नाना प्रकार के ऊतक (tissue) मिलकर [[शरीर]] के विभिन्न अंगों (organs) का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, एक प्रकार के कार्य करनेवाले विभिन्न अंग मिलकर एक अंग तंत्र (organ system) का निर्माण करते हैं। कई अंग तंत्र मिलकर जीव (जैसे, मानव शरीर) की रचना करते हैं।
मानव शरीर का निर्माण निम्नलिखित तंत्रों द्वारा होता है :
(1) कंकाल तंत्र, (Skeletal system)
(2) संधि तंत्र,
(3) पेशीय तंत्र, (Muscular system)
(4) रुधिर परिसंचरण तंत्र, (Circulatory system)
(5) आशय तंत्र :
(6) तंत्रिका तंत्र (Nervous system), तथा
(7) ज्ञानेन्द्रिय तंत्र।
मानव [[कंकाल]] (अस्थिपिंजर) के ज्ञान जैसे [[अस्थि]] की उत्पत्ति, वृद्धि, अस्थिप्रसु कोशिका, अस्थि भंजक कोशिका आदि, के संबंध में काफी उन्नति हुई है। अस्थियों द्वारा मानव एवं पशु की भिन्नता का ज्ञान होता है तथा [[लिंग]] एवं वय का निश्चय किया जा सकता है। अस्थियों एवं उपास्थि (कार्टिलेज) के द्वारा शरीर के ढाँचे का निर्माण होता है। अस्थियाँ आकार एवं कार्य के अनुसार चार प्रकार की होती हैं :
अस्थि के निम्न कार्य होते हैं :
अस्थि कोशिकाओं से निर्मित ऊतक से अस्थियाँ बनती हैं। अस्थियों द्वारा रुधिरकणों का निर्माण भी होता है। हमारे शरीर में कुल मिलाकर 206 अस्थियाँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं : [[खोपड़ी]] में 29 अस्थियाँ, रीढ़ में 26 अस्थियाँ - 33 कशेरुक, इनमें से क्रम 5 कशेरुक से मिलकर तथा काकिसक्स 4 कशेरुक से मिलकर बनता है। यदि इन्हें 1-1 माना जाए, तो कुल अस्थियाँ 26 ही होंगी, वक्ष तथा पर्शुकाओं, में 25 अस्थियाँ, (ऊर्ध्व शाखा) बाहु आदि में 64, अध: शाखा (जांघ आदि) में 62 अस्थियाँ, हालोइड अस्थि 1 तथा श्रोत अस्थिका 6। लंबी नलिकाकार अस्थियों में मज्जा होती है, जो रुधिर कण बनाती है। ऐक्सकिरण से देखने पर अस्थियाँ अपारदर्शक होती हैं।
दो या अधिक अस्थियों के जोड़ को [[संधि]] कहते हैं। इसमें स्नायु (ligaments) सहायक होते हैं। संधियाँ कई प्रकार की होती हैं। गीत के अनुसार इनके भेद निम्नलिखित हैं :
आकृति के अनुसार संधियों का वर्गीकरण निम्नलिखित है :
तांतव संधि - इसके उदाहरण कपाल संधियाँ, दाँत के उलूखल तथा जंघिकांतर संधि (tibiofibular joint)।
उपस्थि संधि - यह दो प्रकार की होती है। इसमें अल्पगति होती है, जैसे भगास्थि संधि।
स्नेहक संधि - इसके अंतर्गत प्राय: शरीर की समस्त संधियाँ आती हैं। इस प्रकार की संधियाँ विभिन्न गतियों के अनुसार अनेक वर्गों में विभाजित की जा सकती हैं।
संधियों के ऊपर से पेशियाँ गुजरती हैं तथा उन्हें गति प्रदान करती हैं। संधियों की अपनी रुधिर वाहिकाएँ होती हैं। संधियों का विलगना चोट लगने से होता है। इसे संधिभ्रंश कहते हैं। संधियों की स्नायु पर आघात होने को मोच कहते हैं।
पेशियों का निर्माण कई पेशी तंतुओं के मिलने से होता है। ये पेशीतंतु पेशीऊतक से बनते हैं। पेशियाँ रचना एवं कार्य के अनुसार तीन प्रकार की होती हैं :
ऐच्छिक पेशियाँ, अस्थियों पर संलग्न होती हैं तथा संधियों पर गति प्रदान करती है। पेशियाँ नाना प्रकार की होती हैं तथा कंडरा (tendon) या वितान (aponeurosis) बनाती हैं। तंत्रिका तंत्र के द्वारा ये कार्य के लिए प्रेरित की जाती हैं। पेशियों का पोषण रुधिरवाहिकाओं के द्वारा होता है। शरीर में प्राय: 500 पेशियाँ होती हैं। ये शरीर को सुंदर, सुडौल, कार्यशील बनाती हैं। इनका गुण संकुचन एवं प्रसार करना है। कार्यों के अनुसार इनके नामकरण किए गए हैं। शरीर के विभिन्न कार्य पेशियों द्वारा होते हैं। कुछ पेशी समूह एक दूसरे के विरुद्ध भी कार्य करते हैं जैसे एक पेशी समूह हाथ को ऊपर उठाता है, तो दूसरा पेशी समूह हाथ को नीचे करता है, अर्थात् एक समूह संकुचित होता है, तो दूसरा विस्तृत होता है।
पेशियाँ सदैव स्फूर्तिमय (toned) रहती हैं। मृत व्यक्ति में पेशी रस के जमने से पेशियाँ कड़ी हो जाती हैं। मांसवर्धक पदार्थ खाने से, उचित व्यायाम से, ये शक्तिशाली होती हैं। कार्यरत होने पर इनमें थकावट आती है तथा आराम एवं पोषण से पुन: सामान्य हो जाती हैं।
इस तंत्र में हृदय, इसके दो अलिंद, दो निलय, उनका कार्य, फुप्फुस में रुधिर शोधन तथा प्रत्येक अंगों को शुद्ध रुधिर ले जानेवाली धमनियाँ एवं हृदय में अशुद्ध रुधिर को वापस लानेवाली शिराएँ रहती हैं।
रुधिर परिसंचरण तीन चक्रों में विभक्त किया जा सकता है :
फुप्फुस (फेफड़े) एवं वृक्क में जानेवाली धमनियाँ अशुद्ध रुधिर ले जाती हैं तथा वहाँ से शुद्ध किया हुआ रुधिर वापस शिराओं से हृदय को वापस आता है। शरीर में धमनियों का जाल होता है तथा उनकी शाखाएँ एवं प्रशाखाएँ एक दूसरे से मिल जाती हैं, जिससे एक के कटने पर दूसरों से अंग को रुधिर पहुँचाया जाता है। मस्तिष्क की तथा हृदय की धमनियाँ अंत धमनियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनकी शाखाएँ आपस में संगम नहीं करतीं।
गर्भ के रुधिर परिवहन तथा गर्भावस्था के पश्चात् के रुधिर परिवहन में अंतर होता है। गर्भ में रुधिर का शोधन फुप्फुस द्वारा नहीं होता। इसी तंत्र में लस वाहिनियों का वर्णन भी किया जाता है। लसपर्व शरीर के रक्षक होते हैं। शोथ, उपसर्ग तथा आघात होने पर ये फूल जाते हैं।
रुधिर में प्लाज़्मा, लाल रुधिर कोशिकाएँ, श्वेत रुधिर कोशिकाएँ आदि रहती हैं। मानव के एक घन मिमि. रुधिर में 50,00,000 लाल रुधिर कोशिकाएँ तथा 6,000 से 9,000 तक श्वेत रुधिर कोशिकाएँ रहती हैं। शरीर में रुधिर नहीं जमता, पर शरीर से बाहर निकलते ही रुधिर जमने लगता है।
ऊर्ध्व एवं अध: महाशिराएँ समस्त शरीर के रुधिर को हृदय के दक्षिण में अलिंद में लाती हैं, जहाँ से रुधिर दक्षिणी निलय में जाता है। निलय से रुधिर हृदय के स्पंदन के कारण फुप्फुसीय धमनी द्वारा फुप्फुस में शोधन के लिए जाता है तथा शुद्ध होने के बाद वह फुप्फुसीय शिराओं द्वारा बाएँ अलिंद में आता है। बाएँ अलिंद के संकुचन के कारण रुधिर बाएँ निलय में जाता है, जहाँ से महाधमनी एवं उसकी शाखाओं द्वारा समस्त शरीर में जाता है। शिराओं में अशुद्ध रुधिर और धमनियों में शुद्ध रुधिर रहता है, पर फुप्फुसीय धमनी एवं वृक्क धमनी इसका अपवाद है। हृदय का स्पंदन एक मिनट में 72 बार होता है। हृदय हृदयावरण से आवृत रहता है। अलिंद तथा निलय के मध्य कपाट रहते हैं, जो रुधिर को विपरीत दिशा में जाने से रोकते हैं।
इसके अंतर्गत निम्नलिखित आशय आते हैं :
इस तंत्र में श्वासोच्छ्वास क्रिया में काम करनेवाले समस्त अंगों की रचना का वर्णन आता है। इसमें नासा, कंठ, स्वरयंत्र, श्वासनली, श्वसनिका फुप्फुस, फुप्फुसावरण तथा उन पेशियों का, जो श्वासोच्छ्वास क्रिया कराती हैं, वर्णन मिलता है। इस तंत्र द्वारा रुधिर का शोधन होता है। मनुष्य एक मिनट में 16-20 बार श्वास लेता है।
इस तंत्र में वे सब अंग सम्मिलित हैं, जो भोजन के पाचन, अवशोषण, चयोपचय से संबंधित हैं, जैसे ओष्ठ, दाँत, जिह्वा, कंठ, अन्ननलिका, आमाशय, पक्वाशय, लघु, आंत्र, बृहत्, आंत्र, मलाशय, यकृत अग्न्याशय (pancreas) तथा लालाग्रंथियाँ। अन्न नलिका 10 इंच लंबी होती है तथा विशेषत: वक्ष गुहा में रहती है। आंत्र की लंबाई 20 फुट होती है। पक्वाशय अंग्रेजी के सी (C) के आकार का, अग्न्याशय के चारों ओर, 10 इंच लंबा होता है। यकृत उदर गुहा में ऊपरी तथा दाहिनी ओर रहता है। इसका भार किलोग्राम है तथा यह खंडों में विभाजित रहता है। इसके पास में पित्ताशय होता है। यकृत में पित्त का निर्माण होता है। उदर गुहा के ये सब अंग पेरिटोयिम कला से आवृत रहते हैं। इस कला के दो भाग होते हैं : एक वह जो गुहाभित्ति पर लगा रहता है, दूसरा आशयों पर संलग्न रहता है। यह कला फुप्फुसावरण तथा मस्तिष्कावरण के समान ही है। पेरिटोनियम कला की गुहा, इसके दो स्तरों के मध्य में होती है, जिसमें जल का पतला स्तर होता है, परंतु स्त्रियों में डिंबवाहिनी गुहा, गर्भाशय गुहा तथा योनि-गुहा द्वारा यह बाह्य वातावरण में खुलती है। इस पेरिटोनियम कला की परतों के द्वारा आशय उदर गुहा में लटके रहते हैं।
इन तंत्रों का वर्णन निम्नलिखित है :
मूत्राशय, मूत्रनली, प्रॉस्टेटग्रंथि तथा इनकी रुधिर वाहिनियाँ आदि इस तंत्र के अंतर्गत हैं। वृक्क के दो गोले कटि कशेरुक के दोनों ओर रहते हैं। ये रुधिर से मूत्र को पृथक् करते हैं। यह मूत्र, गविनियों द्वारा मूत्रालय में एकत्रित होता है तथा वहाँ से मानव के इच्छानुसार से बाहर निकलता है। गवनियों की लंबाई 10 इंच होती है। मूत्राशय भगास्थि के पीछे श्रोणि गुहा में रहता है तथा मूत्र के मात्रानुसार आकार में फैलता जाता है। पुरुषों में मूत्र नली की लंबाई 7 इंच तथा स्त्रियों में मूत्र नली की लंबाई 1 इंच होती हैं।
पुरुषों एवं स्त्रियो में जनन तंत्र के भिन्न भिन्न अंग है। पुरुष के में दो अंड ग्रंथियाँ रहती हैं। यहाँ पर शुक्राणु का निर्माण होता है। ये शुक्राणु शुक्रवाहिनियों द्वारा श्रोणिगुहा स्थित शुक्राशयों में ले जाए जाते हैं। जहाँ शुक्राशय द्रव इनमें मिल जाता है। दोनों शुक्राशय मूत्रनली के पुरस्थ भाग में खुलते हैं। मैथुन द्वारा पुरुष अपने शुक्र का त्याग मूत्रनली द्वारा करता है। स्त्रियों में भगास्थि तथा मूत्राशय के पीछे स्थित ऊध्र्व, लंबा गर्भाशय स्थित है। श्रोणि गुहा में दोनों ओर बादाम के समान दो ग्रंथियाँ रहती हैं, जिन्हें डिंब ग्रंथियाँ कहते हैं। इनमें ग्राफियन पुटिका (Graafian follicle) से डिंब का निर्माण होता है। डिंब प्रति मास डिंब वाहिनियों द्वारा ग्रहण किया जाता है और वहाँ शुक्राणु द्वारा प्रफलित होने पर गर्भाशय में अवस्थित होकर, वृद्धि प्राप्त करता है, अथवा प्रति मास गर्भाशय अंतकंला के टूटकर निकलने से होनेवाले मासिक रुधिरस्राव के साथ, यह अप्रफलित डिंब बाहर फेंक दिया जाता है।
इसको दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं :
केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को मस्तिष्क मेरु तंत्रिका तंत्र भी कहते हैं। इसके अंतर्गत अग्र मस्तिष्क, मध्यमस्तिष्क, पश्च मस्तिष्क, अनुमस्तिष्क, पौंस, चेतक, मेरुशीर्ष, मेरु एवं मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं के 12 जोड़े तथा मेरु तंत्रिकाओं के 31 जोड़े होते हैं।
मस्तिष्क करोटि गुहा में रहता है तथा तीन कलाओं से, जिन्हें तंत्रिकाएँ कहते हैं आवृत रहता है। भीतरी दो कलाओं के मध्य में एक तरल रहता है, जो मेरुद्रव कहलाता है। यह तरल मस्तिष्क के भीतर पाई जानेवाली गुहाओं में तथा मेरु की नालिका में भी रहता है। मेरु कशेरुक नलिका में स्थित रहता है तथा मस्तिष्कावरणों से आवृत रहता है। यह तरल इन अंगों को पोषण देता है, इनकी रक्षा करता है तथा मलों का विसर्जन करता है।
मस्तिष्क में बाहर की ओर धूसर भाग तथा अंदर की ओर श्वेत भाग रहता है तथा ठीक इससे उल्टा मेरु में रहता है। मस्तिष्क का धूसर भाग सीताओं के द्वारा कई सिलवटों से युक्त रहता है। इस धूसर भाग में ही तंत्रिका कोशिकाएँ रहती हैं तथा श्वेत भाग संयोजक ऊतक का होता है। तंत्रिकाएँ दो प्रकार की होती हैं : (1) प्रेरक (Motor) तथा (2) संवेदी (Sensory)।
मस्तिष्क के बारह तंत्रिका जोड़ों के नाम निम्नलिखित हैं: (1) घ्राण तंत्रिका,
(2) दृष्टि तंत्रिका,
(3) अक्षिप्रेरक तंत्रिका,
(4) चक्रक (Trochlear) तंत्रिका,
(5) त्रिक तंत्रिका,
(6) उद्विवर्तनी तंत्रिका (Abducens),
(7) आनन तंत्रिका,
(8) श्रवण तंत्रिका,
(9) जिह्वा कंठिका तंत्रिका,
(10) वेगस तंत्रिका (Vagus),
(11) मेरु सहायिका तंत्रिका तथा
(12) अधोजिह्वक (Hypoglossal) तंत्रिका।
मस्तिष्क एवं मेरु के धूसर भाग में ही संज्ञा केंद्र एवं नियंत्रण केंद्र रहते हैं। मेरु में संवेदी (पश्च) तथा चेष्टावह (अग्र) तंत्रिका मूल रहते हैं।
अग्र मस्तिष्क दो गोलार्धों में विभाजित रहता है तथा इसके भीतर दो गुहाएँ रहती हैं जिन्हें पाश्र्वीय निलय कहते हैं। संवेदी तंत्रिकाएँ शरीर की समस्त संवेदनाओं को मस्तिष्क में पहुँचाकर अनुभूति देती हैं तथा चेष्टावह तंत्रिकाएँ वहाँ से आज्ञा लेकर अंगों से कार्य कराती हैं। केंद्रीय तंत्रिकाएँ विशेष कार्यों के लिए होती हैं। इन सब तंत्रिकाओं के अध: तथा ऊध्र्व केंद्र रहते हैं। जब कुछ क्रियाएँ अध: केंद्र कर देते हैं तथा पश्च ऊध्र्व केंद्रों को ज्ञान प्राप्त होता है, तब ऐसी क्रियाओं को प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex action) कहते हैं। ये कियाएँ मेरु से निकलनेवाली तंत्रिकाओं तथा मेरु केंद्रों से होती हैं। मस्तिष्क का भार 40 औंस होता है। मस्तिष्क की धमनियाँ अंत: धमनियाँ होती हैं, अत: इनमें अवरोध होने पर, या इनके फट जाने पर संबंधित भाग को पोषण मिलना बंद हो जाता है, जिसके कारण वह केंद्र कार्य नहीं करता, अत: उस केंद्र से नियंत्रित क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं। इसे ही पक्षाघात (Paralysis) कहते हैं।
यह स्वेच्छा से कार्य करता हैं। इसमें एक दूसरे के विरुद्ध कार्य करनेवाली अनुकंपी (sympathetic) तथा सहानुकंपी (parasympathetic), दो प्रकार की तंत्रिकाएँ रहती हैं। शरीर के अनेक कार्य, जैसे रुधिरपरिसंचरण पर नियंत्रण, हृदयगति पर नियंत्रण आदि स्वतंत्र तंत्रिका से होते हैं। अनुकंपी शृंखला करोटि गुहा से श्रोणि गुहा तक कशेरुक दंड के दोनों ओर रहती है तथा इसमें कई गुच्छिकाएँ (ganglions) रहती हैं।
इनका वर्णन निम्नलिखित है :
घ्राणेंद्रिय - इसका अंग नासा है। इसके द्वारा गंध का ज्ञान होता है। नासा छत से घ्राण तंत्रिका गंध के ज्ञान को मस्तिष्क में ले जाती है।
स्वादेंद्रिय - जिह्वा पर के स्वादांकुर इसका अंग होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के स्वादों को भिन्न भिन्न स्थानों से ग्रहण करते हैं।
दृष्टींद्रिय - इसका मुख्य अंग नेत्र है। नेत्र गोलक फोटो कैमरा के समान है। यह श्वेत पटल, मध्य पटल, तथा अंत पटल (रेटिना) से निर्मित है। इसमें रेटिना ही दृष्टींद्रिय का काम करता है। नेत्रगोलक छिद्र, या तारा (pupil), से प्रकाश भीतर जाता है। तारा पर आइरिस (iris) रहता है, जो तारे का संकोच और प्रसार कराता है। यह प्रकाश अग्र कक्ष के तरल, लेंस तथा पश्च कक्ष के तरल से होकर रेटिना पर पड़ता है, जहाँ से दृष्टि नाड़ियाँ इस ज्ञान को अग्र मस्तिष्क की अनुकपाल पालि (occipital lobe) को ले जाती हैं। रेटिना तंत्रिका तंत्र का ही भाग है। सबसे बाहर नेत्र में कॉर्निया (cornea) तथा उसपर एक कला रहती है। नेत्र के पास ही अक्षिगुहा में अश्रुग्रंथि एवं अश्रुथैली रहती है। नेत्र के पास ही अक्षिगुहा में अश्रुग्रंथि एवं अश्रुथैली रहती हैं। अश्रु अश्रुथैली में इकट्ठा रहता है।
श्रवणेंद्रिय - इसका अंग कर्ण है। कर्ण तीन विभागों में विभक्त है : बाह्य, मध्य एवं अंत। बाह्यकर्ण के आंतरिक छोर पर स्थित श्रवण पटल पर शब्द के कंपन, ध्वनि लहरियों के रूप में होते हैं, जिन्हें मध्य कर्ण की तीन अस्थियाँ, मैलियस (Malleus), इंकस (Incus) तथा स्टेपीज (Stapes) ग्रहण करती हैं तथा अंतकर्ण के कर्णावर्त (cochlea) की ओर भेजती हैं। कर्णांवर्त में तरल रहता है तथा श्रवण तंत्रिकाओं द्वारा ध्वनि का ग्रहण कर अग्र मस्तिष्क की शंखपालि (temporal lobe) में श्रवण का कार्य होता है। कर्ण शंखास्थि में स्थित है। अंतकर्ण में स्थित अर्धवृत्ताकार नलिकाएँ संतुलन का काम करती हैं।
स्पर्शोंद्रिय - इसके अंतर्गत त्वचा आती है। त्वचा से ही गरमी ठंढक, मृदुता, कठोरता, पीड़ा, स्पर्श आदि का ज्ञान होता है। त्वचा के दो भाग होते हैं : (1) बाह्य त्वचा तथा (2) अंतस्त्वचा। तलुए और हथेली में त्वचा की मोटाई मुख की त्वचा की मोटाई से 10 गुनी होती है। त्वचा शरीर को बाहर से आवृत्त कर रक्षा एवं मलविसर्जन भी करती है। त्वचा में एक स्तर रंजक कणों का भी होता है। त्वचा में रोमकूप तथा स्वेद ग्रंथियाँ भी होती हैं। त्वचा ताप का नियंत्रण भी करती है। इसी तरह त्वचा में अवशोषण का कार्य भी होता है। त्वचा में नख शय्या भी होती है।
इसके अंतर्गत शुक्राणु, डिंब उनका निर्माण, सम्मिलन, गर्भाशय में स्थिति, पोषण, जरायु, अपरा का निर्माण, भ्रूण की साप्ताहिक एवं मासिक वृद्धि, भ्रूण के भिन्न भिन्न अंगों प्रत्यंगों, संस्थानों का निर्माण तथा यमल के निर्माण का संपूर्ण विषय आता है। आजकल इस संबंध में ज्ञान की अभिवृद्धि बहुत हो गई है, अत: यह अब एक भिन्न शास्त्र ही माना जाने लगा है। इसके अध्ययन के अंतर्गत आनुवंशिकी, प्रायोगिक भ्रूण विज्ञान तथा रासायनिक भ्रूण विज्ञान भी आता है। जन्मजात विकृतियों का अध्ययन भी इसके अंतर्गत आता है। शरीर के मुख्य अंग हैं : शिर, ग्रीवा, वक्ष, उदर, हाथ और पैर होते हैं। शरीर की गुहाएँ हैं :
वक्षगुहा और उदरगुहा महाप्राचीरा पेशी द्वारा विलग की जाती हैं। उदर गुहा में वास्तविक उदरगुहा तथा श्रोणि गुहा दोनों का समावेश होता है।
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