इस समय भारत में शिक्षा का एकमात्र अनियंत्रित क्षेत्र प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा है। स्कूली शिक्षा के लिए अनेक नियम हैं, और अब तो सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के लिए एक कानून भी है, तथा अनेकों विधान, नीतिगत ढाँचे तथा रूपरेखाएँ हैं। पर, वास्तव में इस तरह का कुछ भी प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा के लिए नहीं है। हमारे पास ग्रामीण क्षेत्रों में आँगनवाड़ियों के माध्यम से एक सरकारी पूर्व-स्कूल (प्री-स्कूल) व्यवस्था अवश्य है। पर निजी क्षेत्र में इस पर कतई कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिए मैं आज अपने घर में एक पूर्व-स्कूल प्रारम्भ करने का निर्णय ले सकती हूँ और कोई भी मुझसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करेगा। न यह पूछेगा कि किस पाठ्यक्रम/बोर्ड का अनुसरण किया जाना है, क्या जब बच्चे 18 माह के हों तब उन्हें लेना विधिसम्मत है, या उन्हें केवल 3 वर्ष की आयु में ही लिया जाना चाहिए, किन न्यूनतम सुरक्षा मानदण्डों का पालन किया जाना चाहिए, संचालक द्वारा कोई प्रशिक्षण प्राप्त किया गया है या नहीं, आदि। अतः, यह सबके लिए एक पूरी तरह से खुली छूट वाला क्षेत्र है। इसलिए प्रारम्भिक बाल शिक्षा तथा देखरेख के लिए, विशेष रूप से शहरी क्षेत्र में, सभी तरह के निजी केन्द्रों - शिशु सदन (डेकेयर सेंटर्स), झूला घर (क्रेश), पूर्व-स्कूल, आदि - की जैसे बाढ़-सी आ गई है। इनमें से किसी को भी आरम्भ करने और चलाने के लिए कोई नियम नहीं हैं। अतः यह चिन्ता का बहुत बड़ा मुद्दा है क्योंकि यह बच्चों की सुरक्षा, उनके सीखने, उनके बड़े होने तथा उनके विकास को प्रभावित करता है। बचपन के प्रारम्भिक वर्षों का दौर किसी बच्चे के विकास के सबसे महत्वपूर्ण कालखण्डों में से एक होता है।
जहाँ यह शहरी इलाकों का परिदृश्य है, वहीं ग्रामीण इलाकों में सरकारी आँगनवाड़ियों का नियंत्रित क्षेत्र है। समग्र रूप से इसका विचार और अधिकांश राज्यों में इसके पाठ्यक्रम सम्बन्धी जो दिशा निर्देश तथा पोषण आदि के लिए मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं, वे काफी सराहनीय हैं। परन्तु, विभिन्न कारणों से इसका क्रियान्वयन बहुत शोचनीय है। इसलिए, हमारे सामने दोनों स्थितियाँ हैं, एक ओर शहरी, अर्ध शहरी तथा ग्रामीण अनियंत्रित निजी क्षेत्र है, तथा दूसरी ओर नियंत्रित सरकारी क्षेत्र है जो काफी दयनीय हालत में है। प्रकट रूप से, तमिलनाडु अपने आई.सी.डी.एस. (इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवेलपमेंट सर्विसेज - एकीकृत बाल विकास सेवाएँ ) कार्यक्रम में बहुत अच्छा कर रहा है, पर यह उसके सापेक्ष ही ‘बहुत अच्छा’ है जैसा देश के अधिकांश अन्य भागों में हो रहा है। हमें इसकी भी कोई जानकारी नहीं है कि निजी, हालाँकि अनियंत्रित, क्षेत्र कोई अच्छी सेवा प्रदान कर रहा है या नहीं। उचित पैमाने पर इसके बारे में बहुत ही थोड़े शोधकार्य या अध्ययन किए गए हैं जो हमें बता सकें कि वास्तव में क्या हो रहा है। पड़ोसी के अतिरिक्त कमरे, या गैरेज, या बगीचे में चलाए जा रहे पूर्व-स्कूल से लेकर बहुत ऊपरी धनाड्य छोर वाली परिष्कृत पूर्व-स्कूल व्यवस्थाओं - जो बहुत अच्छी दिखती हैं पर अधिकांश लोगों की आर्थिक सामर्थ्य से परे होती हैं - तक इनकी एक पूरी शृंखला है। यह एक ऐसा विराट क्षेत्र है, जिसमें कोई साझे सिद्धान्त नहीं हैं, इसलिए इसमें ‘निजी क्षेत्र’ कहलाने वाली एकल सत्ता जैसी कोई चीज नहीं है।
एक अन्य महत्व पूर्ण आयाम यह है कि हमारे यहाँ विशाल संख्या में ऐसे बच्चे भी हैं जो सीखने के व्यवस्थित वातावरण के किसी भी पूर्व अनुभव के बिना, अपने जीवन के पहले साढ़े पाँच या छह वर्ष घर पर बिताकर, या उसमें से कुछ समय किसी नाकाम आँगनवाड़ी में बिताकर या किसी प्रकार ऐसे ही गुजारकर, सीधे ही सरकारी स्कूलों की कक्षा 1 में चले आते हैं। इसलिए, हमारे देश में ढेर सारे ऐसे बच्चे हैं जिनके प्रथम छह वर्ष काफी बेतरतीब होते हैं, जिनमें इस बारे में कोई वास्तविक सोच-विचार नहीं होता कि बच्चों के साथ क्या हो रहा है - इस तथ्य को देखते हुए कि ऐसी अधिकांश स्थितियों में माता-पिता, दोनों ही काम करने वाले होते हैं, और पारिवारिक सहारे की कोई व्यवस्था कभी उपलब्ध होती है और कभी नहीं। साथ ही इसमें पोषण, स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की समस्याएँ भी जुड़ी रहती हैं। ऐसा नहीं है कि हर जगह यही हो रहा है, लेकिन हमारे देश में बच्चे के जीवन के प्रथम छह वर्षों में जो हो रहा है, एक तरह से यह उसका एक व्यापक चित्र है।
एक अन्य वर्ग शहरों में रोजी-रोटी के लिए बाहर से पलायन करके आने वाले लोगों का है, जिसमें छोटे बच्चे अपने माता-पिताओं के साथ, उदाहरण के लिए, एक निर्माणाधीन जगह से दूसरी जगह पर डेरा डालते रहते हैं। उनका क्या होता है? वे ज्यादातर काफी अस्वच्छ और असुरक्षित परिवेशों में रहते हैं। परियोजना के आकार आदि पर निर्भर करते हुए भवन-निर्माताओं के लिए एक झूलाघर चलाना आवश्यक होता है। पर अनेक ऐसा नहीं करते। यह एक अन्य बहुत ही ढीले-ढाले तरीके से नियंत्रित क्षेत्र है। प्रदूषण, सुरक्षा, आसपास फैले हुए उपकरण, देखभाल का अभाव, स्वच्छता का अभाव, पोषण की कमी आदि को देखते हुए, यह इन बच्चों के लिए एक अत्यंत कठिन परिस्थिति होती है। इसके साथ ही, अपने गाँवों से पलायन करके आने के कारण वे अपने घरों के सहज परिवेश से भी दूर होते हैं। वे उनके गाँवों में बसे हुए बृहत परिवारों और समुदायों से कट जाते हैं और यहाँ छोटे केन्द्रीय परिवारों में, अकसर ऐसी जगहों पर रहते हैं जहाँ की भाषा उनकी अपनी भाषा से बहुत भिन्न होती है।
इसके अलावा, हम परिवार के पूरे स्वरूप में परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं, जो अर्ध-शहरी तथा शहरी परिवारों को अधिक प्रभावित कर रहा है। अब घर पर दादा-दादी, नाना-नानी, चाची, बुआ, मौसी, चाचा, मामा और अन्य बच्चों आदि से भरे-पूरे परिवार निरन्तर घटते जा रहे हैं। पहले, आप लगभग दस बच्चों में से एक होते थे, जिसकी दादी या नानी नियमित रूप से कहानी सुनाती थी; हर समय आपके साथ कोई खेलने वाला होता था। रसोईघर, जो अनेक प्रकार की चीजों से भरी एक अद्भुत जगह होती है, आपकी पहुँच में होता था। साथ ही बगीचे तथा जानवरों तक भी आपकी पहुँच होती थी। चारों ओर बहुत सी चीजें होती रहती थीं जो सब मिलकर बच्चों के सीखने के लिए बहुत ही अनुकूल वातावरण निर्मित करती थीं। चूँकि आसपास अनेक और हर प्रकार के, बड़े लोग होते थे, इसलिए बच्चा ढेर सारी भाषा का अनुभव करता था। बच्चे को सीखने और बढ़ने के लिए ऐसे सभी प्रकार के अवसर मिलते थे, जो जरूरी नहीं कि किसी ढाँचे के अन्तर्गत होते थे। धीरे-धीरे एक या दो बच्चों वाले परिवार होने लगे, और इस तरह की पारस्परिक अन्तःक्रियाएँ निरन्तर कम होती गईं, जिसके कारण बच्चे के लिए चीजों को साझा करने की सोच, तथा एक-दूसरे के साथ रहने की सोच को समझना, स्वयं भाषा को सीखना, तर्क प्रक्रिया को ग्रहण करना, आदि कठिन होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, आप देखेंगे कि दो या तीन बच्चों वाले घरों में, छोटा बच्चा अकसर चीजें ज्यादा जल्दी सीखता है। ऐसा नहीं कि छोटा बच्चा ज्यादा बुद्धिमान है या बड़ा बच्चा कम प्रतिभाशाली है। यह केवल अवसर की सुलभता की बात है - जब छोटा बच्चा उस दौर में होता है जिसमें उसका मस्तिष्क प्रखर और एक सोख्ते की तरह होता है, तब उसे एक ऐसे बड़े बच्चे की संगति का अवसर मिलता है जो पहले से ही अनेक बातें सीख रहा होता है।
शोध बताता है कि एक बच्चे के विकास - संज्ञानात्मात्क विकास, भावनात्मक विकास, सामान्य स्वास्थ्य, सीखने के प्रति रुझानों में विकास, दूसरों के प्रति रुख, आदि - में पहले छह वर्ष अत्यन्त महत्व पूर्ण होते हैं। ये शिशुओं के लिए बड़ी बातें प्रतीत हो सकती हैं, पर ये वाकई में बहुत महत्व पूर्ण होती हैं, क्योंकि वे अनेक रुझानों और अपेक्षाओं को निर्मित करती हैं। मुझे लगता है कि बच्चे पहले छह वर्षों में जिस तरह भाषा सीखते हैं, उस तरह की सरलता से वे उसे फिर कभी नहीं सीखते। यदि हम मस्तिष्क के विकास को देखें, तो जिस प्रकार के स्नायुविक सम्बन्ध पहले बारह वर्षों में, और निश्चित ही पहले छह वर्षों में, बन रहे होते हैं, वे फिर कभी दोहराए नहीं जाते। निर्मित होने वाले स्नायुविक सम्बन्धों की संख्या वास्तव में आपके सीखने का परिमाण दर्शाती है - इस बात को कहने का शायद यह तकनीकी ढंग न हो, पर इसे समझने का यह एक सरलीकृत तरीका है। बच्चों को मिलने वाले विविध प्रकार के अनुभवों, और अनुभवों के बार-बार दोहराए जाने से ही किसी बच्चे को ज्यादा तेजी से सीखने में मदद मिलती है, और इससे हमारा मतलब उसके लिए उचित समय या आयु के पहले सीखना नहीं है। इसका आशय केवल इतना है कि चीजों को देखने में सक्षम होना, अवधारणाओं को विकसित करना, आसपास जो घट रहा है उसकी गतिकी को समझना, चीजों के जुड़ावों को देखना, सम्बन्धों को देखना - ये सभी बहुत जल्दी प्रारम्भ हो जाते हैं। इसमें भाषा बड़ी भूमिका निभाती है, क्योंकि भाषा तथा संज्ञान बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने लिए और दूसरों के लिए संसार का निर्माण करते हैं। भाषा का सीखना जीवन में बहुत जल्दी शुरू हो जाता है। इसलिए, जब वे बहुत छोटे होते हैं तब भी, बच्चों से खूब बात करना, उन्हें चीजों को समझाना, उनसे चर्चा करना उनके भाषा कौशलों को विकसित करने में जबर्दस्त रूप से उनकी मदद करता है। हो सकता है कि तब बच्चों ने बोलना न सीखा हो, और भाषा का मतलब बोलना हो यह जरूरी भी नहीं है। सबसे पहले और सबसे ऊपर, भाषा वह तरीका है जिससे हम सोचते हैं, और बच्चे निरन्तर सोचते रहते हैं। बोलना, पढ़ना और लिखना बाद में आते हैं।
इस समय भारत में शिक्षा का एकमात्र अनियंत्रित क्षेत्र प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा है। स्कूली शिक्षा के लिए अनेक नियम हैं, और अब तो सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के लिए एक कानून भी है, तथा अनेकों विधान, नीतिगत ढाँचे तथा रूपरेखाएँ हैं। पर, वास्तव में इस तरह का कुछ भी प्रारम्भिक बाल्यावस्था शिक्षा के लिए नहीं है। हमारे पास ग्रामीण क्षेत्रों में आँगनवाड़ियों के माध्यम से एक सरकारी पूर्व-स्कूल (प्री-स्कूल) व्यवस्था अवश्य है। पर निजी क्षेत्र में इस पर कतई कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिए मैं आज अपने घर में एक पूर्व-स्कूल प्रारम्भ करने का निर्णय ले सकती हूँ और कोई भी मुझसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करेगा। न यह पूछेगा कि किस पाठ्यक्रम/बोर्ड का अनुसरण किया जाना है, क्या जब बच्चे 18 माह के हों तब उन्हें लेना विधिसम्मत है, या उन्हें केवल 3 वर्ष की आयु में ही लिया जाना चाहिए, किन न्यूनतम सुरक्षा मानदण्डों का पालन किया जाना चाहिए, संचालक द्वारा कोई प्रशिक्षण प्राप्त किया गया है या नहीं, आदि। अतः, यह सबके लिए एक पूरी तरह से खुली छूट वाला क्षेत्र है। इसलिए प्रारम्भिक बाल शिक्षा तथा देखरेख के लिए, विशेष रूप से शहरी क्षेत्र में, सभी तरह के निजी केन्द्रों - शिशु सदन (डेकेयर सेंटर्स), झूला घर (क्रेश), पूर्व-स्कूल, आदि - की जैसे बाढ़-सी आ गई है। इनमें से किसी को भी आरम्भ करने और चलाने के लिए कोई नियम नहीं हैं। अतः यह चिन्ता का बहुत बड़ा मुद्दा है क्योंकि यह बच्चों की सुरक्षा, उनके सीखने, उनके बड़े होने तथा उनके विकास को प्रभावित करता है। बचपन के प्रारम्भिक वर्षों का दौर किसी बच्चे के विकास के सबसे महत्वपूर्ण कालखण्डों में से एक होता है।
जहाँ यह शहरी इलाकों का परिदृश्य है, वहीं ग्रामीण इलाकों में सरकारी आँगनवाड़ियों का नियंत्रित क्षेत्र है। समग्र रूप से इसका विचार और अधिकांश राज्यों में इसके पाठ्यक्रम सम्बन्धी जो दिशा निर्देश तथा पोषण आदि के लिए मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं, वे काफी सराहनीय हैं। परन्तु, विभिन्न कारणों से इसका क्रियान्वयन बहुत शोचनीय है। इसलिए, हमारे सामने दोनों स्थितियाँ हैं, एक ओर शहरी, अर्ध शहरी तथा ग्रामीण अनियंत्रित निजी क्षेत्र है, तथा दूसरी ओर नियंत्रित सरकारी क्षेत्र है जो काफी दयनीय हालत में है। प्रकट रूप से, तमिलनाडु अपने आई.सी.डी.एस. (इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवेलपमेंट सर्विसेज - एकीकृत बाल विकास सेवाएँ ) कार्यक्रम में बहुत अच्छा कर रहा है, पर यह उसके सापेक्ष ही ‘बहुत अच्छा’ है जैसा देश के अधिकांश अन्य भागों में हो रहा है। हमें इसकी भी कोई जानकारी नहीं है कि निजी, हालाँकि अनियंत्रित, क्षेत्र कोई अच्छी सेवा प्रदान कर रहा है या नहीं। उचित पैमाने पर इसके बारे में बहुत ही थोड़े शोधकार्य या अध्ययन किए गए हैं जो हमें बता सकें कि वास्तव में क्या हो रहा है। पड़ोसी के अतिरिक्त कमरे, या गैरेज, या बगीचे में चलाए जा रहे पूर्व-स्कूल से लेकर बहुत ऊपरी धनाड्य छोर वाली परिष्कृत पूर्व-स्कूल व्यवस्थाओं - जो बहुत अच्छी दिखती हैं पर अधिकांश लोगों की आर्थिक सामर्थ्य से परे होती हैं - तक इनकी एक पूरी शृंखला है। यह एक ऐसा विराट क्षेत्र है, जिसमें कोई साझे सिद्धान्त नहीं हैं, इसलिए इसमें ‘निजी क्षेत्र’ कहलाने वाली एकल सत्ता जैसी कोई चीज नहीं है।
एक अन्य महत्व पूर्ण आयाम यह है कि हमारे यहाँ विशाल संख्या में ऐसे बच्चे भी हैं जो सीखने के व्यवस्थित वातावरण के किसी भी पूर्व अनुभव के बिना, अपने जीवन के पहले साढ़े पाँच या छह वर्ष घर पर बिताकर, या उसमें से कुछ समय किसी नाकाम आँगनवाड़ी में बिताकर या किसी प्रकार ऐसे ही गुजारकर, सीधे ही सरकारी स्कूलों की कक्षा 1 में चले आते हैं। इसलिए, हमारे देश में ढेर सारे ऐसे बच्चे हैं जिनके प्रथम छह वर्ष काफी बेतरतीब होते हैं, जिनमें इस बारे में कोई वास्तविक सोच-विचार नहीं होता कि बच्चों के साथ क्या हो रहा है - इस तथ्य को देखते हुए कि ऐसी अधिकांश स्थितियों में माता-पिता, दोनों ही काम करने वाले होते हैं, और पारिवारिक सहारे की कोई व्यवस्था कभी उपलब्ध होती है और कभी नहीं। साथ ही इसमें पोषण, स्वास्थ्य तथा सुरक्षा की समस्याएँ भी जुड़ी रहती हैं। ऐसा नहीं है कि हर जगह यही हो रहा है, लेकिन हमारे देश में बच्चे के जीवन के प्रथम छह वर्षों में जो हो रहा है, एक तरह से यह उसका एक व्यापक चित्र है।
एक अन्य वर्ग शहरों में रोजी-रोटी के लिए बाहर से पलायन करके आने वाले लोगों का है, जिसमें छोटे बच्चे अपने माता-पिताओं के साथ, उदाहरण के लिए, एक निर्माणाधीन जगह से दूसरी जगह पर डेरा डालते रहते हैं। उनका क्या होता है? वे ज्यादातर काफी अस्वच्छ और असुरक्षित परिवेशों में रहते हैं। परियोजना के आकार आदि पर निर्भर करते हुए भवन-निर्माताओं के लिए एक झूलाघर चलाना आवश्यक होता है। पर अनेक ऐसा नहीं करते। यह एक अन्य बहुत ही ढीले-ढाले तरीके से नियंत्रित क्षेत्र है। प्रदूषण, सुरक्षा, आसपास फैले हुए उपकरण, देखभाल का अभाव, स्वच्छता का अभाव, पोषण की कमी आदि को देखते हुए, यह इन बच्चों के लिए एक अत्यंत कठिन परिस्थिति होती है। इसके साथ ही, अपने गाँवों से पलायन करके आने के कारण वे अपने घरों के सहज परिवेश से भी दूर होते हैं। वे उनके गाँवों में बसे हुए बृहत परिवारों और समुदायों से कट जाते हैं और यहाँ छोटे केन्द्रीय परिवारों में, अकसर ऐसी जगहों पर रहते हैं जहाँ की भाषा उनकी अपनी भाषा से बहुत भिन्न होती है।
इसके अलावा, हम परिवार के पूरे स्वरूप में परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं, जो अर्ध-शहरी तथा शहरी परिवारों को अधिक प्रभावित कर रहा है। अब घर पर दादा-दादी, नाना-नानी, चाची, बुआ, मौसी, चाचा, मामा और अन्य बच्चों आदि से भरे-पूरे परिवार निरन्तर घटते जा रहे हैं। पहले, आप लगभग दस बच्चों में से एक होते थे, जिसकी दादी या नानी नियमित रूप से कहानी सुनाती थी; हर समय आपके साथ कोई खेलने वाला होता था। रसोईघर, जो अनेक प्रकार की चीजों से भरी एक अद्भुत जगह होती है, आपकी पहुँच में होता था। साथ ही बगीचे तथा जानवरों तक भी आपकी पहुँच होती थी। चारों ओर बहुत सी चीजें होती रहती थीं जो सब मिलकर बच्चों के सीखने के लिए बहुत ही अनुकूल वातावरण निर्मित करती थीं। चूँकि आसपास अनेक और हर प्रकार के, बड़े लोग होते थे, इसलिए बच्चा ढेर सारी भाषा का अनुभव करता था। बच्चे को सीखने और बढ़ने के लिए ऐसे सभी प्रकार के अवसर मिलते थे, जो जरूरी नहीं कि किसी ढाँचे के अन्तर्गत होते थे। धीरे-धीरे एक या दो बच्चों वाले परिवार होने लगे, और इस तरह की पारस्परिक अन्तःक्रियाएँ निरन्तर कम होती गईं, जिसके कारण बच्चे के लिए चीजों को साझा करने की सोच, तथा एक-दूसरे के साथ रहने की सोच को समझना, स्वयं भाषा को सीखना, तर्क प्रक्रिया को ग्रहण करना, आदि कठिन होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, आप देखेंगे कि दो या तीन बच्चों वाले घरों में, छोटा बच्चा अकसर चीजें ज्यादा जल्दी सीखता है। ऐसा नहीं कि छोटा बच्चा ज्यादा बुद्धिमान है या बड़ा बच्चा कम प्रतिभाशाली है। यह केवल अवसर की सुलभता की बात है - जब छोटा बच्चा उस दौर में होता है जिसमें उसका मस्तिष्क प्रखर और एक सोख्ते की तरह होता है, तब उसे एक ऐसे बड़े बच्चे की संगति का अवसर मिलता है जो पहले से ही अनेक बातें सीख रहा होता है।
शोध बताता है कि एक बच्चे के विकास - संज्ञानात्मात्क विकास, भावनात्मक विकास, सामान्य स्वास्थ्य, सीखने के प्रति रुझानों में विकास, दूसरों के प्रति रुख, आदि - में पहले छह वर्ष अत्यन्त महत्व पूर्ण होते हैं। ये शिशुओं के लिए बड़ी बातें प्रतीत हो सकती हैं, पर ये वाकई में बहुत महत्व पूर्ण होती हैं, क्योंकि वे अनेक रुझानों और अपेक्षाओं को निर्मित करती हैं। मुझे लगता है कि बच्चे पहले छह वर्षों में जिस तरह भाषा सीखते हैं, उस तरह की सरलता से वे उसे फिर कभी नहीं सीखते। यदि हम मस्तिष्क के विकास को देखें, तो जिस प्रकार के स्नायुविक सम्बन्ध पहले बारह वर्षों में, और निश्चित ही पहले छह वर्षों में, बन रहे होते हैं, वे फिर कभी दोहराए नहीं जाते। निर्मित होने वाले स्नायुविक सम्बन्धों की संख्या वास्तव में आपके सीखने का परिमाण दर्शाती है - इस बात को कहने का शायद यह तकनीकी ढंग न हो, पर इसे समझने का यह एक सरलीकृत तरीका है। बच्चों को मिलने वाले विविध प्रकार के अनुभवों, और अनुभवों के बार-बार दोहराए जाने से ही किसी बच्चे को ज्यादा तेजी से सीखने में मदद मिलती है, और इससे हमारा मतलब उसके लिए उचित समय या आयु के पहले सीखना नहीं है। इसका आशय केवल इतना है कि चीजों को देखने में सक्षम होना, अवधारणाओं को विकसित करना, आसपास जो घट रहा है उसकी गतिकी को समझना, चीजों के जुड़ावों को देखना, सम्बन्धों को देखना - ये सभी बहुत जल्दी प्रारम्भ हो जाते हैं। इसमें भाषा बड़ी भूमिका निभाती है, क्योंकि भाषा तथा संज्ञान बहुत घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं। भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने लिए और दूसरों के लिए संसार का निर्माण करते हैं। भाषा का सीखना जीवन में बहुत जल्दी शुरू हो जाता है। इसलिए, जब वे बहुत छोटे होते हैं तब भी, बच्चों से खूब बात करना, उन्हें चीजों को समझाना, उनसे चर्चा करना उनके भाषा कौशलों को विकसित करने में जबर्दस्त रूप से उनकी मदद करता है। हो सकता है कि तब बच्चों ने बोलना न सीखा हो, और भाषा का मतलब बोलना हो यह जरूरी भी नहीं है। सबसे पहले और सबसे ऊपर, भाषा वह तरीका है जिससे हम सोचते हैं, और बच्चे निरन्तर सोचते रहते हैं। बोलना, पढ़ना और लिखना बाद में आते हैं।
नीचे दिए गए विषय पर सवाल जवाब के लिए टॉपिक के लिंक पर क्लिक करें Culture Question Bank International Relations Security and Defence Social Issues English Antonyms English Language English Related Words English Vocabulary Ethics and Values Geography Geography - india Geography -physical Geography-world River Gk GK in Hindi (Samanya Gyan) Hindi language History History - ancient History - medieval History - modern History-world Age Aptitude- Ratio Aptitude-hindi Aptitude-Number System Aptitude-speed and distance Aptitude-Time and works Area Art and Culture Average Decimal Geometry Interest L.C.M.and H.C.F Mixture Number systems Partnership Percentage Pipe and Tanki Profit and loss Ratio Series Simplification Time and distance Train Trigonometry Volume Work and time Biology Chemistry Science Science and Technology Chattishgarh Delhi Gujarat Haryana Jharkhand Jharkhand GK Madhya Pradesh Maharashtra Rajasthan States Uttar Pradesh Uttarakhand Bihar Computer Knowledge Economy Indian culture Physics Polity
Sir please HP tet ke purpose se psychology ke sare topic ap is side pe provide krwa skte h kya