समाज में बच्चों को कई तरह के व्यावहारिक पाठशालाओं से होकर गुजरना पड़ता है । प्राथमिक रूप से परिवार में बच्चों को नैतिक और चारित्रिक शिक्षा दी जाती है वहीं स्कूल के स्तर से बच्चों के व्यावहारिक ज्ञान का विकास पुस्तकों के माध्यमों से होता है । यही वह आधारभूत समय होता है जब एक बच्चे की चेतना विभिन्न माध्यमों से गहराई से विकसित की जाती है । यही वह प्राथमिक समय भी होता है जब एक बच्चे को पाठ्यक्रमों के द्वारा सैद्धांतिक बातें भी सिखाई जाती है जिसका प्रभाव ताउम्र उनके मानो-मस्तिष्क पर पड़ता है । हमारे समाज में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है, ‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’ अर्थात हम बच्चों के प्रारम्भिक जीवन में उन्हें जैसी शिक्षा देंगे उसका प्रभाव अंतिम समय तक वैसा ही बना रहेगा । सकूल के स्तर से ही सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक रूप से बाल मन में जेण्डर की समझ विकसित की जा सकती है। समाज में होने वाले अधिकतर हिंसात्मक वारदातें इसी आधारभूत शिक्षा के अभाव में होती हैं । कभी-कभी पढ़े-लिखे लोग भी घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन वह अपवाद के रूप में शामिल है । किन्तु अधिकतर घटनाएँ अल्पशिक्षा, गरीबी और सामाजिक बंदिशों के कारण देखी जाती है ।
16 दिसंबर की वह रात लंबे समय तक लोग नहीं भूल सकते जब महिला स्वतंत्रता की सैद्धांतिक बातों की धज्जियाँ चौराहे पर उड़ाई गई थी । आज तीन साल बाद का परिदृश्य भी महिला स्वतंत्रता के नाम पर अधिक नहीं बदला है क्योंकि समाज के पितृसत्तात्मक मानसिकता से लैस कुछ लोग अपनी कुंठित मनोवृत्ति से उबर नहीं पा रहे हैं । जहाँ स्त्री स्वतंत्रता उनके तथाकथित पुरुषत्व को चुनौती देती है । कोर्ट ने डाक्यूमेंट्री सिनेमा ‘इंडियास डौटर’ के प्रदर्शन पर बैन लगा दिया गया । बीबीसी की इस सिनेमा को लेसली उडविन ने निर्देशित किया है जो 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ पर आधारित है । इसीलिए उस कुंठित मानसिकता का विश्लेषण होना चाहिए जो इस सिनेमा में न केवल दिखाया गया है बल्कि समाज में वह मानसिकता आज भी बड़ी संख्या में फल-फूल रही है जो महिला विरोधी है । इस सिनेमा को देखने के बाद जेण्डर और संवेदना की बहस और भी तेज हो गई है कि किस प्रकार एक अपराधी और उनका डिफेंस वकील एक जैसे महिला विरोधी तालिबानी स्टेटमेंट दे रहे हैं । प्रश्न यह उठता है एक अशिक्षित अपराधी और एक पढ़े-लिखे वकील की मनोवृत्ति एक जैसी कैसे हो सकती है ? उत्तर लगभग यह है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में जेण्डर को लेकर असंवेदनशीलता का होना तथा उनकी संकीर्ण रूप से की गई परवरिश । इसमें आधारभूत पाठ्यक्रमों की प्रमुख भूमिका के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण भी जुड़े हुए हैं । किन्तु सबसे प्रमुख मुद्दा उनके ज्ञान तथा उनके विकास से जुड़ा हुआ है। अत: हम उन बातों पर विचार-विमर्श करेंगे कि सामाजिक रूप से जागरूकता बढ़ाने के कार्यक्रमों के अतिरिक्त बुनियादी रूप से पाठ्यक्रमों को आधारभूत स्तर से जेण्डर संवेदनशील कैसे होना चाहिए ? एक समस्या फिर जन्म लेती है कि अपराधी किस्म के लोगों की शिक्षा-दीक्षा न के बराबर होती है तो ऐसे लोगों के लिए जेण्डर संवेदनशीलता हेतु क्या उपाय किए जाएँ ? चूंकि यह एक आधारभूत प्रश्न है जिसका उत्तर लाचारी, गरीबी, बेरीजगारी और भूख के सवालों से अंतरसंबंधित है।
साक्षरता तथा सशक्तिकरण के क्षेत्र में नारीवादी साक्षरताकर्मी कई राज्यों के गाँवों में जाकर महिलाओं को विभन्न माध्यमों से शिक्षित करने का प्रयास कर रही हैं । लेकिन साथ ही उनका मानना यह है कि, “नारीवादियों के लिए ये मुद्दे लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं, परंतु भारत के स्त्री आंदोलन में साक्षरता और शिक्षा की राजनीति का मुद्दा प्राय: हाशियाई सरोकार ही रहा है”।[1] तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के हाशिएकरण की स्थिति ने पाठ्यक्रमों में स्त्री विषयक मुद्दों के समावेश हेतु किसी भी तरह की कोई आवाज नहीं उठाई। परिणामस्वरूप इतिहास से तो महिलाएँ एक समय के बाद गायब कर ही दी गईं साथ ही आधारभूत पाठ्यक्रमों से भी उनके योगदान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया । पितृसत्तात्मक समाज में जेण्डर की उपेक्षा के फलस्वरूप महिलाओं को इसका परिणाम हिंसा तथा अपराध के रूप में समय-समय पर भुगतना पड़ता है ।
हमें सदैव यह पढ़ने तथा सुनने को मिलता है कि शिक्षा से ही व्यक्ति सशक्त होता है । पाउलो फ्रेरो ने तो “शिक्षा को वंचितों का हथियार तक कहा है”। और जो व्यक्ति शिक्षित है वह सशक्त है किन्तु उसके सशक्त होने से पितृसतात्मक समाज को कोई सरोकार क्यों नहीं है। शिक्षा को स्त्री मुक्ति का आधार के रूप में चिन्हित किया गया है किन्तु पितृसत्तात्मक समाज उसे स्वच्छंदता के परिचायक के रूप में क्यों लेता है। यह प्रश्न जेण्डर के मनोवैज्ञानिक सामाजीकरण से गहराई से जुड़ा हुआ है। ब्रानविन डेविज के अनुसार, “लैंगिक भूमिका के समाजीकरण सिद्धांत में लैंगिक भूमिका के शारीरिक आधार को मान लिया जाता है तथा व्यस्क अपने बच्चों को जो ‘भूमिकाएँ’ सीखाते हैं, उनको ‘वास्तविक’ शारीरिक विभेद पर परत की तरह बिछा दिया जाता है। यह एक सतही सामाजिक चादर भर होती है । इन दोनों विश्वासों में इस आशय का भ्रम बहुत गहरा है कि कोई व्यक्ति वास्तव में क्या है और वह वैसा क्यों बन जाता/ जाती है”।[2]
उपरोक्त विवरण बच्चों के प्री स्कूलिंग से जुड़ा हुआ है जिसके परिप्रेक्ष्य में सीमोन दि बउआर ने अपनी पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’ में 1949 में ही यह बात सपष्ट कर दी थी कि, “स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि स्त्री बनाई जाती है”[3] । तात्पर्य यह है कि प्री-स्कूल से ही जेण्डर की आधारभूत समझ पारिवारिक प्रशिक्षण के मध्यम से होता है जिसमें व्यस्कों की बहुत बड़ी भूमिका होती है । अत: जेण्डर की संवेदना और समझ के लिए प्रशिक्षण देने वाले व्यस्कों के लिए किस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वे अपने बच्चों को इस परिप्रेक्ष्य में सही जानकारी प्रदान कर सकें? क्योंकि जेण्डर रोल स्त्री तथा पुरुष दोनों बच्चों के ऊपर थोपे जाते हैं और जेण्डरगत भेद-भाव यहीं से पैदा होता है । एक पुरुष बच्चे को पुरुष व्यस्क बनाने हेतु बिल्कुल स्वतंत्र रवैये को अपनाया जाता है । साथ ही पुरुष बच्चे को ‘पुरुषत्व’ के लिए प्रेरित किया जाता है जबकि ‘स्त्री बच्ची’ के ऊपर मनोवैज्ञानिक रूप से दब्बूपन, सहनशीलता तथा ‘स्त्रीत्व’ के व्यवहार अधिरोपित किए जाते हैं । इसलिए कई बार स्त्रियाँ इन्हीं विचारों में अपनी स्वतंत्रता ढूँढती हैं । “एडम्स और वाकरडीन के अनुसार, लड़कों में हिंसा को लगभग एक सकारात्मक गुण में तब्दील किया जा सकता है, जबकि ‘हिंसक’ लड़कियाँ के लिए ‘कुतिया’ और ‘वैश्या’ जैसी गालियों का इस्तेमाल किया जाता है”।[4]
अपने पी-एच.डी. शोध कार्य के दौरान मैंने 16 वर्ष से 20 वर्ष तक की लड़कियों से एक प्रश्न पूछा कि, “क्या आपको नहीं लगता कि आप भी रात को देर तक बाहर घूमे तथा अपने मित्रों के साथ खुश रहें? इस प्रश्न के उत्तर में कुछ लड़कियों ने यह जवाब दिया कि उन्हें भी लड़कों की तरह अपनी सहेलियों के साथ देर रात तक बाहर घूमना अच्छा लगता है। किन्तु अधिकतर लड़कियों ने यह माना कि रात को बाहर घूमना ठीक नहीं है और लड़कियों को देर तक बाहर नहीं रहना चाहिए। उत्तर से दो बातें निकालकर सामने आई है। पहली बात कि जिस पुरुषयोचित व्यवहार के द्वारा पुरुष महिलाओं के विरुद्ध हिंसा करते हैं, हम पुरुषों को जेण्डर संवेदनशील बनाने की जगह स्त्रियों को ही घरों में समेट देते हैं । दूसरी बात कि स्त्रियों के ऊपर बचपन से ही यह मनोवैज्ञानिक दवाब बनाया जाता है कि उनके लिए बाहर रहना ठीक नहीं घर ही उनके लिए सेफ जोन है। क्या यह बात शत प्रतिशत सच है ? क्या हमने घरों में किशोरियों के ऊपर अपने ही सगे संबंधियों द्वारा यौन हिंसा के विषय में नहीं सुन रखा है ? फिर से हमारे समक्ष एक प्रश्न खड़ा होता है कि जेण्डर की समझ बनाने के लिए आधारभूत उपाय क्या हों गे?
“वेक्स(1979) तथा हॉग(1987) ने दिखाया है कि लड़कियों को काफी अस्वाभाविक और दब्बू मुद्राओं में बैठने की नसीहत दी जाती है जिससे उनके घुटने आपस में सटे रहते हैं। इसके विपरीत लड़के ज्यादा स्वाभाविक रूप से बैठने के लिए आजाद रहते हैं। उनके घटने एक दूसरे से अलग होते है और ऐसा करते हुए वे प्रभुत्वशाली और आक्रामक दिखाई देते हैं । जो लड़कियाँ ‘पुरुषों वाली’ मुद्राओं में बैठती हैं, उन्हें आक्रामक और प्रभुत्वशाली नहीं, बल्कि यौनिक रूप से उत्तेजना पैदा करनेवाली और ‘उपलब्ध’ के रूप में देखा जाता है”[5] ।
इसका अर्थ यह है कि समाजीकरण की जो प्रारंभित मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है उसके अंतर्गत पुरुषत्व का अधिक विकास किया जाता है । यदि एक स्त्री अपने स्त्रीत्व का प्रदर्शन सशक्त ढंग से करती है तो उसे ‘पुरुषों की नकल’ या ‘कमोडिटी’ मानकर उन्हें ‘अपीलिंग’ या ‘सेक्सिस्ट’ का खिताब दिया जाता है । ये सभी उदाहरण और भी समृद्ध तब होते हैं जब पाठ्यक्रमों के मद्देनज़र उन्हें और भी पुष्ट किया जाता है । ख़ासतौर से चित्रों, जेण्डरगत भाषायी माध्यम, वाक्य विन्यासों तथा आँकड़ों के माध्यम से स्त्री को द्वितीयक प्रदर्शित किया जाता है। प्री-स्कूल में प्राप्त व्यावहारिक प्रशिक्षण और प्री-स्कूल से पोस्ट-स्कूल तक के बीच की सैद्धांतिकी जेण्डर संवेदनशीलता को और भी अधिक स्टीरियोटाईप (पाठ्यक्रमों द्वारा) साबित कर देती है । उदाहरण के लिए पाठ्यक्रम की पुस्तकों में दिखाया जाना कि छोटा बच्चा स्कूल जाता है किन्तु बहन छोटे भाई को संभालती है या रसोई में माँ की मदद करती है । ऐसे अनेकों उदाहरण पाठ्यपुस्तकों में भरे हुए हैं।
इस प्रकार की समस्या से बचने और जेण्डर संवेदनशील समाज का आधार रखने के लिए कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने की अतिआवश्यकता है । उदाहरण के लिए एन.सी.ई.आर.टी द्वारा प्रकाशित ‘स्टेटस ऑफ विमेन थ्रू करिक्यूलम: एलीमेंट्री टीचर्स हैंडबुक’ (1982) के दस्तावेज़ में लिखी गई बातों को जेण्डर संवेदनशीलता हेतु सार्वभौमिक रूप से सभी पाठ्यक्रमों के साथ शामिल किया जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:-
“1. घर और घर की साज-संभाल से जुड़ी सभी तरह की जिम्मेवारियों में सहभागी बनाने के लिए बच्चों का विकास।
2. घर के भीतर और बाहर निभाई जाने वाली भूमिकाओं में श्रम की मर्यादा की भावना का विकास।
3. परिवार के पुरुषों और महिलाओं में घर के भीतर और बाहर कार्य करने की समान प्रतिबद्धता का विकास लड़कियों/ महिलाओं पर निर्भरता जैसे पारंपरिक मूल्य का परित्याग।
4. जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से अवसर की प्राप्ति के जरिए राष्ट्र के विकास में समान भागीदारी।
5. अधिकारों और सक्षमताओं के प्रति जागरूकता।
6. परिवार से लेकर समाज के हर स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की हिस्सेदारी।
7. विवाह के समय दहेज और दुल्हन की कीमन लगाने जैसी समाजविरोधी गतिविधियों के विरुद्ध जनमत का निर्माण।
8. आवश्यकता अनुरूप उपभोग पर ज़ोर ताकि महिलाओं को समृद्धि की निशानी मानी जाने वाली सोच का परित्याग संभव हो सके।
9. व्यक्ति की गरिमा को प्रोत्साहन ताकि महिलाएँ खुद को यौन प्रतीकों के रूप में स्वीकार करने की जगह आत्म-निर्भर, स्व-चालित और स्व-निर्देशित बन सकें।
10. महिलाओं को अलग-थलग नहीं बल्कि समग्रता के एक अंग के रूप में देखने की समझ।
11. विषयगत सामग्री के अंतर्गत कुछ ऐसे संदर्भ बिन्दु दिए गए हैं जिनका प्रयोग बहुत ही सावधानी से करना होगा। विषयवस्तु के चयन करते समय राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति और मूल्यों के समाहितीकरण से संबंधित मनोवृत्तियों के विकास को ध्यान में रखना होगा। कभी-कभी इच्छित उद्देश्य की महत्ता को स्पष्ट करने के लिए नकारात्मक पृष्टभूमि का उल्लेख भी कर दिया जाता है। विषयवस्तु को प्रस्तुत करने का तरीका बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें महिलाओं की स्थिति को प्रमुखता दी जानी चाहिए और किसी भी परिस्थिति में महिलाओं का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए”[6]।
हमारा समाज विभिन्न कालखंडों से गुजरता हुआ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशका में प्रवेश कर चुका है। किन्तु विडंबना यह है कि जेण्डर को लेकर अपनी स्टीरियोटाईप अवधारणा से यह आज भी निकल नहीं पाया है। हमारे पाठ्यक्रमों को काफी मेहनत से तथा बार-बार संशोधन करके विद्वानों की मण्डली द्वारा तैयार किया जाता है। किन्तु जेण्डर संवेदनशीलता का पक्ष हर बार हाशिए पर चला जाता है। स्त्री संबंधित अपराधों के बढ़ते हुए ग्राफ को देखते हुए जेण्डर संवेदनशीलता की अवधारणा बहुत ही प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण हो गई है।
पिछ्ले कई वर्षों से जेण्डर को लेकर निस्संदेह समाज के कुछ प्रतिशत लोगों के मन में संवेदना जागृत हुई है। 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ के बाद वैचारिक जागृति सड़कों पर उतरी और उसने पूरे विश्व की चेतना को झकझोरा किन्तु उसी घटना के ऊपर बनी डाक्यूमेंट्री में अपराधी तथा उसके वकील द्वारा की गई महिला विरोधी टिप्पणी ने यह साबित कर दिया है कि समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को अभी जेण्डर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है । और यह सब पाठ्यक्रमों में तथा समाज में जेण्डर को लेकर आधारभूत समझ बनाए बगैर संभव नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त जेण्डर विकास कार्यक्रमों में महिलाओं के विशेषाधिकार, मानवाधिकारों की बात तथा पुरुषों के भीतर लिंग संवेदनशीलता कार्यक्रमों को विस्तृत रूपों में आकार दिया जाना चाहिए । तभी हम यह मानकर चल सकते हैं कि स्त्री के विरुद्ध अपराधों में धीरे-धीरे कमी हो सकती है ।
Jendr samvednshil k arth
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जेडर सवेदनशीलता कया है इसका महत्व