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संस्कृति शब्द की उत्पत्ति, संस्कृत शब्द से हुई है ! संस्कार का अर्थ है, मनुष्य द्वारा कुछ कार्यों (Rituals) का अपने जीवन में किया जाना। विभिन्न संस्कारो द्वारा मनुष्य अपने सामूहिक जीवन के उद्देष्यों की प्राप्ति करता है। इन संस्कारों से ही मनुष्य की संस्कृति निर्मित होती है। मनुष्य के सामूहिक जीवन के उद्देष्यों में भौतिक तथा अभौतिक घटक होते हैं।
भौतिक घटक के अंतर्गत मनुष्य की भौतिक उपलब्धियां (Materialized Achievements) आते हैं जो मनुष्य के जीवन को आसान बनाते है। अभौतिक घटक के अंतर्गत सामाजिक मान्यताएं, रीतिरिवाज, साहित्य, कला, नैतिकता मूल्य, आदि आते हैं।
भौतिक तथा अभौतिक घटक मनुष्य की संस्कृति का निर्माण करते हैं। संस्कृति के दोनों ही घटक दर्शन द्वारा प्रभावित होते हैं। वस्तुतः संस्कृति और दर्शन परस्पर (Mutually) एक दूसरे को प्रभावित करते है, परिणामस्वरूप उनका विकास भी होता है, तथा परिवर्तन भी होता है !
किसी भी समाज का सांस्कृतिक विकास, तथा दर्शन का विकास समांतर प्रक्रिया है, अर्थात दोनों का विकास साथ साथ होता है। दर्शन के प्रगतिशील (Progressive) होने पर समाज की सांस्कृतिक अवस्था भी प्रगतिशील होती है, तथा संस्कृति के भौतिक तथा अभौतिक घटकों का व्यापक विकास होता है।
दर्शन के आधार पर ही वह समाज अपने सामाजिक मूल्यों, नैतिक मापदण्डों, रीति रिवाजों, सामाजिक व्यवहारों, तथा व्यक्तिगत और सामूहिक विश्वासों का निर्धारण और नियमन (Vegulation) करता है। साहित्य, कला, संगीत और भाषा भी दर्शन से मार्गदर्शन प्राप्त करती है, ताकि वह समाज के आंतरिक सौंदर्य को व्यक्त कर सके।
संस्कृति के भौतिक घटक भी दर्शन द्वारा प्रभावित होते हैं। मनुष्य द्वारा किए गए अविष्कार, उत्पादन प्रक्रियाएँ, तथा आर्थिक विकास का लाभ सामूहिक रूप से समाज कल्याण हेतु किए जाने की प्रेरणा दर्शन से ही प्राप्त होता है ! इस तरह दर्शन भौतिक विकास को सामूहिक मानव कल्याण हेतु आदर्शोन्मुख स्वरूप प्रदान करता है ! दर्शन समाज के भौतिक मूल्यों तथा आध्यात्मिक मूल्यों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
संस्कृति और दर्शन एक दूसरे को इतना अधिक प्रभावित करते हैं कि उन्हें पृथ्क किया जाना कठिन प्रतीत होता है। दर्शन से ही संस्कृति की उत्पत्ति होती है। मनुष्य के दार्शनिक विचार , ज्ञान, तथा चिंतन के भंडार से ही संस्कृति के तत्व कला, संगीत, साहित्य, विज्ञान तथा समाज की सामूहिक जीवन शैली की उत्पत्ति होती है।
समय के साथ समाज के सांस्कृतिक तत्वों में परिवर्तन होता है, तो यह देखा गया है कि इसका कारण भी दर्शन में परिवर्तन है। इस तरह कहा जा सकता है कि ‘‘दर्शन संस्कृति के इतिहास का निर्माण करता है‘‘।
भिन्न - भिन्न दर्शन के कारण भिन्न भिन्न सामाजिक संस्कृति का निर्माण होता है। भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक प्रवृत्ति तथा पाश्चात्य दर्शन की भौतिकतावादी प्रवृत्ति, ही भारतीय तथा पाश्चात्य संस्कृति के बीच विभिन्नता का कारण है। बाम ने उचित ही कहा है कि ‘‘बिना दर्शन के कोई संस्कृति नहीं हो सकती, तथा संस्कृतियां एक दूसरे से भिन्न होती है‘‘।
संस्कृति किसी राष्ट्र, अथवा समाज की दार्शनिक विचारधारा का परिणाम होता है। दार्शनिक चिंतन की सर्व समावेशी विचारधारा , सार्वभौमिकता, समाज तथा राष्ट्र की संस्कृति को भी सार्वभौमिक और समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रदान करती है। भारतीय चिंतन में सार्वभौमिक एकता का सिद्धान्त और विश्वबंधुत्व की परिकल्पना भारतीय दर्शन का ही परिणाम है।
‘ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे भवन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यनतु, मा कश्चित दुःखभाग भवेत् ।।
विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक कारणों से समाज अथवा राष्ट्र की संस्कृति में परिवर्तन होते रहता है। संस्कृति के भौतिक घटक तो नवीन अविष्कारों के द्वारा शीघ्रता से परिवर्तित होते रहते है, अभौतिक घटकों में भी धीरे धीरे परिवर्तन होता है। परन्तु यदि संस्कृति दर्शन द्वारा मार्गदर्शत होती है, तो समाज और राष्ट्र की मूल सांस्कृति चेतना अक्षुण्ण बनी रहती है, अर्थात वह अपना मूल स्वरूप अनेकानेक परिवर्तनों के बाद भी बरकरार रखती है। प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में अनेकानेक कारणों से परिवर्तन हुआ है।
परिवर्तनों ने भारतीय संस्कृति को बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान किया है, तथा विभिन्न संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों को अपने में समाहित कर लिया है। ‘‘ आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः‘‘ अर्थात हमारे विश्व का चारों दिशाओं से कल्याण हो, की ध्येय की पूर्ति भारतीय दर्शन ने मूल भारतीय संस्कृति की पहचान को जीवित रखा है !
प्रत्येक संस्कृति में व्यक्ति तथा समाज के लिए पालन किए जाने हेतु कई नियम, विश्वास - मान्यताएँ, कर्मकाण्ड, आदि होते है, जो सांस्कृतिक पहचान को स्थिरता प्रदान करते है। ये तत्व दर्शन द्वारा ही विकसित होते हैं!
दर्शन द्वारा सांस्कृतिक पहचान के इन तत्वों को तार्किक आधार पर अध्ययन किया जाता है। जो मान्यताएं तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती कालांतर में समाप्त हो जाती हैं। इस तरह दर्शन संस्कृति की पहचान को न सिर्फ स्थिरता प्रदान करता है, बल्कि उनमें परिवर्तन लाने का कारक भी होता है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन इसका उदाहरण है, जिनमें कहीं भौतिक संस्कृति को प्रधानता दी गई है, तो कहीं आध्यात्मिकता को प्रमुखता मिली है। इन दार्शनिक मतों में मानव कल्याण तथा सांस्कृतिक विकास को भिन्न स्वरूपों में समझाया गया है !
संस्कृति और दर्शन में एक समरूपता(Homogeneity) है, तथापि दर्शन अधिक गूढ़ है, परिणामस्वरूप अपने चिंतन से वह संस्कृति को दिशा तथा गति प्रदान करती है, और वांछित परिवर्तनों के साथ रक्षा भी करती है।
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