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Mansik Swasthya Ko Prabhavit Karne Wale Kaarak मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक

मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक



Pradeep Chawla on 01-11-2018


मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो व्यत्तिफयों में मानसिक बीमारी को न होने देने संबन्ध्ी तथ्यों को उजागर करती हैं। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का प्रमुख उíेश्य व्यत्तिफयों को अपनी अन्त: शत्तिफयों से अवगत कराना, मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा, मानसिक रोगों की रोकथाम एवं उपचार, मानसिक स्वास्थ्य के संबन्ध् में समाज में व्याप्त अंध् विश्वास में परिवर्तन लाना आदि हैं।


मानसिक स्वास्थ्य


मानसिक स्वास्थ्य से अभिप्राय संवेगात्मक सिथरता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य एक तरह का समायोजी व्यवहार है, जो व्यकित को जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्राों, जैसे सांवेगिक, सामाजिक सांस्वृफतिक एवं शैक्षिक आदि, में सपफलतापूर्वक समायोजन करने में मदद करता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यकित अपने व्यकितत्व की विभिन्न इच्छाओं, आवश्यकताओं, शीलगुणों आदि के बीच एक ऐसा सामंजस्य रखता है जिससे वह जीवन के सभी क्षेत्राों में एक संतोषजनक समायोजी व्यवहार करने में समर्थ हो सके। इस संदर्भ में मानसिक स्वास्थ को परिभाषित करते हुए स्टे्रेंज (1965: 440) ने कहा है, मानसिक स्वास्थ्य एक ऐेसे सीखे गए व्यवहार के वर्णन के अलावा कुछ नहीं है जो सामाजिक रूप से समायोजी होता है और जो व्यकित को जीवन के साथ पर्याप्त रूप से अनुकूलित करने में मदद करता है। कार्ल मेनिंनगर (1945: 102) ने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कहा है कि ''मानसिक स्वास्थ्य अधिकतम खुशी तथा प्रभावशीलता के साथ वातावरण एवं उसका दूसरे व्यकितयों के साथ मानव का समायोजन है।ण्ण्ण्ण् यह एक संतुलित मनोदशा, सतर्क बु(ि, सामाजिक रूप से मान्य व्यवहार तथा खुशमिजाज बनाए रखने की क्षमता है।


मानसिक स्वास्थ्य का संप्रत्यय, मनोविज्ञान के संप्रत्यय में एक व्यापक एवं गहन संप्रत्यय या अवèाारणा है।


मानसिक रूप से स्वस्थ व्यत्तिफ वह है जो मानसिक रोगों के साथ-साथ पूर्व धरणाओं, पक्षपातों, आग्रहों, अंध् विश्वासों, मिथकों इत्यादि से भी मुत्तफ हो। मानसिक स्वास्थ्य का एक मुख्य आयाम या विमा अनुकूलशीलता या समायोजनशीलता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यत्तिफ के लिए यह आवश्यक है कि वह विभिन्न परिसिथतियों में समायोजन स्थापित करने में सक्षम हो। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यत्तिफ प्राय: द्वन्द्व, तनाव, दु:चिंता, कुण्ठा, अवसाद, इत्यादि से मुक्त होता है।


मानसिक स्वास्थ्य, मानव के अपने व्यवहार में संतुलन को दर्शाता है। यह संतुलन प्रत्येक अवस्था में बना रहना चाहिए। इस दृषिट से निम्न गुणों वाला व्यकित मानसिक रूप से स्वस्थ माना जाता है।


- चिन्ता तथा संघर्ष से रहित व्यकित


- पूर्णत: समायोजित


- आत्मविश्वासी


- श्रेष्ठ एंव संतुलित आत्म-मूल्यांकन


- सहनशीलता


- संवेगात्मक परिपक्वता


- निर्णय लेने में सक्षम


- आत्म-नियनित्रात


- संवेगात्मक रूप से सिथर, सार्थक जीवन एवं उच्च नैतिकता से पूर्ण व्यकित।


- सामाजिक समायोजन में सक्षम


- लैंगिक परिपक्वता


- शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर सतर्कता


इन गुणों वाला व्यकित प्रत्येक परिस्थति में समायोजन कर लेता है। उसमें मानसिक तनाव, हताशा आदि को सहन करने की अदम्य शकित होती है। कुल्हन के अनुसार, ''वह समायोजन अपेक्षावृफत अच्छा है जो विपफलताओं और मानसिक तनाव द्वारा उत्पन्न संघषो± को कम करे एवं विपफलता उत्पन्न करने वाली परिसिथतियों मेंं परिवर्तन कर सके।


मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक


मानसिक स्वास्थ्य का निर्माण करने में बहुत सारे आंतरिक एवं बाá कारकों का योगदान


है। इनमें से कुछ प्रमुख कारक निम्न हैं-


1. घरेलू वातावरण


2. विधालय का प्रभाव


3. सामाजिक प्रभाव


घरेलू वातावरण-परिवार का विघटन, माता-पिता का व्यवहार, निधर््नता, माता-पिता द्वारा बच्चे से उच्च आदशो± की पूर्ति की अपेक्षा, घर का अनुशासन, परिवार में तनाव इत्यादि बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक हैं।


विधालय का प्रभाव-प्रभावविधालय का वातावरण, अèयापक का व्यवहार, अभिव्यकित के अवसर न देना, परीक्षण प्रणाली तथा अनुचित पाठयक्रम इत्यादि विधालयी घटक बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को स्वरूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाते हैं।


सामाजिक प्रभाव-मानव, समाज में प्रचलित मूल्यों, आदशो±, रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं के मèय अपना विकास करता है और इनके अनुकूल उसे व्यवहार करना पड़ता हैं। आन्तरिक तनाव, असुरक्षा तथा स्वतंत्राता का अभाव इत्यादि ऐसे सामाजिक कारक हैं जो बालक के मानसिक स्वास्थ्य की सकारात्मकता तथा नकारात्मकता की दिशा तय करते हैं।


मानसिक स्वास्थ्य तथा शिक्षा


आरमिभक शिक्षा व्यवस्था में बच्चे की बु(ि, रूचि व मानसिक सिथति की ओर èयान नहीं दिया जाता था तथा शिक्षा पूर्णतया अèयापक केनिद्रत थी। परंतु वर्तमान में जब शिक्षा का केनिद्रय तत्व बालक को माना जाने लगा है परिणाम स्वरूप उसकी रुचि, बु(ि मानसिक सिथति तथा अन्य योग्यताओं को मानकर ही पाठयक्रम, शिक्षण विधि, विधालयी परिवेश का निर्माण किया जाता है। वर्तमान शिक्षा प(ति में बालक का सर्वागीण विकास ही एकमात्रा लक्ष्य है। बालकों के समविकास के लिए उनका मानसिक दृषिट से स्वस्थ रहना अत्यावश्यक है।


शिक्षा तथा मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, दोनों को एक दूसरे से भिन्न नहीं किया जा सकता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों यथा-आत्मानुभूति, मानव संबंध्, आर्थिक कुशलता तथा नागरिक उत्तरदायित्व जैसे उददेश्यों की प्रापित तब ही संभव है, जब बच्चा मानसिक रूप से स्वस्थ हो। शिक्षा का उददेश्य छात्राों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखना भी है, क्योंकि भय, निराशा, चिन्ता तथा अन्य समायोजन दोषों की उपसिथति में बच्चों की योग्यताओं का उचित विकास संभव नहीं हो सकता है। शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक का छात्राों के सामाजिक-आर्थिक- सांस्वृफतिक तथा मानसिक परिसिथतियों से अवगत होना तथा प्रस्तुत परिसिथतियों में छात्राों के सर्वागीण विकास के लिए उपयुक्त शिक्षण-विधि के क्रियान्वयन के अलावा बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए उन्हें विपरीत परिसिथतियों में समायोजन तथा ध्ैर्य बनाए रखने की तकनीक तथा क्रियाविधि के बारे में बताना भी आवश्यक है। शिक्षक अपने शिक्षण के कार्य की गंभीरता तथा विस्तृतता को समझते हुए बच्चों को उचित मार्गदर्शन तथा परामर्श देकर उनके जीवन में आने वाली कठिनार्इयों से उन्हें निकलने का मार्ग दिखा सकते है।


बच्चों या छात्राों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए विधालयों, महाविधालयों तथा विश्वविधालयों में विभिन्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषकों से सहायता लेकर निर्देशन तथा परामर्श केन्द्र चलाए जा रहे है। निर्देशन तथा परामर्श की विधियाँ आज वर्तमान शिक्षा जगत को उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने तथा उसमें आने वाली कठिनार्इयों से बाहर निकलने की वैज्ञानिक तकनीकों तथा प्रविधियों से अवगत करा, उनकी जिस प्रकार की सहायता कर रही हंै, उसे जानने और समझने के लिए निर्देशन तथा परामर्श की अवधरणा को समझना आवश्यक है। निर्देशन तथा परामर्श का विस्तृत विश्लेषण, शिक्षा तथा मानसिक स्वास्थ्य में उनकी उपयोगिता का स्वरूप स्पष्ट करेगा।


बाल विकास: एक अवधरणात्मक समझ


विकास एक व्यापक एवं गूढ़ संप्रत्यय है। इस संप्रत्यय में मात्राात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार के विकासीय गुणों का बोध् होता है। रेबर (1995) के अनुसार किसी प्राणी के संपूर्ण जीवन विस्तार में होने वाले परिवर्तनों के क्रम को विकास कहते हैं। अर्थात विकास का अर्थ गर्भधरण से लेकर मृत्यु तक जीवन के पूर्ण अनुक्रम से है। उपरोक्त संदर्भ में शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, नैतिक विकास इत्यादि के अनुक्रमों का अèययन विकास के संप्रत्यय के क्षेत्रा में किया जाता है।


वृ(ि या वधर््न और विकास प्राय: दो अलग-अलग संप्रत्यय है। वधर््न का अर्थ शारीरिक विकास है, यह मात्राात्मक होता है। व्यत्तिफ के शरीर के आकार, लम्बार्इ तथा वजन में होने वाले परिवर्तन को वर्èान(वृ(ि) कहते है। प्राणी में होने वाले ऐसे जैविक परिवर्तन जिनका मापन संभव है, जिसका निरीक्षण किया जा सकता है वधर््न की श्रेणी में आते है (दास 1998)। 'वृ(ि की अपेक्षा 'विकास अधिक समग्र संप्रत्यय है। 'वृ(ि से शरीर के किसी विशेष पक्ष या पक्षों में परिवर्तन का बोध् होता है। जबकि 'विकास से सम्पूर्ण प्राणी में होने वाले परिवर्तनों का संज्ञान होता है। वृ(ि तथा विकास करता हुआ एक बालक अपने विकास क्रम में विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक-सांस्वृफतिक-शैक्षिक समस्याओं से लगातार जूझता है। उसे समाज में रहते हुए कर्इ तरह की समस्याओं तथा चुनौतियों का सामना करना होता है। यह समस्याऐं तथा चुनौतियाँ बालक की विभिन्न गतिमान अवस्थाओं के अनुसार लगातार परिवर्तनशील रहती है।


विकास की अवस्था


शारीरिक विकास सामाजिक विकास संवेगात्मक विकास मानसिक तथा संज्ञानात्मक विकास इस अèयाय में बच्चों के मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास एवं उससे संबंधित समस्याओं एवम चुनौतियों के संदर्भ में चर्चा की जाएगी।


मानसिक विकास: समस्या एवं चुनौतियाँ


बालक के मानसिक विकास को दो संदभो± में आम तौर पर परिभाषित किया जाता है। व्यापक अर्थ में बालक के मानसिक विकास से तात्पर्य समय बीतने के साथ संज्ञानात्मक विकास में होने वाले सभी परिवर्तनों से है। रेबर (1995:451) के अनुसार मानसिक विकास से अभिप्राय संज्ञानात्मक विकास के उन सभी प्रगामी परिवर्तनों से है, जो समय बीतने के साथ व्यत्तिफ में घटित होते हैं। दूसरे संदर्भ में जेम्स ड्रेवर (1984:170) का मानना है कि मानसिक विकास का तात्पर्य व्यत्तिफ के जन्म से प्रौढ़ता तक के मार्ग की प्रगति में मानसिक योग्यताओं एवं कायो± के उत्तरोत्तर प्रकटन तथा संगठन से है। उपरोक्त दोनों संदभो± के विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि पहले अर्थ में मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास समानार्थी शब्द है। जबकि दूसरे अर्थ में इन दोनों संप्रत्ययों में पर्याप्त अंतर दृषिट गोचर होता है, क्योंकि मानसिक विकास की प्रक्रिया जन्म से शुरू होकर प्रौढ़ता तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है। जबकि संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया जन्म से शुरू होकर प्रौढ़ता तक होते हुए जीवन के अंतिम क्षण तक जारी रहती है।


अत: मानसिक विकास की अपेक्षा संज्ञानात्मक विकास की अवधि कहीं अधिक लम्बी होती है।


मानसिक विकास की अवस्थाएँ


मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो व्यत्तिफयों में मानसिक बीमारी को न होने देने संबन्ध्ी तथ्यों को उजागर करती हैं। मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का प्रमुख उíेश्य व्यत्तिफयों को अपनी अन्त: शत्तिफयों से अवगत कराना, मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा, मानसिक रोगों की रोकथाम एवं उपचार, मानसिक स्वास्थ्य के संबन्ध् में समाज में व्याप्त अंध्विश्वास में परिवर्तन लाना आदि है।


मनोवैज्ञानिकों ने मानसिक विकास की कर्इ अवस्थाओं का उल्लेख किया है जिनमें निम्नलिखित अवस्थाएंँ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं-


1. सहज क्रिया की अवस्था-इस अवस्था की अवधि जन्म से एक वर्ष तक होती है। इस अवस्था में शिशु में सहज क्रिया की प्रधनता होती है। सहज क्रिया का अर्थ वे क्रियाएँ हैं जो सुषुम्ना द्वारा संचालित होती है। छींकना, चूसना, पलक उठाना-गिराना, पुतली का पैफलना-सिकुड़ना आदि सहज क्रिया के उदाहरण है। लेकिन 13 से 15 माह के बच्चों में लघु मसितष्क तथा वृहत मसितष्क का विकास आरंभ हो जाता है, जिससे कुछ ऐचिछक क्रियाओं (टवसनदजंतल ंबजपअपजपमे) दृषिटगोचर होने लगती है।


2. ऐचिछक क्रियाओं की अवस्था-इस अवस्था की शुरूआत 16-17 माह तक माना जाता है। इस आयु में बच्चों में मसितष्क बहुत कुछ विकसित हो जाता है और वृहत-मसितष्क कुछ हद तक परिपक्व हो जाता है। परिणामत: बच्चे ऐचिछक क्रियाओं को करने में सक्षम पाये जाते हैं। अब वे अपनी इच्छा के अनुकूल किसी क्रिया को करने अथवा नहीं करने में सक्षम होते है। माता को देख कर खुश होना, उसकी ओर देखना, अजनबी की ओर नहंी देखना, अजनबी को देख कर रोना, आदि इचिछत या ऐचिछक क्रिया के उदाहरण है।


3. उíेश्यपूर्ण क्रिया की अवस्था-यह अवस्था लगभग दो वर्ष की आयु से शुरू होती है। इस अवस्था में उíेश्यपूर्ण कायो± की प्रधनता होती है। खिलौना पकड़ना, खाने की सामग्री को पकड़ना अजनबी को देख कर दूर हटना, आदि उíेश्यपूर्ण कार्य के उदाहरण है। बढ़ती हुर्इ आयु के साथ उíेश्यपूर्ण कायो± की विविध्ता तथा जटिलता बढ़ती जाती है। सामान्यत: 18-19 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते बच्चों में लगभग सभी मानसिक योग्यताएँ विकसित हो जाती है। इस विकास क्रम में पर्यावरणीय तथा सांस्वृफतिक भिन्नताओं के परिणामस्वरूप वैयत्तिफक भिन्नतायें हो सकती हैं।


मानसिक विकास की विशेषताएँ


मानसिक विकास की विशेषताओं को दो स्वरूपों में समझा जाता हैं। जिन्हें क्रमश: सामान्य तथा विशिष्ट वगो± में समझाा गया है।


(क) सामान्य विशेषताएंँ-मानसिक विकास की कुछ विशेषताएँ ऐसी हैं जो लगभग सभी अवस्थाओं में देखी जाती हैं। इन्हें सामान्य विशेषता की संज्ञा दी जाती है। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-


न समय बीतने के साथ परिवर्तन-मानसिक विकास में समय बीतने के साथ ही नाना प्रकार के परिवर्तन घटित होते हैं। जैसे-आयु बढ़ने के साथ बच्चों की मानसिक योग्यता में वृ(ि होती जाती है।


न उत्तरोत्तर विकास-मानसिक विकास क्रमिक होता है। यह एकाएक नहीं होता है। जैसे-किसी बालक में बौ(िक योग्यता का विकास क्रमिक रूप से बढ़ती हुर्इ आयु के अनुपात से होता है। यही बात अन्य मानसिक योग्यताओं के विकास में देखी जा सकती है।


न नये विचारों का विकास-मानसिक विकास के क्रम में बच्चे नये-नये विचारों को अर्जित करते हैं। विचारों का स्वरूप (छंजनतम), पैफलाव (म्गजमदेपवद) तथा संख्या को निर्धरित करने में प्राथमिक समाजीकरण तथा द्वितीयक समाजीकरण का हाथ होता है।


न इच्छाओं एवं विचारों की अभिव्यकित के ढंग-मानसिक विकास के क्रम में बच्चों में अपने विचारों तथा इच्छाओं की अभिव्यत्तिफ के ढंग बदलते जाते हैं। दूसरे शब्दों में बच्चों की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वे अपने विचारों तथा इच्छाओं को अभिव्यत्तफ करने के नये-नये तरीके सीखते जाते हैं।


न संज्ञानात्मक योग्यताओं का स्वरूप-मानसिक विकास के क्रम में संज्ञानात्मक योग्यताओं का स्वरूप सरल से जटिल की ओर अग्रसर होता है। बौ(िक योग्यता, शिक्षण योग्यता स्मरण योग्यता, आदि संज्ञानात्मक योग्यताएँ हैं, जिनका स्वरूप उत्तरोत्तर जटिल बनता जाता है ओर मानसिक विकास की अंतिम अवस्था अर्थात प्रौढ़ता तक कापफी जटिल बन जाता है।


(ख) विशिष्ट विशेषताएँ-मानसिक विकास की विशिष्ट विशेषताएँ वे हैं, जिनका सम्बन्ध् एक विशेष अवस्था से होता है। इन्हें निम्नलिखित अवस्थाओं में व्यत्तफ किया जा सकता है-


(प) बचपन -


यह अवस्था जन्म से 2 साल तक रहती है। इस अवस्था में मानसिक विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-


न बचपन में मानसिक विकास की रफ्रतार अन्य अवस्थाअें की तुलना में अधिक होती है।


न इस अवस्था में संवेदना की क्षमता का विकास आरंभ हो जाता है और बढ़ती हुर्इ आयु के साथ यह क्षमता सबल बनती जाती है। शिशु में दृषिट संवेदना, श्रवण संवेदना, घ्राण संवेदना, स्वाद संवेदना तथा स्पर्श संवेदना विकसित रहती है। पाँच माह के बालक में दृषिट प्रत्यक्षीकरण स्पष्ट रूप से होने लगता है। छह माह की आयु में दूरी या गहरार्इ का प्रत्यक्षीकरण भी होने लगता है।


न समझ का विकास भी क्रमश: होने लगता है। जन्म के समय बालक में कोर्इ समझदारी नहीं होती है, किन्तु 6 महीने की आयु में वह अपने माता-पिता तथा निकट सम्बन्ध्ी के प्रति सुखद व्यवहार करने लगता है। इसी प्रकार बढ़ती हुर्इ आयु के साथ समझ विकसित होती जाती है। एक साल की आयु में वह सजीव तथा निर्जीव के बीच अन्तर समझने लगता है।


न भिन्न-भिन्न तरह के संप्रत्ययों का विकास भी क्रमश: होने लगता है। जैसे-समय, स्थान आदि से सम्बनिध्त संप्रत्ययों का विकास 2 साल तक पूरा हो जाता है। इसी प्रकार भार के संप्रत्यय का विकास इस उम्र में हो जाता है।


(पप) बाल्यावस्था-


बाल्यावस्था में मानसिक विकास की अपनी अलग पहचान होती है। अवस्था की अवधि 2 वर्ष से 13 वर्ष तक होती है। 2 से 6 वर्ष की अवधि को प्रारंभिक बाल्यावस्था कहते हैं। इस अवस्था में अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति का विकास आरंभ हो जाता है। इस अवस्था में दूरी का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान विकसित हो जाता है। लेकिन, जीवन तथा मृत्यु का संप्रत्यय स्पष्ट रूप से विकसित नहंी हो पाता है। 6 साल से 13 साल की अवधि को उत्तरअ बाल्यावस्था कहते हैं। इस अवस्था में अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा के प्रभाव के कारण बच्चों में तर्कसंगत चिंतन तथा जटिल संप्रत्ययों का विकास होने लगता है। इस अवस्था में जीवन तथा मृत्यु के संप्रत्यय अधिक यथार्थ बन जाते है। मुद्रा-संप्रत्यय का विकास भी इस अवधि में हो जाता है।


(पपप)किशोरावस्था-


इस अवस्था की अवधि 13 वर्ष से 19 वर्ष तक होती है। इस अवधि में मानसिक विकास अपनी चरम सीमा पर होता है। इस अवस्था में होने वाले मानसिक विकास की अपनी पहचान होती है-


न चिन्तन में औपचारिक सक्रियता की विशेषता पायी जाती है।


न अभिरूचि, मनोवृत्ति तथा आवश्यकता में विविध्ता विकसित हो जाती है।


न किशोर तथा किशोरियों में एकाग्रता की क्षमता बढ़ जाती है।


न तथ्यों एवं अनुभवों के


सामान्यीकरण की योग्यता भी विकसित हो जाती है।


न सूचना संसाध्न तथा संप्रेषण की योग्यता विकसित हो जाती है।


न इस अवस्था में किशोरों तथा किशोरियों में नये-नये मूल्यों के साथ-साथ नैतिक मूल्य भी विकसित हो जाते हैं।


न मानसिक विकास की इस अवस्था में आत्मीकरण की योग्यता भी विकसित हो जाती है ।अब किशोर लड़के तथा लड़कियाँ दूसरे व्यत्तिफयों तथा परिसिथतियों के साथ आत्मीकरण स्थापित करने में सक्षम होते है।


न इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता स्वतंत्राता-भाव है। किशोर लड़के तथा लड़कियाँ माता-पिता के बंध्न से आजाद होने के भाव से पीडि़त होते है। परिणामत: वे नाना प्रकार के प्रतिबलों के शिकार बन जाते है। माता-पिता के शासन के कारण प्रतिबलों की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था में कुसमायोजन के लक्षण, जैसे घर से भाग जाना, बर्बरता कत्र्तव्य त्याग, चोरी करना तथा लैंगिक दुराचार देखे जाते हैं।


संज्ञानात्मक विकास: समस्या एवं चुनौतियाँ


संज्ञानात्मक विकास का तात्पर्य संज्ञानात्मक योग्यताओं के विकास से है। संज्ञानात्मक योग्यता का अर्थ बु(ि, चिंतन, कल्पना आदि से सम्बनिध्त योग्यताएँ हैं। रेबर के अनुसारए 1995, ''संज्ञान का तात्पर्य ऐसे मानसिक व्यवहारों से है, जिनका स्वरूप अमूत्र्त (।इेजतंबज) होता है और जिनमें प्रतीकीकरण, सूझ, प्रत्याशा, जटिल नियम उपभोग, प्रतिमा, विश्वास, अभिप्राय, समस्या समाधन तथा अन्य शामिल होते हैं। संज्ञानात्मक विकास के सि(ान्त-संज्ञानात्मक विकास के संदर्भ में जीन पियाजे (श्रमंद च्पंहमज) तथा जेú एसú ब्रूनर (श्रण्ैण् ठतनदमत) के योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


लेकिन हम यहाँ केवल पियाजे के योगदान का अèययन करेंगे।


क्या आप जानते हैं?


5- 19 वर्ष की अवधि में 15» बच्चें मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीडि़त होते है।


गरीब बच्चों में इसका प्रतिशत 30» तक होता है। (ठमतसपदए 1975)।


अमेरिका में लगभग 15 -19 वर्ष के लड़कों तथा लड़कियों की


मृत्यु का एक मुख्य कारण तनाव के परणिमस्वरूप होने वाली


आत्महत्या है (त्वेेए1970)।


पियाजे का सि(ान्त-संज्ञानात्मक विकास के सम्बन्ध् में जीन पियाजे का योगदान सर्वोपरि है। वे एक सिवस मनोवैज्ञानिक (ैूपेे चेीलबीवसपहपेज) थे, जिनका जन्म 1896 तथा मृत्यु 1980 में हुर्इ। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के सि(ान्त का प्रतिपादन किया। हम यहाँ इस सि(ान्त के मुख्य संप्रत्ययों तथा अवस्थाओं का उल्लेख करने के पश्चात इसके शैक्षिक महत्त्व पर प्रकाश डालेंगे। पियाजे के सि(ान्त में कर्इ संप्रत्ययों का उल्लेख किया गया है, जिनमें निम्नलिखित मुख्य रूप से महत्त्वपूर्ण हैं-


(प) अनुकूलन-पियाजे के सि(ान्त में अनुकूलन का संप्रत्यय कापफी महत्त्वपूर्ण हैे। उनके अनुसार अनुकूलन की प्रवृत्ति बालक में जन्मजात होती है। अनुकूलन का अर्थ है वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना। यह दो तरीको से सम्भव होता है, जिन्हें आत्मसातीकरण तथा समायोजन या समझौता कहते है। जब कोर्इ बालक किसी परिचित परिसिथति या नर्इ परिसिथति में होता है तो वह पूर्व स्थापित प्रतिरूप के आधर पर व्यवहार करता है। यदि उसका यह व्यवहार-प्रतिरूप सपफल प्रमाणित होता है तेा वह इसमें कोर्इ परिवर्तन नहंी लाता है। इसे ही प्याजे ने आत्मसातीकरण की संज्ञा दी। इस प्रकार बालक उस परिसिथति में अनुकूलित हो जाता है या उस परिसिथति के साथ अनुकूलन स्थापित कर लेता है। दूसरी ओर यदि उस नवीन परिसिथति में बालक का वह पूर्व स्थापित व्यवहार-प्रतिरूप विपफल हो जाता है तो वह उसमें परिवर्तन लाता है जिसे प्याजे ने समायोजन की संज्ञा दी है। इस प्रकार बालक समायोजन के माèयम से उस परिसिथति के साथ अनुकूलन कर लेता है।


(पप) साम्यधरण-पियाजे के अनुसार जब बालक ऐसी परिसिथति में पड़ जाता है जहाँ वह आत्मसातीकरण या समायोजन के आधर पर अपवर्जक रूप से अनुकूलन प्राप्त करने में सक्षम नहंी होता है तो उसमें संज्ञानात्मक असंतुलन (बवहदपजपपवद कपेइसंदबम) की सिथति उत्पन्न हो जाती है, जिसको दूर करने के लिए वह आत्मसातीकरण तथा समायोजन के बीच संतुलन लाकर उस परिसिथति के साथ अनुकूलन स्थापित करता है। इन दोनों प्रक्रियाओं अर्थात आत्मसातीकरण तथा समायोजन के बीच संतुलन लाने की इसी प्रक्रिया को साम्यधरण कहते हैं।


(पपप) संरक्षण-पियाजे के अनुसार संरक्षण का अर्थ वातावरण में परिवर्तन तथा सिथरता को समझने और वस्तु के रंग-रूप में परिवर्तन तथा उसके तत्त्व के परिवर्तन में अन्तर करने की प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में संरक्षण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक में एक ओर वातावरण के परिवर्तन तथा सिथरता में अन्तर करने की क्षमताऔर दूसरी ओर वस्तु के रंग-रूप में परिवर्तन तथा उसके तत्त्व में परिवर्तन के बीच अन्तर करने की क्षमता विकसित होती है।


(पअ) संज्ञानात्मक संरचना-पियाजे ने मानसिक योग्यताओं के समुच्चय को संज्ञानात्मक संरचना की संज्ञा दी है। भिन्न-भिन्न आयु के बालकों की संज्ञानात्मक संरचना भिन्न-भिन्न हुआ करती है। बढ़ती हुर्इ आयु के साथ यह संज्ञानात्मक संरचना सरल से जटिल बनती जाती है।


(अ) मानसिक संक्रिया-मानसिक प्रचालन या संक्रिया का अर्थ संज्ञानात्मक संरचना की सक्रियता है। जब बालक किसी समस्या का समाधन करना शुरू करता है तो उसकी मानसिक संरचना सक्रिय बन जाती है। इसे ही मानसिक संक्रिया या मानसिक प्रचालन कहते हैं।


(अप) स्कीम्स-पियाजे के सि(ान्त का यह संप्रत्यय वास्तव में मानसिक प्रचालन संप्रत्यय का बाá-रूप है। जब मानसिक प्रचालन बाá रूप से अभिव्यत्तफ होता है तो इसी अभिव्यत्तफ रूप को 'स्कीम्स कहते हैं।


(अपप) स्कीमा-पियाजे के अनुसार स्कीमा का अर्थ ऐसी मानसिक संरचना है। जिसका सामान्यीकरण सम्भव हो। यह संप्रत्यय वस्तुत: संज्ञानात्मक संरचना तथा मानसिक प्रचालन के संप्रत्ययों से गहरे रूप से सम्ब( है।


(अपपप) विकेन्द्रण-इस संप्रत्यय का सम्बन्ध् यथार्थ चिन्तन से है। विकेन्द्रण का अर्थ यह है कि कोर्इ बालक किसी समस्या के समाधन के सम्बन्ध् में किस सीमा तक वास्तविक ढंग से सोच-विचार करता है। इस संप्रत्यय का विपरीत आत्मकेन्द्रण है। शुरू में बालक आत्मकेनिद्रत ढंग से सोचता है और बाद में उम्र बढ़ने पर विकेनिद्रत ढंग से सोचने लगता है।


(पग) अन्तक्र्रिया-पियाजे के अनुसार बच्चों में वास्तविकता को समझने तथा उसकी खोज करने की क्षमता, न केवल बच्चों की प्रौढ़ता (उंजनतपजल) पर और न केवल उनके शिक्षण पर निर्भर करती है, बलिक दोनों की पारस्परिक क्रिया (पदजमतंबजपवद)पर आधरित होती है।


संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ


पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का उल्लेख किया जो निम्नलिखित हैं-


(अ) संवेदी-पेशीय अवस्था


(ब) प्रावफसंक्रियात्मक अवस्था


(स) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था तथा


(द) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था।


(अ)संवेदी पेशीय अवस्था


बच्चें के संज्ञानात्मक विकास की यह पहली अवस्था है जो जन्म से लेकर लगभग दो वषो± तक चलती है। इस अवस्था में बच्चा अपने-आपको वस्तु से अलग करने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। वह समझने लगता है कि यह वस्तु उस वस्तु से भिन्न है। ध्ीरे-ध्ीरे वह व्यवहारों तथा वातावरण पर पड़ने वाले उनके प्रभावों के बीच सम्बन्ध् सीख लेता है। इतनी योग्यता आ जाती है कि वह समझने लगता है कि आग को छूने से हाथ जलेगा अथवा बर्तन को हिलाने पर आवाज होगी उसमें समय तथा स्थान के अर्थ को समझने की योग्यता भी विकसित हो जाती है परन्तु अभी समय तथा स्थान समझने की योग्यता विकसित नहंी हो पाती है। इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता यह है कि वस्तु-स्थायित्व का संप्रत्यय विकसित हो जाता है। बच्चा इतना समझने लगता है कि नजर से ओझल होने के बाद भी वस्तु का असितत्व कायम रहता है।


(ब)प्रावफ संक्रियात्मक अवस्था


संज्ञानात्मक विकास की यह दूसरी अवस्था 2 वर्ष से 7 वर्ष तक जारी रहती है। इस अवस्था में बच्चे की बौ(क योग्यता एवं चिन्तन-योग्यता में थोड़ी जटिलता आ जाती है। अब वह भाषा का उपयोग करने लगता है। वस्तुओं को शब्दों तथा प्रतिमाओं के रूप में प्रस्तुत करने के योग्य बन जाता है। परन्तु, उसकी बौ(िक योग्यता उसी तक सीमित होती है। उसे दूसरों के सम्बन्ध् में चिन्तन करने में कठिनार्इ होती है। किसी एक विशेषता या गुण के आधर पर वस्तुओं को दो वगो± में विभािजत करने लगता है। जैसे- यदि वह वस्तु । को वस्तु ठ के समान एक गुण में देखता है तो समझने लगता है कि दोनों वस्तुएँ, दूसरे गुणों में भी अवश्य ही समान होगी। इस अवस्था में अन्त में संख्या सीख लेता है और संरक्षण संप्रत्यय का विकास होने लगता है। पिफर भी, इस अवस्था में बच्चों के चिनतन में लचीलापन नहीं पाया जाता है।


(स) मूत्र्त संक्रियात्मक अवस्था


यह अवस्था 7 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक जारी रहती है। इस अवस्था में बच्चों में तार्किक चिन्तन की योग्यता विकसित हो जाती है। 6 साल की आयु में संख्या 7 साल में मात्राा तथा 9 साल में वजन के संप्रत्यय विकसित हो जाते हैं इस अवस्था में बच्चे के चिन्तन या संज्ञानात्मक कार्य में लचीलापन अधिक पाया जाता है। आत्मकेनिद्रत चिन्तन की प्रवृत्ति कापफी कम हो जाती है।


(द) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था


संज्ञानात्मक विकास की यह अंतिम अवस्था है जो 12 साल की उम्र से शुरू होती है। इस अवस्था में बच्चा अमूत्र्त वस्तुओं के सम्बन्ध् में सोचने की योग्यता रखने लगता है। तार्किक प्रस्ताव को समझने लगता है। किसी समस्या के भिन्न-भिन्न तत्त्वों को अलग करने तथा सम्भव समाधनों को खोजने की योग्यता भी आ जाती है। इस अवस्था में बच्चा परिकलिपत समस्याओं का भी सामना करने लगता है। èाीरे-ध्ीरे बच्चे में विवेक, रचनात्मक चिन्तन तथा अमूर्त चिंतन की योग्यता आ जाती है।




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