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जिन प्राणियों में द्विलैंगिक प्रजनन की क्रिया प्रचलित है (और अधिकांश जंतुओं में यही क्रिया पाई जाती है), उनमें प्राणिजीवन एक संसेचित अंडे से आरंभ होता है। संसेचन की प्रक्रिया में अंडे के केंद्रक और शुक्राणु के केंद्रक का सायुज्य होता है और युग्मज (zygote) बनता है। 'सायुज्य' का अर्थ यह है कि आनुवांशिक पदार्थ युग्मज में द्विगुण हो गया, क्योंकि यह पदार्थ एक मात्रा में अंडे में था और एक मात्रा में शुक्राणु में। यह स्पष्ट है कि आनुवांशिक पदार्थ प्रत्येक पीढ़ी में द्विगुण नहीं होगा।
संसेचनविधि में आनुवंशिक पदार्थ में अनिवार्य द्विगुणन की क्रिया इस प्रकार होती है कि लैंगिक कोशिकाओं का परिपक्वताविभाजन (maturation division) के समय गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती है।
यह एक न्युनकारी विभाजन होता है अर्थात इस विभाजन के पश्चात् गुणसूत्रों की संख्या आधी रह जाती है।
अर्धसूत्रण की पूर्वावस्था साधारण समसूत्रण की पूर्वावस्था की अपेक्षा अधिक समय तक स्थिर रहती है और कई उपावस्थाओं में विभाजित की जा सकती हैं। ये उपावस्थाएँ निम्नलिखित हैं : (1) लेप्टोटीन (Leptotene), (2) ज़ाइगोटीन (Zygotene),
(3) पैकिटीन (Pacytene), (4) डिप्लोटीन (Diplotene) तथा (5) डायाकिनीसिस (Diakinesis)।
लेप्टोटीन अवस्था में केंद्रक लंबे और पतले गुणसूत्रों से भरा पाया जाता है। इन सूत्रों पर कहीं कही कणिकाएँ पाई जाती हैं, जिनको क्रोमोमियर (Chromomere) कहते हैं। क्रोमोमियरों के बीच के गुणसूत्रों के भागों को इंटर क्रोमोमेरिके फ़ाइब्रिली (interchromomeric fibrillae) कहते हैं। इंट्रोक्रोमोमेरिक फाइब्रिली की अपेक्षा क्रोमोमियर में अभिरंजित होने की अधिक क्षमता होती है।
ज़ाइगोटीन उपावस्था में गुणसूत्रों का युग्मन होता है। लैंगिक गुणसूत्रों के अतिरिक्त जीव के केंद्रक में गुणसूत्रों के दो एकात्मक कुलक होते हैं। एक कुलक में कई गुणसूत्र होते हैं, जो साधारणत: एक दूसरे से भिन्न होते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक प्रकार के दो गुणसूत्र होते हैं। जैसा ऊपर कहा जा चुका है, युग्मांशु उपवस्था में गुणसूत्रों का युग्मन होता है। युग्मन की क्रिया क्रमहीन रूप में नहीं होती, वरन् बहुत क्रमबद्ध होती है। यह क्रिया केवल समान गुणसूत्रों के बीच होती है। प्रत्येक गुणसूत्र अपने समान सूत्र के साथ एक सिरे से दूसरे सिरे तक जुड़ जाता है और जुड़े हुए सूत्रों के क्रोमोमियर केवल अपने समान क्रोमोमियर से ही जुड़ते हैं। ज़ाइगोटीन अवस्था के अंत तक युग्मन की क्रिया पूर्ण हो जाती है। साथी गुणसूत्र एक दूसरे के इतने अधिक समीप होते हैं कि वे एक प्रतीत होते है। गुणसूत्रों के ऐसे जोड़ों को द्विसंयोजक कहा जाता है।
पैकिटीन उपावस्था में प्रत्येक द्विसंयोजक के युग्मित सूत्र एक दूसरे के इतने समीप होते हैं कि पूर्ण द्विसंयोजक देखने में एक सूत्र प्रतीत होता है। पैकिटीन समय में सर्पित संघनन (spiral condensation) के कारण द्विसंयोजक छोटे होने लगते हैं और डिप्लोटीन तथा डायाकिनीसिस समय में द्विसंयोजक और भी छोटे हो जाते हैं।
डिप्लोटीन उपावस्था में एक द्विसंयोजक के दोनों सूत्रों में से प्रत्येक सूत्र दो दो सूत्रों में विभाजित हो जाता है। इसका फल यह होता है कि प्रत्येक द्विसंयोजक दो जोड़ी युग्मित सूत्रों से बना पाया जाता है। एक गुणसूत्र के विभाजन से उत्पन्न दो सूत्रों को अर्धसूत्र (Chromatid) कहते हैं। डिप्लोटीन अवस्था में ये युग्मित सूत्र एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, किंतु कुछ स्थानों पर ये एक दूसरे से अलग नही हो पाते। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पक्ष का एक अर्धसूत्र जगह जगह पर टूट जाता है और फिर अभिमुख पक्ष के टूटे हुए एक अर्धसूत्र के दोनों खंडों से इसके खंड जुट जाते हैं। डिप्लोटीन अवस्था में युगल अर्धसूत्र (sister chromatid) एक दूसरे से सटे होते हैं और अभिमुख युगल अर्धसूत्रों से स्पष्टत: दूर होते हैं, परंतु जगह जगह पर उपर्युक्त घटना के कारण एक अर्धसूत्र अपने युगल अर्धसूत्र का साथ छोड़कर अभिमुख पक्ष के अर्धसूत्र के साथ सटा प्रतीत होता हैं। ऐसी संरचनाओं को किऐज़मेटा (Chiasmata) कहते हैं।
सूत्रों के अधिक मोटे ओर छोटे होने के कारण डायाकिनिसिस में अर्धसूत्रों का पारस्परिक संबंध सुगमता से नहीं देखा जा सकता और मध्यावस्था (Metaphase) में तो गुणसूत्रों का भूयिष्ठ संघनन हो जाता हैं, जिससे किऐज्म़ेटा की उपस्थित का अनुमान किया जा सकता हैं।
यद्यपि अर्धसूत्रण की पूर्वावस्था (Prophase) से पहले ही प्रत्येक गुणसूत्र का विभाजन हो जाता है, तथापि इनके सेंट्रोमियर का विभाजन मध्यावस्था तक भी नहीं होता। इस कारण विभाजित हो जाने के पर भी प्रत्येक गुणसूत्र की निजता बनी रहती है।
पश्चावस्था मे प्रत्येक गुणसूत्र अपने साथी से अलग हो जाता है, अर्थात् प्रत्येक द्विसंयोजक के दोनों गुणसूत्रों का विघटन (dissociation) हो जाता है और युग्मित गुणसूत्रों में से कि सी ध्रुव (Pole) की ओर जाता है और दूसरा उसके विरुद्ध ध्रुव की ओर। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक ध्रुव पर गुणसूत्र अपनी आधी संख्या में ही पहुँचते हैं।
अंतराल अवस्था बहुत ही अल्पकालीन होती है और कुछ जंतुओं में तो होती ही नहीं।
अंतराल अवस्था का अंत होने पर फिर पूर्वावस्था का प्रारंभ होता है। मध्यावस्था, उसके पश्चात् तथा अंत्यावस्था का क्रम वैसा ही होता है जैसा साधारण समसूत्रण में। यह ऊपर कहा जा चुका है कि अर्धसूत्रण में एक के बाद एक, दो बार, कोशिकाविभाजन होता है। इस प्रकार दोनों कोशिकाविभाजन की अवस्थाओं का पृथक् पृथक् निर्दिष्ट करने के लिये उनका मध्यावस्था-1, मध्यावस्था-2, अंत्यावस्था-1, अंत्यावस्था-2 इत्यादि कहते हैं।
यह ऊपर कहा जा चुका है कि पूर्वावस्था से ही प्रत्येक गुणसूत्र दो अर्धसूत्रों में विभाजित हो जाता है, परंतु उसका संट्रोमियर अविभाजित ही रहता है। इसलिये मध्यावस्था-2 पर गुणसूत्र सेंट्रोमियर को छोड़कर पूर्णरूप से विभाजित होता है। पश्चावस्था का प्रारंभ होने पर सेंट्रोमियर दो भागों में विभाजित हो जाता है, जिसके फलस्वरूप गुणसूत्र के दोनों भाग एक दूसरे से मुक्त हो जाते हैं और अभिमुख ध्रुव की ओर जा सकते हैं।
लैंगिक गुणसूत्र विशेष गुणसूत्र होते हैं, जो एक लिंग में युग्मित होते हैं परंतु दूसरे में नही; जैसे ड्रोसॉफ़िला मेलानोगैस्टर (Drosophila melanogaster) में साधारण गुणसूत्रों के तीन जोड़े होते हैं, जिनको आलिंग सूत्र (Autosome) कहते हैं और दो लैंगिक गुणसूत्र होते हैं। मादा में दोनों लैंगिक गुणसूत्र एक समान होते हैं। इन्हें य-गुणसूत्र (X-chromosome) कहते हैं। नर में भी दो लिंग गुणसूत्र होते हैं। एक य-गुणसूत्र होता है, जो हर मादा य-गुणसूत्र के समान होता है, परंतु दूसरा य-गुणसूत्र से भिन्न होता है। इसे र-गुणसूत्र (Y-chromosome) कहते हैं।
मादा में अर्धसूत्रण के अंत में प्रत्येक कोशिका में चार गुणसूत्र होते हैं-तीन आलिंगसूत्र और एक य-गुणसूत्र। प्रत्येक ऊसाइट (Oocyte) दो बार विभाजित होता है। इससे चार कोशिकाएँ उत्पन्न होती हैं। इनमें से तीन ध्रुवीय पिंड (Polar Bodies) होती है, जिनका शीघ्र ही नाश हो जाता है और एक परिपक्व अंडाणु (Ovum) होता हैं।
मादा की भाँति नर में प्रत्येक शुक्रकोशिका (Spermatocyte) दो बार विभाजित होती है, जिससे चार स्परमाटिड (Spermatid) उत्पन्न होते हैं।
ये स्परमाटिड दो भाँति के होते है। एक में तीन आलिंग सूत्र और एक य-गुणसूत्र होता है और दूसरे में तीन आलिंग सूत्र और एक र-गुणसूत्र होता है। यह स्पष्ट है कि स्परमाटिड दो प्रकार के होते हैं, परंतु अंडाणु एक ही प्रकार का। प्रत्येक स्परमाटिड क्रमश: लंबा और पतला हो जाता है। इसको स्परमातोज़ोऑन (Spermatozoon) कहते हैं। संसेचन में एक स्परमाटोज़ोऑन का सिर एक अंडाणु में प्रवेश करता है। संसेचित अंडाणु को युग्मज (Zygote) कहते हैं और चूँकि शुक्राणु दो प्रकार के होते है, अत: युग्मज भी दो प्रकार के होते हैं।
एक श्रेणी का युग्मज मादा होता है और दूसरी श्रेणी का नर।
ऐसा भी होता है कि मादा में दो य-गुणसूत्र हों और नर में केवल एक य-गुणसूत्र। ऐसी दशा में लिंगनिर्णय ( determination) उसी भाँति होता है जैसे भाँति होता है जैसे ड्रोसॉफिला मेलानो-गैस्टर में। नर के शरीर में दो प्रकार के शुक्राणु उत्पन्न होते हैं-एक में आलिंग सूत्र के अतिरिक्त य-गुणसूत्र होता है और दूसरे में य-गुणसूत्र होता ही नहीं। ऐसे भी जंतु हैं जिनके नर में परस्पर भिन्न कई य-गुणसूत्र होते हैं। अर्धसूत्रण के अंत पर दो प्रकार के स्परमाटिड बनते है। एक प्रकार के स्परमाटिड में आलिंगसूत्र के अतिरिक्त य1, य2, य3 इत्यादि गुणसूत्र होते हैं और दूसरे में केवल र-गुणसूत्र और आलिंगसूत्र।
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