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संगठन व्यवहार (Organizational behavior) संगठनों के अन्तर्गत ‘मानवीय व्यवहार‘ का अध्ययन है। सामान्य शब्दों में संगठनात्मक व्यवहार से तात्पर्य संगठन में कार्यरत व्यक्तियों के व्यवहार के अध्ययन से है। संगठनात्मक व्यवहार में अध्ययन किया जाता है कि व्यक्ति संगठन मे ‘क्या‘ तथा ‘क्यो‘ करते है तथा उनके व्यवहार का संगठन के कार्यों पर कैसा प्रभाव होता है। वस्तुतः संगठन में तीन प्रकार के मानवीय व्यवहार देखे जा सकते है:-
1. अन्तः वैयक्तिक व्यवहार - अन्तः वैयक्तिक व्यवहार कर्मचारियों का स्वंय का व्यवहार होता है जो उनके व्यक्तित्व, प्रवृत्तियों, अवबोध, अभिप्रेरणा, अपेक्षा तथा आन्तरिक भावनाओं के फलस्वरूप प्रकट होता है।
2. अन्तर्वेयक्तिक व्यवहार - दो व्यक्तियों या दो से अधिक व्यक्तियों (समूह) के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न व्यवहार को अन्तर्वेयक्तिक व्यवहार कहा जाता है। यह व्यवहार समूह गतिशीलता, अर्न्तसमूह संघर्ष, नेतृत्व, सम्प्रेषण आदि के रूप में प्रकट होते है।
3. संगठन व्यवहार - इसमें संगठन की औपचारिक संरचनाओं तथा अनौपचारिक समूहों के व्यवहार को शामिल किया जाता है। संगठनात्मक व्यवहार में उपर्युक्त तीनों प्रकार के व्यवहार एवं उसके प्रभावों तथा संगठन के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण के प्रभावों का अवलोकन, अध्ययन एवं नियन्त्रण किया जाता है।
निष्कर्ष यह है कि संगठनात्मक व्यवहार संगठनो में एकाकी व्यक्तियों एवं समूहो के व्यवहार, संगठन संरचना, तकनीकों एवं वातावरण की विशेषताओं के आपसी प्रभावों के अध्ययन से सरोकार रखता है। संगठनात्मक व्यवहार संगठन में व्यक्तियों तथा समूहों के व्यवहार तथा उसका संगठन पर प्रभावों का अध्ययन करने तथा इससे प्राप्त जानकारी से उनके भावी व्यवहार का पूर्वानुमान करने तथा नियंत्रण करने से सरोकार रखता है। इस प्रकार संगठनात्मक व्यवहार संगठन में कार्यारत व्यक्तियों, समूहों तथा संगठन के विभिन्न घटकों के व्यवहार तथा उनसे उत्पन्न प्रभावों तथा वातावरण के साथ उनकी अन्तक्रियाओं का अध्ययन है ताकि इस ज्ञान से संगठन को प्रभावी एवं उद्देश्यपरक बनाया जा सके।
मानव एक विलक्षण एवं सजग प्राणी है। वर्तमान में सभी सरकारी तथा और गैर सरकारी संगठनों में मनुष्य का व्यवहार तथा संगठन की बढ़ती जटिलता प्रबंधकों के ध्यानाकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। संगठन मानवीय प्रयासों एवं सामूहिक क्रियाओं के द्वारा लक्ष्यों को प्राप्त करने की सामाजिक प्रणालियॉ है। संगठन कार्य ढॅाचे कार्य सम्बन्धों, प्रौद्योगिकी तथा मानवीय व्यवहार का मिश्रण है। सभी प्रकार के संगठनो में मानवीय व्यवहार को समझ लेना अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। ‘संगठनात्मक व्यवहार‘ इसी विषय की विवेचना करता है। ज्ञान का यह नवीन क्षेत्र संगठन मंे मूलतः व्यक्तियों के व्यवहार के व्यवस्थित अध्ययन से सम्बन्धित है।
संगठनात्मक व्यवहार की लोकप्रियता 1950 ई. के बाद से तीव्र गति से बढ़ी है, विकसित राष्ट्रों में यह विषय प्रबन्धकांे के अध्ययन तथा विश्लेषण का केन्द्र रहा है। संगठनात्मक व्यवहार संस्था में मानवीय तथा भोैतिक साधनों के बेहतर उपयोग को सम्भव बनाता है। यह व्यक्ति एंव संगठन में सुधार लाता है तथा टीम भावना का विकास करता है जिससे संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करना आसान हो जाता है। इसके द्वारा मानवीय लक्ष्यों की पूर्ति सम्भव होती है जिससे उनके मनोबल में वृद्धि होती है तथा बेहतर श्रम-प्रबन्ध सम्बन्धों का निर्माण होता है। संगठनात्मक व्यवहार में व्यक्ति, समूह तथा संरचना का बाह्य वातावरण के साथ अध्ययन किया जाता हेै। इसके द्वारा यह ज्ञात होता है कि बाह्य वातावरण के साथ संगठन का तालमेल कैसे किया जा सकता है। ऐसे विश्लेषण एवं अध्ययन से संगठनात्मक प्रभावशीलता में सुधार लाया जा सकता है। संक्षेप में निम्नलिखित कारणों से संगठनात्मक व्यवहार के अध्ययन की आवश्यकता होती है -
मानवीय व्यवहार के विभिन्न स्तरों का विश्लेषण करने का यह प्रमुख उपकरण हेै। यह व्यक्तिगत, अन्तः वैयक्तिक, समूह तथा अन्तर-समूह स्तर पर प्रबन्धकों के लिए व्यक्तियों के व्यवहार को समझने में सहायक होता है। संगठनात्मक व्यवहार के द्वारा प्रबन्धक संगठन में कार्यरत कर्मचारी को समग्र मानव के रूप में बेहतर रूप में समझते हुए अन्तः वैयक्तिक व्यवहारों की जटिलता को समझ सकता है तथा मनुष्यों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन या सुधार ला सकता है। इससे व्यक्ति की कार्य करने की मनः स्थिति, रूझान, कार्य-सन्तुष्टि, प्रतिक्रिया, तत्परता, कार्य-निष्ठा, कार्य के प्रति दृष्टिकोण आदि को समझा जा सकता है। इसके ज्ञान से मानवीय सम्बन्धों में सुधार लाया जा सकता है।
संगठनात्मक व्यवहार में व्यक्तियों के व्यवहार का समूह स्तर पर अध्ययन किया जाता है। एक संगठन में अनेक समूह कार्यरत रहते हेैं, जिनमें तनाव, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा तथा मतभेद चलते रहते हेैं तथा जिनका संगठन की कार्य प्रणाली एवं आपसी समबन्धों पर गहन प्रभाव होता है। इसके द्वारा छोटे समूहों के सम्बन्धों की गतिशीलता को बेहतर रूप से समझा जा सकता है तथा समूह के कार्य करने की पद्धति, सम्प्रेषण, नेतृत्व प्रभाव आदि के बारे में यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
संगठनात्मक व्यवहार मानवीय व्यवहार को निर्देशित एवं नियंत्रित करने में भी अहम् भूमिका निभाता है। इसके द्वारा उन तरीकों का अध्ययन किया जाता है जिनसे सत्ता का दुरूपयोग रोकते हुए संगठनात्मक एवं व्यक्तिगत उद्देश्यों में प्रभावी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है तथा संगठनात्मक वातावरण में वांछित सुधार किया जा सकता हेै।
बेहतर मानव संसाधन प्रबन्ध का आधार संगठनात्मक व्यवहार ही है। इसके द्वारा अधिकांश मानवीय सम्बन्धों का मानवीय ढंग से समाधान किया जा सकता है। न्यूस्ट्राम तथा कीथ डेविस के अनुसार, ‘‘संगठनात्मक व्यवहार मानवीय लाभ के लिए मानवीय उपकरण है।‘‘
संगठनात्मक व्यवहार के द्वारा संगठन को परिवर्तनों के अनुकूल बनाया जा सकता है तथा परिवर्तन को प्रभावी तौर से लागू करने हेतु उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। परिवर्तन के बिना संगठन कार्य नहीं कर सकते हैं। आधुनिक युग में तेजी से हो रहे परिवर्तनों ने प्रबन्धकों के समक्ष एक चुनौती उत्पन्न कर दी है। इससे उभरने के लिए संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन आवश्यक हो गया है।
संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन विपणन के क्षेत्र में भी उपयोगी है। सम्पूर्ण विपणन क्रियाओं का केन्द्र-बिन्दु उपभोक्ता व्यवहार है। माल का प्रवाह, विपणन श्रृंखलाओं को प्रभावशीलता, नवप्रवर्तन, विपणन सृजनात्मकता आदि अनेक परिवर्तन उपभोक्ता व्यवहार पर निर्भर करते है।
आज प्रबन्ध के क्षेत्र में तकनीकी योग्यता से भी अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति योग्यता हो गई है। व्यक्तियों के व्यक्तित्व को ठीक से समझ लेना प्रबन्धकों के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए संगठनात्मक व्यवहार का ज्ञान होना अति आवश्यक हेै।
संगठनात्मक व्यवहार उत्पादकता दृष्टिकोण पर भी आधारित है। यह वैयक्तिक एंव समूह व्यवहार पर नियंत्रण करके संगठन की उत्पादकता में वृद्धि करने तथा श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने पर बल देता है। यह श्रेष्ठ परिणामों के आधार पर संगठन को प्रभावी बनाता हेै।
संगठनात्मक व्यवहार के द्वारा व्यक्तियों एवं समूहों के व्यवहार के समझने एवं पूर्वानुमान करने में सुविधा रहती है। इससे कर्मचारियों को उचित निर्देश देकर उनकी क्षमताओं एवं योग्यताओं का संस्था के हित में उपयोग किया जा सकता है।
संगठनात्मक व्यवहार के कारण युवा पीढ़ी को प्रबन्धकीय जीवनवृति में प्रवेश के नये-नये अवसर प्राप्त होते हैं। संगठनात्मक व्यवहार को अध्ययन कर लेने के फलस्वरूप वे प्रबन्ध क्षेत्र में अधिक सफल हो सकते हैं।
ज्ञान की पृथक् विधा के रूप में संगठनात्मक व्यवहार को हाल ही में मान्यता मिली है तथा वैज्ञानिक प्रबन्ध की कमियाँ ही इसके विकास का मूल आधार रही हैं। विकास की प्रारम्भिक अवस्था में प्रबन्धकीय व्यवहार कर्मचारियों के मनोबल एवं सहयोग तक ही सीमित था, जिसे ‘मानवीय सम्बन्धों’ के नाम से जाना जाता था। इस अवस्था में मनुष्य को एक ‘सजीव प्राणी’ माना जाता था तथा उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही प्रबन्धकों द्वारा ध्यान दिया जाता था। तत्पश्चात् 1929 ई. की महान मंदी, श्रम आन्दोलन तथा हाव्थोर्न प्रयोगों ने मानवीय सम्बन्ध आन्दोलन को व्यापक रूप से प्रभावित किया तथा प्रबन्धकों को यह सोचने हेतु विवश किया कि वे ‘मनुष्य के व्यवहार’ को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करें तथा उसे व्यवस्थित रूप से समझने एवं जानने का प्रयास करें। प्रबन्ध को एक व्यवहारवादी विज्ञान का स्वरूप प्रदान करने में मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जार्ज ईल्टन मेयो, रोथलिसवर्गर तथा विलियम जे. डिक्सन ने 1924 से 1933 ई. की अवधि में इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण प्रयोग किए, जिन्हें ‘हाव्थोर्न प्रयोग’ के नाम से जाना जा ता है। इन प्रयोगों के प्रमुख निष्कर्ष निम्नलिखित हैं -
वास्तव में, हाव्थोर्न परीक्षणों ने प्रबन्धकीय विचारधारा को एक नई दिशा प्रदान की है। इन परीक्षणों से कई भ्रान्तियाँ एवं कल्पित धारणाओं का खण्डन हुआ है तथा श्रमिकों की सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं पर व्यवस्थित रूप से विचार किया जाने लगा है।
मानवीय सम्बन्ध विचारधारा को आगे बढ़ाने में मेरी पार्कर, फौलेट, ओलिवर, शैल्डन, बर्नार्ड, साइमन, आर्गीरिसआदि का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। फौलेट ने ‘सम्बन्धों के मनोविज्ञान’ पर महत्वपूर्ण कार्य किया है तथा नेतृत्व, रचनात्मक संघर्ष, सहभागिता, मेलजोल, समूह-चिन्तन तथा नवीन प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपनाने पर बल दिया है। शैल्डन ने उद्योगों को मशीनों का पुर्जा नहीं, वरन् मनुष्यों का समुदाय तथा मानवीयता का एक जटिल आकार माना है। बर्नार्ड ने प्रबन्ध प्रक्रिया का मानवीय एवं सामाजिक विश्लेषण किया है।
1940 के बाद मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का विशिष्ट रूप में विकास हुआ है तथा यह माना जाने लगा है कि मनुष्य केवल सामाजिक सम्बन्धों से प्रेरित होकर ही कार्य नहीं करता है, अपितु वह अपनी मानसिक, भावात्मक तथा आत्म-विकास की आवश्यकताओं से प्रबन्ध को एक ‘व्यवहारवादी विज्ञान’ के रूप में विकसित करने में सहयोग करता है। विशेषतः 1960 से 1970 ई. की अवधि में अनेक व्यवहारवादी वैज्ञानिकों ने प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं पर कार्य किया है, जिसमें सामाजिक अर्न्तव्यवहार, अभिप्रेरणा, सम्प्रेषण, नेतृत्व, कार्य पुनर्रंचना, कार्य जीवन की किस्म आदि प्रमुख है तथा कर्मचारी को आर्थिक या सामाजिक मनुष्य की बजाय ‘जटिल मनुष्य’ के रूप में स्वीकार किया है। इन विद्वानों ने यह बतलाया है कि आधुनिक व्यक्ति कार्य, मानसिक सन्तुष्टि तथा आत्म-विकास से प्रेरित होता है। कुर्त लेविन ने व्यवहार, परिष्कार, अभिप्रेरणा तथा समूह गतिशीलता पर विशेष रूप से बल दिया है, जबकि रेनसिस लिकर्टं ने कर्मचारी को एक मशीनी पहिया न मानकर मानव माना है तथा अधिक उत्पादन के लिए ‘कार्य-केन्द्रित पर्यवेक्षण’ के स्थान पर ‘कर्मचारी-केन्द्रित पर्यवेक्षण’ पर विशेष बल दिया है। डगलस मेक्ग्रेगर ने मानवीय व्यवहार के सम्बन्ध में दो परस्पर विरोधी (थ्योरी एक्स एवं थ्योरी वाई) को प्रस्तुत किया है, जबकि अब्राहम मास्लो ने बताया है कि व्यक्ति एक निश्चित क्रम में ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता है। हर्जबर्ग ने द्वि-घटक विचारधारा को प्रस्तुत करते हुऐ अभिप्रेरक तत्वों पर विशेष बल दिया है। विक्टर एच.ब्रूम ने संगठनों में व्यवहार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है तथा कार्य व्यवहार, अभिप्रेरणा, कार्य सन्तुष्टि, कार्य निष्पादन, भूमिका, नेतृत्व आदि का विश्लेषण करते हुए मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने वाले प्रौद्योगिकी एवं मनोवैज्ञानिक घटकों में उपयुक्त संतुलन स्थापित करने पर बल दिया है। संक्षेप में, व्यवहारवादी विज्ञान विचारधारा के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
1949 : समूह वातावरण का लेविन का अध्ययन (नेतृत्व की आधारभूत शैलियों में अन्तर)
1951 : ओहियो नेतृत्व अध्ययनों का प्रकाशन (नेतृत्व व्यवहार के आधारभूत आयामों में अन्तर)
1958 : फीडलर की नेतृत्व प्रवृत्तियाँ तथा समूह प्रभावशीलता का प्रकाशन (नेतृत्व की आकस्मिकता सम्भावना पर विशेष बल)
1967 : लारेंस एवसं लार्च का संगठन एवं वातावरण का प्रकाशन (यह बताया कि बाह्य वातावरण संगठन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं।)
1964 : ब्रूम का कार्य एवं अभिप्रेरणा का प्रकाशन (प्रत्याशा विचारधारा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान)
1960 : केक्ग्रेगर की ह्यूमन साइड ऑफ एण्टरप्राइज का प्रकाशन (थ्योरी एक्स एवं थ्योरी वाई की स्थापना)
1973 : मिन्टजबर्ग का प्रकाशन प्रबन्धकीय कार्य की प्रकृति (उन प्रयासों को वास्तव में समझने पर बल, जो प्रबन्धक करता है)
1978 : फीफर तथा सालन्सिक का प्रकाशन-संगठनों का बाह्य नियन्त्रण (संसाधन निर्भरता सम्भावना को स्पष्ट किया)
1981 : विलियम औंची का प्रकाशन- थ्योरी जेड (अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में मूल्य आकर्षण में वृद्धि पर प्रोत्साहन)
उपर्युक्त समग्र विवेचन से निम्न तीन बातें स्पष्ट होती हैं- प्रथम, आधुनिक संगठनात्मक व्यवहार इस बात पर बल देता है कि यदि उपयुक्त कार्य दशाएँ उपलबध कराई जाती हैं तो कर्मचारी स्वतः बेहतर कार्य करने हेतु प्रेरित होते हैं। ऐसी दशाओं में कर्मचारी संगठन के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं तथा वांछित दशाओं में अपने व्यवहार को विकसित करते हैं। यदि विपरीत दशाएँ (शोषण, सुपरवाइजर में विश्वास का अभाव आदि) हैं तो वे निम्न सकारात्मक व्यवहार शैली को अपना सकते हैं। बरान तथा ग्रीनबर्ग का मत है कि आधुनिक संगठनात्मक व्यवहार कार्य हेतु ‘Rose tinted glasses’ को नहीं मानता है। यह बतलाता है कि आनन्द तथा सन्तुष्टि प्रदान करने वाली कार्य दशाओं का निर्माण किया जा सकता है तथा जॉब पर रचनात्मक कार्य को करने हेतु कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, कार्य दशाओं में व्यक्तियों के व्यवहार को वांछित दिशाओं में मोड़ा जा सकता है। द्वितीय, आधुनिक संगठनात्मक व्यवहार आकस्मिकता विचारधारा (Contingency Approach) पर आधारित है। यह मानती है कि निम्न प्रश्नों का सही उत्तर परिस्थितियों पर निर्भर करता है-
आकस्मिकता विचारधारा यह मानती है कि कार्य दशाओं में व्यवहार अनेक अन्तर्क्रियाशील शक्तियों का जटिल परिणाम होता है। व्यक्तिगत विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ, मूल्य, विश्वास), परिस्थित्यात्मक घटक, संगठनात्मक संस्कृति, व्यक्तियों एवं समूहों के मध्य भूतकालीन एवं वर्तमान सम्बन्ध तथा विद्यमान संगठनात्मक संरचना आदि सभी एक विशिष्ट स्थिति तथा समय में व्यवहार को निरूपित करती है तथा प्रभावित करती हैं।
आधुनिक संगठनात्मक व्यवहार की तृतीय महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इनको व्यापक रूप से अपनाया जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से आशय विभिन्न राष्ट्रों में कार्य दशाओं के मध्य बेहतर समझ तथा उसके प्रभाव से है, जो संगठन एवं व्यक्ति दोनों को प्रभावित करती हैं। साथ ही, इसमें यह भी सम्मिलित है कि ये अन्तर किस प्रकार विभिन्न संस्कृतियों एवं समाजों से सम्बन्धित हैं। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण विचारधारा, विलियम औंची द्वारा प्रतिपादित ‘थ्योरी जैड’ (Theory Z) है। औंची ने प्रथमतः जापानी तथा अमेरिकी निगमों की प्रमुख विभिन्नताओं का वर्णन किया है तत्पश्चात् इन विभिन्नताओं को विभिन्न संस्कृतियों एवं ऐतिहासिक घटकों के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि अब विशेषज्ञों द्वारा संगठनात्मक प्रभावशीलता में सांस्कृतिक घटकों की भूमिका पर प्रमुखता से ध्यान दिया जा रहा है। विभिन्न राष्ट्रों के मध्य बढ़ती अन्तर्निर्भरता आज संगठनात्मक व्यवहार को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में मान्यता एवं स्वीकृति प्रदान करती है।
संगठनात्मक व्यवहार का ढाँचा पाँच तत्वों से मिलकर बनता है।
व्यक्ति संगठनों में कार्य करते हैैं तथा व्यक्ति ही संगठन में सामाजिक व्यवस्था स्थापित करते हैं। व्यक्ति एकाकी तथा समूह में हो सकते हैं। समूह भी अलग-अलग आकार के अर्थात् छोटे-बड़े, बहुत बड़े, बहुत छोटे हो सकते हैं। कुछ समूह औपचारिक होते हेैं जो संस्था की संगठन संरचना के नियमों के अन्तर्गत बनाये जाते हैं। कुछ अन्य अनौपचारिक भी होते हेैं जोे कार्य करने वाले व्यक्ति स्वंय बना लेते हैं या स्वतः बन जाते हैं। व्यक्तियों के समूह गतिशील होते हैं। इनकी गतिशीलता निरन्तर बढ़ रही है क्योंकि व्यक्ति अब अधिक सजग, जीवन्त, विचारशील एवं भावपूर्ण होते जा रहे हैं। ये व्यक्ति ही संगठनों का निर्माण करते हैं ताकि वे सामूहिक उद्देश्यों को अधिक कुशलता से पूरा कर सकें।
संगठनात्मक व्यवहार का दूसरा तत्व समूह तथा समूह प्रक्रियाएँ हेैं। समूहों का निर्माण व्यक्तियों से होता है तथा समूह छोटे तथा बड़े हो सकते हैं। समूह प्रक्रियायें सम्प्रेषण, निर्णयन, शक्ति एवं नेत ृत्व के माध्यम से संचालित की जाती हैं।
व्यक्ति, कार्य एवं प्रौद्योगिकी तीनों गहनता से जुडे हैं। प्रौद्योगिकी कार्य करने के साधन उपलब्ध करती मशीनें, उपकरण, भवन, उत्पादन प्रणाली आदि सभी प्रोैद्योगिकी में ही सम्मिलित हैं। इन्हीं साधनों से संगठन में कार्यरत लोग अपने कार्यो को अधिक सुविधा एवं कुशलता से पूरा कर पाते हैं। प्रबन्धकों को इस बात का ध्यान रखना होता है कि व्यक्तियों की कार्य स्थल की प्रोद्यौेगिकी एवं स्वंय के कार्य के प्रति प्रतिक्रिया क्या है। कार्य सम्बन्धों पर भौतिक व आर्थिक संसाधनों, कार्य की तकनीक, उपकरण, कार्य-पद्धति आदि का अत्यधिक प्रभाव पडता है। सही प्रौद्योगिकी कर्मचारी के कार्य में सहायक होती है किन्तु कठिन प्रौद्योगिकी कार्य निष्पादन की भौतिक एवं मानसिक लागत में वृद्धि करती है।
संगठन डिजाइन कार्य सम्बन्धों को परिभाषित करती है। यह व्यक्तियों के मध्य दायित्वों व अधिकारों के वितरण तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का निर्धारण करती है। संगठन संरचना जितनी अधिक प्रभावी होगी कर्मचारियों के व्यवहार एंव निष्पादन को उतने ही अच्छे ढंग से समन्वित एंव नियन्त्रित किया जा सकता हेै। संगठन संरचना कार्यो व उद्देश्यों की पूर्ति में योगदान देती है किन्तु संगठन संरचना की सफलता आसान नहीं है यह संरचना ही कभी-कभी समन्वय, सहयोग, निर्णयन आदि में भारी समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं।
संगठन समाज के विभिन्न प्रकार के वातावरण में कार्य करते हैं। आन्तरिक एंव बाह्य वातावरण के साथ संगठन निरन्तर अर्न्तव्यवहार करता है। बाह्य वातावरण की भी कई उप-प्रणालियाँ हैं जैसेः- सरकार, समाज, उपभोक्ता, कर्मचारी संगठन, प्रतिस्पर्धी संस्थाएँ इत्यादि। सभी उप-प्रणालियाँ संगठन के बाहरी वातावरण का निर्माण करती हैं तथा प्रत्येक संगठन की कार्यप्रणाली को प्रभावित करती हैं। इससे संगठन में कार्यरत लोगों के व्यवहार पर प्रभाव पडता है, संगठन की उत्पादन प्रणाली विपणन नीतियाँ आदि भी प्रभावित होती हैं। संगठनों में मानवीय व्यवहार का अध्ययन करते समय समस्त वातावरणीय धटकों का अध्ययन किया जाना चाहिए।
संगठनात्मक व्यवहार की प्रकृति को भली प्रकार से समझने के लिए हम इसकी प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कर रहे है:-
1. अध्ययन का क्षेत्र -संगठनात्मक व्यवहार अध्ययन का एक क्षेत्र है। यह अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है किन्तु यह अध्ययन का एक पृथक विषय है। अभी यह पूर्ण एवं मान्य विज्ञान नहीं है। इसके ज्ञान का अभी व्यवस्थीकरण नहीं हुआ है तथा इसके सिद्वान्त एवं अवधारणाएँ दूसरे विषयों से ग्रहण की जा रही हैं।
2. अध्ययन की विषय वस्तु -संगठनात्मक व्यवहार में कुछ विशेष पहलुओं का अध्ययन किया जाता है जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-
3. आशावादी -संगठनात्मक व्यवहार की मूल धारणा आशावाद पर केन्द्रित है। संगठनात्मक व्यवहार के अध्ययन एंव क्रियान्वयन में एक आधारभूत मान्यता यह रहती है कि प्रत्येक व्यक्ति में असीम क्षमताएँ हैं, वह सृजनशील है, आत्मनिर्भर है, उत्पादक है तथा वह संगठन में सहयोग की भावना रखता है।
4. सेवायोजन सम्बन्धी व्यवहार का अध्ययन - संगठनात्मक व्यवहार सेवायोजन सम्बन्धी व्यवहार एवं वातावरण का अध्ययन करता है। फलतः यह कर्मचारियों के कार्यो, उपस्थिति, आवर्तन, उत्पादकता, नेतृत्व, संचार-व्यवस्था, समूह में आपसी सम्बन्ध, कार्यतनाव आदि से सम्बन्धित पहलुओं का अध्ययन करता है।
5. व्यावहारिक विज्ञान - संगठनात्मक व्यवहार एक प्रयुक्त एवं प्रयोगिक विज्ञान है। इसके क्षेत्र में किये जाने वाले अनुसंधान, अध्ययनों तथा अवधारणात्मक विकासों से इसका वैज्ञानिक आधार मजबूत होता जा रहा है। कर्मचारी व्यक्तित्व, अभिवृत्तियों, मूल्य, प्रेरणा, सन्तुष्टि, अवबोध तथा मानवीय व्यवहार के अन्य पहलुओं के सम्बन्ध में निरन्तर शोध किये जा रहे हैं।
6. वातावरण से सम्बद्ध -संगठनात्मक व्यवहार संगठन के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण का अध्ययन करते हुए मानवीय व्यवहार को समझने पर बल देता है। व्यक्ति के निजी एवं समूह व्यवहार पर संगठन के परिवेश, नीतियों पारस्परिक विचारों के साथ-साथ बाह्य दशाओं एवं मूल्यों का भी प्रभाव पड़ता है।
7. उद्देश्य - संगठनात्मक व्यवहार व्यक्तियों एवं समूहों के अध्ययन पर केन्द्रित है किन्तु इसका प्रमुख उद्देश्य संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोग करना है। यह समन्वयवादी दृष्टिकोण रखते हुए ‘‘व्यक्ति‘‘ एवं ‘‘संगठन‘‘ के हितों को एकीकृत करने का प्रयास करता है।
8. कला एंव विज्ञान - संगठनात्मक व्यवहार व्यक्तियों के व्यवहार के कारणों एवं परिणामों के बीच निश्चित सम्बन्ध खोजने का प्रयास करता है। इसके लिए यह सिद्वान्तों, तकनीकों एंव तर्को का प्रयोग करता है। इस प्रकार व्यवहार के सम्बन्ध में यह वैज्ञानिक दृष्टि अपनाता है।
9. सार्वभौमिक नहीं -संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन सार्वभोैमिक हो सकता है किन्तु इससे प्राप्त ज्ञान या सूचना सार्वभोैमिक रूप से लागू नहीं की जा सकती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मानवीय व्यवहार सभी संगठनों में एक समान नहीं होता है।
10. प्रणाली दृष्टिकोण - संगठनात्मक व्यवहार प्रणाली दृष्टिकोण को अपनाता है क्योंकि यह संगठन की कार्यप्रणाली को प्रभावित करने वाले प्रत्येक घटक पर विचार करता है। यह मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा संस्कृतिक घटकों के संदर्भ में व्यवहार का विश्लेषण करता है।
11. संयोग एंव प्रासंगिकता प्रधान -संगठनात्मक व्यवहार में संयोग या प्रासंगिकता प्रधान प्रबन्धकीय व्यवहार के विकास का प्रयास किया जाता है। इस अध्ययन के द्वारा व्यक्तियों के व्यवहार एवं परिस्थितियों के अनुरूप ही प्रबन्धकीय व्यवहार के विकास का प्रयास किया जाता है। इससे व्यक्तियों के व्यवहार एवं प्रबन्धकीय व्यवहार में समन्वय बना रहता है।
12. मानव संसाधन दृष्टिकोण -संगठनात्मक व्यवहार मानव संसाधन दृष्टिकोण को अपनाता है। अर्थात् यह कर्मचारियों के विकास एंव निष्पादन तथा उनकी तरक्की में विश्वास करता है।
13. अन्तर्विषयक - संगठनात्मक व्यवहार अन्तर विषयक अध्ययन है। इसके अध्ययन में मनोविज्ञान, समाजशास्त्र तथा मानवशास्त्र के सिद्वान्तों का उपयोग किया जाता है। अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास, विधि-शास्त्र आदि विषयों की भी इसके अध्ययन में सहायता ली जाती है। इन सभी विषयों के सिद्वान्तों, ज्ञान एंव व्यवहार का समन्वय करके ही संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन एवं क्रियान्वयन किया जा सकता है।
संगठनात्मक व्यवहार एक व्यवहारवादी विज्ञान है। यही कारण है कि अनेक सम्बद्ध विज्ञानों के योगदान पर इसका निर्माण तथा विकास हुआ है, जिसमें मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र प्रमुख हैं।
1. मनोविज्ञान - मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। इसमें पशु एवं मानव दोनांे का व्यवहार शामिल है। मनोविज्ञान वैयक्तिक एवं अन्तर्वेयक्तिक व्यवहार से सम्बन्ध रखता है इससे जुड़े हुए पहलुओं में अभिप्रेरणा, व्यक्तित्व, अवबोध मत और शिक्षण आदि को शामिल किया जाता है। इनके अध्ययन से कर्मचारियों के व्यवहार का विश्लेषण किया जा सकता है। औद्योगिक मनोविज्ञान व प्रबन्धकीय मनोविज्ञान जैसे विषयों से तथा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों व अनुसंधानों से संगठनात्मक व्यवहार का विषय बहुत समृद्ध हुआ है।
2. समाजशास्त्र - जहॉ मनोवैज्ञानिक व्यक्ति की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं वहीं समाजशास्त्री सामाजिक प्रणाली के अध्ययन को प्रमुखता प्रदान करते हैं जिसमें व्यक्ति अपनी भूमिका निभाते हैं। मैक्स वैबर के अनुसार, ‘‘समाजशास्त्र वह विज्ञान है जिसमें सामाजिक क्रियाओं के विश्लेषण का प्रयास किया जाता है। संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में समाजशास्त्रियों ने निम्न विषयों के संदर्भ में महत्वपूर्ण योगदान दिया है- समूह गतिशीलता, संदेशवाहन, सत्ता, संघर्ष, अन्तर-समूह, व्यवहार, संगठनात्मक परिवर्तन, संगठनात्मक संस्कृति आदि।
3. सामाजिक मनोविज्ञान -सामाजिक मनोविज्ञान समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान के सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं पर आधारित है। यह व्यक्तियों के परस्परिक प्रभावों का अध्ययन करता है। सामाजिक मनोविज्ञान का एक पहलू अत्यन्त महत्वपूर्ण है वह है परिवर्तन। संगठनात्मक व्यवहार परिवर्तनों को लागू करने उनके प्रतिरोध को कम करने तथा उन्हें सफलता पूर्वक क्रियान्वियत करने के लिए सामाजिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तो को प्रयोग में लाता है।
4. मानवशास्त्र - मानवशास्त्र मानव तथा उसके कार्यों का अध्ययन है। इसमें मनुष्य की सामाजिक तथा सांस्कृतिक सृजनात्मक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। श्रीनिवास के अनुसार, ‘‘यह मानव समाजों का तुलनात्मक अध्ययन है। आदर्श रूप में इसके अर्न्तगत आदिम, सभ्य एवं ऐतिहासिक सभी प्रकार के समाज आ जाते है।‘‘ इसका अध्ययन कार्य मूलतः संस्कृति तथा वातावरण पर केन्द्रित रहता है जो विज्ञान विभिन्न संगठनों एवं राष्ट्रों में कार्यरत व्यक्तियों के आधारभूत मूल्यों, प्रवृत्तियों तथा व्यव हार के तुलनात्मक अध्ययन में सहायता करते हैं। मानवशास्त्र के निम्न विषय क्षेत्र संगठनात्मक व्यवहार के सन्दर्भ में उपयोगी हैं:-
5. राजनीति शास्त्र - राजनीति विज्ञान राजनीतिक वातावरण में व्यक्तियों तथा समूहों के व्यवहार का अध्ययन करता है। संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में भी अनेक राजनीतिक पहलुओं जैसे संघर्ष समाधान, समूह टकराव, सत्ता का वितरण आदि का अध्ययन किया जाता है।
6 अर्थशास्त्र - अर्थशास्त्र में वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन, विनियम एवं उपयोग आदि क्रियाओं का विश्लेषण किया जाता है। अर्थशास्त्र विकल्प चयन एवं निर्णयन के द्वारा सीमित संसाधनांे के आवंटन तथा आर्थिक नीतियों के निर्धारण पर बल देकर आर्थिक विकास में योगदान करता है। इस प्रकार अर्थशास्त्र संगठनात्मक व्यवहार के विकल्पों का चयन करने, निर्णय करने, संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करने आदि में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है।
संगठनात्मक व्यवहार का अध्ययन प्रबन्ध के व्यवहारवादी दृष्टिकोण का आधार है। इसके माध्यम से प्रबन्धक को यह ज्ञात होता है कि कोई व्यक्ति किसी निश्चित परिवेश में विशेष प्रकार का व्यवहार क्यों करता है। संगठनात्मक व्यवहारों की अभिव्यक्ति संगठन गतिशीलता, संघर्ष, परिवर्तन एवं समायोजन आदि के रूप में होती है। जहां तक इसके क्षेत्र का प्रश्न है, व्यवहारविद् इस संबंध में एक मत नहीं हैं। प्रबन्ध की आकस्मिकता विचारधारा यह बतलाती है कि वांछित व्यवहार की मात्रा एवं किस्म (नेतृत्व, संघर्ष प्रबन्ध, एकीकरण) संगठनात्मक वातावरण तथा इसके सदस्यों की विशेषताओं पर निर्भर करता है। एक अन्य विचारधारा (Normative Theory) इस बात पर बल देती है कि सभी संगठनों को कुछ निश्चित आदर्शों, जैसे सहभागिता, खुलापन आदि का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। माइकल बीयर का मत है कि संगठनात्मक व्यवहार में सम्मिलित मुद्दों की निश्चित सूची बनाना सम्भव नहीं है, फिर भी इसके क्षेत्र में निम्नलिखित विषयों को सम्मिलित किया जा सकता है-
फ्रेड लूथांस का मत है कि अमेरिकी संगठनों में सफल प्रबन्धक प्रबन्ध के मानवीय पक्ष पर विशेष ध्यान देते हैं। संगठनात्मक व्यवहार ‘प्रबन्ध के मानवीय पक्ष’ के अध्ययन एवं प्रयोग से सम्बन्धित है, जिसमें निम्नलिखित बिन्दु सम्मिलित हैं- संगठनात्मक संस्कृति, व्यक्तित्व, अवबोधन, प्रवृत्तियाँ एवं जॉब सन्तुष्टि, कार्य दबाव, अभिप्रेरणा, सीखना, संगठनात्मक व्यवहार संशोधन, औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह, अर्न्तक्रिया व्यवहार एवं संघर्ष, शक्ति एवं राजनीति, नेतृत्व प्रक्रिया एवं शैली, सम्प्रेषण, निर्णयन एवं नियन्त्रण, संगठन सिद्धान्त एवं प्ररचना तथा संगठनात्मक परिवर्तन एवं विकास। रोबिन्स तथा कीथ डेविस ने भी संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में इन बिन्दुओं के साथ परिवर्तनों के प्रबन्ध, टेक्नोलॉजी तथा व्यक्ति, कार्य जीवन की किस्म, समान, रोजगार अवसर, दबाव एवं परामर्श, आर्थिक प्रेरणात्मक पद्धति आदि को भी सम्मिलित किया जाताहै। संक्षेप में, संगठनात्मक व्यवहार का क्षेत्र दिनों-दिन व्यापक होता जा रहा है। अब इसमें व्यक्ति, समूह, संगठन संरचना के साथ मानवीय व्यवहारों की ‘सम्पूर्णता’ पर बल दिया जा रहा है। व्यवहारवादी वैज्ञानिक अपना ध्यान संगठनात्मक विचारधाराओं, विशेषतः संगठनात्मक समायोजनशीलता तथा मानवीय व्यवहारों पर ही केन्द्रित कर रहे हैं।
संगठनात्मक व्यवहार विषय कुछ मूलभूत विचारों व अवधारणाओं पर आधारित है जो कि व्यक्ति तथा संगठनों की प्रकृति से सम्बन्धित है। ये विचार संगठनात्मक व्यवहार के क्षेत्र में प्रभावी ढंग से लागू होते हैं, यद्यपि प्रबन्ध के अन्य क्षेत्रों में भी इनका उपयोग होता है। ये निम्नलिखित हैं-
1. वैयक्तिक अन्तर - व्यक्ति कई दृष्टि से समान हैं जैसे उनके द्वारा सुख-दुख का आभास करना। लेकिन फिर भी व्यक्ति निजी तौर पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कुशाग्रता, व्यक्तित्व, दृष्टिकोण, विचार-चिन्तन, साहस, धैर्य, बौद्धिक स्तर आदि कई गुणों को लेकर व्यक्ति भिन्नता रखते हैं। उनकी अभिप्रेरणा एवं सन्तुष्टि का स्तर भी भिन्न होता है। उनके कार्य करने एवं परिणाम प्राप्त करने का ढंग भी अलग-अलग हो सकता है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि ‘‘ प्रत्येक व्यक्ति अद्भूत है’’। उनकी कार्य क्षमताएं, सीखने व ग्रहण करने की क्षमता आदि भी भिन्न-भिन्न हैं। अतः प्रबन्धक को प्रत्येक व्यक्ति एवं स्थिति के संदर्भ में ही निर्णय लेने होते हैं। उसे कोई भी कार्यवाही करते समय कर्मचारी के व्यक्तित्व एवं गुण विशेष के अन्तरों को ध्यान में रखना चाहिए।
2. अवबोध - व्यक्ति चीजों एवं घटनाओं को अलग-अलग ढंग से देखते हैं। व्यक्तियों का नजरिया, दृष्टिकोण एवं सोचने-समझने का तरीका भिन्न-भिन्न होता है। व्यक्ति की दृष्टि एवं सोच उसके व्यक्तित्व, आवश्यकताओं, विगत अनुभव, सामाजिक वातावरण, समय अवधि आदि पर निर्भर करता है। प्रत्येक व्यक्ति के विश्वासों, मूल्यों एवं अपेक्षाओं का अपना संसार होता है जिसके माध्यम से वे निर्णय लेते हैं। ‘चयनित अवबोध’ के अनुसार व्यक्ति केवल उसके विश्वासों से संगत बातों पर ही अधिक ध्यान देता है। न्यूस्ट्रॉम एवं कीथ डेविस के अनुसार ‘‘प्रबन्धकों को अपने कर्मचारियों के अवबोध सम्बन्धी अन्तरों को स्वीकार करने तथा व्यक्तियों को भावपूर्ण प्राणियों के रूप में देखने का प्रयास करना चाहिए तथा उनके साथ वैयक्तिक ढंग से व्यवहार करना चाहिए।’’
3. एक सम्पूर्ण व्यक्ति - व्यक्ति कार्य-स्थल पर ‘सम्पूर्ण मानव’ के रूप में कार्य करते हैं। व्यक्ति को कार्य पर सम्पूर्ण रूप से नियोजित किया जाता है केवल उसके ‘कार्यकौशल’ का ही उपयोग नहीं किया जाता। व्यक्ति अपनी कार्य योग्यताओं के साथ-साथ अपनी भावनाओं, आवश्यकताओं, अपने उत्साह, दृष्टिकोण तथा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को कार्य स्थल पर साथ लेकर आता है। उसके घर के जीवन को उसके कार्य जीवन से अलग नहीं किया जा सकता। कर्मचारी अपने समस्त गुणों, अवगुणों, उत्साह-निराशाओं, सन्तुष्टि व तनावों एवं घर व बाहर के दबावों को कार्यस्थल पर साथ लाता है, क्योंकि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। अतः प्रबन्धक को अपने कर्मचारियेां को ‘सम्पूर्ण मानव’ के रूप में स्वीकार करना चाहिए, अर्थात् उसे कर्मचारियों के गुणों व कार्यक्षमता के साथ-साथ उनकी असन्तुष्टि, निराशा, मानसिक वेदना, उपेक्षा-अरुचि, असमर्थता आदि पर भी विचार करना चाहिए।
4. निमित्त व्यवहार - प्रत्येक व्यवहार का कोई कारण होता है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यवहार के पीछे कोई उद्देश्य, हेतु अथवा प्रयोजन होता है। जब कोई श्रमिक अपने सुपरवाइजर से विवाद करता है, या कार्य पर देरी से आता है अथवा कार्य में निरन्तर त्रुटियाँ करता है तो यह अकारण नहीं होता है। मनोवैज्ञानिक मानते हें कि ‘‘कोई भी व्यवहार आकस्मिक नहीं होता है।’’ अतः प्रबन्धक को कर्मचारियों के व्यवहार के पीछे निहित कारण को जानते हुए ही उनके साथ व्यवहार करना चाहिए।
5. भागीदारी की इच्छा - प्रत्येक व्यक्ति में सम्मान की ललक होती है। वह अपनी क्षमता सिद्ध करके महत्वपूर्ण अनुभव करना चाहता है। संगठन में प्रत्येक कर्मचारी यह विश्वास रखता है कि उसमें कार्य करने की क्षमता है वह अपनी भूमिकाओं का निर्वाह कर सकता है तथा चुनौतीपूर्ण स्थिति का सफलतापूर्वक सामना कर सकता है। आज अनेक कर्मचारी नीति व निर्णयों के निर्धारण में भाग लेना चाहते हैं। अतः प्रबन्धक को संगठन में व्यवहार करते समय कर्मचारियों की कार्य क्षमता, गुण एवं भागीदारी की आकांक्षा को ध्यान में रखना चाहिए।
6. व्यक्ति के प्रति नीतिगत व्यवहार - संगठनात्मक व्यवहार व्यक्ति की गरिमा एवं उसकी नैतिक छवि में विश्वास करता है। व्यक्ति को मात्र उत्पादन का साधन नहीं माना जाना चाहिए। मनुष्य आर्थिक उपकरण नहीं है, वरन् आत्मिक इकाई है। अतः उनके साथ वस्तुगत व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। नैतिक निष्पादन का उच्च स्तर बनाये रखा जाना चाहिए। उन्हें विकास के अवसर दिये जाने चाहिए। उच्च नैतिक व्यवहार के लिए कर्मचारियों को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। संगठनात्मक व्यवहार के सम्बन्ध में प्रबन्धक का प्रत्येक निर्णय नीतिगत मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।
7. संगठन सामाजिक प्रणालियाँ हैं - संगठनात्मक व्यवहार यह मानता है कि संगठन सामाजिक प्रणाली है क्योंकि यह मानवीय सम्बन्धों से निर्मित होता है तथा सामाजिक नियमों से नियन्त्रित होता है। संगठन में व्यक्तियों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के साथ-साथ सामाजिक भूमिकायें तथा स्तर भी होता है। उनका व्यवहार उनकी वैयक्तिक एवं समूह आवश्यकताओं दोनों से प्रभावित होता है। वास्तव में, संगठनों में दो प्रकार की प्रणालियाँ- औपचारिक एवं अनौपचारिक विद्यमान होती है। सामाजिक प्रणाली से तात्पर्य यह भी है कि संगठनात्मक वातावरण गतिशील परिवर्तनों से मिलकर बनता है। संगठन कागजों पर निर्मित सम्बन्धों का ढांचा नहीं है। संगठन के सभी हिस्से अन्तर्निर्भर तथा प्रभावों के अधीन होते हैं। प्रत्येक अंग दूसरे से जुड़ा होता है। संगठनात्मक व्यवहार इसी विचार पर आधारित है।
8. हितों की पारस्परिकता - हितों की पारस्परिकता इस बात में निहित है कि ‘‘संगठनों को व्यक्तियों की जरूरत होती है तथा व्यक्तियों को संगठनों की आवश्यकता होती है।’’ संगठनों का एक मानवीय उद्देश्य होता है तथा वे अपने सदस्यों के हितों की पारस्परिकता के आधार बनाये तथा चलाये जाते हैं। जिन संगठनों में हितों की पारस्परिकता नहीं होती है वे केवल भीड़ मात्र होते हैं। पारस्परिक हित ‘‘अधिगौण लक्ष्य’’ (Superordinate Goal) की ओर कर्मचारियों को प्रेरित करते हैं। अधिगौण लक्ष्य वह होता है जिसे व्यक्तियों तथा नियोक्ता के एकीकृत प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जब सहयोग एवं दलीय भावना होती है तो व्यक्तियों को कार्य में अधिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है। वे अपने को सीखने, विकसित होने तथा योगदान करने की स्थिति में अनुभव करते हैं।
संगठनात्मक व्यवहार अध्ययन का एक नवीन एवं विकासशील क्षेत्र है जो मानवीय समस्याओं के समाधान में सक्रिया भूमिका निभाता है। इस ज्ञान के प्रयोग द्वारा प्रबन्धक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ संगठनात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति करता है तथा संगठनात्मक प्रभावशीलता में वृद्धि करता है। यह विषय अनेक सीमाओं से युक्त है जिसका प्रमुख कारण मनुष्य तथा उसका गतिशील व्यवहार है। मानवीय आचरण विचारोें तथा भावनाओं द्वारा शासित होता है तथा काफी सीमा तक परिस्थितियों पर निर्भर होता है। अतः उसको यथार्थ रूप में समझना, भविष्यवाणी करना तथा इस पर नियन्त्रण करना अति जटिल होता है। इसके द्वारा कुण्ठा, असंतोष तथा औद्योगिक संघर्षो का पूर्ण समाधान नहीं किया जा सकता है। यह विचारधारा सीमित शोध कार्यो तथा प्रमाणों पर आधारित है। अतः सभी स्थितियों में वांछित परिणाम प्राप्त करने में सहायक नहीं हो सकती है यद्यपि संगठनात्मक व्यवहार व्यापक रूप में स्वीकृत एक विषय एवं दृष्टिकोण बन गया है किन्तु फिर भी इसकी कुछ सीमाएॅ हैं जिसमें से कुछ निम्न हैः-
1. सिद्धान्तों पर बल, व्यवहार पर नहीं - संगठनात्मक व्यवहार अधिकांशतः एक सैद्धान्तिक विषय है, यह व्यवहार में सुधार लाने पर अधिक बल नहीं देता है।
2. केवल वर्णनात्मक, निर्देशात्मक नहीं - संगठनात्मक व्यवहार केवल वर्णनात्मक विषय है। यह समस्या समाधान के लिए कोई हल, आदेश या निर्देश प्रस्तुत नहीं करता है यह समस्याओं के प्रकटीकरण तक ही सीमित है।
3. औद्योगिक सम्बन्धों में सुधार नहीं - संगठनात्मक व्यवहार विषय संस्था मे औद्योगिक विवादों, झगड़ों व उत्पादन अवरोध गतिविधियों को रोकने में सफल नहीं हुआ है। संगठनात्मक व्यवहार की प्रक्रियाओं को लागू करने के बावजूद भी संस्थाओं में हड़तालों, तालाबन्दी, तोड़फोड़, धेराव जैसी धटनाओं में कमी नहीं आई है।
4. दोहरा व्यक्तित्व - संगठनात्मक व्यवहार प्रबन्ध में केवल दोहरा चरित्र ही बना पाया है। प्रबन्धक परिवर्तन या विकास के नाम पर केवल आदर्श की बातें करते हैं किन्तु उनका स्वंय का व्यवहार दोहरा होता है। वे स्वंय में बदलाव लाये बिना कर्मचारियों के व्यवहार एवं अभिवृतियों में परिवर्तन लाने पर जोर देते हैं। प्रबन्धक कर्मचारियों को नौकर का दर्जा देते हैं व अमानवीय व्यवहार करते हेैं। यह सब उनके दोहरे व्यक्तित्व को प्रकट करता है।
5. पक्षपात - संगठनात्मक व्यवहार में कुछ व्यक्तियों के साथ पक्षपात की सम्भावना बनी रहती है। जिनके साथ न्याय नहीं होता है वे अंसतुष्ट रहते हैं। वे कार्यों को करने तथा उत्तरदायित्वों के निर्वाह में कोई रूचि नहीं लेते हैं।
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