तकनीकी शिक्षा कुशल जन शक्ति का सृजन कर, औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाकर और लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करके देश के मानव संसाधन विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तकनीकी शिक्षा में इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, वास्तुकला, नगर योजना, फार्मेसी, अनुप्रयुक्त कला एवं शिल्प, होटल प्रबंधन और केटरिंग प्रौद्योगिकी के कार्यक्रमों को शामिल किया गया हैं।
तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना भारत के ब्रिटिश शासकों के समय सार्वजनिक भवनों, सड़कों, नहरों और बंदरगाहों के निर्माण और रखरखाव के लिए ओवरसियर के प्रशिक्षण तथा थल सेना, नेवी एवं सर्वेक्षण विभाग के लिए उपकरणों के प्रयोग के लिए शिल्पकारों एवं कलाकारों के प्रशिक्षण की आवश्यकता के कारण महसूस की गई। अधीक्षण अभियंताओं की भर्ती मुख्य तौर पर ब्रिटेन के कूपरहिल कॉलेज से की जाती थी और यही प्रक्रिया फोरमेन और शिल्पकारों के लिए अपनाई जाती थी; परंतु यह प्रक्रिया निम्न ग्रेड – शिल्पकार, कलाकार और उप-निरीक्षक, जो स्थानीय रूप से भर्ती किए जाते थे, के मामलों में नहीं अपनाई जाती थी। इनको पढ़ने, लिखने, गणित, रेखागणित और मैकेनिक्स में अधिक कुशल बनाने की आवश्यकता के कारण आयुध कारखानों और अन्य इंजीनिरिंग स्थापनाओं से जुड़े हुए औद्योगिक स्कूलों की स्थापना की गई।
जबकि यह कहा जाता है कि 1825 से पूर्व भी कलकत्ता और बम्बई में ऐसे स्कूल थे, परंतु हमारे पास प्रथम प्रमाणिक जानकारी वर्ष 1842 में गन कैरेज फैक्ट्ररी के नजदीक गुइंडी, मद्रास में एक औद्योगिक स्कूल स्थापित किए जाने के संबंध में है। ओवरसीयर के प्रशिक्षण के लिए वर्ष 1854 में एक प्रशिक्षण स्कूल की जानकारी भी मिलती है।
इसी दौरान यूरोप और अमेरिका में इंजीनियरिंग कॉलेजों का विकास हो रहा था, जिससे उनके नागरिकों को अच्छी शिक्षा और गणित विषयों में विशेष दक्षता हांसिल हुई। इससे भारत के सरकारी क्षेत्रों में तत्संबंधी विचार-विमर्श शुरू हुआ और प्रेजीडेंसी शहरों में ऐसे ही संस्थानों की स्थापना के बारे में विचार किया जाने लगा।
प्रथम इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना सिविल इंजीनियरों के लिए वर्ष 1847 में रूड़की, उत्तर प्रदेश में की गई, जिसमें अपर गंगा केनाल के लिए स्थापित बड़ी कार्यशालाओं और सार्वजनिक भवनों का प्रयोग किया गया। रूड़की कॉलेज (अथवा इसे थॉमसन इंजीनियरिंग कालेज के आधिकारिक नाम से जाना जा सकता है) किसी भी विश्वविद्याजय से सम्बद्ध नहीं था, लेकिन इसके द्वारा डिग्री के समकक्ष डिप्लोमा प्रदान किए जाते थे। सरकारी नीति के अनुसरण में वर्ष 1956 में तीन प्रेजिडेंसियों में तीन इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए। बंगाल में नवंबर 1856 में राईटर भवन में कलकत्ता सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज खोला गया, जिसका नाम वर्ष 1857 में बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज किया गया और यह कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। इसने सिविल इंजीनियरिंग में पाठ्यक्रम प्रदान किए। वर्ष 1865 में इसका विलय प्रेजिडेंसी कॉलेज के साथ किया गया। तदुपरांत वर्ष 1880 में इसे प्रेजिडेंसी कॉलेज से अलग कर दिया गया और इसे अपने वर्तमान क्षेत्र शिवपुर में स्थानांतरित कर दिया गया, जिसके लिए बिशप कॉलेज के परिसर और भवनों का प्रयोग किया।
बम्बई शहर में इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित करने का प्रस्ताव कुछ कारणों से निरस्त कर दिया गया, अंतत: पूना स्थित ओवरसियर स्कूल को पूना इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और वर्ष 1858 में बम्बई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया। काफी लम्बे समय तक पश्चिमी प्रेजिडेंसी में केवल यही एकमात्र इंजीनियरिंग कॉलेज था।
मद्रास प्रेजिडेंसी में गन कैरिज फैक्टरी के नजदीक स्थित औद्योगिक स्कूल को अंतत: गुइंडी इंजीनियरिंग कॉलेज के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और इसे मद्रास विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया (1858)।
शिवपुर, पूना और गुइंडी के तीन कॉलेजों में शैक्षिक कार्य लगभग समान ही था। इन सभी में वर्ष 1880 तक लाईसेंस प्राप्त सिविल इंजीरियरिंग पाठ्यक्रम थे, वे केवल इसी शाखा में डिग्री कक्षाओं का आयोजन करते थे। वर्ष 1880 के बाद मैकेनिकल, इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की आवश्यकता महसूस हुई परंतु इन इंजीनियरिंग कॉलेजों ने इन विषयों में केवल प्रशिक्षुता कक्षाएं ही प्रारंभ की। विक्टोरिया जुबली तकनीकी संस्थान, जिसे वर्ष 1887 में बम्बई में शुरू किया गया था, का उद्देश्य इलैक्ट्रिकल, मैकेनिकल और टैक्सटाईल इंजीनियरिंग में लाईसंस धारकों को प्रशिक्षण देना था। वर्ष 1915 में भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर ने डा. एलफ्रेड हे के नेतृत्व में प्रमाणपत्र और एसोसिशटशिप प्रदान करने के लिए इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की कक्षाएं प्रारंभ की, बाद में इन्हें डिग्री के समकक्ष माना गया।
बंगाल में, वर्ष 1907 में आयोजित स्वदेशी आंदोलन के नेताओं ने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद का आयोजन किया, जिन्होंने सही अर्थो में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का आयोजन किया था। इनके द्वारा प्रारंभ की गई कई संस्थाओं में से जादवपुर स्थित इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी कॉलेज ही शेष रहा। इसने 1908 में मैकेनिकल और इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम और 1921 में रसायन इंजीनियरिंग में डिप्लोमा देना प्रारंभ किया।
कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग डिग्री पाठ्यक्रमों को प्रारंभ करने की लाभ-हानि पर चर्चा आरंभ की। सर थामसन (हॉलैंड) की अध्यक्षता में भारतीय औद्योगिक कमीशन (1915) की सिफारिशों में से उद्धृत एक कारण इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों को शुरू करने के विरूद्ध था, जो उनकी रिपोर्ट में इस प्रकार उल्लिखित है – हमने इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रशिक्षण का विशेष संदर्भ नहीं दिया है क्योंकि भारत में अभी तक बिजली उत्पादन शुरू नहीं हुआ है, यहां केवल चल रही बिजली की मशीनों को चार्ज करने के लिए और हाइड्रो इलैक्ट्रिक और भाप से चलाए जाने वाले स्टेशनों के प्रबंधन और उन्हें नियंत्रित करने के लिए सामान्य मरम्मत कार्य करने का रोजगार क्षेत्र ही है। इन तीन श्रेणियों के लिए आवश्यक लोग मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपेक्षित विभिन्न ग्रेडों के लिए प्रशिक्षण हेतु चलाए जा रहे प्रस्तावों से उपलब्ध कराए जाऐंगे। इन्हें इलैक्ट्रिक मामलों में विशेष अनुभव अतिरिक्त तौर पर प्राप्त करना होगा परंतु चूंकि इंजीनियरिंग की इस शाखा का निर्माण विकास निर्माण स्थलों के लिए किया गया है और इलैक्ट्रिकल मशीनों का निर्माण हाथों से किया जाता है इसलिए इलैक्ट्रिकल उपक्रमों के प्रबंधकों को अपने लोगों को प्रशिक्षण प्रदान करना होगा और इंजीनियरिंग कॉलेजों तथा भारतीय विज्ञान संस्थान में निर्देश हेतु विशेष सुविधाओं के रूप में इनका प्रयोग करना होगा।
मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग और मैटरलर्जी में डिग्री कक्षाओं को सर्वप्रथम प्रारंभ करने का श्रेय बनारस विश्वविद्यालय को जाता है। पंडित मदन मोहन मालवीय (1917) इसके महान संस्थापक, की दूर-दृष्टि को हम नमन करते है। लगभग 15 साल बाद वर्ष 1931-32 में शिवपुर, बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज द्वारा मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग एक ही साथ शुरू किया गया।
लगभग 15 वर्ष बाद वर्ष 1931-32 में शिबपुर स्थित बंगाल इंजीनियरिंग कॉलेज में वर्ष 1935-36 में मैकेनिकल एवं इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम तथा वर्ष 1939-40 में धातु-विज्ञान में पाठ्यक्रम प्रारंभ किया गया। इसी दौरान गुइन्डी एवं पूना में भी इन विषयों को प्रारंभ किया गया।
इस अवधारणा के साथ की भारत एक बड़ा औद्योगिक देश है, और पुराने संस्थानों द्वारा तैयार किए गए इंजीनियरों से कहीं अधिक इंजीनियरों की आवश्यकता होगी, के साथ 15 अगस्त 1947 से कई इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थापना की जा चुकी है।
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