आजकल बच्चे पहले समय के बच्चों जैसा व्यवहार नहीं करते, उनमें वो मासूमियत नहीं है। वे ऐसे हैं, वे वैसे हैं , वे… । हमसभी न जाने क्या-क्या सोचते और विचारते है और समझते हैं, चाहे किसी रिश्ते या अधिकार से ही क्यों न सोचते हों – परिवर्तन सभी महसूस करते हैं।
यूँ तो परिवर्तन विकास और वृद्धि की पहचान है, पर विकास और वृद्धि यदि सर्वतोन्मुखी न हो तो वह रोग बन जाता है। यही कारण है कि आजकल यह शोर है कि बच्चे ज़रुरत से ज़्यादा तेज़ हैं। इसके अनेक कारण हैं जो मिलकर या कभी-कभी कोई एक कारण भी बच्चे के मन को प्रभावित कर देता है। पर बच्चा इस सब का कारण बिल्कुल भी नहीं है।
बच्चा तो निर्मल-मन होता है। सबसे पहले वह सब-कुछ अपने परिवार से सीखता है। परिवार का वातावरण और व्यवहार बच्चे का मन, रुझान और व्यवहार के साथ-साथ आदत भी बनाने में पूर्ण जिम्मेदार होता है। इसलिए आज परिवार की बात करते हैं
परिवार
व्यक्तिगत जीवन में परिवार सबसे बड़ा संगठन है जो जन्म के साथ ही हमें संगठित करता है। जन्म लेते ही बच्चे को किसी गोद और आंचल का सहारा मिलता है और वह सुरक्षित महसूस करता है। कभी-कभी देखा गया है बच्चा कुछ पकड़ लेता है जैसे पालने की डोर और छोड़ता नहीं है रोने लगता है अगर छुड़ाओ तो। उसे डर लगता है पर पकड़ सुरक्षा महसूस कराती है। बस यहीं से शुरु होप्ती है उसकी मनोदशा। थोड़ा और बड़ा होता है तो अकेला होने का अहसास ही उसे रुला देता है। वह जान जाता है कि उसके आसपास कोई नहीं है। उसमें सामाजिकता विकसित होने लगती है।वह घर के सदस्यों को पहचानता है। जरा भी मनपसंद न होने पर या डर सा लगने पर किसी भी सदस्य का साथ लेलेता है और मस्त हो जाता है। पर…
आजकल परिवार का रुप बदल गया है। खासकर शहरों और बड़े क़स्बों में।
– शहरों में संयुक्त-परिवार टूट गए हैं। जो हैं वो और भी … । बच्चा समझ ही नहीं पाता है कौन कितना महत्त्व पूर्ण है। व्यक्तिगत महत्त्व इतना महत्त्वपूर्ण हो चुका है कि पारिवारिक-विश्वास डगमगा रहे हैं। मैनिपुलेशन बढ़ रही है। अपनत्त्व कम हो रहा है तो बच्चा क्या सीखेगा? माता-पिता यदि बच्चे के सामने एक-दूसरे से झूठ बोलते हों, झगड़्ते हों और बहानेबाजी करते हों (कारण कोई भी हो) तो बच्चा विश्वास शब्द का मतलब भी न समझ पाएगा। कोमल मन अपनी सोच बना लेगा।
– घर का वातावरण ही भौतिक सुखों तक सीमित हो त्याग और सेवा की भावना न हो तो बच्चा यह भाव कैसे विकसित कर पाएगा?
– माता-पिता बच्चे के पास न हों तो वह असुरक्षित महसूस करता है, उसका मन विचलित हो जाता है। वह सच्चे संवाद से वंचित रहता है। ऐसे में उसे घर के किसी सद्स्य के पास न होकर यदि उसे क्रेचे में या आया के पास रहना पड़े तो उसकी मनोदशा प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं सकती।
– परिवार के सदस्य यदि बच्चे की भावनाओं को न समझें और अपनी बात हमेशा थोपें तो बच्चा सामान्य नहीं रह सकता है। माता-पिता यदि पैसा कमाना और बच्चों को भौतिक सुख-साधन जुटाना ही सबकुछ समझलेते हैं तो वो भूल जाते हैं कि बच्चे को उनका साथ कहीं अधिक महत्त्व पूर्ण है। यदि उनका साथ एवं प्यार मिलता है तो उसका मन सुखी और स्वस्थ रहता है।
कुछ आधुनिक माता-पिता इस बात को नकार सकते हैं, कह सकते हैं कि आजकल बच्चों की डिमांड ज़्यादा है। वह उनसे ज़्यादा अपने मंहगे खिलौनों को प्यार करते हैं। बस यही हमारी भूल है। हम अपनी सुविधा के लिए उन्हें उकसाते हैं फिर फंस जाते हैं तो उन्हें ही दोष देते हैं जबकि बच्चा तो अपनी सोच बना ही नहीं पाया आपने ही तो उसे मंहगा और सस्ता समझाया वह तो बस क्रिएटिव है अब यह आप पर है कि आप अपना समय लगाएँ या महंगी चीज से उसे बहलाए और अपना स्टेटस दिखलाएँ?
इसप्रकार हम देखते है कि ऐसे अनेक कारण हैं जो बच्चे के मन को बदल रहे हैं।
वह अपनी सोच बना लेता है। अनजाने में ही झूठ बोलना, चालाकी और बहाने लगाना सीख जाता है। कभी-कभी उसका कोमल मन कुंठित हो जाता है। वह भ्रम में फंस जाता है।
– सहनशीलता, त्याग, कर्त्तव्य और सेवा जैसे बड़े गुण आ ही नहीं पाते हैं जो अनजाने ही धीरे-धीरे करके परिवार के माध्यम से उसमें आ सकते हैं। जब घर में ही वह यह नहीं सीख रहा है तो बाहर प्रयोग कैसे कर सकता है? उसका व्यवहार तो बदला सा होगा ही। अब हम अगर उसे दे तो रहे हैं खारापन और मांग रहे हैं मिठास तो वो कैसे दे पाएगा? जाने-अन्जाने परिवार ही बच्चे की मनोदशा के लिए प्रारंभिक रुप से दोषी है क्यों कि प्रारंभ परिवार ए होता है बाद में और भी कारण जुड़ते चले जाते है जो आग में घी डालने का कारण बनते हैं।
सबसे पहले अभिभावकों को अपने बच्चे से निकटता ही इसका पहला इलाज है।
( गांव में स्थिति थोड़ी अलग है। वहाँ ग़रीबी और अशिक्षा संकुचित और कुंठित मनोदशा को जन्म देती है)
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