वर्तमान हिंदीभाषी क्षेत्र प्राचीन भारत का 'मध्य देश' है। इस क्षेत्र में बोली जानेवाली बोलियों को भाषा वैज्ञानिकों ने चार भागों में बाँटा है। 'पश्चिमी हिंदी' जिसके अंतर्गत खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, कन्नौजी, राजस्थानी तथा बुंदेलखंडी भाषाएँ आती हैं। अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी मध्य की भाषाएँ हैं और इसके पूर्व में बिहारी भाषा समुदाय की भोजपुरी, मैथिली तथा मगही भाषाएँ हैं। उत्तर में कुमाऊँनी भाषा है जो नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल, टेहरी गढ़वाल, पिथौरागढ़, चमौली तथा उत्तर काशी में बोली जाती है। बोलियों की बहुत सी उप-बोलियाँ भी हैं, जिनके लोकगीतों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा। लोकगीत चाहे कहीं के भी हों वे प्राचीन परंपराओं, रीतिरिवाजों एव धार्मिक तथा सामाजिक जीवन के या यों कहिए कि संस्कृति के द्योतक हैं। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों के विविध लोकगीतों का परिचय देने के पूर्व ऐसे गीतों की चर्चा करे की जा रही है जो मात्र शब्दावली बदलकर अनेक क्षेत्रों में गाए जाते हैं। इनमें भाषा अथवा बोली की अनकता भले हो पर भाव की एकता एवं उसे व्यक्त करने तथा पात्रों का चयन एक जैसा होता है। ऐसे गीतों में ऋतुसंबंधी गीत, संस्कार गीत और जातीय गीत मुख्य रूप से आते हैं। पद्य गाथाएँ एवं पँवारे भी विभिन्न प्रकार से गाए जाते हैं।
ऋतुगीतों में फाग और पावस गीत ऐसे हैं जो अनेक क्षेत्रों में प्रचलित दिखाई पड़ते हैं। फाग गीत मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है जो बसंतपंचमी से लेकर होलिकादहन के सबेरे तक गाया जाता है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, बैसवाड़ी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत पाए जाते हैं। फाग के होली, चौताल, डेढ़ताल, तिनताल, देलवइया, उलारा, चहका, लेज, झूमर और कबीर आदि अनेक प्रकार हैं। इन सब में केवल घुनों का अंतर है। पावस गीतों की भी बहुक्षेत्रीय परंपरा है। ये गीत उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं किंतु अवधी और भोजपुरी में अधिक प्रचलित हैं। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें कजली कहा जाता है। संस्कार के गीतों में सोहर (जन्मगीत), मुंडन, जनेऊ, के गीत और विवाह के गीत प्राय: सभी स्थानों में गाए जाते हैं। मृत्यु के समय प्राय: प्रत्येक क्षेत्र की स्त्रियाँ राग बाँधकर रोती हैं। जातीय गीतों में काफी पृथक्ता होती है किंतु जहाँ एक ही जाति के लोग अनेक क्षेत्रों में बसे हैं, उनके गीतों की मूल प्रवृत्ति एक जैसी ही है। जैसे, पँवरिया जाति के लोग पँवारा, नट जाति के लोग आल्हा, अहीर जाति के लोग विरहा कई क्षेत्रों में गाते हैं। पद्य गाथाएँ तो प्राय: सभी क्षेत्रों में मिल जाती हैं। ये स्थानीय जननायकों के चरित्रों पर आधारित होती हैं।
प्राय: सभी क्षेत्रों में माताएँ बच्चों को सुलाने के लिए लोरी तथा प्रात: उन्हें जगाने के लिए प्रभाती गाया करती हैं। बालक बालिकाएँ भी कुछ खेलों में गीतों का सहारा लेते हैं। बहुत से ऐसे खेल भी हैं जिनमें वयस्क स्त्री पुरुष गीत गाया करते हैं। लोकप्रचलित भजन और श्रमगीत तो सभी क्षेत्रों में गाए जाते हैं। लोकगाथाओं में ऐसी बहुत सी गाथाएँ भी हैं जो कई क्षेत्रों में बीच बीच गाई जाती हैं। इन पृथक्ताओं के बावजूद गीतों की प्रवृत्ति एक जैसी ही है जिससे हिंदीभाषी क्षेत्रों की अनेकता एकता में बद्ध दिखाई पड़ती है। नीचे सभी क्षेत्रों के लोकगीतों का संक्षिप्त एवं क्रमबद्ध परिचय दिया जा रहा है।
राजस्थान का लोकगीत साहित्य बहुत घना है। जन्म के गीत सोहर को यहाँ 'हालरा' कहते हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व तक उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र में जहाँ अवधी एवं भोजपुरी बोलियाँ संगम करती हैं, किंगरिहा नाम की जाति पुत्रजन्म पर दरवाजे दरवाजे जाकर विशेष गीत गाती थी जिसके बोल 'लाले हालर:' हैं। इस क्षेत्र में प्राय: यह गीत अब सुनने को नहीं मिलता। राजस्थान में गाया जानेवाला हालरा समाप्ति के लिए स्वतंत्र हैं। जैसे, 'मारे वीरे जी रे बेटो जायो'। 'झाडूलो' मुंडन के गीतों को कहते हैं। यहाँ प्रत्येक शुभ कार्य की पूर्ति के लिए स्त्रियों द्वारा 'विनायक गीत' गाकर गणेश को प्रसन्न करने की परंपरा है। विवाह में आरंभ से लेकर अंत तक जब जब गीत आरंभ होता है, पहले विनायक वंदना अवश्य होती है - 'गढ़ रणत भँवर सूँ आवो विनायक।' 'पीठी' गीत लगन आरंभ होने के बाद भावी वर वधू को नियमत: उबटन लगाते समय गाया जाता है - 'मगेर रा मूँग मँगायो ए म्हाँ री पीठी मगर चढ़ावो ए'। विवाह होने के पूर्ववाली रात को यहाँ 'मेहँदी की रात' कहा जाता है। उस समय कन्या एवं वर को मेहँदी लगाई जाती है और मेहँदी गीत गाया जाता है - 'मँहदी वाई वाई बालड़ा री रेत प्रेम रस मँहदी राजणी।' विवाह में वर के माथे पर मौर बाँधते समय 'सेवरो' (सेहरा) गाया जाता है - 'म्हाँरे रंग बनड़े रा सेवरा'। बारात जब विवाह के लिए चलती है तो दूल्हे को घोड़ी पर बैठाया जाता है। उस समय घोड़ी गीत गाया जाता है। जैसे, - 'घोड़ी बाँधों अगर रे रूंख मोड दरवाजे चंपेरी दोय कलियाँ वे।'
राजस्थानी बोली में कामण नामक एक गीत गाया जाता है। कामण का अर्थ जादू टोना है। यह गीत उस समय गाते हैं जब बारात विवाह के लिए वर के घर से चलती है - 'काँगड़ आया राईं वर धरहर कंप्या, राज बूझां सिरदार बनी ने कामण कूण कइया छै राज।' राजस्थानी स्त्रियाँ जब वर एवं बारात, का न्योता देने के लिए जनवासे में जाती हैं अथवा जब वे कुम्हार की चाक पूजने जाती हैं तो 'जलो गीत' गाती हैं जैसे - 'जला जी मारू, म्हे तो थां डेरा निरखण आई हो मिरणा नैणी रा जलाल'। हस्ताधान से लेकर विवाह तक प्राय: प्रतिदिन वर कन्या के घर 'बनड़े बनड़ी' के गीत गाए जाते हैं। जैसे - 'काँची दाख हेठे बनडी पान चावै, फूल सूँघे करे ए बाबेजी, सूँ बीनती।' बधू जब पीहर से विदा होती है तो 'आलूँ' गीत गाया जाता है जो बहुत ही करुण होता है - 'म्हे थाने पूछाँ म्हाँ री घवड़ी इतरो बाधे जी रो लाड छोड़ र, बाई सिघ चाल्या।' इसी प्रकार 'बधावै' भी विदा गीत ही है।
भात भरना राजस्थान की एक महत्वपूर्ण प्रथा है। इसे 'माहेरा' भी कहते हैं। जिस स्त्री के घर पुत्र या पुत्री का विवाह पड़ता है वह घर की अन्य स्त्रियों के साथ परात में गेहूँ और गुड़ लेकर नैहरवालों को निमंत्रण देने जाती है। इसको 'भात' कहते हैं। मूल रूप में भात भाई को दिया जाता है। भाई के अभाव में पीहर के अन्य लोग 'माहेरा' स्वीकार कर वस्त्र तथा धन सहायता के रूप में देते हैं। इस अवसर पर भात गीत की तरह अनेक गीत गाए जाते हैं। एक प्रसिद्ध गीत की पंक्ति है - 'थारा घोड़लिया शिण गारो, जी मारूंजी भात भरण ने चालो रूड़े भाण जै'। जब बारात ब्याह के लिए चली जाती है तो वर पक्ष की स्त्रियाँ रात के पिछले पहर में 'राती जागो' नामक गीत गाती हैं। देवी देवताओं के गीतों में 'माता जी', 'बालाजी' (हनुमान जी), भेरूँ जी, सेड़ल माता, सतीराणी, पितराणी आदि को प्रसन्न करने की भावना छिपी है। सबके अलग अलग गीत होते हैं।
राजस्थानी स्त्रियाँ कार्तिक शुक्ल पक्ष में तुलसी का त्यौहार मनाती हैं। तीन दिनों का ्व्रात रखती हैं तथा पूजन के अवसर पर गाती हैं - धन बाई तुलछाँ धन धन थारो नाम। 'धनवाई, तुलछाँ उत्तम काम।' क्वाँरी लड़कियों का त्यौहार गँवर है जो उत्तम वर की प्राप्ति के लिए चैतमास में होलिकादहन के दूसरे दिन से शुक्ल चतुर्थी तक मनाया जाता है। इसे गणगौर भी कहते हैं। गौरी पूजन करते समय जो गीत गाए जाते हैं उनमें प्रमुख गीत की पंक्ति हैं - 'हे गवरल रूड़ो है न जारो तीखा है नैणां रो, गढ़ां है कोराँ-सूँ गवरल ऊतरी'। गणगौर के प्रसिद्ध मेले में गौरी प्रतिमा की शोभायात्रा निकाली जाती है और गाया जाता है - 'गवर गिण गोर माता खोल किवाड़ी।' शीतलाष्टमी के पश्चात् मिट्टी के कूँड़े में गेहूँ या जौ बाए जाते हैं, उनकी जई से गौरीपूजा की जाती है। इसके गीत अलग होते हैं। पूजन के लिए फूल चुनते समय अन्य गीत गाए जाते हैं। पूजन करनेवाली कन्याएँ 'घुड़ला' (छिद्रोंवाला घड़ा जिसमें दीपक जलता रहता है) लेकर गाती हुई अपने सगे संबंधियों के यहाँ जाती है। इसे 'घुड़ला घुमाना' कहा जाता है। गीत है - 'घुड़लो घूमै छै जी घूमै छै।' तीज यहाँ का सर्वाधिक प्रिय पावसकालीन पर्व है। जैसे अवधी एवं पूर्वी हिंदी क्षेत्र में सावन भादों में कजली के लिए स्त्रियाँ पीहर में बुलाई जाती हैं, उसी प्रकार तीज के अवसर पर राजस्थानी स्त्रियाँ भी नैहर में बुलाई जाती है। तीज के गीतों में भाई-बहन के शुद्ध प्रेम के गीत गाए जाते हैं जैसे, 'सुरंगी रूत आई म्हारे देश'। होली के अवसर पर भी लड़कियाँ गीत गाती हैं। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से गीत हैं। पनिहारी गीत राजस्थान के प्रमुख लोकगीत हैं जो पनिहारिनों द्वारा सामूहिक रूप से सिर पर जल से भरे घड़े लेकर घर जाते आते गाया जाता है। दांपत्य प्रेम के अनेक गीत हैं। इनमें पक्षी प्रियतम को संदेश ले जाते हैं। वृक्ष भी मनुष्य की तरह बातें करते हैं। बालिकाएँ खेलते समय बड़े सुंदर सुंदर भोले गीत गाती हैं। राजस्थानी लोकनायकों, वीर सिपाहियों पर आधारित अनेक गीत मिलते हैं जो विभिन्न धुनों में गाए जाते हैं। 'गोगोजी' रामदेव जी, उमादे (रूठी रानी) की गीतकथा (जो जैसलमेर के रावल लूणकरण की लड़की थी), राजपूत जोर सिंह तथा 'राणा काछवे' के पद्यगीत खूब गाए जाते हैं। (दे. राजस्थान रिसर्च सोसाइटी द्वारा प्रकाशित राजस्थान के लोकगीत)।
ब्रजमंडल के निवासियों द्वारा गाए जानेवाले गीत भाषा और भाव की दृष्टि से अत्यंत सरस होते हैं। जन्म के गीतों में सोभर (सोहर), ननद भावज, नेगा के गीत, छठी के गीत और ज़गमोहन लुगरा नामक गीत प्रसिद्ध हैं। विवाह के गीतों में सगाई, पीली चिट्ठी, लगुन, भात न्योतना, हरद हात, रतजगा, तेल, घूरा पूजन, अछूता, मढ़ावा गाड़ना, भात, ब्याह का दिन, भाँवर, बढ़ार गीत, पलकाचार, रहस बधावा, बंदनवार, मुँहमड़ई, विदा, वरगी वर के घर, बहू नचना, दर्द देवता के गीत, लग्न के गीत, भात के गीत, रतजगे के गीत, सतगढ़ा, लाड़ी, गारी, पलकाचार, खेल के गीत, पूरनमल और छद्म के गीत मुख्य हैं। त्यौहार, ्व्रात एंव देवी आदि के गीतों में देवीगीत, जाहर पीर, एकादशी का गीत, श्रावण गीत, कार्तिक के गीत, देवठान के गीत और होली उल्लेखनीय हैं। प्रबंध गीतों में पवाँरे, बहुला, सरमन (श्रवण) ढोला, मदारी का ढोला, लवकुश के गीत और हिरनावती अधिक गाए जाते हैं। अन्य गीतों में टेसू माझी के गीत, चट्टों के गीत, तीर्थों के गीत, पुरहे के गीत, सिला बीनने के गीत, बधाया और हीरों का नाम आता है। मृत्यु के समय यहाँ के स्त्रियाँ भी हिंदीभाषी अन्य क्षेत्रों की भाँति पद्यमय रुदन (विलाप) करती हैं (दे. डाक्टर सत्येंद्र लिखित '्व्राज लोकसाहित्य का अध्ययन')।
छत्तीसगढ़ (मध्य प्रदेश) क्षेत्र में 'लटिया' (संबलपुर जिले की बोली) और 'खलौटी' (बालाघाट जिले के आस पास की बोली) का संयुक्त रूप छत्तीसगढ़ी है। देवी गीत, बारहमास, भोजली गीत, ददरिया, डंडा गीत, होली, गहिरागीत, बाँसगीत, पुतरा पुतरी के गीत, मंडप गान, छैला और सोहर, इस क्षेत्र के गीत हैं। बोली के अंतर से देवीगीत, बारहमासा, होली और सोहर अन्य बोलियों के गीतों की भाँति होते हैं। भोजली गीत रक्षाबंधन के दिन गाया जाता है। जैसे उत्तर प्रदेश में कजली के दिनों जई बोई जाती है उसी प्रकार यहाँ भोजली लगाई जाती है। रक्षाबंधन के दिन भोजली का जुलूस निकलता है। भोजली तालाब में सिराई जाती है। पश्चात् काफी रात गए एक युवक एवं युवतियाँ गाँव के गुरुजनों का पाँव छूती हैं। गीत इस प्रकार है -
डंडा गीत वर्ष में दो बार, क्वार तथा फागुन में, पुरुषों द्वारा डंडा नृत्य के समय गाया जाता है। नाचते गाते समय गायक एक दूसरे के डंडे पर एक साथ मारते हैं। एक आदमी 'कुट्टी' शब्द का उच्चारण करता है जिसे कुट्टकी पाड़ना कहते हैं। इसके बाद नृत्य के साथ गीत आरंभ हो जाता है। गीत गाते समय 'उई' शब्द से ताल का संकेत किया जाता है।
रावतों द्वारा कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक गहिरा गीत गाया जाता है। गाते समय लाठी से पैतरा भी भाँजते हैं। रावत जिनकी गाय चराते हैं उनके दरवाजे पर जाकर गीत गाते हैं। गाने के पूर्व दुधारू गाय के गले में सुहई (पलाश की जड़ की छाल से बनती है) रक्षा के भाव से बाँधते हैं और तब भीने स्वर में गाते हैं -
धन गोदानी भुइयाँ पावा, पावा हमर असीस।
नाती पूत ले घर भर जावे जीवा लाख बरीस। अथवा
बैठो मालिक रंग महल में लेओ हमार असीस। इत्यादि।
रावतों का ही दूसरा गीत बाँस गीत है। कदाचित् दो हाथ लंबी-लंबी बाँस की मोटी बाँसुरी के साथ गाए जाने के कारण ही इस गीत का बाँस गीत कहते हैं।
विवाह गीत है। अन्य क्षेत्रों की भाँति यहाँ भी स्त्रियों के स्थान पर कुमारियाँ पुतरा पुतरी का ब्याह रचाती हैं और गाती हैं -
नवा बन के हम कनई मँगायेन, वृंदावन के बाँसे हो।
वही बाँस के हम मड़वा छायेन, छड़ गए धरती अकासे हो।।
जब बारात मंडप में आती है तो मंडप गीत गाया जाता है। इसी तरह भाँवर के गीत भी गाए जाते हैं। उपर्युक्त गीतों के अतिरिक्त 'देवारों' द्वारा गीतबद्ध गाथाएँ भी गाई जाती हैं।
सतपुड़ा की घाटियों में बसनेवाली गोंड जाति की गोंडो बोली का लोकसाहित्य काफी धनी है। इस बोली में गीत को 'पाटा' और गाने को 'बराना' कहते हैं। ददरिया, करमा और सुवा इनके प्रमुख लोकगीत हैं।
नामक गीत श्रमगीत है जो महुआ बीनते, लकड़ी तोड़ते, पत्ते बटोरते समय या खेत खलिहान में काम करते समय गाया जाता है। यह अकेले एवं समवेत रूप में भी गाया जाता है। इसकी धुनें इतनी मादक एवं सरस होती हैं कि इस क्षेत्र में इसे 'गीतों की रानी' कहा जाता है। स्त्री और पुरुष में से कोई गीत आरंभ करता है और दूसरा उसका उत्तर देता है। वैसे तो ददरिया कई प्रकार का होता है परंतु पठारी और कछारी नामक ददरिया गीतों को अधिक ख्याति मिली है। महुआ बीनते समय जब स्त्रियाँ ददरिया गाती हैं तो वनप्रांत गूँज उठता है। इसे 'साल्हों' भी कहा जाता है। ददरिया की यह शैली छत्तीसगढ़ के चारों ओर प्रचलित है। मंडला की ओर इसे चाकर कहते हैं। एक उदाहरण है -
युवती : करे मुखारी करौंदा रुख के
एक बोली सुना दै आपन मुख के।
युवक :एक ठन आमा के दुई फाँकी
मोर आँखीय आँखी झुलते तौर आँखी।
करमागीत की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन काल में करमा नाम का राजा जब किसी विपत्ति में फँसा तो उसने देवता की मनौती की। उसने उस समय जो गान देवता को प्रसन्न करने के लिए गाया वही करमा गीत कहा जाने लगा। करमा नृत्य भी होता है। छत्तीसगढ़ी रावतगणों द्वारा यह गीत करमसेन देवता को प्रसन्न करने के लिए गाया जाता है। इसके लिए भादों की पूर्णिमा को पर्व मनाया जाता है। इसका प्रचार मंडला, छत्तीसगढ़ और मिरजापुर के अरण्यवर्ती दक्षिणी क्षेत्र में है। करमा, झूमर, करमा लहकी, करमा ठाढ़ा, बैगानी झूमर और करमा रागिनी इसकी प्रमुख प्राचीन शैलियाँ हैं किंतु अब तो इनमें भी नवीनता का प्रवेश होता जा रहा है। करमा झूमर युवक और युवतियों द्वारा झूम-झूमकर गाया जाता है। करता लहकी एक मादक गीत है। करमा ठाढ़ा खड़े होकर गाया जाता है। बैंगनी झूमर बैगा जाति के लोग गाते हैं। इस समय वे एक साथ नाचते हैं। करमा रागिनी बैठकर गाई जाती है। कुछ लोग बैठकर अलग अलाप लेते हैं और अधिक लोग नाचते हैं। उदाहरण -
बैला चलित राई घाट करौंदे
बैला छोटे छोटे रे -
डोंगर मां आगी लगै जरत है पतेरा
सुन सुन के हीरा मोर जरत है करेजा
बैला छोटे छोटे रे।
दीपावली के अवसर पर 'सूआ गीत' गाया जाता है। स्त्रियाँ सज धजकर तथा झुडं बनाकर चलती हैं और उनमें से एक स्त्री अपने सिर पर अनाज से भरी टोकरी लिए रहती है जिसमें मिट्टी के तोते का जोड़ा रखा रहता है। इनमें से एक शिव और दूसरा पार्वती का प्रतीक माना जाता है। स्त्रियों का झुंड टोकरी को लेकर घर घर घूमकर नाचता जाता है और तेल, चावल तथा पैसे एकत्र करता है जिससे दीवाली के अवसर पर गौरी देवी का विवाहोत्सव मनाया जाता है। रात भर नृत्य गान चलता रहता है और तीसरे दिन तोते के जोड़े को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। उदाहरण -
जाओ रे सुअना चंदन वन, नंदन बन आमा गोंद लइ आव
ना रे सूआ हो आमा गोंद लइ आव
जाए बर जाहों आमा गोंद वर कइसे क लइहों टोर
गोड़न रंगिहा पंखन उड़िहा मुँहे म लइहा टोर
इनके अतिरिक्त इस क्षेत्र में भी कुछ लोक गाथाएँ प्रचलित हैं जिन्हें गद्य के साथ ही बीच बीच के गानेवाले गाया करते हैं। ऐसे गीत प्राय: कथा में एक पात्र द्वारा दूसरे से कहे जाते हैं। 'अंकुमराजा की कहानी' और 'ढोला की कहानी' प्रमुख पद्यात्मक कहानियाँ हैं।
जो लोकगीत उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, बाँदा और हमीरपुर जिले में, ग्वालियर के विस्तृत क्षेत्र में और मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में सागर, जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, मंडला, होशंगाबाद और भोपाल के आस पास गाए जाते हैं उन्हें बुंदेलखंडी लोकगीत की संज्ञा दी जाती है। फाग, विवाह, सोहर, देवीगीत जैसे व्यापक क्षेत्रवाले गीत यहाँ भी गाए जाते हैं। चूँकि आल्हा, ऊदल, छत्रसाल, हरदौल एवं झाँसी की रानी का यह क्षेत्र रहा है, अत: इन लोकनायकों की लंबी लंबी वीरगाथाएँ भी लोकगायकों द्वारा गाई जाती हैं। ब्रजभाषा के करीब होने के कारण सूर के अनेक पद यहाँ लोकगीत बन गए हैं और इसी तरह दूसरे गीत भी चलते हैं। बारात लौटने पर वरवधू के स्वागत में जो गीत गाए जाते हैं उन्हें कहीं कहीं 'सगुन चिरैया' भी कहते हैं। एक गीत है 'ब्याह ल्याए रघुवर जानकी जू को'। इसुरी नामक जनकवि द्वारा रचित फाग खूब प्रचलित हैं। यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसने लोकगीत (बुझौवल) के माध्यम से अपनी सीमा निर्धारित की है-
भैंस बँधी है ओरछा, पड़ा हुशंगाबाद।
लगवैया है सागरे चपिया (दूध दुहने का पात्र) रेवा पार।।
बैसवाड़ी और बुंदेलखंडी लोकगीतों में काफी साम्य दिखाई पड़ता है।
बुंदेलखंडी के समीपवर्ती क्षेत्र रीब, नागौद, सुहावल, कोठी तथा मैहर के ईद गिर्द बघेली लोकगीतों का क्षेत्र है। यहाँ भी भाषा का कलेवर बदलकर प्राय: वही गीत गाए जाते हैं जो अवधी और भोजपुरी बोलियों के क्षेत्र में गाए जाते हैं। बीर पँवारे इधर बहुत चलते हैं। पद्यबद्ध बुझौवल और लोकोक्तियाँ भी खूब मिलती हैं। बुंदेलखंडी की तरह वीरगाथाएँ भी लोकगायकों द्वारा गाई जाती हैं। सोहर, विवाहगीत, पँवारे, जनेऊ गीत, देवी के गीत, विदा गीत के अतिरिक्त इस क्षेत्र का अत्यधिक सरल गीत है दादरा - 'कहउँ होतिउँ बदरिया धुमड़ि रहतेउ'। 'बनाफरी, मरारी तथा पँवारी भी बघेलखंड की उपबोलियाँ हैं। इनके लोकगीत भी बघेली लोकगीतों की तरह ही होते हैं पर बोली एवं लहजे में थोड़ा अंतर आ जाता है।
मध्यप्रदेश के निमाड़, धार, देवास और इंदौर के आसपास निमाड़ी बोली बोली जाती है। निमाड़ी किसान खेत में जब हल चलाता है तो गाता है, मजदूर मिट्टी कूटता है तो गाते हुए और स्त्रियाँ दही बिलोती हैं तो गाए बिना नहीं रहतीं। चक्की के गीत, सोहर, नामकरण, मुंडन, जनेऊ और विवाह के गीत यहाँ भी गाए जाते हैं। इस क्षेत्र के दो गीत सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं जो अन्य क्षेत्रों से भिन्न परंपरावाले हैं : 1-विवाह के समय गाए जानेवाले रुदनगीत (जो रोते हुए गाए जाते हैं), इसमें स्त्रियाँ पितरों को आमंत्रित करती हुई गाती हैं - 'जेय सरऽ ओमाऽ हमारो तो आवणी नी होय।' 2-गनगौर गीत, जो सरसता में अपना सानी नहीं रखते, चैत्र में गाए जाते हैं।
मध्यप्रदेश के उज्जैन, शाजापुर, देवास, इंदौर, राजगढ़,ब्यावरा के आसपास मालवी लोकगीत व लोकभजन गाये जाते है।
अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों को एक साथ लिखने का कारण यह है कि दोनों बोलियों में भाषा का अंतर तो अवश्य है किंतु रीति रिवाजों, परंपराओं, धर्म, जातियों एवं संस्कृति में अंतर नहीं है जिसके आधार पर लोकगीतों के प्रकार बदला करते हैं। जहाँ ये दोनों बोलियाँ मिलती हैं वहाँ से लेकर दोनों छोर तक बोलियों का भारी अंतर हो जाता है। पर गीतों के प्रकार में काफी साम्य है। संस्कार के गीतों में सोहर, मुंडन, कनछेदन, जनेऊ, विवाह एवं गौना (बहू विदाई) के गीत दोनों क्षेत्रों में गाए जाते हैं। जातीय गीतों में एक गीत बिरहा है जिसे अहीर जाति के लोग गाते हैं। कुछ बिरहे लंबे होते हैं और कुछ दो दो, चार चार पंक्तियों के छोटे बिरहे होते हैं। ऐसे 'बिरहों को' 'पितमा' कहते हैं। लंबे बिरहों में वीर अथवा शृंगार रस की प्रधानता होती है। पौराणिक आख्यानों, वीर चरित्रों पर भी बिरहे होते हैं। डोली ढोते समय कहारों के कँहरवा गीत श्रमगीत का काम करते हैं और विवाह शादी तथा कुछ उत्सवों में नृत्य के साथ कहरवा गाया जाता है। धोबियों के गीत बिरहे से मिलते जुलते हैं। ये लोग भी नाच के साथ गीत गाते हैं। चमारों का अपना गीत चनैनी भी एक तरह से नृत्यगीत ही होता है। 'नौवा झक्कड़' नाइयों के गीत को कहते हैं। मल्लाह लोग विवाह शादियों के 'मलहिया' गीत गाते हैं। यह गीत तब और रंग लाता है जब पूजन के लिए बाँस रगड़ते रगड़ते उसमें से आग निकलने लगती है। 'गंगा गीत' भी इन्हीं द्वारा गाया जाता है। जब मल्लाह नई नाव बनवाता है तो उसके जलावतरण के समय नदी तथा नाव दोनों की पूजा भिक्षाटन से अर्जित धन से की जाती है। इसमें यह भावना छिपी रहती है कि यदि भिक्षा देनेवालों में एक भी धर्मात्मा होगा तो नैया दुर्घटनाग्रस्त नहीं होगी। भीख माँगते और पूजा करते समय ये गीत गाए जाते हैं। गीत की हर पंक्ति के अंत में गंगा जी का नाम आता है। तेली जाति के लोग रात में घानी चलाते समय कथात्मक गीत 'बंजरवा' या 'नयकवा' गाया करते हैं। धार्मिक गीतों में देवीगीत, दोनों क्षेत्रों में चलते हैं। मेला गीत मेला अथवा तीर्थयात्रा को जाते समय स्त्रियों द्वारा राह में गाए जाते हैं। श्रमगीतों में जँतसार, जाँत पीसते समय गाया जाता हैं। ये गीत काफी लंबे एवं प्राय: करुणरस से ओतप्रोत होते हैं। अब तो गाँवों में भी आटा पीसनेवाली मशीनें पहुँच गई हैं, इसलिए इन गीतों का उठान होता जा रहा है। धनरोपनी के गीत धान रोपते समय ग्राम्याओं द्वारा गाए जाते हैं। 'निरवाही के गीत' खेत की निराई करते समय गाए जाते हैं।
ऋतुगीतों में तीन प्रकार के गीत आते हैं - होली, चैती और कजली। होली की चर्चा ऊपर की गई है। चैती चैत में गाई जाती हैं। चैती गीतों की ऊपर तथा टेक की पंक्तियों में 'हो रामा' शब्द आता है। होली और चैती पुरुषों के गीत हैं। अब से लगभग 20 वर्ष पूर्व एक प्रकार का गीत स्त्रियों द्वारा फागुन में ही गाया जाता था जिसका नाम था 'मनोरा झूमक'। अब यह गीत सुनने को नहीं मिलता। गीत की एक पंक्ति हैं - 'फागुन जाड़ गुलाबी मनोरा झूमक हो'। पद्मावत में भी आया है - 'चहइ मनोरा झूमक होई, फर अउ फूल लिहे सब कोई'।
कजली स्त्रियों का गीत है और पावस काल में गाया जाता है। इसके कई भेद हैं, जैसे टुनमुनियाँ, झूमर, बारहमासा और झूला गीत आदि। इन गीतों में भाई बहन के विशुद्ध प्रेम की भावनाएँ होती हैं। इस क्षेत्र में भी जननायकों की गाथाएँ लोकनायकों द्वारा गाई जाती हैं। नयकवा, बंजरवा, लोरिकी, विजयमल तथा सोरठी आदि प्रंबंध गीत बहुत प्रसिद्ध हैं। गद्य के साथ लोककथाओं में पद्य कहने की भी परंपरा है, जैसे शीत वसंत, जरेवा परेवा और सदाबृज सारंगा की कथाएँ। अन्य प्रकार के गीतों में लोरियाँ, लचारियाँ दोनों क्षेत्रों में चलती हैं किंतु पूर्वी और बिदेसिया भौजपुरी के लोकगीत हैं।
मैथिली लोकगीत बिहार प्रांत के चंपारन, दरभंगा, पूर्वी मुंगेर, भागलपुर, पश्चिमी पूर्णिया और मुजफ्फरपुर के पूर्वी भाग के ग्रामीणों द्वारा गाए जाते हैं। सोहर, जनेऊ के गीत, संमरि लग्न, गीत, नचारी, समदाउनि, झूमर तिरहुति, बरगमनी, फाग, चैतावर, मलार, मधु श्रावणी, छठ के गीत, स्यामाचकेवा, जट जटिन ओर बारहमासा यहाँ के मुख्य लोकगीत हैं। सोहर, जनेऊ, फाग, चैतावर आदि का परिचय दिया जा चुका है। 'नचारी' गीत प्राय: शिवचरित्र से भरा रहता है। जैसे - 'उमाकर बर बाउरि छवि घटा, गला माल बघ छाल बसन तन बूढ़ बयल लटपटा'। विद्यापति रचित नचारियाँ खूब गाई जाती हैं। 'समदाउनि' प्रमुख बिदा गीत है। जब लड़की ससुराल जाने लगती है तो यह गाया जाता है जो अत्यधिक करुण होता है। सीता के देश में इस गीत से यही करुणा उत्पन्न होती है जो कभी जनक के घर से उमड़ी थी, यथा, 'बड़ रे जतन हम सिया जी के पोसलों से हो रघुबंसी ने जाय आहे सखिया'। इस गीत की बहुत सी धुनें होती हैं। 'झूमर' गीत मुख्य रूप से शृंगारिक होता है और धुनों के अनुसार कई प्रकार से गाया जाता है। मैथिली क्षेत्र के झूमरों की खास विशेषता है कि उनमें अधिकांश संदेशसूचक होते हैं। हिंडोला के झूमर बहुत सरस होते हैं, जैसे 'छोटका देवर रामा बड़ा रे रंगिलवा, रेसम के डोरियवा देवरा बान्हथि हिंडोरवा'। कुछ में स्त्री पुरुष के प्रश्नोत्तर होते हैं। 'तिरहुति' गीत स्त्रियों द्वारा फागुन में गाया जाता है। पहले यह गीत छह पदों का होता था, फिर आठ का हुआ और अब तो काफी लंबा होने लगा है। उसे साहित्य में तथा लोकजीवन में मान्यता भी मिल गई है। इसमें प्राय: विरह भावनाएँ होती हैं : 'मोंहि तेजि पिय मोरा गेलाह विदेस'। साहब राम, नंदलाल, भानुनाथ, रमापति, धनवति, कृष्ण, बुद्धिलाल, चंद्रनाथ, हर्षनाथ एवं बबुज ने नामक प्राचीन लोककवियों के तिरुहुति खूब गाए जाते हैं। हर्ष की बात है कि तिरुहुति के प्राचीन रचनाकारों का नाम भी गीतों के साथ ही जा रहा है जबकि अन्य गीतों के साथ यह बात नहीं है। बटगमनी (पथ पर गमन करनेवाली) मुख्य रूप से राह का गीत है। मेले ठेले में जाती ग्राम्याएँ, नदी किनारे से लौटती हुई पनिहारिनें प्राय: बटगमनी गाया करती हैं। इस गीत का एक नाम सजनी भी है। इसमें संयोग और वियोग दोनों भावनाएँ होती हैं। गीत की पंक्ति है - 'जखन गगन धन बरसल सजनि गे सुनि हहरत जिव मोर'। पावस ऋतु में स्त्रियाँ बिना बाजे के और पुरुष बाजे के साथ मलार गाते हैं। जैसे - कारि कारि बदरा उमड़ि गगन माझे लहरि बहे पुरवइया। मधुश्रावणी गीत इसी नाम के त्योहार के समय गाया जाता है जो श्रावण शुक्ल तृतीया को पड़ता है। मधुश्रावणी नवविवाहितों का भविष्यबोधक है। इस पर्व पर एक भयंकर विधि इसलिए की जाती है कि विवाहिता अधिक दिनों तक सधवा रहेगी या नहीं। उसे दीपक से जला दिया जाता है। यदि छाला खूब उभरता है तो शुभ है। छठ के गीत - सूर्यषष्ठी ्व्रात (कार्तिक शुक्ल षष्ठी) के उपलक्ष्य में गाए जाते हैं। कहीं कहीं चैत्र शुक्ल षष्ठी को भी यह ्व्रात पड़ता है। छठ के गीत पूर्णत: धार्मिक गीत हैं और सौभाग्य तथा पतिप्रेम के दायक है। स्त्रियाँ गाती हैं - 'नदिया के तीरे तीरे बोअले में राइ। छठी माई के मृगा चरिय चरि जाइ।' स्याम चकेवा एक खेल गीत है जो कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक खेल में गाया जाता है। स्यामा बहन और चकेवा भाई के अतिरिक्त इस खेल के चंगुला, सतभइया, खंडरित्र, झाँझी बनतीतर कुत्ता और वृंदावन नामक छह और पात्र हैं। खेल भाई बहन के विशुद्ध प्रेम का पोषक है। बहनें गाती हैं - 'किनकर हरिअर हरिअर दिभवा गे सजनी। जट जटिन एक अभिनय गीत है। जट (पुरुष पात्र) एक तरफ और जटिन (स्त्री पात्र) दूसरी ओर सज-धजकर खड़ी होती हैं। दोनों ओर प्रधान पात्रों के पीछे पंक्तिबद्ध स्त्रियाँ खड़ी हो जाती हैं। इसके बाद जट जटिन का सवाल जवाब गीतों के माध्यम से आरंभ हो जाता है। ये गीत शरद निशा में गाए जाते हैं।
कुमाऊँनी लोकगीत मध्य हिमालय के नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल, टेहरी, पिथौरागढ़, चमौली और उत्तर काशी में रहनेवाली पर्वतीय जातियों के गीत हैं। इन गीतों को दो भागों में बाँटा जा सकता हैं : 1-संस्कार के गीत, जो नारियों द्वारा पुत्रजन्म, नामकरण, यज्ञोपवीत एवं विवाह के समय गाए जाते हैं, तथा 2-मेलों, त्योहारों और ऋतुओं के गीत। इस क्षेत्र के प्राय: सभी संस्कार शंकुनाखरगीत से आरंभ होते हैं। इनमें गणेश, ब्रह्मा, राम तथा अन्य देवताओं से कार्यसिद्धि की प्रार्थना की जाती है। गीतों में मनुष्य, पशु, पक्षी संदेशवाहक का कार्य करते दिखाई पड़ते हैं, जो देवी देवताओं के अतिरिक्त दूरस्थ संबंधियों का भी संदेश ले जाते हैं। बिदाई के गीत अन्य स्थानों की तरह ही मार्मिक होते हैं।
दूसरे प्रकार के गीतों में झोड़ा, चाँचरी भगनौल और बैर प्रमुख हैं। इन गीतों में सामाजिक जीवन एवं समस्याओं की विशेष चर्चा रहती है। ये विभिन्न मेलों एवं उत्सवों के अवसर पर गाए जाते हैं। इन्हें कई गायक अथवा गायिकाएँ मिलकर गाती हैं। ऋतुगीतों को यहाँ 'ऋतुरेण' कहते हैं। ये गीत चैत मास में गाए जाते हैं। ऋतुरेण में मंगलसूचक एवं प्राकृतिक सौंदर्य की बहुलता होती है। ग्रामगायक 'औजी', जिन्हें ढ़ोली भी कहते हैं, एक गीतबद्ध कथा सुनाते हैं, जो भाई-बहन के विशुद्ध स्नेह पर आधारित हैं। 'हंडुकिया बोल' यहाँ के किसानों का गीत है। यह गीत धान की रोपाई के अवसर पर नर नारियों द्वारा गाया जाता है। इनमें स्थानीय नायकों (राणरौत रामीबौर हिसहित आदि) की गाथाएँ बद्ध होती हैं। प्रेम के फुटकर गीत भी खूब चलते हैं। बरुँश नामक लाल फूल प्रेमी का प्रतीक माना जाता है। अत: कई गीतों में इसका नाम आता है, जैसे, 'पारा डाना बुरुंशी फुलै छ, में जे कौनूं मेरि हिरु ए रे छ।' नैनीताल से लेकर काठगोदाम तक के बीच के पर्वतीय क्षेत्र में एक अलिखित लोक महाकाव्य प्रचलित है जिसका नाम है 'मालूसाही'। कुमाऊँनी लोकसाहित्य में इसके टक्कर की कोई रचना है ही नहीं। धर्मगाथाओं के अंतर्गत 'जागर' (जागरण) गीत अधिक प्रचलित हैं। उत्तर काशी, पिथौरागढ़ एवं चमौली में प्रचलित पांडव नृत्य के समय जागर गीत गाए जाते हैं। इसमें महाभारत के विभिन्न आख्यान गीतबद्ध होते हैं। यह गीत क्रमश: द्रुततर होता जाता है। इसके अंतर्गत किसी एक व्यक्ति पर देवात्मा की अवतारणा की जाती है। जब वह आत्मा उसके ऊपर अवतरित होती है, वह उठकर नाचनेगाने लगता है। भोलानाथ, एड़ी, ग्वाला आदि ग्रामदेवताओं के 'जागर' के अतिरिक्त नंदादेवी का 'वैसी जागर' इतना लंबा होता है कि व 22 दिनों में समाप्त होता है। 'घोड़ी नृत्य' गीत भी चलता है। इसमें बाँस पर 'ओहार' (पर्दा) डालकर घोड़ी बनाई जाती है जिसके बीच में नर्तक इस तरह खड़ा होकर घोड़ी को कमर से पकड़ता है कि वह सवार जैसा मालूम होता है। नर्तकों का जोड़ा तलवार भाँजता है, गायक गीत गाते हैं। 'भड़ौ' नामक गीत प्राचीन जातीय वीरों, जिनमें दिगोली भाना, काले कहेड़ी, नागी भागी भल, सुपिया रौत और अजुआ बफौल आदि के वृत्तांत होते हैं, वीरगाथाओं के रूप में गाया जाता है।
वर्तमान हिंदीभाषी क्षेत्र प्राचीन भारत का 'मध्य देश' है। इस क्षेत्र में बोली जानेवाली बोलियों को भाषा वैज्ञानिकों ने चार भागों में बाँटा है। 'पश्चिमी हिंदी' जिसके अंतर्गत खड़ी बोली, ब्रज, बांगरू, कन्नौजी, राजस्थानी तथा बुंदेलखंडी भाषाएँ आती हैं। अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी मध्य की भाषाएँ हैं और इसके पूर्व में बिहारी भाषा समुदाय की भोजपुरी, मैथिली तथा मगही भाषाएँ हैं। उत्तर में कुमाऊँनी भाषा है जो नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल, टेहरी गढ़वाल, पिथौरागढ़, चमौली तथा उत्तर काशी में बोली जाती है। बोलियों की बहुत सी उप-बोलियाँ भी हैं, जिनके लोकगीतों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा। लोकगीत चाहे कहीं के भी हों वे प्राचीन परंपराओं, रीतिरिवाजों एव धार्मिक तथा सामाजिक जीवन के या यों कहिए कि संस्कृति के द्योतक हैं। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों के विविध लोकगीतों का परिचय देने के पूर्व ऐसे गीतों की चर्चा करे की जा रही है जो मात्र शब्दावली बदलकर अनेक क्षेत्रों में गाए जाते हैं। इनमें भाषा अथवा बोली की अनकता भले हो पर भाव की एकता एवं उसे व्यक्त करने तथा पात्रों का चयन एक जैसा होता है। ऐसे गीतों में ऋतुसंबंधी गीत, संस्कार गीत और जातीय गीत मुख्य रूप से आते हैं। पद्य गाथाएँ एवं पँवारे भी विभिन्न प्रकार से गाए जाते हैं।
ऋतुगीतों में फाग और पावस गीत ऐसे हैं जो अनेक क्षेत्रों में प्रचलित दिखाई पड़ते हैं। फाग गीत मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है जो बसंतपंचमी से लेकर होलिकादहन के सबेरे तक गाया जाता है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, बैसवाड़ी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत पाए जाते हैं। फाग के होली, चौताल, डेढ़ताल, तिनताल, देलवइया, उलारा, चहका, लेज, झूमर और कबीर आदि अनेक प्रकार हैं। इन सब में केवल घुनों का अंतर है। पावस गीतों की भी बहुक्षेत्रीय परंपरा है। ये गीत उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं किंतु अवधी और भोजपुरी में अधिक प्रचलित हैं। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें कजली कहा जाता है। संस्कार के गीतों में सोहर (जन्मगीत), मुंडन, जनेऊ, के गीत और विवाह के गीत प्राय: सभी स्थानों में गाए जाते हैं। मृत्यु के समय प्राय: प्रत्येक क्षेत्र की स्त्रियाँ राग बाँधकर रोती हैं। जातीय गीतों में काफी पृथक्ता होती है किंतु जहाँ एक ही जाति के लोग अनेक क्षेत्रों में बसे हैं, उनके गीतों की मूल प्रवृत्ति एक जैसी ही है। जैसे, पँवरिया जाति के लोग पँवारा, नट जाति के लोग आल्हा, अहीर जाति के लोग विरहा कई क्षेत्रों में गाते हैं। पद्य गाथाएँ तो प्राय: सभी क्षेत्रों में मिल जाती हैं। ये स्थानीय जननायकों के चरित्रों पर आधारित होती हैं।
प्राय: सभी क्षेत्रों में माताएँ बच्चों को सुलाने के लिए लोरी तथा प्रात: उन्हें जगाने के लिए प्रभाती गाया करती हैं। बालक बालिकाएँ भी कुछ खेलों में गीतों का सहारा लेते हैं। बहुत से ऐसे खेल भी हैं जिनमें वयस्क स्त्री पुरुष गीत गाया करते हैं। लोकप्रचलित भजन और श्रमगीत तो सभी क्षेत्रों में गाए जाते हैं। लोकगाथाओं में ऐसी बहुत सी गाथाएँ भी हैं जो कई क्षेत्रों में बीच बीच गाई जाती हैं। इन पृथक्ताओं के बावजूद गीतों की प्रवृत्ति एक जैसी ही है जिससे हिंदीभाषी क्षेत्रों की अनेकता एकता में बद्ध दिखाई पड़ती है। नीचे सभी क्षेत्रों के लोकगीतों का संक्षिप्त एवं क्रमबद्ध परिचय दिया जा रहा है।
राजस्थान का लोकगीत साहित्य बहुत घना है। जन्म के गीत सोहर को यहाँ 'हालरा' कहते हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व तक उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र में जहाँ अवधी एवं भोजपुरी बोलियाँ संगम करती हैं, किंगरिहा नाम की जाति पुत्रजन्म पर दरवाजे दरवाजे जाकर विशेष गीत गाती थी जिसके बोल 'लाले हालर:' हैं। इस क्षेत्र में प्राय: यह गीत अब सुनने को नहीं मिलता। राजस्थान में गाया जानेवाला हालरा समाप्ति के लिए स्वतंत्र हैं। जैसे, 'मारे वीरे जी रे बेटो जायो'। 'झाडूलो' मुंडन के गीतों को कहते हैं। यहाँ प्रत्येक शुभ कार्य की पूर्ति के लिए स्त्रियों द्वारा 'विनायक गीत' गाकर गणेश को प्रसन्न करने की परंपरा है। विवाह में आरंभ से लेकर अंत तक जब जब गीत आरंभ होता है, पहले विनायक वंदना अवश्य होती है - 'गढ़ रणत भँवर सूँ आवो विनायक।' 'पीठी' गीत लगन आरंभ होने के बाद भावी वर वधू को नियमत: उबटन लगाते समय गाया जाता है - 'मगेर रा मूँग मँगायो ए म्हाँ री पीठी मगर चढ़ावो ए'। विवाह होने के पूर्ववाली रात को यहाँ 'मेहँदी की रात' कहा जाता है। उस समय कन्या एवं वर को मेहँदी लगाई जाती है और मेहँदी गीत गाया जाता है - 'मँहदी वाई वाई बालड़ा री रेत प्रेम रस मँहदी राजणी।' विवाह में वर के माथे पर मौर बाँधते समय 'सेवरो' (सेहरा) गाया जाता है - 'म्हाँरे रंग बनड़े रा सेवरा'। बारात जब विवाह के लिए चलती है तो दूल्हे को घोड़ी पर बैठाया जाता है। उस समय घोड़ी गीत गाया जाता है। जैसे, - 'घोड़ी बाँधों अगर रे रूंख मोड दरवाजे चंपेरी दोय कलियाँ वे।'
राजस्थानी बोली में कामण नामक एक गीत गाया जाता है। कामण का अर्थ जादू टोना है। यह गीत उस समय गाते हैं जब बारात विवाह के लिए वर के घर से चलती है - 'काँगड़ आया राईं वर धरहर कंप्या, राज बूझां सिरदार बनी ने कामण कूण कइया छै राज।' राजस्थानी स्त्रियाँ जब वर एवं बारात, का न्योता देने के लिए जनवासे में जाती हैं अथवा जब वे कुम्हार की चाक पूजने जाती हैं तो 'जलो गीत' गाती हैं जैसे - 'जला जी मारू, म्हे तो थां डेरा निरखण आई हो मिरणा नैणी रा जलाल'। हस्ताधान से लेकर विवाह तक प्राय: प्रतिदिन वर कन्या के घर 'बनड़े बनड़ी' के गीत गाए जाते हैं। जैसे - 'काँची दाख हेठे बनडी पान चावै, फूल सूँघे करे ए बाबेजी, सूँ बीनती।' बधू जब पीहर से विदा होती है तो 'आलूँ' गीत गाया जाता है जो बहुत ही करुण होता है - 'म्हे थाने पूछाँ म्हाँ री घवड़ी इतरो बाधे जी रो लाड छोड़ र, बाई सिघ चाल्या।' इसी प्रकार 'बधावै' भी विदा गीत ही है।
भात भरना राजस्थान की एक महत्वपूर्ण प्रथा है। इसे 'माहेरा' भी कहते हैं। जिस स्त्री के घर पुत्र या पुत्री का विवाह पड़ता है वह घर की अन्य स्त्रियों के साथ परात में गेहूँ और गुड़ लेकर नैहरवालों को निमंत्रण देने जाती है। इसको 'भात' कहते हैं। मूल रूप में भात भाई को दिया जाता है। भाई के अभाव में पीहर के अन्य लोग 'माहेरा' स्वीकार कर वस्त्र तथा धन सहायता के रूप में देते हैं। इस अवसर पर भात गीत की तरह अनेक गीत गाए जाते हैं। एक प्रसिद्ध गीत की पंक्ति है - 'थारा घोड़लिया शिण गारो, जी मारूंजी भात भरण ने चालो रूड़े भाण जै'। जब बारात ब्याह के लिए चली जाती है तो वर पक्ष की स्त्रियाँ रात के पिछले पहर में 'राती जागो' नामक गीत गाती हैं। देवी देवताओं के गीतों में 'माता जी', 'बालाजी' (हनुमान जी), भेरूँ जी, सेड़ल माता, सतीराणी, पितराणी आदि को प्रसन्न करने की भावना छिपी है। सबके अलग अलग गीत होते हैं।
राजस्थानी स्त्रियाँ कार्तिक शुक्ल पक्ष में तुलसी का त्यौहार मनाती हैं। तीन दिनों का ्व्रात रखती हैं तथा पूजन के अवसर पर गाती हैं - धन बाई तुलछाँ धन धन थारो नाम। 'धनवाई, तुलछाँ उत्तम काम।' क्वाँरी लड़कियों का त्यौहार गँवर है जो उत्तम वर की प्राप्ति के लिए चैतमास में होलिकादहन के दूसरे दिन से शुक्ल चतुर्थी तक मनाया जाता है। इसे गणगौर भी कहते हैं। गौरी पूजन करते समय जो गीत गाए जाते हैं उनमें प्रमुख गीत की पंक्ति हैं - 'हे गवरल रूड़ो है न जारो तीखा है नैणां रो, गढ़ां है कोराँ-सूँ गवरल ऊतरी'। गणगौर के प्रसिद्ध मेले में गौरी प्रतिमा की शोभायात्रा निकाली जाती है और गाया जाता है - 'गवर गिण गोर माता खोल किवाड़ी।' शीतलाष्टमी के पश्चात् मिट्टी के कूँड़े में गेहूँ या जौ बाए जाते हैं, उनकी जई से गौरीपूजा की जाती है। इसके गीत अलग होते हैं। पूजन के लिए फूल चुनते समय अन्य गीत गाए जाते हैं। पूजन करनेवाली कन्याएँ 'घुड़ला' (छिद्रोंवाला घड़ा जिसमें दीपक जलता रहता है) लेकर गाती हुई अपने सगे संबंधियों के यहाँ जाती है। इसे 'घुड़ला घुमाना' कहा जाता है। गीत है - 'घुड़लो घूमै छै जी घूमै छै।' तीज यहाँ का सर्वाधिक प्रिय पावसकालीन पर्व है। जैसे अवधी एवं पूर्वी हिंदी क्षेत्र में सावन भादों में कजली के लिए स्त्रियाँ पीहर में बुलाई जाती हैं, उसी प्रकार तीज के अवसर पर राजस्थानी स्त्रियाँ भी नैहर में बुलाई जाती है। तीज के गीतों में भाई-बहन के शुद्ध प्रेम के गीत गाए जाते हैं जैसे, 'सुरंगी रूत आई म्हारे देश'। होली के अवसर पर भी लड़कियाँ गीत गाती हैं। इनके अतिरिक्त और भी बहुत से गीत हैं। पनिहारी गीत राजस्थान के प्रमुख लोकगीत हैं जो पनिहारिनों द्वारा सामूहिक रूप से सिर पर जल से भरे घड़े लेकर घर जाते आते गाया जाता है। दांपत्य प्रेम के अनेक गीत हैं। इनमें पक्षी प्रियतम को संदेश ले जाते हैं। वृक्ष भी मनुष्य की तरह बातें करते हैं। बालिकाएँ खेलते समय बड़े सुंदर सुंदर भोले गीत गाती हैं। राजस्थानी लोकनायकों, वीर सिपाहियों पर आधारित अनेक गीत मिलते हैं जो विभिन्न धुनों में गाए जाते हैं। 'गोगोजी' रामदेव जी, उमादे (रूठी रानी) की गीतकथा (जो जैसलमेर के रावल लूणकरण की लड़की थी), राजपूत जोर सिंह तथा 'राणा काछवे' के पद्यगीत खूब गाए जाते हैं। (दे. राजस्थान रिसर्च सोसाइटी द्वारा प्रकाशित राजस्थान के लोकगीत)।
ब्रजमंडल के निवासियों द्वारा गाए जानेवाले गीत भाषा और भाव की दृष्टि से अत्यंत सरस होते हैं। जन्म के गीतों में सोभर (सोहर), ननद भावज, नेगा के गीत, छठी के गीत और ज़गमोहन लुगरा नामक गीत प्रसिद्ध हैं। विवाह के गीतों में सगाई, पीली चिट्ठी, लगुन, भात न्योतना, हरद हात, रतजगा, तेल, घूरा पूजन, अछूता, मढ़ावा गाड़ना, भात, ब्याह का दिन, भाँवर, बढ़ार गीत, पलकाचार, रहस बधावा, बंदनवार, मुँहमड़ई, विदा, वरगी वर के घर, बहू नचना, दर्द देवता के गीत, लग्न के गीत, भात के गीत, रतजगे के गीत, सतगढ़ा, लाड़ी, गारी, पलकाचार, खेल के गीत, पूरनमल और छद्म के गीत मुख्य हैं। त्यौहार, ्व्रात एंव देवी आदि के गीतों में देवीगीत, जाहर पीर, एकादशी का गीत, श्रावण गीत, कार्तिक के गीत, देवठान के गीत और होली उल्लेखनीय हैं। प्रबंध गीतों में पवाँरे, बहुला, सरमन (श्रवण) ढोला, मदारी का ढोला, लवकुश के गीत और हिरनावती अधिक गाए जाते हैं। अन्य गीतों में टेसू माझी के गीत, चट्टों के गीत, तीर्थों के गीत, पुरहे के गीत, सिला बीनने के गीत, बधाया और हीरों का नाम आता है। मृत्यु के समय यहाँ के स्त्रियाँ भी हिंदीभाषी अन्य क्षेत्रों की भाँति पद्यमय रुदन (विलाप) करती हैं (दे. डाक्टर सत्येंद्र लिखित '्व्राज लोकसाहित्य का अध्ययन')।
छत्तीसगढ़ (मध्य प्रदेश) क्षेत्र में 'लटिया' (संबलपुर जिले की बोली) और 'खलौटी' (बालाघाट जिले के आस पास की बोली) का संयुक्त रूप छत्तीसगढ़ी है। देवी गीत, बारहमास, भोजली गीत, ददरिया, डंडा गीत, होली, गहिरागीत, बाँसगीत, पुतरा पुतरी के गीत, मंडप गान, छैला और सोहर, इस क्षेत्र के गीत हैं। बोली के अंतर से देवीगीत, बारहमासा, होली और सोहर अन्य बोलियों के गीतों की भाँति होते हैं। भोजली गीत रक्षाबंधन के दिन गाया जाता है। जैसे उत्तर प्रदेश में कजली के दिनों जई बोई जाती है उसी प्रकार यहाँ भोजली लगाई जाती है। रक्षाबंधन के दिन भोजली का जुलूस निकलता है। भोजली तालाब में सिराई जाती है। पश्चात् काफी रात गए एक युवक एवं युवतियाँ गाँव के गुरुजनों का पाँव छूती हैं। गीत इस प्रकार है -
डंडा गीत वर्ष में दो बार, क्वार तथा फागुन में, पुरुषों द्वारा डंडा नृत्य के समय गाया जाता है। नाचते गाते समय गायक एक दूसरे के डंडे पर एक साथ मारते हैं। एक आदमी 'कुट्टी' शब्द का उच्चारण करता है जिसे कुट्टकी पाड़ना कहते हैं। इसके बाद नृत्य के साथ गीत आरंभ हो जाता है। गीत गाते समय 'उई' शब्द से ताल का संकेत किया जाता है।
रावतों द्वारा कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक गहिरा गीत गाया जाता है। गाते समय लाठी से पैतरा भी भाँजते हैं। रावत जिनकी गाय चराते हैं उनके दरवाजे पर जाकर गीत गाते हैं। गाने के पूर्व दुधारू गाय के गले में सुहई (पलाश की जड़ की छाल से बनती है) रक्षा के भाव से बाँधते हैं और तब भीने स्वर में गाते हैं -
धन गोदानी भुइयाँ पावा, पावा हमर असीस।
नाती पूत ले घर भर जावे जीवा लाख बरीस। अथवा
बैठो मालिक रंग महल में लेओ हमार असीस। इत्यादि।
रावतों का ही दूसरा गीत बाँस गीत है। कदाचित् दो हाथ लंबी-लंबी बाँस की मोटी बाँसुरी के साथ गाए जाने के कारण ही इस गीत का बाँस गीत कहते हैं।
विवाह गीत है। अन्य क्षेत्रों की भाँति यहाँ भी स्त्रियों के स्थान पर कुमारियाँ पुतरा पुतरी का ब्याह रचाती हैं और गाती हैं -
नवा बन के हम कनई मँगायेन, वृंदावन के बाँसे हो।
वही बाँस के हम मड़वा छायेन, छड़ गए धरती अकासे हो।।
जब बारात मंडप में आती है तो मंडप गीत गाया जाता है। इसी तरह भाँवर के गीत भी गाए जाते हैं। उपर्युक्त गीतों के अतिरिक्त 'देवारों' द्वारा गीतबद्ध गाथाएँ भी गाई जाती हैं।
सतपुड़ा की घाटियों में बसनेवाली गोंड जाति की गोंडो बोली का लोकसाहित्य काफी धनी है। इस बोली में गीत को 'पाटा' और गाने को 'बराना' कहते हैं। ददरिया, करमा और सुवा इनके प्रमुख लोकगीत हैं।
नामक गीत श्रमगीत है जो महुआ बीनते, लकड़ी तोड़ते, पत्ते बटोरते समय या खेत खलिहान में काम करते समय गाया जाता है। यह अकेले एवं समवेत रूप में भी गाया जाता है। इसकी धुनें इतनी मादक एवं सरस होती हैं कि इस क्षेत्र में इसे 'गीतों की रानी' कहा जाता है। स्त्री और पुरुष में से कोई गीत आरंभ करता है और दूसरा उसका उत्तर देता है। वैसे तो ददरिया कई प्रकार का होता है परंतु पठारी और कछारी नामक ददरिया गीतों को अधिक ख्याति मिली है। महुआ बीनते समय जब स्त्रियाँ ददरिया गाती हैं तो वनप्रांत गूँज उठता है। इसे 'साल्हों' भी कहा जाता है। ददरिया की यह शैली छत्तीसगढ़ के चारों ओर प्रचलित है। मंडला की ओर इसे चाकर कहते हैं। एक उदाहरण है -
युवती : करे मुखारी करौंदा रुख के
एक बोली सुना दै आपन मुख के।
युवक :एक ठन आमा के दुई फाँकी
मोर आँखीय आँखी झुलते तौर आँखी।
करमागीत की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि प्राचीन काल में करमा नाम का राजा जब किसी विपत्ति में फँसा तो उसने देवता की मनौती की। उसने उस समय जो गान देवता को प्रसन्न करने के लिए गाया वही करमा गीत कहा जाने लगा। करमा नृत्य भी होता है। छत्तीसगढ़ी रावतगणों द्वारा यह गीत करमसेन देवता को प्रसन्न करने के लिए गाया जाता है। इसके लिए भादों की पूर्णिमा को पर्व मनाया जाता है। इसका प्रचार मंडला, छत्तीसगढ़ और मिरजापुर के अरण्यवर्ती दक्षिणी क्षेत्र में है। करमा, झूमर, करमा लहकी, करमा ठाढ़ा, बैगानी झूमर और करमा रागिनी इसकी प्रमुख प्राचीन शैलियाँ हैं किंतु अब तो इनमें भी नवीनता का प्रवेश होता जा रहा है। करमा झूमर युवक और युवतियों द्वारा झूम-झूमकर गाया जाता है। करता लहकी एक मादक गीत है। करमा ठाढ़ा खड़े होकर गाया जाता है। बैंगनी झूमर बैगा जाति के लोग गाते हैं। इस समय वे एक साथ नाचते हैं। करमा रागिनी बैठकर गाई जाती है। कुछ लोग बैठकर अलग अलाप लेते हैं और अधिक लोग नाचते हैं। उदाहरण -
बैला चलित राई घाट करौंदे
बैला छोटे छोटे रे -
डोंगर मां आगी लगै जरत है पतेरा
सुन सुन के हीरा मोर जरत है करेजा
बैला छोटे छोटे रे।
दीपावली के अवसर पर 'सूआ गीत' गाया जाता है। स्त्रियाँ सज धजकर तथा झुडं बनाकर चलती हैं और उनमें से एक स्त्री अपने सिर पर अनाज से भरी टोकरी लिए रहती है जिसमें मिट्टी के तोते का जोड़ा रखा रहता है। इनमें से एक शिव और दूसरा पार्वती का प्रतीक माना जाता है। स्त्रियों का झुंड टोकरी को लेकर घर घर घूमकर नाचता जाता है और तेल, चावल तथा पैसे एकत्र करता है जिससे दीवाली के अवसर पर गौरी देवी का विवाहोत्सव मनाया जाता है। रात भर नृत्य गान चलता रहता है और तीसरे दिन तोते के जोड़े को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। उदाहरण -
जाओ रे सुअना चंदन वन, नंदन बन आमा गोंद लइ आव
ना रे सूआ हो आमा गोंद लइ आव
जाए बर जाहों आमा गोंद वर कइसे क लइहों टोर
गोड़न रंगिहा पंखन उड़िहा मुँहे म लइहा टोर
इनके अतिरिक्त इस क्षेत्र में भी कुछ लोक गाथाएँ प्रचलित हैं जिन्हें गद्य के साथ ही बीच बीच के गानेवाले गाया करते हैं। ऐसे गीत प्राय: कथा में एक पात्र द्वारा दूसरे से कहे जाते हैं। 'अंकुमराजा की कहानी' और 'ढोला की कहानी' प्रमुख पद्यात्मक कहानियाँ हैं।
जो लोकगीत उत्तर प्रदेश के झाँसी, जालौन, बाँदा और हमीरपुर जिले में, ग्वालियर के विस्तृत क्षेत्र में और मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग में सागर, जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, मंडला, होशंगाबाद और भोपाल के आस पास गाए जाते हैं उन्हें बुंदेलखंडी लोकगीत की संज्ञा दी जाती है। फाग, विवाह, सोहर, देवीगीत जैसे व्यापक क्षेत्रवाले गीत यहाँ भी गाए जाते हैं। चूँकि आल्हा, ऊदल, छत्रसाल, हरदौल एवं झाँसी की रानी का यह क्षेत्र रहा है, अत: इन लोकनायकों की लंबी लंबी वीरगाथाएँ भी लोकगायकों द्वारा गाई जाती हैं। ब्रजभाषा के करीब होने के कारण सूर के अनेक पद यहाँ लोकगीत बन गए हैं और इसी तरह दूसरे गीत भी चलते हैं। बारात लौटने पर वरवधू के स्वागत में जो गीत गाए जाते हैं उन्हें कहीं कहीं 'सगुन चिरैया' भी कहते हैं। एक गीत है 'ब्याह ल्याए रघुवर जानकी जू को'। इसुरी नामक जनकवि द्वारा रचित फाग खूब प्रचलित हैं। यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसने लोकगीत (बुझौवल) के माध्यम से अपनी सीमा निर्धारित की है-
भैंस बँधी है ओरछा, पड़ा हुशंगाबाद।
लगवैया है सागरे चपिया (दूध दुहने का पात्र) रेवा पार।।
बैसवाड़ी और बुंदेलखंडी लोकगीतों में काफी साम्य दिखाई पड़ता है।
बुंदेलखंडी के समीपवर्ती क्षेत्र रीब, नागौद, सुहावल, कोठी तथा मैहर के ईद गिर्द बघेली लोकगीतों का क्षेत्र है। यहाँ भी भाषा का कलेवर बदलकर प्राय: वही गीत गाए जाते हैं जो अवधी और भोजपुरी बोलियों के क्षेत्र में गाए जाते हैं। बीर पँवारे इधर बहुत चलते हैं। पद्यबद्ध बुझौवल और लोकोक्तियाँ भी खूब मिलती हैं। बुंदेलखंडी की तरह वीरगाथाएँ भी लोकगायकों द्वारा गाई जाती हैं। सोहर, विवाहगीत, पँवारे, जनेऊ गीत, देवी के गीत, विदा गीत के अतिरिक्त इस क्षेत्र का अत्यधिक सरल गीत है दादरा - 'कहउँ होतिउँ बदरिया धुमड़ि रहतेउ'। 'बनाफरी, मरारी तथा पँवारी भी बघेलखंड की उपबोलियाँ हैं। इनके लोकगीत भी बघेली लोकगीतों की तरह ही होते हैं पर बोली एवं लहजे में थोड़ा अंतर आ जाता है।
मध्यप्रदेश के निमाड़, धार, देवास और इंदौर के आसपास निमाड़ी बोली बोली जाती है। निमाड़ी किसान खेत में जब हल चलाता है तो गाता है, मजदूर मिट्टी कूटता है तो गाते हुए और स्त्रियाँ दही बिलोती हैं तो गाए बिना नहीं रहतीं। चक्की के गीत, सोहर, नामकरण, मुंडन, जनेऊ और विवाह के गीत यहाँ भी गाए जाते हैं। इस क्षेत्र के दो गीत सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं जो अन्य क्षेत्रों से भिन्न परंपरावाले हैं : 1-विवाह के समय गाए जानेवाले रुदनगीत (जो रोते हुए गाए जाते हैं), इसमें स्त्रियाँ पितरों को आमंत्रित करती हुई गाती हैं - 'जेय सरऽ ओमाऽ हमारो तो आवणी नी होय।' 2-गनगौर गीत, जो सरसता में अपना सानी नहीं रखते, चैत्र में गाए जाते हैं।
मध्यप्रदेश के उज्जैन, शाजापुर, देवास, इंदौर, राजगढ़,ब्यावरा के आसपास मालवी लोकगीत व लोकभजन गाये जाते है।
अवधी और भोजपुरी के लोकगीतों को एक साथ लिखने का कारण यह है कि दोनों बोलियों में भाषा का अंतर तो अवश्य है किंतु रीति रिवाजों, परंपराओं, धर्म, जातियों एवं संस्कृति में अंतर नहीं है जिसके आधार पर लोकगीतों के प्रकार बदला करते हैं। जहाँ ये दोनों बोलियाँ मिलती हैं वहाँ से लेकर दोनों छोर तक बोलियों का भारी अंतर हो जाता है। पर गीतों के प्रकार में काफी साम्य है। संस्कार के गीतों में सोहर, मुंडन, कनछेदन, जनेऊ, विवाह एवं गौना (बहू विदाई) के गीत दोनों क्षेत्रों में गाए जाते हैं। जातीय गीतों में एक गीत बिरहा है जिसे अहीर जाति के लोग गाते हैं। कुछ बिरहे लंबे होते हैं और कुछ दो दो, चार चार पंक्तियों के छोटे बिरहे होते हैं। ऐसे 'बिरहों को' 'पितमा' कहते हैं। लंबे बिरहों में वीर अथवा शृंगार रस की प्रधानता होती है। पौराणिक आख्यानों, वीर चरित्रों पर भी बिरहे होते हैं। डोली ढोते समय कहारों के कँहरवा गीत श्रमगीत का काम करते हैं और विवाह शादी तथा कुछ उत्सवों में नृत्य के साथ कहरवा गाया जाता है। धोबियों के गीत बिरहे से मिलते जुलते हैं। ये लोग भी नाच के साथ गीत गाते हैं। चमारों का अपना गीत चनैनी भी एक तरह से नृत्यगीत ही होता है। 'नौवा झक्कड़' नाइयों के गीत को कहते हैं। मल्लाह लोग विवाह शादियों के 'मलहिया' गीत गाते हैं। यह गीत तब और रंग लाता है जब पूजन के लिए बाँस रगड़ते रगड़ते उसमें से आग निकलने लगती है। 'गंगा गीत' भी इन्हीं द्वारा गाया जाता है। जब मल्लाह नई नाव बनवाता है तो उसके जलावतरण के समय नदी तथा नाव दोनों की पूजा भिक्षाटन से अर्जित धन से की जाती है। इसमें यह भावना छिपी रहती है कि यदि भिक्षा देनेवालों में एक भी धर्मात्मा होगा तो नैया दुर्घटनाग्रस्त नहीं होगी। भीख माँगते और पूजा करते समय ये गीत गाए जाते हैं। गीत की हर पंक्ति के अंत में गंगा जी का नाम आता है। तेली जाति के लोग रात में घानी चलाते समय कथात्मक गीत 'बंजरवा' या 'नयकवा' गाया करते हैं। धार्मिक गीतों में देवीगीत, दोनों क्षेत्रों में चलते हैं। मेला गीत मेला अथवा तीर्थयात्रा को जाते समय स्त्रियों द्वारा राह में गाए जाते हैं। श्रमगीतों में जँतसार, जाँत पीसते समय गाया जाता हैं। ये गीत काफी लंबे एवं प्राय: करुणरस से ओतप्रोत होते हैं। अब तो गाँवों में भी आटा पीसनेवाली मशीनें पहुँच गई हैं, इसलिए इन गीतों का उठान होता जा रहा है। धनरोपनी के गीत धान रोपते समय ग्राम्याओं द्वारा गाए जाते हैं। 'निरवाही के गीत' खेत की निराई करते समय गाए जाते हैं।
ऋतुगीतों में तीन प्रकार के गीत आते हैं - होली, चैती और कजली। होली की चर्चा ऊपर की गई है। चैती चैत में गाई जाती हैं। चैती गीतों की ऊपर तथा टेक की पंक्तियों में 'हो रामा' शब्द आता है। होली और चैती पुरुषों के गीत हैं। अब से लगभग 20 वर्ष पूर्व एक प्रकार का गीत स्त्रियों द्वारा फागुन में ही गाया जाता था जिसका नाम था 'मनोरा झूमक'। अब यह गीत सुनने को नहीं मिलता। गीत की एक पंक्ति हैं - 'फागुन जाड़ गुलाबी मनोरा झूमक हो'। पद्मावत में भी आया है - 'चहइ मनोरा झूमक होई, फर अउ फूल लिहे सब कोई'।
कजली स्त्रियों का गीत है और पावस काल में गाया जाता है। इसके कई भेद हैं, जैसे टुनमुनियाँ, झूमर, बारहमासा और झूला गीत आदि। इन गीतों में भाई बहन के विशुद्ध प्रेम की भावनाएँ होती हैं। इस क्षेत्र में भी जननायकों की गाथाएँ लोकनायकों द्वारा गाई जाती हैं। नयकवा, बंजरवा, लोरिकी, विजयमल तथा सोरठी आदि प्रंबंध गीत बहुत प्रसिद्ध हैं। गद्य के साथ लोककथाओं में पद्य कहने की भी परंपरा है, जैसे शीत वसंत, जरेवा परेवा और सदाबृज सारंगा की कथाएँ। अन्य प्रकार के गीतों में लोरियाँ, लचारियाँ दोनों क्षेत्रों में चलती हैं किंतु पूर्वी और बिदेसिया भौजपुरी के लोकगीत हैं।
मैथिली लोकगीत बिहार प्रांत के चंपारन, दरभंगा, पूर्वी मुंगेर, भागलपुर, पश्चिमी पूर्णिया और मुजफ्फरपुर के पूर्वी भाग के ग्रामीणों द्वारा गाए जाते हैं। सोहर, जनेऊ के गीत, संमरि लग्न, गीत, नचारी, समदाउनि, झूमर तिरहुति, बरगमनी, फाग, चैतावर, मलार, मधु श्रावणी, छठ के गीत, स्यामाचकेवा, जट जटिन ओर बारहमासा यहाँ के मुख्य लोकगीत हैं। सोहर, जनेऊ, फाग, चैतावर आदि का परिचय दिया जा चुका है। 'नचारी' गीत प्राय: शिवचरित्र से भरा रहता है। जैसे - 'उमाकर बर बाउरि छवि घटा, गला माल बघ छाल बसन तन बूढ़ बयल लटपटा'। विद्यापति रचित नचारियाँ खूब गाई जाती हैं। 'समदाउनि' प्रमुख बिदा गीत है। जब लड़की ससुराल जाने लगती है तो यह गाया जाता है जो अत्यधिक करुण होता है। सीता के देश में इस गीत से यही करुणा उत्पन्न होती है जो कभी जनक के घर से उमड़ी थी, यथा, 'बड़ रे जतन हम सिया जी के पोसलों से हो रघुबंसी ने जाय आहे सखिया'। इस गीत की बहुत सी धुनें होती हैं। 'झूमर' गीत मुख्य रूप से शृंगारिक होता है और धुनों के अनुसार कई प्रकार से गाया जाता है। मैथिली क्षेत्र के झूमरों की खास विशेषता है कि उनमें अधिकांश संदेशसूचक होते हैं। हिंडोला के झूमर बहुत सरस होते हैं, जैसे 'छोटका देवर रामा बड़ा रे रंगिलवा, रेसम के डोरियवा देवरा बान्हथि हिंडोरवा'। कुछ में स्त्री पुरुष के प्रश्नोत्तर होते हैं। 'तिरहुति' गीत स्त्रियों द्वारा फागुन में गाया जाता है। पहले यह गीत छह पदों का होता था, फिर आठ का हुआ और अब तो काफी लंबा होने लगा है। उसे साहित्य में तथा लोकजीवन में मान्यता भी मिल गई है। इसमें प्राय: विरह भावनाएँ होती हैं : 'मोंहि तेजि पिय मोरा गेलाह विदेस'। साहब राम, नंदलाल, भानुनाथ, रमापति, धनवति, कृष्ण, बुद्धिलाल, चंद्रनाथ, हर्षनाथ एवं बबुज ने नामक प्राचीन लोककवियों के तिरुहुति खूब गाए जाते हैं। हर्ष की बात है कि तिरुहुति के प्राचीन रचनाकारों का नाम भी गीतों के साथ ही जा रहा है जबकि अन्य गीतों के साथ यह बात नहीं है। बटगमनी (पथ पर गमन करनेवाली) मुख्य रूप से राह का गीत है। मेले ठेले में जाती ग्राम्याएँ, नदी किनारे से लौटती हुई पनिहारिनें प्राय: बटगमनी गाया करती हैं। इस गीत का एक नाम सजनी भी है। इसमें संयोग और वियोग दोनों भावनाएँ होती हैं। गीत की पंक्ति है - 'जखन गगन धन बरसल सजनि गे सुनि हहरत जिव मोर'। पावस ऋतु में स्त्रियाँ बिना बाजे के और पुरुष बाजे के साथ मलार गाते हैं। जैसे - कारि कारि बदरा उमड़ि गगन माझे लहरि बहे पुरवइया। मधुश्रावणी गीत इसी नाम के त्योहार के समय गाया जाता है जो श्रावण शुक्ल तृतीया को पड़ता है। मधुश्रावणी नवविवाहितों का भविष्यबोधक है। इस पर्व पर एक भयंकर विधि इसलिए की जाती है कि विवाहिता अधिक दिनों तक सधवा रहेगी या नहीं। उसे दीपक से जला दिया जाता है। यदि छाला खूब उभरता है तो शुभ है। छठ के गीत - सूर्यषष्ठी ्व्रात (कार्तिक शुक्ल षष्ठी) के उपलक्ष्य में गाए जाते हैं। कहीं कहीं चैत्र शुक्ल षष्ठी को भी यह ्व्रात पड़ता है। छठ के गीत पूर्णत: धार्मिक गीत हैं और सौभाग्य तथा पतिप्रेम के दायक है। स्त्रियाँ गाती हैं - 'नदिया के तीरे तीरे बोअले में राइ। छठी माई के मृगा चरिय चरि जाइ।' स्याम चकेवा एक खेल गीत है जो कार्तिक शुक्ल सप्तमी से कार्तिक पूर्णिमा तक खेल में गाया जाता है। स्यामा बहन और चकेवा भाई के अतिरिक्त इस खेल के चंगुला, सतभइया, खंडरित्र, झाँझी बनतीतर कुत्ता और वृंदावन नामक छह और पात्र हैं। खेल भाई बहन के विशुद्ध प्रेम का पोषक है। बहनें गाती हैं - 'किनकर हरिअर हरिअर दिभवा गे सजनी। जट जटिन एक अभिनय गीत है। जट (पुरुष पात्र) एक तरफ और जटिन (स्त्री पात्र) दूसरी ओर सज-धजकर खड़ी होती हैं। दोनों ओर प्रधान पात्रों के पीछे पंक्तिबद्ध स्त्रियाँ खड़ी हो जाती हैं। इसके बाद जट जटिन का सवाल जवाब गीतों के माध्यम से आरंभ हो जाता है। ये गीत शरद निशा में गाए जाते हैं।
कुमाऊँनी लोकगीत मध्य हिमालय के नैनीताल, अल्मोड़ा, गढ़वाल, टेहरी, पिथौरागढ़, चमौली और उत्तर काशी में रहनेवाली पर्वतीय जातियों के गीत हैं। इन गीतों को दो भागों में बाँटा जा सकता हैं : 1-संस्कार के गीत, जो नारियों द्वारा पुत्रजन्म, नामकरण, यज्ञोपवीत एवं विवाह के समय गाए जाते हैं, तथा 2-मेलों, त्योहारों और ऋतुओं के गीत। इस क्षेत्र के प्राय: सभी संस्कार शंकुनाखरगीत से आरंभ होते हैं। इनमें गणेश, ब्रह्मा, राम तथा अन्य देवताओं से कार्यसिद्धि की प्रार्थना की जाती है। गीतों में मनुष्य, पशु, पक्षी संदेशवाहक का कार्य करते दिखाई पड़ते हैं, जो देवी देवताओं के अतिरिक्त दूरस्थ संबंधियों का भी संदेश ले जाते हैं। बिदाई के गीत अन्य स्थानों की तरह ही मार्मिक होते हैं।
दूसरे प्रकार के गीतों में झोड़ा, चाँचरी भगनौल और बैर प्रमुख हैं। इन गीतों में सामाजिक जीवन एवं समस्याओं की विशेष चर्चा रहती है। ये विभिन्न मेलों एवं उत्सवों के अवसर पर गाए जाते हैं। इन्हें कई गायक अथवा गायिकाएँ मिलकर गाती हैं। ऋतुगीतों को यहाँ 'ऋतुरेण' कहते हैं। ये गीत चैत मास में गाए जाते हैं। ऋतुरेण में मंगलसूचक एवं प्राकृतिक सौंदर्य की बहुलता होती है। ग्रामगायक 'औजी', जिन्हें ढ़ोली भी कहते हैं, एक गीतबद्ध कथा सुनाते हैं, जो भाई-बहन के विशुद्ध स्नेह पर आधारित हैं। 'हंडुकिया बोल' यहाँ के किसानों का गीत है। यह गीत धान की रोपाई के अवसर पर नर नारियों द्वारा गाया जाता है। इनमें स्थानीय नायकों (राणरौत रामीबौर हिसहित आदि) की गाथाएँ बद्ध होती हैं। प्रेम के फुटकर गीत भी खूब चलते हैं। बरुँश नामक लाल फूल प्रेमी का प्रतीक माना जाता है। अत: कई गीतों में इसका नाम आता है, जैसे, 'पारा डाना बुरुंशी फुलै छ, में जे कौनूं मेरि हिरु ए रे छ।' नैनीताल से लेकर काठगोदाम तक के बीच के पर्वतीय क्षेत्र में एक अलिखित लोक महाकाव्य प्रचलित है जिसका नाम है 'मालूसाही'। कुमाऊँनी लोकसाहित्य में इसके टक्कर की कोई रचना है ही नहीं। धर्मगाथाओं के अंतर्गत 'जागर' (जागरण) गीत अधिक प्रचलित हैं। उत्तर काशी, पिथौरागढ़ एवं चमौली में प्रचलित पांडव नृत्य के समय जागर गीत गाए जाते हैं। इसमें महाभारत के विभिन्न आख्यान गीतबद्ध होते हैं। यह गीत क्रमश: द्रुततर होता जाता है। इसके अंतर्गत किसी एक व्यक्ति पर देवात्मा की अवतारणा की जाती है। जब वह आत्मा उसके ऊपर अवतरित होती है, वह उठकर नाचनेगाने लगता है। भोलानाथ, एड़ी, ग्वाला आदि ग्रामदेवताओं के 'जागर' के अतिरिक्त नंदादेवी का 'वैसी जागर' इतना लंबा होता है कि व 22 दिनों में समाप्त होता है। 'घोड़ी नृत्य' गीत भी चलता है। इसमें बाँस पर 'ओहार' (पर्दा) डालकर घोड़ी बनाई जाती है जिसके बीच में नर्तक इस तरह खड़ा होकर घोड़ी को कमर से पकड़ता है कि वह सवार जैसा मालूम होता है। नर्तकों का जोड़ा तलवार भाँजता है, गायक गीत गाते हैं। 'भड़ौ' नामक गीत प्राचीन जातीय वीरों, जिनमें दिगोली भाना, काले कहेड़ी, नागी भागी भल, सुपिया रौत और अजुआ बफौल आदि के वृत्तांत होते हैं, वीरगाथाओं के रूप में गाया जाता है।
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