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Satat Aur Vyapak Mulyankan Ka Mahatva सतत और व्यापक मूल्यांकन का महत्व

सतत और व्यापक मूल्यांकन का महत्व



GkExams on 21-06-2019

सतत तथा व्यापक मूल्यांकन (Continuous and comprehensive evaluation) भारत के स्कूलों में मूल्यांकन के लिये लागू की गयी एक नीति है जिसे 2009 में आरम्भ किया गया था। इसकी आवश्यकाता शिक्षा के अधिकार के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक हो गया था। यह मूल्यांकन प्रक्रिया राज्य सरकारों के परीक्षा-बोर्डों तथा केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा शुरू की गयी है। इस पद्धति द्वारा 6वीं कक्षा से लेकर 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों का मूल्यांकन किया जाता है। कुछ विद्यालयों में 12वीं कक्षा के लिये भी यह प्रक्रिया लागू है।

अनुक्रम

  • 1इतिहास
  • 2सतत तथा व्यापक मूल्यांकन क्या है?
    • 2.1मूल्यांकनो से निकलने वाला अर्थ क्या होता है
  • 3दार्शनिक आधार
  • 4राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा- 2005
  • 5पाठ्यचर्या में मूल्यांकन का स्थान
  • 6योजना के उद्देश्य

इतिहास[]

भारत के मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने विद्यालय शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के दिनांक 20 सितंबर, 2009 को घोषित किया कि सतत और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) को सुदृढ़ बनाया जाएगा और अक्टूबर 2009 से कक्षा के लिए सभी संबद्ध विद्यालयों में उपयोग किया जाएगा। परिपत्र में आगे बताया गया था कि वर्तमान शैक्षिक सत्र 2009 -10 से कक्षा और के लिए नई ग्रेडिंग प्रणाली लागू की जाएगी। दिनांक 29 सितंबर, 2009 के परिपत्र संख्या 40/29-09- 2009 में उल्लिखित कक्षाओं के लिए लागू की जाने वाली ग्रेडिंग प्रणाली के सभी विवरण प्रदान किए गए थे। सीबीएसई ने अक्टूबर, 2009 से प्रशिक्षक-प्रशिक्षण फॉर्मेट में कार्यशालाओं के माध्यम से देश भर में सतत तथा व्यापक मूल्यांकन प्रशिक्षण देना आरंभ किया था।

सतत तथा व्यापक मूल्यांकन क्या है?[]

सतत तथा व्यापक मूल्यांकन का अर्थ है छात्रों के विद्यालय आधारित मूल्यांकन की प्रणाली जिसमें छात्र के विकास के सभी पक्ष शामिल हैं।


यह निर्धारण के विकास की प्रक्रिया है जिसमें दोहरे उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। ये उद्देश्य व्यापक आधारित अधिगम और दूसरी ओर व्यवहारगत परिणामों के मूल्यांकन तथा निर्धारण की सततता में हैं।


इस योजना में शब्द ‘‘सतत’’ का अर्थ छात्रों की ‘‘वृद्धि और विकास’’ के अभिज्ञात पक्षों का मूल्यांकन करने पर बल देना है, जो एक घटना के बजाय एक सतत प्रक्रिया है, जो संपूर्ण अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में निर्मित हैं और शैक्षिक सत्र के पूरे विस्तार में फैली हुई है। इसका अर्थ है निर्धारण की नियमितता, यूनिट परीक्षा की आवृत्ति, अधिगम के अंतरालों का निदान, सुधारात्मक उपायों का उपयोग, पुनः परीक्षा और स्वयं मूल्यांकन।


दूसरे शब्द ‘‘व्यापक’’ का अर्थ है कि इस योजना में छात्रों की वृद्धि और विकास के शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक दोनों ही पक्षों को शामिल करने का प्रयास किया जाता है। चूंकि क्षमताएं, मनोवृत्तियां और अभिरूचियां अपने आप को लिखित शब्दों के अलावा अन्य रूपों में प्रकट करती हैं अतः यह शब्द विभिन्न साधनों और तकनीकों के अनुप्रयोग के लिए उपयोग किया जाता है (परीक्षा और गैर-परीक्षा दोनों) तथा इसका लक्ष्य निम्नलिखित अधिगम क्षेत्रों में छात्र के विकास का निर्धारण करना हैः

  • ज्ञान
  • समझ / व्यापकता
  • लागू करना
  • विश्लेषण करना
  • मूल्यांकन करना
  • सृजन करना
  • आकलन
  • मापन
  • परीक्षा / परीक्षण

इस प्रकार यह योजना एक पाठ्यचर्या संबंधी पहल शक्ति है, जो परीक्षा को समग्र अधिगम की ओर विस्थापित करने का प्रयास करती है। इसका लक्ष्य अच्छे नागरिक बनाना है जिनका स्वास्थ्य अच्छा हो, उनके पास उपयुक्त कौशल तथा वांछित गुणों के साथ शैक्षिक उत्कृष्टता हो। यह आशा की जाती है कि इससे छात्र जीवन की चुनौतियों को आत्म विश्वास और सफलता के साथ पूरा कर सकेंगे।



मूल्यांकनो से निकलने वाला अर्थ क्या होता है[]

आकलन एक संवादात्मक तथा रचनात्मक प्रक्रिया है,जिसके द्वारा शिक्षक को यह ज्ञात होता है कि विधार्थी का उचित अधिगम हो रहा है अथवा नहीं।


मूल्यांकन एक योगात्मक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी पूर्व निर्मित शैक्षिक कार्यक्रम अथवा पाठयक्रम की समाप्ति पर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि ज्ञात की जाती है।


मापन आकलन मूल्यांकन की एक तकनीक है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं का आंकिक वर्णन किया जाता है।


परीक्षा तथा परीक्षण आकलन/मूल्यांकन का एक उपकरण/पद्धति है जिसके द्वारा परीक्षा/परीक्षण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मुख्य रूप से पाठयक्रम के ज्ञानात्मक अनुभव कौशल की जांच की जाती है। तो दोस्तों इस तरह से इनके अर्थ निकलते है


और अधिक जाने सतत तथा व्यापक मूल्यांकन को और और साथ इससे सम्बन्ध रखने वाले सतत तथा व्यापक मुल्यांकन के प्रपत्र देखे

दार्शनिक आधार[]

शिक्षा का प्राथमिक प्रयोजन पुरुष और महिला में पहले से मौजूद सम्पूर्णता को प्रकट करना है (स्वामी विवेकानंद), शिक्षा का प्रयोजन बच्चे/व्यक्ति का चहुँमुखी विकास करना है। 21वीं सदी के लिए अंतरराष्ट्रीय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में यूनेस्को ने मनुष्यों के जीवन के चार स्तरों का उल्लेख किया है, जैसे भौतिक, बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक। इस प्रकार, चहुँमुखी विकास के रूप में शिक्षा का प्रयोजन भौतिक, बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों में प्रत्येक बच्चे की छुपी हुई संभाव्यता का अनुकूलन करना है। देश में पहली बार सीबीएसई ने चहुँमुखी विकास के इस विशाल लक्ष्य को व्यवहार में लाने का प्रयास किया।


समाज के प्रत्येक क्षेत्र में वैश्वीकरण का शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ है। शिक्षा के बढ़ते वाणिज्यीकरण को सर्वत्र देखा जा रहा है। अतः विद्यालयों को वस्तु बनाने और विद्यालयों के लिए बाजार संबंधी संकल्पनाओं के अनुप्रयोग और विद्यालयों की गुणवत्ता पर बढ़ते दबाव के प्रति सतर्क रहने की जरूरत है। लगातार बढ़ते प्रतिस्पर्धी परिवेश, जिसमें विद्यालयों को भी घसीटा जा रहा है, और माता-पिता की बढ़ती उम्मीदें बच्चों पर तनाव और चिंता का असहनीय भार डाल रही हैं, जिससे बहुत कम उम्र के बच्चों की व्यक्तिगत वृद्धि और विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और इस प्रकार उनके सीखने का आनंद कम हो रहा है।


छात्रों की समझ, शैक्षिक लक्ष्य, ज्ञान की प्रकृति और एक सामाजिक स्थल के रूप में विद्यालय की प्रकृति सैद्धांतिक रूप के अनुसार कक्षा अभ्यास को मार्गदर्शन देने में हमारी सहायता हो सकती है। इस प्रकार संकल्पनात्मक विकास संबंधों को गहरा और समृद्ध करने और अर्थों के नए स्तरों के अर्जन की सतत प्रक्रिया है। यह उन सिद्धांतों का विकास है कि बच्चों का प्राकृतिक और सामाजिक संसार होता है, जिसमें उनका आपसी संबंध शामिल हैं, जो उन्हें यह समझाता है कि चीजें ऐसी क्यों है, इनके कारणों और प्रभावों के बीच संबंध और निर्णय तथा कार्य करने के आधार क्या है। इस प्रकार मनोवृत्तियां, भावनाएं और मूल्य बोधात्मक विकास के अविभाज्य हिस्से हैं और यह भाषा के विकास, मानसिक प्रदर्शन, संकल्पना और तर्क षक्ति के विकास से जुड़े हैं।


जैसे-जैसे बच्चे की भौतिक अवबोधात्मक क्षमताएं विकसित होती हैं वे अपनी मान्यताओं के बारे में और अधिक सजग हो जाते हैं तथा उनकी अपने अधिगम को नियमन करने में सक्षम बनते हैं।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा- 2005[]

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा- 2005 में निम्नानुसार परीक्षा के सुधार प्रस्तावित किए गए थे-

‘‘वास्तव में, बोर्ड को 10वीं कक्षा की परीक्षा को वैकल्पिक बनाते हुए एक दीर्घ अवधि उपाय पर विचार करना चाहिए, इस प्रकार छात्रों (और जिन्हें बोर्ड का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए) को उसी विद्यालय में एक आंतरिक विद्यालय परीक्षा देने की अनुमति प्रदान करनी चाहिए।’’

उपरोक्त के क्रम में एनसीईआरटी द्वारा 2006 में प्रस्तुत ‘‘परीक्षा सुधार’’ पर स्थिति पत्र के अनुसार -

‘‘वास्तव में, हमारा विचार यह है कि 10वीं कक्षा की परीक्षा को वैकल्पिक बनाया जाए। 10वीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे जो उसी विद्यालय में 11वीं कक्षा में पढ़ना चाहते हैं और किसी तात्कालिक प्रयोजन के लिए उन्हें प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है तो उन्हें बोर्ड परीक्षा के बजाय विद्यालय द्वारा आयोजित परीक्षा में बैठने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।’’

प्रत्यक्षतः सतत तथा व्यापक मूल्यांकन के कार्यान्वयन में नेतृत्वकारी और अग्रणी भूमिका प्रदान करने के लिए सीबीएसई के प्रयास एक प्रमुख कदम हैं, जो विद्यालयों का दर्जा बोर्ड के समकक्ष भागीदारों के रूप में लाने का प्रयास हैं, जो बोर्ड के निर्देषों के अधीन विद्यालयों द्वारा जारी पृथक स्वतंत्र प्रमाणपत्र के माध्यम से सार्वजनिक उपयोग हेतु छात्र की प्राप्ति स्तरों का निर्धारण करते हैं।


ऐसी अनेक रूपरेखाएं हैं जो बच्चे के शैक्षिक तथा सह-शैक्षिक प्रक्षेत्रों सहित उसके चहुँमुखी विकास का निर्धारण करने के लिए एक सार्थक कार्यकारी रूपरेखा तैयार करने के लिए संदर्भित की जा सकती हैं।

  • (क)अंतरराष्ट्रीय आयोग ने अधिगम के चार स्तंभों की उपरोक्त संकल्पना को प्रवर्धित किया है, जैसे
सीखने के लिए अधिगम - अधिगम के कौशल - अधिगम की शैलियां, अधिगम की मनोवृत्ति
करने के लिए अधिगम - निष्पादन के लिए कौशल
एक साथ रहने के लिए अधिगम - अंतरवैयक्तिक कौशल, विविधता और भिन्नता के लिए सहनशीलता और आदर
बनने के लिए अधिगम - उत्कृष्टता के लिए प्रयास, स्वयं साक्षात्कार के लिए अधिगम।
  • (ख)बहु प्रयोजन आसूचना- रूपरेखा
भाषा विज्ञान - संचार
तार्किक - गणितीय - निराकार, यांत्रिक तार्किकता
सांगीतिक - वाणी, वाद्य, सांगीतिक मनोवृत्ति
गतिबोधक- खेल और क्रीड़ाएं, नृत्य और नाटक, शिल्प कला, मॉडल बनाना
अंतरा-व्यक्तिगत (इन्ट्रा-परसनल) - तनाव प्रबंधन, सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं का प्रबंधन, आनन्दायकता, आशावादी, आशा प्रदता
अंतर-वैयक्तिक(इन्टर-परसनल) - संबंध, दल के रूप में कार्य, नेतृत्व, सहयोग
पर्यावरण संबंधी - सुंदरता, नैतिकता और मान्यताएं, बागवानी, आंतरिक सज्जा
स्थानिक - स्थान को समझना और व्यवस्थित करना।
  • (ग)जीवन कौशल रूपरेखा
आत्म-जागरूकता, समानुभूति, आलोचनात्मक चिंतन, सृजनात्मक चिंतन, निर्णय लेना, समस्या का समाधान, प्रभावी - संप्रेषण, अंतर-वैयक्तिक संबंध, दबाव के साथ सामंजस्य बैठाना और आक्रोश के साथ सामंजस्य बैठाना, संवेगों पर नियंत्रण करना
  • (घ)मनोवृत्तियां, रुचियां और अभिरूचियां

शिक्षा का लक्ष्य बच्चों को समाज में जिम्मेदार, उत्पादक और उपयोगी सदस्य बनने के लिए सक्षम करना है। अधिगम अनुभवों द्वारा ज्ञान कौशलों और मनोवृत्तियों का निर्माण किया जाता है तथा विद्यालय में छात्रों के लिए अवसर पैदा किये जाते हैं। कक्षा में ही छात्र अपने अनुभवों का विश्लेषण और मूल्यांकन कर सकते हैं, शंका करना, प्रश्न पूछना, जांच पड़ताल करना और स्वतंत्र रूप से सोचना सीख सकते हैं।

पाठ्यचर्या में मूल्यांकन का स्थान[]

एक पाठ्यचर्या का अर्थ है - समग्र लक्ष्यों, पाठ्यक्रम, सामग्रियों, विधियों और निर्धारण को मिलाजुला कर संपूर्ण अध्यापन - अधिगम कार्यक्रम बनाना। संक्षेप में कहा जाए तो यह ज्ञान और क्षमताओं की रूप रेखा प्रदान करता है, जिसे एक विशेष स्तर पर उपयुक्त माना जाता है। पाठ्यक्रम से प्रयोजन, अर्थों और मानकों का एक विवरण मिलता है, जिसकी तुलना में व्यक्ति कार्यक्रम की प्रभावशीलता और छात्रों द्वारा की गई प्रगति की जांच कर सकता है। मूल्यांकन से न केवल छात्रों की प्रगति और उपलब्धि का मापन किया जाता है बल्कि अध्यापन सामग्री और लेन-देन में प्रयुक्त विधियों की प्रभावशीलता को भी परखा जा सकता है। अतः मूल्यांकन को प्रभावी आपूर्ति और अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में सुधार के दोहरे प्रयोजन के साथ पाठ्यचर्या के घटक के रूप में देखा जाना चाहिए।

योजना के उद्देश्य[]

  • बोधात्मक, साइकोमोटर और भावात्मक कौशलों के विकास में सहायता करना
  • विचार प्रक्रिया पर जोर देना और याद करने पर नही
  • मूल्यांकन को अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया का अविभाज्य अंग बनाना
  • नियमित निदान और उसके बाद सुधारात्मक अनुदेश के आधार पर छात्रों की उपलब्धि और अध्यापन-अधिगम कार्यनीतियों के सुधार हेतु मूल्यांकन का उपयोग करना
  • निष्पादन का वांछित स्तर बनाए रखने के लिए गुणवत्ता नियंत्रण के रूप में मूल्यांकन का उपयोग करना
  • एक कार्यक्रम की सामाजिक उपयोगिता, वांछनीयता या प्रभावशीलता का निर्धारण करना और छात्र, सीखने की प्रक्रिया और सीखने के परिवेश के बारे में उपयुक्त निर्णय लेना
  • अध्यापन और अधिगम की प्रक्रिया को छात्र केंद्रित गतिविधि बनाना।




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Comments Ravi on 19-05-2019

Satat vyapak mulyankan Mahatva vibhinn Vidya

Satat shiksha ka mahatv Satat shiksha ka mahatv on 01-04-2019

Satat shiksh ka mahatv
Kya ?



Satat shiksha ka mahatv Satat shiksha ka mahatv on 01-04-2019

Satat shiksh ka mahatv
Kya ?




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