शिवाजी महान् विजेता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी थे। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी कुछ दक्षिणी राज्यों एवं मुग़ल प्रशासन से प्रभावित थी। मध्यकालीन शासकों की तरह शिवाजी के पास भी शासन के सम्पूर्ण अधिकार सुरक्षित थे। शासन कार्यों में सहायता के लिए शिवाजी ने मंत्रियों की एक परिषद, जिसे 'अष्टप्रधान' कहते थे, की व्यवस्था की थी, पर इन्हें किसी भी अर्थ में मंत्रिमंडल की संज्ञा नहीं दी सकती थी। ये मंत्री 'सचिव' के रूप में कार्य करते थे। वह प्रत्यक्ष रूप में न तो कोई निर्णय ले सकते थे और न ही नीति निर्धारित कर सकते थे। उनकी भूमिका मात्र परामर्शकारी होती थी, किन्तु मंत्रियों से परामर्श के लिए शिवाजी बाध्य नहीं थे।
छत्रपति शिवाजी ने किसी भी मंत्री के पद को आनुवंशिक नहीं होने दिया। 'अष्टप्रधान' में पेशवा का पद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सम्मान का होता था। पेशवा राजा का विश्वसीय होता था। संभवतः अपनी अनुभव शून्यता के कारण शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभाग में हस्तक्षेप नहीं करते थे। शिवाजी ने रघुनाथ पण्डित हनुमन्ते के निरीक्षण में चुने हुये विशेषज्ञों द्वारा 'राजव्यवहार कोष' नामक शासकीय शब्दावली का शब्दकोष तैयार कराया था। शिवाजी के अष्टप्रधान का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
उपर्युक्त अधिकारियों में अन्तिम दो अधिकारी- 'पण्डितराव' एवं 'न्यायधीश' के अतिरिक्त अष्टप्रधान के सभी पदाधिकारियों को समय-समय पर सैनिक कार्यवाहियों में हिस्सा लेना होता था। सेनापति के अतिरिक्त सभी प्रधान ब्राह्मण थे। इन आठ प्रधानों के अतिरिक्त राज्य के पत्र-व्यवहार की देखभाल करने वाले 'चिटनिस' और 'मुंशी' भी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। शिवाजी के समय बालाजी आवजी चिटनिस के रूप में और नीलोजी मुंशी के रूप में बहुत सम्मानित थे। प्रत्येक प्रधान की सहायता के लिए अनेक छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त 'दावन', 'मजमुआदार', 'फडनिस', 'सुबनिस', 'चिटनिस', 'जमादार' और 'पोटनिस' नामक आठ प्रमुख अधिकारी भी होते थे।
शिवाजी ने शासन की सुविधा के लिए 'स्वराज' कहे जाने वाले विजित प्रदेशों को चार प्रान्तों में विभक्त किया था-
शिवाजी उन शासकों में से थे, जिन्हें राज्य सत्ता का भोग वरदान में नहीं प्राप्त हुआ था। इन्हें शून्य से मराठा राज्य की स्थापना तक कठिन श्रम करना पड़ा था, जिसके लिए एक शक्तिशाली सेना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य भी थी। शिवाजी की सेना तीन महत्त्वपूर्ण भागों में विभक्त थी
शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में लगभग 45,000 पागा, 60,000 घुड़सवार एवं लगभग एक लाख पैदल सैनिक थे।
यह शिवाजी की सेना का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग था। शिवाजी की इस नियमित सेना के घुड़सवारों को 'व्यक्तिगत घुड़सवार' या 'राजकीय घुड़सवार' कहा जाता था। शिवाजी की सेना श्रेणियों में विभाजित थी- 25 साधारण सैनिकों के ऊपर एक हवलदार, 5 हवलदारों के ऊपर एक हज़ारी एवं पांच एक हज़ारियों के ऊपर एक पांच हज़ारी वहन किया जाता था। पागा सेना 'सर-ए-नौबत' अधिकारी के अधीन रहती थी। 25 घुड़सवारों की एक टुकड़ी को 'एक भिश्ती' एवं एक 'नालबन्द' प्रदान किया जाता था। पागा या शाही घुड़सवारों को 'बरगीर' पुकारते थे। इन्हें राजा की ओर से शिवाजी सैनिक भी थे।
राजस्व के प्रमुख स्रोत के रूप में 'भूमिकर', 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' का प्रचलन था। इसके अतिरिक्त व्यापार कर, उद्योग कर, युद्ध में प्राप्त धन, भेंट आदि भी राजस्व के स्रोत थे।
संभवतः शिवाजी की कर व्यवस्था मलिक अम्बर की कर व्यवस्था पर आधारित थी। शिवाजी ने रस्सी द्वारा माप की व्यवस्था के स्थान पर 'काठी' एवं 'मानक छड़ी' के प्रयोग को आरम्भ किया था। '20 छड़ी' अर्थात एक बीघा; 120 बीघे अर्थात एक चावर।
1670 ई. में शिवाजी के आदेश पर अन्नाजी दत्तों ने व्यापक स्तर पर भू-सर्वेक्षण करवाया। शिवाजी के समय में कुल उपज का 33 प्रतिशत भाग राजस्व के रूप में लिया जाता था, जो कालान्तर में बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया था। बंजर भूमि पर से अल्प मात्रा में कर लिया जाता था। राजस्व को नकद एवं उपज दोनों रूपों में वसूला जा सकता था। राज्य की ओर से किसानों को बीज एवं पशु के क्रय हेतु ऋण मिलता था। शिवाजी ने ज़मींदारी एवं जागीरदारी की व्यवस्था का विरोध करते हुए 'रैय्यतवाड़ी व्यवस्था' को अपनाया था।
चौथ एक प्रकार का कर था। इसके विषय में विद्वानों में मतभेद है। विद्वान राना के अनुसार चौथ सेना के लिए दिया जाने वाला अंशदान मात्र नहीं था, अपितु बाह्म शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले दिया जाने वाला कर था। विद्वान सरदेसाई का मानना है कि यह कर शत्रुता रखने वाले व विजित क्षेत्रों से वसूला जाता था। जदुनाथ भट्टाचार्य सरकार का मानना है कि यह कर मराठा आक्रमणों से बचने के बदले में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था, अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन ही कहा जाना चाहिए। सामान्य रूप से चौथ मुग़ल क्षेत्रों की भूमि व पड़ोसी राज्यों की आय का चौथा हिस्सा होता था, जिसे वसूल करने के लिए मराठी सेना को उस क्षेत्र पर आक्रमण तक करना पड़ता था।
इस कर को शिवाजी इसलिए वसूल करते थे, क्योंकि वह महाराष्ट्र के पुश्तैनी 'सरदेशमुखी' थे। यह कर राज्यों की आय का 1/10 भाग होता था।
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