। लोगों को, सेंक्चुरी, वन्यजीव पार्को और प्राकृतिक आश्रय स्थलों पर रेडियो, टेपरिकॉर्डर एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक मनोरंजन साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आय की आवश्यकता है, जो कि प्रवेश शुल्क तथा उत्पादों की बिक्री के माध्यम से पूरी की जा सकती है। पर्यटकों को पर्यावरणीय शिक्षा से अवगत कराना चाहिए। जनसंचार तथा स्थानीय लोक साहित्य/लोक वार्ता तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से लोगों के अन्दर पर्यावरण के प्रति जागृति उत्पन्न की जानी चाहिए।
वनो से आधारित उधयोग कोन से है
स्वच्छंद उद्योग किसे कहते हैं
Kaun samjayu udhyog van adharit nahi he
Kaun samjayu udhyog van adharit nahi he
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वनों पर आधारी उद्योग