विदेश व्यापार में वस्तुओं, सेवाओं और वितीय संसाधनों का अंतर्देशीय प्रवाह शामिल हैं। विदेश व्यापार द्वारा विदेशी पूंजी और विशेषज्ञों की मदद से देश में उपलब्ध संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल होता है। यह एक देश को विदेशी विनिमय प्राप्त करने की क्षमता प्रदान करता है। आयात और निर्यात अक्सर दुर्लभ या बहुतायत में प्राप्त वस्तु की कीमतों में भारी परिवर्तन (उतार-चढ़ाव) को कम करता है। व्यापार एक देश की उपभोग क्षमताओं का विस्तार करता है, और दुर्लभ संसाधनों तक पहुंच प्रदान करता है और उत्पाद के लिए विश्वभर के बाजार तक विस्तार देता है जो संवृद्धि के लिए आवश्यक है। अंततः विदेश व्यापार नीति संवृद्धि एवं विकास को बढ़ाने में सहायक होती है।
विदेशी व्यापार की रूपरेखा
भारत के विश्व के भौगोलिक प्रदेशों और बड़े व्यापारिक समूहों के साथ व्यापारिक संबंध हैं जिसमें पश्चिमी यूरोप, पूर्वी यूरोप, पूर्ववर्ती सोवियत संघ (रूस) और बाल्टिक राज्य, एशिया, ओसीनिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और लैटिन अमेरिका आते हैं। 1950-51 में भारत का कुल विदेश व्यापार (आयात एवं निर्यात) ₹ 1214 करोड़ था। तब से, यह समय-समय पर मंदी के साथ लगातार वृद्धि करने का साक्षी है।
जबकि भारत की व्यापार संवृद्धि का विश्व व्यापार बढ़ोतरी के साथ एक मजबूत सह-संबंध है, यह विश्व व्यापार संवृद्धि की तुलना में ऊंचा रहा है, विशेष रूप से, 1990 के सुधार का अनुसरण करने पर और वर्ष 2003 के बाद की दो समयावधियों में।
संगठन
व्यापार संगठन का दो श्रेणियों के तहत् अध्ययन किया जा सकता है: आयात और निर्यात। (हालांकि तकनीकी रूप से, व्यापार में सेवाओं और वित्तीय संसाधनों को शामिल किया जाता है, भारत में व्यापार से संबंधित आंकड़ों में सामान्यतः केवल वस्तुओं पर सूचना शामिल होती है)।
आयात
आयात को अम्बारी आयात (Bulk Imports) और गैर-अम्बारी आयात (Non bulk Imports) में वर्गीकृत किया जा सकता है: अम्बारी आयात मदों में शामिल हैं-
गैर-अम्बारी आयात मदों में शामिल हैं-
अभी हाल तक, भारत के आयात की संरचना देश द्वारा द्वितीय नियोजन के दौरान 1956 की शुरुआत में अपनाई गई औद्योगीकरण की रणनीति को प्रतिबिम्बित करती है। इस समय बड़ी मात्रा में मशीनरी, परिवहन उपकरण, यंत्र एवं उपकरण इत्यादि पूंजीगत सामान का आयात हुआ। लौह एवं इस्पात, पेट्रोलियम, रसायनों इत्यादि के औद्योगिक विकास हेतु आगतों का भी आयात किया गया। इन वस्तुओं के आयात ने औद्योगिक विकास को प्रारंभ करने में मदद की और कई वर्षों के लिए इसके विस्तार में भी मदद की। बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों तथा प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ इत्यादि के कारण घरेलू उत्पादन में आयी कमी को पूरा करने के लिए भी उपभोक्ता वस्तुओं जिसमें बड़ी मात्रा में अनाज एवं इनके बने उत्पाद भी आयात किए गए।
निर्यात
भारत के निर्यात मोटे तौर पर चार वगों में विभक्त किये जाते हैं-
भारत ने धीरे-धीरे स्वतंत्रता पूर्व मुख्य रूप से प्राथमिक उत्पाद निर्यात करने वाले देश से वर्तमान में निर्मित उत्पादों के निर्यातक के रूप में स्वयं को परिवर्तित किया है। अर्थव्यवस्था में हुए विकास को प्रतिबिम्बित करते हुए, निर्यात की जाने वाली मदों में परम्परागत से गैर-परम्परागत मदों की ओर परिवर्तन हुआ।
भारतीय निर्यात-आयात (एक्जिम) बैंक |
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भारतीय निर्यात-आयात बैंक, जिसे आमतौर पर एक्जिम बैंक के नाम से जाना जाता है, वर्ष 1982 में गठित किया गया- 1. आईडीबीआई की अंतरराष्ट्रीय वित्त इकाई के संचालन को अपने हाथ में लेने के लिए 2. निर्यातकों एवं आयातकों को वित्तीय मदद प्रदान करने के लिए 3. सेवाओं एवं वस्तुओं के निर्यात एवं आयात के वितीयन में संलग्न अन्य संस्थानों की गतिविधियों के समन्वय हेतु एक सर्वोच्च वित्तीय संस्थान के तौर पर कार्य करने के लिए। |
एक्जिम बैंक वाणिज्यिक बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों को पुनर्वित्त की सुविधा भी प्रदान करता है जो निर्यात-आयात गतिविधि को वित प्रदान करते हैं। बैंक के निर्गम एवं चुकता पूंजी वर्तमान में 440 करोड़ रुपए की है, जिसमें 100 करोड़ रुपए भारत सरकार द्वारा पूरी तरह से अंशदान किया हुए हैं। |
यह भारत सरकार, रिजर्व बैंक से ऋण एवं बाजार में अपने बॉण्ड एवं ऋण पत्रों के निर्गम द्वारा अतिरिक्त संसाधनों को जुटाता है। यह अन्य देशों से विदेशी मुद्रा को भी उधार लेता है। |
रुपये में निर्यात ने वृद्धि के चलन का प्रदर्शन किया और सालों में इसके आधार का विविधिकरण किया। जबकि साल-दर-साल परिवर्तन होता रहा, वस्तुएं जिनकी विगत् कुछ वर्षों में निर्यात में वृद्धि परिलक्षित हुई, उनमें कृषि और सम्बद्ध उत्पाद, अयस्क एवं खनिज, हीरे-जवाहरात, रसायन एवं सम्बद्ध उत्पाद, इंजीनियरिंग समान, इलेक्ट्रॉनिक समान, कपडा, पेट्रोलियम उत्पाद और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ शामिल हैं।
वर्तमान में हमारे निर्यात की मदों में टेक्सटाइल (कारऐट, हस्तकला, कपास), हीरे-जवाहरात, रसायन एवं सम्बद्ध उत्पाद, (विशेष रूप से प्लास्टिक और लिनोलियम उत्पाद) कृषि एवं सम्बद्ध उत्पाद,चमड़ा एवं चमड़ा निर्मित वस्तुएं (विशेष रूप से जूते-चप्पल), वनीकरण, इंजीनियरिंग सामान, निर्मित कपड़े, फूलों के उत्पाद तथा समुद्री उत्पाद शामिल हैं। प्रौद्योगिकी में नए कदम बढ़ाते हुए, इलेक्ट्रॉनिक और कंप्यूटर सॉफ्टवेयर बेहद व्यापक निर्यात क्षमता के साथ एक संभावित क्षेत्र के तौर पर उभर रहा है।
आयात-निर्यात नीति 1997-2002: वर्ष 1997-2002 के लिए पंचवर्षीय आयात-निर्यात नीति की घोषणा 31 मार्च, 1997 को भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने की। आयात-निर्यात नीति के माध्यम से निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति की आशा की गई है-
नवीन आयात-निर्यात नीति के अनुकूल अधिक पारदर्शी व अल्प विवेकाधीन नीतियों को अपनाने व अनुकूल कार्यप्रणाली विकसित करने के प्रयास करने की भी घोषणा नवीन नीति में की गई है।
आयात-निर्यात (एक्जिम) नीति, 2002-07: विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) योजना को अपतटीय बैंकिंग इकाइयों के गठन, वस्तु मूल्य जोखिमों के बचाव तथा लघु अवधि विदेशी वाणिज्यिक उधारों को जुटाने की अनुमति देकर मजबूत किया गया है। इस नीति ने एसईजेड इकाइयों द्वारा की गई उपसंविदा की प्रक्रिया में प्रक्रियात्मक सरलीकरण भी सुनिश्चित किया है। एसईजेड में तथा इसके आस-पास विद्युत की स्थिति को सुधारने के लिए,वियुत की उत्पादन तथा वितरण की इकाइयों की एसईजेड में स्थापना की अनुमति दे दी गई है।
विदेशी व्यापार निदेशालय, सीमाशुल्क तथा बैंकों की लेनदेन लागत को और कम करने के लिए एक्जिम नीति में प्रक्रियात्मक सरलीकरण किए गए हैं। एक्जिम नीति 2002-07 के अन्य मुख्य लक्षणों में निर्यातों के बाजार संवर्धन पर ध्यान देने के लिए आवश्यक समझी गई गतिविधियों को शामिल करने के लिए बाजार पहुंच पहल योजना के कार्यक्षेत्र को बढ़ाना, निर्यातकों को एक सुविधाकारी माहौल सुनिश्चित करने के लिए भारतीय निर्यातकों/व्यावसायियों से विदेश में इंडिया मिशनों में व्यापार केंद्र की स्थापना, पूर्वोत्तर, सिक्किम तथा जम्मू एवं कश्मीर में स्थित इकाइयों को निर्यात हेतु परिवहन सब्सिडी तया बाजारों को विविध रूप देने के लिए अनुसरण हेतु फोकस सीआईएस सहित फोकस अफ्रीका का सूत्रपात करना शामिल है।
विदेशी व्यापार की दिशा
आजादी के पूर्व भारत के विदेशी व्यापार की दिशा तुलनात्मक लागत लाभ स्थितियों के द्वारा निर्धारित न होकर ब्रिटेन और भारत के बीच औपनिवेशिक संबंधों द्वारा निर्धारित थी। दूसरे शब्दों में, भारत किन देशों से आयात करेगा और कहां पर अपना माल बेचेगा, यह ब्रिटिश शासक अपने देश के हित में तय करते थे। यही कारण है कि स्वतंत्रता से पूर्व भारत का अधिकांश व्यापार ब्रिटेन, उसके उपनिवेशों और मित्र राष्ट्रों के साथ था। यही प्रवृत्ति आजादी के बाद कुछ वर्षों में भी देखने को मिलती है क्योंकि तब तक भारत की अन्य देशों के साथ व्यापार संबंध स्थापित करने में कोई विशेष सफलता नहीं मिल पाई थी। उदाहरणार्थ, 1950-51 में भारत की निर्यात आय में इंग्लैंड और अमेरिका का हिस्सा 42 प्रतिशत था। उसी वर्ष भारत के आयात व्यय में उनका हिस्सा 39.1 प्रतिशत था। अन्य पूंजीवादी देशों जैसे फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, इटली, जापान इत्यादि और समाजवादी देशों जैसे सोवियत संघ, रोमानिया, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया इत्यादि के साथ बेहद थोड़ा व्यापार था। जैसे-जैसे इन देशों के साथ राजनैतिक संबंधों का विकास हुआ वैसे-वैसे आर्थिक संबंध भी मजबूत होने लगे। इस प्रकार बहुत से देशों के साथ व्यापारिक संबंधों के विकास करने के अवसर खुलने लगे। अब स्थिति काफी बदलचुकी है और 6 दशक के आयोजन के बाद व्यापारिक संबंध काफी बदल चुके हैं।
भारत के व्यापार भागीदार देशों को प्रमुख तौर पर पांच भागों में बांटा जा सकता है-
भारतीय निर्यातों की चुनौतियां
भारत में कई निर्यात मदें उच्च आयात प्रवृति रखती हैं जो उनके प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ में कमी करते हैं, विशेष रूप से तब जब रुपये की कीमत कमजोर होती है। उदाहरण के लिए, भारत का हीरा उद्योग कीमती एवं कम कीमती पत्थरों के आयात पर भारी धन खर्च करता है। मुद्रास्फीति भारतीय मुद्रा को कमजोर करने में योगदान करके स्थिति को और अधिक बदतर बना देती है।
हस्तांतरण की उच्च लागत एक अन्य बड़ी समस्या है। यह निर्यात उद्योग के लाभ को खा जाती है।
एक और सम्बद्ध कारक है जो भारतीय निर्यात में रुकावट डालता है और वह है निर्यात अवसंरचना की खराब स्थिति। उदाहरण के लिए, हमारे पत्तनों में निर्यात मदों के सुचारू परिवहन के लिए आवश्यक सुविधाओं एवं मानकों का अभाव है।
भारत और अन्य विकासशील देशों से निर्यात को हस्तोत्साहित करने के लिए इन पर गैर-टेरिफ बाधाओं (श्रम, पर्यावरण, स्वास्थ्य मानक, एंटी डम्पिंग) का आरोपण आज भारतीय निर्यात क्षेत्र द्वारा सामना की जाने वाली बेहद गंभीर चुनौती है।
प्रविधि पर केंद्रीकरण के परिणामस्वरूप निर्यात दिशाओं का अधिक प्रादेशिक विस्तार होगा और प्रादेशिक संवृद्धि उतार-चढ़ाव के कारण उत्पन्न निर्यात चक्र का न्यूनीकरण करेगी।
भारत को नवोदित अर्थव्यवस्थाओं तक पहुंच द्वारा अपने निर्यात बाज़ार का विविधीकरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए, पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया की अर्थव्यवस्थाएं परिवर्तन के दौर में हैं। हमें इन पर ध्यान देना चाहिए और इन बाजारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी चाहिए, विशेष तौर पर, क्योंकि, कम से कम कुछ समय के लिए, ये बाजार विकसित देशों के बाजारों की तरह प्रतिस्पर्द्धात्मक नहीं होंगे।
विदेश व्यापार नीति
जब भारत ने 1950 के दौरान नियोजन काल पर पोतारोहण किया, तो आयात प्रतिस्थापन भारत के व्यापार और औद्योगिक नीति के लिए मुख्य चुनौती थी। भारतीय नीति-निर्माताओं ने भारत की आर्थिक संवृद्धि के उत्प्रेरक के तौर पर विदेश व्यापार के विकल्प पर गंभीर रूप से विचार नहीं किया। इसका मुख्य कारण निर्यात आय अर्जन क्षमता के प्रति बेहद निराशाजनक दृष्टिकोण था। विशाल घरेलू बाजार के अस्तित्व ने आंतरिक उन्मुखता की ओर आवेशित होने का काम किया। नीति-निर्माताओं ने न केवल निर्यात क्षमताओं एवं संभावनाओं का अवमूल्यांकन किया अपितु स्वयं आयात प्रवृति के आयात प्रतिस्थापन प्रक्रिया को भी नकारा। हालांकि औद्योगिकीकरण की आंतरिक उन्मुखता प्रक्रिया ने 1956 और 1966 के बीच घरेलू औद्योगिक संवृद्धि की उच्च दर हासिल की, लेकिन इस प्रकार के औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया की कई कमियां जल्द ही उजागर हो गई। पूरे तंत्र में अक्षमता फैल गई और अर्थव्यवस्था उच्च लागत की बढ़ती दर में तब्दील हो गई। एक समय पश्चात्, इसने प्रौद्योगिकीय विलम्ब को प्रवृत किया जिससे निर्यात निष्पादन में गिरावट आने लगी।
जबकि, समय के साथ, निर्यात के प्रति दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन हुआ, 1970 के दशक के अंत तक बड़ी संख्या में मदों का आयात प्रतिस्थापन भारत की विकास रणनीति का आधारभूत सिद्धांत रहा।
1980 के शुरुआत में, 1970 के अंत में आश्चर्यजनक निर्यात निष्पादन और 1980-82 की मंदी के सफलतापूर्वक अपक्षय ने, भारत की निर्यात क्षमताओं की स्थापना के संबंध में आशाजनक माहौल पैदा किया।
विदेश व्यापार को संसाधनों के दक्षतापूर्ण आवंटन के संचालक के तौर पर और तकनीक में वैश्विक उन्नयन का साधन माना गया।
1991 के बाद व्यापार नीति में आए बदलावों ने मात्रात्मक प्रतिबंधों की भूमिका को न्यून किया और तात्विक रूप से टैरिफ दरों में कमी की। भारत के व्यापार नीति के उदारीकरण ने भी विश्व व्यापार संगठन के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को प्रतिबिम्बित किया।
विदेश व्यापार नीति (2009-14)
भारत सरकार ने 2009-14 की पांच वर्ष की अवधि के लिए विदेश व्यापार नीति की घोषणा 27 अगस्त, 2009 को की। 15 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि के साथ 2014 तक वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यातों को दोगुना करने का लक्ष्य है। नीति का दीर्घकालिक लक्ष्य 2020 तक वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाकर दोगुना करना है।
व्यापार नीति की विशेषताएं-
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