स्वदेशी क्या है?
महात्मा गाँधी के शब्दों में-
‘‘स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी वह भावना जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपवर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। उदाहरण के लिए इस परिभाषा के अनुसार धर्म के सम्बन्ध में यह कहा जायेगा कि मुझे अपने पूर्वजों से प्राप्त धर्म का पालना करना चाहिए। यदि मैं उसमें दोषी पाऊँ तो मुझे उन दोषों को दूर करके उस धर्म की सेवा करनी चाहिए। अर्थ के क्षेत्र में मुझे अपने पड़ोसियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए और उन उद्योगों की कमियाँ दूर करके उन्हें ज्यादा सम्पूर्ण और सक्षम बनाकर उनकी सेवा करनी चाहिए।’’
‘‘स्वदेशी से मेरा मतलब भारत के कारखानों में बनी वस्तुओं से नहीं है। स्वदेशी से मेरा मतलब भारत के बेरोजगार लोगों के हाथ की बनी वस्तुओं से है। शुरू में यदि इन वस्तुओं में कोई कमी भी रहती है तो भी हमें इन्हीं वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए तथा स्नेहपूर्वक उत्पादन करने वाले से उसमें सुधार करवाना चाहिए। ऐसा करने से बिना किसी प्रकार का समय और श्रम खर्च किए देश और देश के लोगों की सच्ची सेवा हो सकेगी।’’- महात्मा गाँधी।
किसी भी देश को यदि आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, सुरक्षा आदि क्षेत्र में समर्थ व महाशक्ति बनना है, तो स्वदेशी मन्त्र को अपनाना ही होगा दूसरा कोई मार्ग नहीं। जैसेः-
अमेरिका- लम्बे समय तक अंग्रेजों का गुलाम रहा, 200 वर्ष पहले तक कोई अस्तित्व नहीं था। पर जब वहाँ स्वदेशी का मन्त्र सिखाने वाले जार्ज वाशिंगटन ने क्रांति किया तो आज अमेरिका विश्व में महाशक्ति बन बैठा है। दुनिया के बाजार में अमेरिका का 25 प्रतिशत सामान आज बिकता है।
जापान- तीन बार गुलाम हुआ पहले अंग्रेज, फिर डच+पुर्तगाली स्पेनिश का मिला जुला, फिर तीसरी बार अमेरिका का गुलाम हुआ जिसने सन् 1945 में जापान के हिरोशिमा व नागासाकी में परमाणु बम गिरा दिये थे। 100 वर्ष पहले तक जापान का दुनिया में कोई पहचान नहीं था। लेकिन स्वदेशी के जज्बा के कारण जापान पिछले 60 वर्षों में पुनः खड़ा हो गया।
चीन- ये भी अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेजों ने चीन के लोगों को अफीम के नशे में डूबो दिया था। सन् 1949 तक चीन भिखारी देश था। विदेशी कर्जा में डूबा था। बाद में वहाँ एक स्वदेशी के क्रान्तिकारी नेता माओजेजांग ने पूरे देश की तस्वीर ही बदल दी। आज चीन उस ऊँचे पायदान पर खड़ा है, जिससे अमेरिका भी घबराता है। आज दुनिया के बाजार में चीन का 25 प्रतिशत सामान बिकता है।
मलेशिया- 25 वर्षों में खड़ा हो गया, स्वदेशी के कारण।
विदेशी बैसाखियों पर कोई भी देश ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता। अंग्रेजों के आने के पहले हमारा भारत हर क्षेत्र में विकसित व महाशक्ति था।
अंग्रेजों के शासन काल में टी.वी. मैकाले ने भारत की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को आमूलचूल बदल दिया। पढ़ाई जाने वाली इतिहास के किताबों में भारत की गौरवपूर्ण इतिहास में फेरबदल कर दिया गया। भारत को गरीबों का देश, सपेरों का देश, लुटेरों का देश, हर तरह से बदहाल देश दर्शाया गया। जबकि इंग्लैण्ड व स्कॉटलैण्ड के ही करीब 200 इतिहासकारों ने अपने इतिहास के किताबों में जो भारत का इतिहास लिखा है वह दूसरी ही कहानी कहता है। उसके अनुसार तो भारत सर्वसम्पन्न देश, ऋषियों का देश, हीरे जवाहरातों का देश था।
मित्रो!भारत का वैभव देखकर ही अंग्रेजों ने इसे ‘‘सोने की चिड़िया’’ कहा।पर एक सवाल उठता है कि इतना शक्तिशाली, सम्पन्न भारत की दुर्दशा कैसे हुए? इसका संक्षिप्त में जवाब यही है कि अंग्रेजों ने जान बूझकर अपने शासन काल में 3735 ऐसे कानून बना दिए जिससे हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूर्णतः ध्वस्त हो गई। वे सभी कानून आज भी चलते हैं कोई परिवर्तन नहीं है।
भारत को व्यवस्थित तरीके से लूटने का काम विदेशी कम्पनियों के द्वारा हुआ। जैसा कि आप जानते हैं ईस्ट इंडिया नामक कम्पनी भारत में व्यापार के बहाने आई थी। आज़ादी के पहले तक भारत को चूसने वाले 733 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सक्रिय थी। सत्ता हस्तान्तरण समझौते के तहत सिर्फ ईस्ट इंडिया कम्पनी को वापस भेजा गया बाकी 732 कम्पनियां बाद में भी बनी रहीं।
जिन विदेशी कम्पनियों ने भारत को खोखला बनाया और जिन विदेशी कम्पनियों के बहिष्कार के लिए स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने स्वदेशी आन्दोलन चलाते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, उन्हीं कम्पनियों को आज भारत सरकार आमन्त्रित करके स्वयं दलाली खाने में मस्त है। आज हमारे देश में ऐसे 5000 से भी अधिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपना सामान बेच रही है।
यदि सरकार के इस तर्क को मान भी लिया जाए कि विदेशी कम्पनियों के आने से पूँजी आती है तो इसका मतलब है कि हमारी गरीबी कम होनी चाहिए। सन् 1949 में सरकार ने 126 विदेशी कम्पनियों को बुलाया तब भारत में गरीबों की संख्या गरीब साढ़े चार करोड़ थी। आज भारत में 5000 विदेशी कम्पनियाँ आ चुकी हैं। तो सरकार के तर्क के अनुसार बहुत पूँजी आ गई, तो इसका सीधा सा मतलब है कि गरीबी लगभग समाप्त हो गई। पर आज भारत सरकार के ही आँकड़े बताते हैं कि भारत में आज गरीबों की संख्या 84 करोड़ से भी ज्यादा है। अर्थात् गरीबी 21 गुना बढ़ा है। तो स्पष्ट हो जाता है कि विदेशी कम्पनियाँ पूँजी लाती नहीं बल्कि पूँजी ले जाती है, वह भी बहुत ज्यादा।
2. दूसरा तर्क भी गलत साबित होता है जब हम यह आँकड़ा देखते हैं।
1840 में जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था एक विदेशी कम्पनी ईष्ट इण्डिया कम्पनी थी। उस समय भारत का निर्यात विदेशों में 33 प्रतिशत था। भारत के कुल निर्यात में ईष्ट इण्डिया कम्पनी 3.6 प्रतिशत ही निर्यात करती थी।
1936 में भारत का निर्यात घटकर 4.5 प्रतिशत रह गया।
1950- 2.2 प्रतिशत 1955- 1.5 प्रतिशत
1960- 1.2 प्रतिशत 1965- 1 प्रतिशत
1970- 0.7 प्रतिशत 1975- 0.5 प्रतिशत
1980- 0.1 प्रतिशत 1990- 0.5 प्रतिशत
1991- 0.4 प्रतिशत 2009- 0.5 प्रतिशत
1840 में एक विदेशी कम्पनी थी जो भारत के निर्यात में 3.6 प्रतिशत मदद करती थी। आज 5000 कम्पनियाँ मिलकर केवल 5.52 प्रतिशत मदद करती है।स्पष्ट है कि विदेशी कंपनियाँ भारत का निर्यात नहीं बढ़ाती बल्कि आयात बढ़ाती है। ऊपर से ये कम्पनियाँ भारत सरकार पर बराबर दबाव डालती रहती है कि भारतीय मुद्रा रुपए की कीमत घटे। 1950 में 1 डालर- 1 रु. था। आज 1 डालर=50 रु.इससे तो हम अमेरिका से 50 वर्ष ऐसे ही पिछड़ गए।
3. विदेशी कंपनियाँ कोई हाईटेक लेकर नहीं आतीं। 90 प्रतिशत कंपनियाँ तो शून्य तकनीकी का ही काम करती है। जैसे साबुन बनाना, यह घर पर भी बनाया जा सकता है। साबुन बनाने में कोई मशीन की जरूरत नहीं पड़ती। मशीन तो कटिंग व पैकिंग में लगती है। साबुन बनाने में करीब 50 विदेशी कंपनियाँ काम कर रही हैं।
इसी प्रकार बिस्किट, चाकलेट, सौन्दर्य प्रसाधन, बोतल बन्द पानी, डबल रोटी, आचार, गेहूँ का आटा, आलू चिप्स आदि। इनमें से कोई भी उत्पाद हाई टेक्नोलाजी का नहीं है। 10 प्रतिशत कम्पनियाँ ही कुछ काम की चीजों में काम करती है।
जैसे मोटर, इंजन आदि। पर उसमें भी वे इंजन भारत में नहीं बनाते, अपने देश से बनाकर लाते हैं यहाँ केवल फिटिंग कर देते हैं। टेक्नोलाजी ट्रांसफर नहीं करते।
हाईटेक काम तो है- सेटेलाईट बनाना, मिसाइल बनाना, परमाणु बम, सुपर कम्प्यूटर बनाना, लेकिन इस काम के लिए कोई भी विदेशी कम्पनी नहीं आती। इन क्षेत्रों में भारत ने बहुत प्रगति किया है, लेकिन स्वदेशी वैज्ञानिकों के द्वारा। अमेरिका में जो तकनीकी 20- 30 वर्ष पुरानी हो गई है, जिसे वहाँ डम्प कर दिया गया है, उसे वे भारत में ला देते हैं जैसे- जहरीली कीटनाशक बनाने की तकनीकी, रासायनिक खाद बनाने वाली तकनीकी। भोपाल में यूनियन कार्बाइड कम्पनी में 777 नमक रसायन बनता था। 1984 की दुर्घटना के बारे में आप सभी जानते हैं। ऐसे 56 कारखाने भारत में स्थापित है।
एलोपैथी दवाओं के क्षेत्र में भी विदेशी कम्पनियाँ बिना काम की हजारों दवाएँ भारत में बेचकर करोड़ों रुपये कमा रही है। जस्टिस हाती कमीशन के अनुसार एलोपैथी की 117 दवाएँ ही भारत में काम की है, बाकि बेकार हैं बल्कि कुछ तो घातक भी हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में एलोपैथी के 84 हजार से भी अधिक प्रकार की दवाएँ धड़ल्ले से बिकती हैं। ऐसी दवाईयाँ जो विदेशों में 20 वर्षों से बैन है, वे भी भारत में बिकती है।
4. सरकार की चौथी तर्क कि यहाँ रोजगार के अवसर बढ़ते हैं स्पष्ट दिख रहा है कि गलत है। बेरोजगारी का आँकड़ा विदेशी कम्पनियों के आने के साथ- साथ बढ़ती ही जा रही है। साधारण सी बात है कि जब किसी काम को मशीनों के द्वारा किया जाएगा तो जहाँ 100 लोगों की जरूरत थी वहाँ 10 से ही काम चल जाता है 90 तो बेरोजगार हो गए।
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