इस पुस्तक के बारे में संदेह यह है कि यह रचना 'डिंगल' की है अथवा 'पिंगल' की। यह ग्रंथ एक से अधिक रचयिताओं का हो सकता है। 'पृथ्वीराज रासो' ढाई हज़ार पृष्ठों का संग्रह है। इसमें पृथ्वीराज व उनकी प्रेमिका संयोगिता के परिणय का सुन्दर वर्णन है। यह ग्रंथ ऐतिहासिक कम काल्पनिक अधिक है। 'पृथ्वीराज रासो' तथा 'आल्हाखण्ड' हिन्दी साहित्य के आदि काल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। पृथ्वीराज रासो को हम साहित्यिक परम्परा का विकसनशील महाकाव्य और आल्हाखण्ड को लोक-महाकाव्य की संज्ञा दे सकते हैं। रासो का वृहत्तम रूपान्तर जो नागरीप्रचारिणी सभा से प्रकाशित है, 69 समय (सर्ग) का विशाल ग्रन्थ है। इसमें अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज के जीवन-वृत्त के साथ सामन्ती वीर-युग की सभ्यता, रहन-सहन, मान-मर्यादा, ख़ान-पान तथा अन्य जीवन-विधियों का इतना क्रमवार और सही वर्णन हुआ है कि इसमें तत्कालीन समग्र युगजीवन अपने समस्त गुण-दोषों के साथ यथार्थ रूप में चित्रित हो उठा है।
अध्यात्म, राजनीति, धर्म, योग, कामशास्त्र, मन्त्र-तन्त्र, युद्ध, विवाह, मृगय, मन्त्रणा, दौत्य, मानवीय सौन्दर्य, संगीत-नृत्य, वन उपवन-विहार, यात्रा, पशु-पक्षी, वृक्ष, फल-फूल, पूजा-उपासना, तीर्थ-व्रत, देवता-मुनि, स्वर्ग, राज-दरबार, अन्त:पुर, उद्यान गोष्ठी, शास्त्रार्थ, वसन्तोत्सव तथा सामाजिक तथा सामाजिक रीति-रिवाज – तात्पर्य यह कि तत्कालीन जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं बचा है, जो रासों में न आया हो। किन्तु इन विषयों में भी युगप्रवृत्ति के अनुसार सबसे अधिक उभार मिला है युद्ध, विवाह, भोग विलास तथा मृगया के ही वर्णनों को और यही कारण है कि 'पृथ्वीराज रासो' में चारित्र्य की वह गरिमा नहीं आ पायी है, जो आदर्श महाकाव्य के लिए आवश्यक हैं।
रासो के 65 वें सर्ग में पृथ्वीराज की रानियों के नाम गिनायें गये हैं, जिनकी संख्या तेरह है। इनमें से केवल चार के विवाह उभय पक्ष की स्वेच्छा से हुए, शेष सबको बलात हरण किया गया था, जिनके लिए युद्ध भी करने पड़े थे। इन विवाहों के वर्णन रासों में अत्यधिक विस्तार से मिलते हैं, जिससे ज्ञात होता है कि ये ही उक्त महाकाव्य के प्रमुख विषय है।
पृथ्वीराज के यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों के अजमेर में राजस्थापन से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है। इस ग्रंथ के अनुसार पृथ्वीराज अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर के पुत्र और अर्णोराज के पौत्र थे। सोमेश्वर का विवाह संयोगिता करके सब राजाओं को के भिन्न-भिन्न कार्य करने के लिए निमंत्रित किया और इस यज्ञ के साथ ही अपनी कन्या संयोगिता का स्वयंवर रचा। राजसूय यज्ञ में सब राजा आए पर पृथ्वीराज नहीं आए। इसपर जयचंद ने चिढ़कर पृथ्वीराज की एक स्वर्णमूर्ति द्वारपाल के रूप में द्वार पर रखवा दी। संयोगिता का अनुराग पहले से ही पृथ्वीराज पर था, अत: जब वह जयमाल लेकर रंगभूमि में आई तब उसने पृथ्वीराज की मूर्ति को ही माला पहना दी। इस पर जयचंद ने उसे घर से निकालकर गंगा किनारे के महल में भेज दिया। इधर पृथ्वीराज के सामंतों ने आकर यज्ञ विध्वंस किया। फिर पृथ्वीराज ने चुपचाप आकर संयोगिता से गंधर्व विवाह किया और अंत में वे उसे हर ले गए। रास्ते में जयचंद की सेना से बहुत युद्ध हुआ, पर संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज कुशलतापूर्वक दिल्ली पहुँच गए। वहाँ भोगविलास में ही उनका समय बीतने लगा, राज्य की रक्षा का ध्यान न रह गया।
बल का बहुत कुछ ह्रास तो जयचंद तथा और राजाओं के साथ लड़ते-लड़ते हो चुका था और बड़े-बड़े सामंत मारे जा चुके थे। अच्छा अवसर देख शहाबुद्दीन चढ़ आया, पर हार गया और पकड़ा गया। पृथ्वीराज ने उसे छोड़ दिया। वह बार-बार चढ़ाई करता रहा और अंत में पृथ्वीराज पकड़कर गजनी भेज दिए गए। कुछ काल के पीछे कवि चंद भी गजनी पहुँचे। एक दिन चंद के इशारे पर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण द्वारा शहाबुद्दीन को मारा और फिर दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गए। शहाबुद्दीन पृथ्वीराज के बैर का कारण यह लिखा गया है कि शहाबुद्दीन अपने यहाँ की एक सुंदरी पर आसक्त था, जो एक-दूसरे पठान सरदार हुसैनशाह को चाहती थी। जब ये दोनों शहाबुद्दीन से तंग हुए तब हारकर पृथ्वीराज के पास भाग आए। शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के यहाँ कहला भेजा कि उन दोनों को अपने यहाँ से निकाल दो। पृथ्वीराज ने उत्तर दिया कि शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है, अत: इन दोनों की हम बराबर रक्षा करेंगे। इसी बैर से शहाबुद्दीन ने दिल्ली पर चढ़ाइयाँ कीं। यह तो पृथ्वीराज का मुख्य चरित्र हुआ। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में बहुत-से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं। ऊपर लिखे वृत्तांत और रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बिल्कुल मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में पूरा संदेह किया है और उसे सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ एक जाली ग्रंथ ठहराया है। रासो में चंगेज, तैमूर आदि कुछ पीछे के नाम आने से यह संदेह और भी पुष्ट होता है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा 'रासो' में वर्णित घटनाओं तथा संवतों को बिल्कुल भाटों की कल्पना मानते हैं।
'पृथ्वीराज रासो' वीर रस का हिंदी का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। हिंदी साहित्य में वीर चरित्रों की जैसी विशद कल्पना इस काव्य में मिली वैसी बाद में कभी नहीं दिखाई पड़ी। पाठक रचना भर में उत्साह की एक उमड़ती हुई सरिता में बहता चलता है। कन्नौज युद्ध के पूर्व संयोगिता के अनुराग और विरह तथा उक्त युद्ध के अनंतर पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता के मिलन और केलि विलास के जो चित्र रचना में मिलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक हैं। अन्य रसों का भी काव्य में अभाव नहीं है। रचना का वर्णनवैभव असाधारण है; नायक नायिका के संभोग समय का षड्ऋतु वर्णन कहीं कहीं पर संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। भाषा-शैली सर्वत्र प्रभावपूर्ण है और वर्ण्य विषय के अनुरूप काव्य भर में बदलती रहती है। रचना के इन समस्त गुणों पर दृष्टिपात किया जाए तो वह एक सुंदर महाकाव्य प्रमाणित होता है और नि:संदेह आधुनिक भारतीय आर्यभाषा साहित्य के आदि युग की विशिष्ट कृति ठहरती है।
Pritvi raj raso kis kal ki rchna ha
Prithvi raj raso ke kavi kon hai
Prithviraj Raso ka rachnakaal kya hai
Prathvi Raj raso kiski Rachana h
Prithvi raj raso kis kal ki rachna hai
पृथ्वीराज रसो किस काल की रचना है
Prithviraj Raso kis Kaal ki Rachna hai
पृथवीराज रासो किस काल की है
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