Gender Sanvedansheelta pdf जेंडर संवेदनशीलता pdf

जेंडर संवेदनशीलता pdf



GkExams on 12-05-2019

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Gender, School and Society जडर, विद्यालय एवं समाज - VMOU

(Gender: Meaning of being a boy or a girl ..... ई. सी. यूरो “जडर समानता एवं संवेदनशीलता”

पाठ्यक्रमों के द्वारा जेण्डर संवेदनशीलता :


पाठ्यक्रमों के द्वारा जेण्डर संवेदनशीलता


चित्रलेखा अंशु
पी-एच.डी.
स्त्री अध्ययन विभाग
chitra.anshu4@gmail.com
वर्धा, महाराष्ट्र


समाज में बच्चों को कई तरह के व्यावहारिक पाठशालाओं से होकर गुजरना पड़ता है । प्राथमिक रूप से परिवार में बच्चों को नैतिक और चारित्रिक शिक्षा दी जाती है वहीं स्कूल के स्तर से बच्चों के व्यावहारिक ज्ञान का विकास पुस्तकों के माध्यमों से होता है । यही वह आधारभूत समय होता है जब एक बच्चे की चेतना विभिन्न माध्यमों से गहराई से विकसित की जाती है । यही वह प्राथमिक समय भी होता है जब एक बच्चे को पाठ्यक्रमों के द्वारा सैद्धांतिक बातें भी सिखाई जाती है जिसका प्रभाव ताउम्र उनके मानो-मस्तिष्क पर पड़ता है । हमारे समाज में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है, ‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’ अर्थात हम बच्चों के प्रारम्भिक जीवन में उन्हें जैसी शिक्षा देंगे उसका प्रभाव अंतिम समय तक वैसा ही बना रहेगा । सकूल के स्तर से ही सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक रूप से बाल मन में जेण्डर की समझ विकसित की जा सकती है। समाज में होने वाले अधिकतर हिंसात्मक वारदातें इसी आधारभूत शिक्षा के अभाव में होती हैं । कभी-कभी पढ़े-लिखे लोग भी घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन वह अपवाद के रूप में शामिल है । किन्तु अधिकतर घटनाएँ अल्पशिक्षा, गरीबी और सामाजिक बंदिशों के कारण देखी जाती है ।

16 दिसंबर की वह रात लंबे समय तक लोग नहीं भूल सकते जब महिला स्वतंत्रता की सैद्धांतिक बातों की धज्जियाँ चौराहे पर उड़ाई गई थी । आज तीन साल बाद का परिदृश्य भी महिला स्वतंत्रता के नाम पर अधिक नहीं बदला है क्योंकि समाज के पितृसत्तात्मक मानसिकता से लैस कुछ लोग अपनी कुंठित मनोवृत्ति से उबर नहीं पा रहे हैं । जहाँ स्त्री स्वतंत्रता उनके तथाकथित पुरुषत्व को चुनौती देती है । कोर्ट ने डाक्यूमेंट्री सिनेमा ‘इंडियास डौटर’ के प्रदर्शन पर बैन लगा दिया गया । बीबीसी की इस सिनेमा को लेसली उडविन ने निर्देशित किया है जो 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ पर आधारित है । इसीलिए उस कुंठित मानसिकता का विश्लेषण होना चाहिए जो इस सिनेमा में न केवल दिखाया गया है बल्कि समाज में वह मानसिकता आज भी बड़ी संख्या में फल-फूल रही है जो महिला विरोधी है । इस सिनेमा को देखने के बाद जेण्डर और संवेदना की बहस और भी तेज हो गई है कि किस प्रकार एक अपराधी और उनका डिफेंस वकील एक जैसे महिला विरोधी तालिबानी स्टेटमेंट दे रहे हैं । प्रश्न यह उठता है एक अशिक्षित अपराधी और एक पढ़े-लिखे वकील की मनोवृत्ति एक जैसी कैसे हो सकती है ? उत्तर लगभग यह है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में जेण्डर को लेकर असंवेदनशीलता का होना तथा उनकी संकीर्ण रूप से की गई परवरिश । इसमें आधारभूत पाठ्यक्रमों की प्रमुख भूमिका के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण भी जुड़े हुए हैं । किन्तु सबसे प्रमुख मुद्दा उनके ज्ञान तथा उनके विकास से जुड़ा हुआ है। अत: हम उन बातों पर विचार-विमर्श करेंगे कि सामाजिक रूप से जागरूकता बढ़ाने के कार्यक्रमों के अतिरिक्त बुनियादी रूप से पाठ्यक्रमों को आधारभूत स्तर से जेण्डर संवेदनशील कैसे होना चाहिए ? एक समस्या फिर जन्म लेती है कि अपराधी किस्म के लोगों की शिक्षा-दीक्षा न के बराबर होती है तो ऐसे लोगों के लिए जेण्डर संवेदनशीलता हेतु क्या उपाय किए जाएँ ? चूंकि यह एक आधारभूत प्रश्न है जिसका उत्तर लाचारी, गरीबी, बेरीजगारी और भूख के सवालों से अंतरसंबंधित है।

साक्षरता तथा सशक्तिकरण के क्षेत्र में नारीवादी साक्षरताकर्मी कई राज्यों के गाँवों में जाकर महिलाओं को विभन्न माध्यमों से शिक्षित करने का प्रयास कर रही हैं । लेकिन साथ ही उनका मानना यह है कि, “नारीवादियों के लिए ये मुद्दे लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं, परंतु भारत के स्त्री आंदोलन में साक्षरता और शिक्षा की राजनीति का मुद्दा प्राय: हाशियाई सरोकार ही रहा है”।

हमारा समाज विभिन्न कालखंडों से गुजरता हुआ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशका में प्रवेश कर चुका है। किन्तु विडंबना यह है कि जेण्डर को लेकर अपनी स्टीरियोटाईप अवधारणा से यह आज भी निकल नहीं पाया है। हमारे पाठ्यक्रमों को काफी मेहनत से तथा बार-बार संशोधन करके विद्वानों की मण्डली द्वारा तैयार किया जाता है। किन्तु जेण्डर संवेदनशीलता का पक्ष हर बार हाशिए पर चला जाता है। स्त्री संबंधित अपराधों के बढ़ते हुए ग्राफ को देखते हुए जेण्डर संवेदनशीलता की अवधारणा बहुत ही प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण हो गई है।

पिछ्ले कई वर्षों से जेण्डर को लेकर निस्संदेह समाज के कुछ प्रतिशत लोगों के मन में संवेदना जागृत हुई है। 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ के बाद वैचारिक जागृति सड़कों पर उतरी और उसने पूरे विश्व की चेतना को झकझोरा किन्तु उसी घटना के ऊपर बनी डाक्यूमेंट्री में अपराधी तथा उसके वकील द्वारा की गई महिला विरोधी टिप्पणी ने यह साबित कर दिया है कि समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को अभी जेण्डर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है । और यह सब पाठ्यक्रमों में तथा समाज में जेण्डर को लेकर आधारभूत समझ बनाए बगैर संभव नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त जेण्डर विकास कार्यक्रमों में महिलाओं के विशेषाधिकार, मानवाधिकारों की बात तथा पुरुषों के भीतर लिंग संवेदनशीलता कार्यक्रमों को विस्तृत रूपों में आकार दिया जाना चाहिए ।
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Gender, School and Society जडर, िव ालय एवं समाज - VMOU

(Gender: Meaning of being a boy or a girl ..... ई. सी. यूरो “जडर समानता एवं संवेदनशीलता”

पाठ्यक्रमों के द्वारा जेण्डर संवेदनशीलता :


पाठ्यक्रमों के द्वारा जेण्डर संवेदनशीलता


चित्रलेखा अंशु
पी-एच.डी.
स्त्री अध्ययन विभाग
chitra.anshu4@gmail.com
वर्धा, महाराष्ट्र


समाज में बच्चों को कई तरह के व्यावहारिक पाठशालाओं से होकर गुजरना पड़ता है । प्राथमिक रूप से परिवार में बच्चों को नैतिक और चारित्रिक शिक्षा दी जाती है वहीं स्कूल के स्तर से बच्चों के व्यावहारिक ज्ञान का विकास पुस्तकों के माध्यमों से होता है । यही वह आधारभूत समय होता है जब एक बच्चे की चेतना विभिन्न माध्यमों से गहराई से विकसित की जाती है । यही वह प्राथमिक समय भी होता है जब एक बच्चे को पाठ्यक्रमों के द्वारा सैद्धांतिक बातें भी सिखाई जाती है जिसका प्रभाव ताउम्र उनके मानो-मस्तिष्क पर पड़ता है । हमारे समाज में एक मुहावरा बहुत प्रचलित है, ‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’ अर्थात हम बच्चों के प्रारम्भिक जीवन में उन्हें जैसी शिक्षा देंगे उसका प्रभाव अंतिम समय तक वैसा ही बना रहेगा । सकूल के स्तर से ही सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक रूप से बाल मन में जेण्डर की समझ विकसित की जा सकती है। समाज में होने वाले अधिकतर हिंसात्मक वारदातें इसी आधारभूत शिक्षा के अभाव में होती हैं । कभी-कभी पढ़े-लिखे लोग भी घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन वह अपवाद के रूप में शामिल है । किन्तु अधिकतर घटनाएँ अल्पशिक्षा, गरीबी और सामाजिक बंदिशों के कारण देखी जाती है ।

16 दिसंबर की वह रात लंबे समय तक लोग नहीं भूल सकते जब महिला स्वतंत्रता की सैद्धांतिक बातों की धज्जियाँ चौराहे पर उड़ाई गई थी । आज तीन साल बाद का परिदृश्य भी महिला स्वतंत्रता के नाम पर अधिक नहीं बदला है क्योंकि समाज के पितृसत्तात्मक मानसिकता से लैस कुछ लोग अपनी कुंठित मनोवृत्ति से उबर नहीं पा रहे हैं । जहाँ स्त्री स्वतंत्रता उनके तथाकथित पुरुषत्व को चुनौती देती है । कोर्ट ने डाक्यूमेंट्री सिनेमा ‘इंडियास डौटर’ के प्रदर्शन पर बैन लगा दिया गया । बीबीसी की इस सिनेमा को लेसली उडविन ने निर्देशित किया है जो 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ पर आधारित है । इसीलिए उस कुंठित मानसिकता का विश्लेषण होना चाहिए जो इस सिनेमा में न केवल दिखाया गया है बल्कि समाज में वह मानसिकता आज भी बड़ी संख्या में फल-फूल रही है जो महिला विरोधी है । इस सिनेमा को देखने के बाद जेण्डर और संवेदना की बहस और भी तेज हो गई है कि किस प्रकार एक अपराधी और उनका डिफेंस वकील एक जैसे महिला विरोधी तालिबानी स्टेटमेंट दे रहे हैं । प्रश्न यह उठता है एक अशिक्षित अपराधी और एक पढ़े-लिखे वकील की मनोवृत्ति एक जैसी कैसे हो सकती है ? उत्तर लगभग यह है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में जेण्डर को लेकर असंवेदनशीलता का होना तथा उनकी संकीर्ण रूप से की गई परवरिश । इसमें आधारभूत पाठ्यक्रमों की प्रमुख भूमिका के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक कारण भी जुड़े हुए हैं । किन्तु सबसे प्रमुख मुद्दा उनके ज्ञान तथा उनके विकास से जुड़ा हुआ है। अत: हम उन बातों पर विचार-विमर्श करेंगे कि सामाजिक रूप से जागरूकता बढ़ाने के कार्यक्रमों के अतिरिक्त बुनियादी रूप से पाठ्यक्रमों को आधारभूत स्तर से जेण्डर संवेदनशील कैसे होना चाहिए ? एक समस्या फिर जन्म लेती है कि अपराधी किस्म के लोगों की शिक्षा-दीक्षा न के बराबर होती है तो ऐसे लोगों के लिए जेण्डर संवेदनशीलता हेतु क्या उपाय किए जाएँ ? चूंकि यह एक आधारभूत प्रश्न है जिसका उत्तर लाचारी, गरीबी, बेरीजगारी और भूख के सवालों से अंतरसंबंधित है।

साक्षरता तथा सशक्तिकरण के क्षेत्र में नारीवादी साक्षरताकर्मी कई राज्यों के गाँवों में जाकर महिलाओं को विभन्न माध्यमों से शिक्षित करने का प्रयास कर रही हैं । लेकिन साथ ही उनका मानना यह है कि, “नारीवादियों के लिए ये मुद्दे लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं, परंतु भारत के स्त्री आंदोलन में साक्षरता और शिक्षा की राजनीति का मुद्दा प्राय: हाशियाई सरोकार ही रहा है”।

हमारा समाज विभिन्न कालखंडों से गुजरता हुआ इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशका में प्रवेश कर चुका है। किन्तु विडंबना यह है कि जेण्डर को लेकर अपनी स्टीरियोटाईप अवधारणा से यह आज भी निकल नहीं पाया है। हमारे पाठ्यक्रमों को काफी मेहनत से तथा बार-बार संशोधन करके विद्वानों की मण्डली द्वारा तैयार किया जाता है। किन्तु जेण्डर संवेदनशीलता का पक्ष हर बार हाशिए पर चला जाता है। स्त्री संबंधित अपराधों के बढ़ते हुए ग्राफ को देखते हुए जेण्डर संवेदनशीलता की अवधारणा बहुत ही प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण हो गई है।

पिछ्ले कई वर्षों से जेण्डर को लेकर निस्संदेह समाज के कुछ प्रतिशत लोगों के मन में संवेदना जागृत हुई है। 16 दिसंबर 2012 को हुए ‘निर्भया बलात्कार कांड’ के बाद वैचारिक जागृति सड़कों पर उतरी और उसने पूरे विश्व की चेतना को झकझोरा किन्तु उसी घटना के ऊपर बनी डाक्यूमेंट्री में अपराधी तथा उसके वकील द्वारा की गई महिला विरोधी टिप्पणी ने यह साबित कर दिया है कि समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को अभी जेण्डर संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है । और यह सब पाठ्यक्रमों में तथा समाज में जेण्डर को लेकर आधारभूत समझ बनाए बगैर संभव नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त जेण्डर विकास कार्यक्रमों में महिलाओं के विशेषाधिकार, मानवाधिकारों की बात तथा पुरुषों के भीतर लिंग संवेदनशीलता कार्यक्रमों को विस्तृत रूपों में आकार दिया जाना चाहिए ।




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Comments Mahesh Kumar Bairwa on 19-11-2022

विद्यालय परिवेश में जेंडर संवेदनशीलता का महत्व





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