मौर्य काल में शिक्षा, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अच्छी उन्नति हुई। मौर्य कालीन शासकों के संरक्षण में शिक्षा की उन्नति को अनुकूल अवसर मिला। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सुविख्यात केन्द्र था। यहाँ दूर-दूर के देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। कौशलराज प्रसेनजित् तक्षशिला के विद्यार्थी के रूप में रह चुका था। सम्राट् बिम्बिसार का राजवैद्य जीवन तक्षशिला का ही आचार्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य कुछ समय तक तक्षशिला में आचार्य चाणक्य का शिष्य बनकर रह चुका था। इसी प्रकार अनेक राजकुमार तक्षशिला में अध्ययन किया करते थे। तक्षशिला के आचार्य अपने ज्ञान के लिए सुविश्रुत थे। तक्षशिला में तीनों वेद, अष्टादश दिया, विविध शिल्य, धनुर्विद्या, हस्ति विद्या, मंत्र विद्या, चिकित्सा शास्त्र आदि की शिक्षा दी जाती थी।
मौर्य काल में तक्षशिला जैसे उच्च शिक्षा- केन्द्रों के अतिरिक्त गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में शिक्षा दी जाती थी। राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि नगर शिक्षा के सुविख्यात केन्द्र थे। इन शिक्षा केन्द्रों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी। इसके अतिरिक्त अनेक आचार्य, पुरोहित तथा श्रोत्रिय आदि व्यक्तिगत रूप से शिखा दिया करते थे। शिक्षा केन्द्रों या विद्यापीठों में दो प्रकार के अन्तेवासी आचार्य से शिक्षा ग्रहण करते थे- पहले धम्मनतेवासिक जो दिन में आचार्य का काम करते थे और रात्रि में शिक्षा ग्रहण करते थे, दूसरे आचारिय भागदायक जो आचार्य के निवास में रह कर उसके ज्येष्ठ पुत्र की तरह शिक्षा प्राप्त करते थे। ये अपना सारा समय ज्ञानार्जन में लगाते थे। मौर्य-शासन काल में शिक्षा की स्थिति पर विचार करते हुए डॉ. वी.ए. स्मिथ ने लिखा है- अशोक के समय बौद्ध जनसंख्या का पढ़ा-लिखा प्रतिशत अंग्रेजी भारत के कई प्रान्तों के शिक्षित लोगों के प्रतिशत से अधिक था।
मौर्य काल में तीन भाषाओं का प्रचलन था- संस्कृत, प्राकृत और पालि। पालि एक प्रकार की जन भाषा थी। अशोक ने पालि को सम्पूर्ण साम्राज्य की राजभाषा बनाया और इसी भाषा में अपने अभिलेख उत्कीर्ण कराए। इस युग में इन तीनों भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा बौद्ध ग्रन्थ मंजू श्री मूल कल्प मौर्यकालीन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं। पतंजलि का महाभाष्य, वृहत्कथा का संस्कृत संस्करण, हरिषेण का जैन वृहत्कथा कोष तथा अभिनव गुप्त की नाट्य शास्त्र की रचनाएँ हैं। समाति, यवकृत, प्रियंसु, सुमनोत्तरा, भीमरथ, वारुवदत्ता तथा देवासुर आदि की सुविश्रुत रचनाएँ इसी युग की हैं। धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में भी इस युग महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रण्यन हुआ। प्रसिद्ध जैन आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति (प्रारम्भिक धर्म ग्रन्थ) पर एक भाष्य लिखा। जैन धर्म के प्रसिद्ध लेखक जम्बू स्वामी, प्रभव और स्वयम्भव की रचनाएँ इसी युग में लिखी गई। आचारांग सूत्र समवायांग सूत्र, प्रश्न-व्याकरण आदि इसी युग की रचनाएँ हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटको का प्रणयन इसी युग में हुआ। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत आने वाली कई रचनाएँ इसी युग की हैं।
मौर्य कला
कला एवं संस्कृति का मौर्य काल में चहुंमुखी विकास हुआ। एक राष्ट्र में शान्ति एवं जनता के सुखमय वैभवपूर्ण जीवन को कला एवं साहित्यिक विकास के लिए उपयुक्त माना गया है। फलत: हम इस काल में दोनों क्षेत्रों में अद्भुत उन्नति पाते हैं। कुछ दृष्टियों से तो यह भी कहा जा सकता है कि इस काल में भारत कला-क्षेत्र में अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था। मौर्यकालीन कला को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- दरबारी कला और लोकप्रिय कला। दरबारी कला स्तम्भों और उनके शीर्षों में अभिव्यक्त हुई। पाटलिपुत्र में कुम्हार से एक राजप्रासाद का अवशेष प्राप्त हुआ है। ऐरियन ने इसे सुसा (मेसोपोटामिया) और एकबतना के राजप्रासादों से श्रेष्ठ माना है। स्तम्भों को औपदार बनाया गया एवं निपुणता से काटा गया है। राजाश्रित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट् था। अशोक के युग के कला अवशेष अभिलेखों के साथ मिलते हैं। अभिलेख पुण्य स्थलों में या नगरों के निकट स्थापित किए गए। सबसे अधिक बहुलता से प्राप्त अवशेष स्तम्भों के पशुशीर्ष हैं। स्तम्भ सामान्यतः एक प्रस्तर खण्ड से काटा जाता था। स्तम्भ लेख एक महत्त्वपूर्ण स्थान के साथ जोड़ते हुए उत्कीर्ण करवाये गये जो स्थल पवित्र माने जाते थे।
फाह्यान (399-413 ई.) ने अशोक के छः स्तम्भ एवं ह्वेनसांग (629-645 ई.) ने बारह स्तम्भों को देखा था। किन्तु उनमें से कुछ स्तम्भ नष्ट हो गये हैं। ये स्तम्भ संकिसा, निग्लीव, लुम्बिनी, सारनाथ, बसरा-बीसरा (वैशाली), साँची, आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनकी संख्या बीस से अधिक कही गई है। इन्हें चुनार (बनारस के निकट) के बलुआ पत्थर से गढ़ा गया। चुनार की खानों से प्राप्त पाण्डुरंग के सूक्ष्म दानेदार कडे पत्थर पर अधिकांशत: छोटी-छोटी काली चित्तियाँ हैं। जॉन मार्शल तथा पसीं ब्राउन जैसे विद्वानों ने अशोक के स्तम्भों को ईरानी स्तम्भों की अनुकृति बताया है परन्तु यह उपयुक्त नहीं लगता क्योंकि हमें ईरानी तथा अशोक के स्तम्भ में कई मूलभूत अन्तर दिखायी देते हैं। इनमें कुछ इस प्रकार हैं- (1) अशोक के स्तम्भ एकाश्म अर्थात् एक ही पत्थर से तराशकर बनाए गए हैं। इनके विपरीत ईरानी स्तम्भों को कई मण्डलकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया जाता है। (2) ईरानी स्तम्भ विशाल भवनों में लगाए गए थे। इसके विपरीत अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। (3) अशोक के स्तम्भ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाए गए हैं जबकि ईरानी स्तम्भों को चौकी पर टिकाया गया है। (4) अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तंभों पर मानव आकृतियाँ हैं। (5) ईरानी स्तम्भ गराड़ीदार हैं किन्तु अशोक के स्तम्भ सपाट हैं। (6) अशोक के स्तम्भ नीचे से ऊपर क्रमशः पतले होते हैं, जबकि ईरानी स्तंभों की चौड़ाई नीचे से ऊपर तक एक ही है।
इनमें से प्रत्येक स्तम्भ के मूलतः दो भाग हैं- स्थूण एवं शीर्ष। स्थूण एक पत्थर के टुकड़े (एक प्रास्तरिक) के बने हुए हैं और उन पर ऐसी सुन्दर ओप है कि आज भी लोगों को उसके धातु के बने होने का भ्रम होता है। मौर्य कालीन स्तम्भों को कलामर्मज्ञों ने एकाश्म (एक पत्थर से निर्मित) कहा है परन्तु इन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। नीचे का लाट (यष्टि) एवं ऊपरी भाग को शीर्ष जो लाट की चोटी पर स्थापित रहता है। लाट एक शुंडाकार दण्ड है जिसकी लम्बाई चालीस से पचास फीट तक है। शीर्ष को कला की दृष्टि से कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। सबसे नीचे रस्सी की आकृति को मेखला (मेकला) कहा गया। इस पर उल्टे कमल की आकृति (या घंटाकृति), जिसे पूर्ण कुंभ भी कहा जाता है। घंटाकृति पर गोलाकार चौकी (या चौकोर चौकी) जिसे आधार पीठिका की संज्ञा दी गई, जिस पर पशु आकृति को प्रतिष्ठित किया गया। कुछ स्थलों पर पशु आकृतियों पर धर्मचक्र स्थापित है।
प्राय: इन स्तम्भों की बनावट एक जैसी होते हुए भी इनके शीर्ष पर विविध पशु आकृतियाँ स्थापित की गई हैं जैसे-अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति आदि। एरण एवं ग्वालियर से प्राप्त स्तम्भ ताड़वृक्ष की आकृति के हैं। दूसरा अन्तर चौकी पर उत्कीर्ण विषय पर देखा जा सकता है। सारनाथ से प्राप्त शीर्ष की चौकी पर चारों ओर चार चक्र एवं उनके मध्य अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति अंकित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक स्तम्भों (बसरा बखिरा) की पीठिका पर दाना चुगते हंस अथवा ताड़पत्र अंकित हैं। सारनाथ के अतिरिक्त सभी स्तम्भों पर एक पशु की आकृति स्थित है किन्तु सारनाथ स्तम्भ में चार सिंह पीठ से पीठ सटाये बनाये गये हैं।
धौली का प्रस्तर हस्ति अपेक्षाकृत सुडौल और कला की दृष्टि से प्रौढ़ है। इसे पशु शीर्षों की परम्परा से अलग माना गया है। हस्ति की छवि का अंकन एवं रूपांकन विशिष्ट प्रकार का है एवं उसकी रेखाओं का प्रवाह सुन्दर है। इसमें आकार की विशालता के साथ उसकी छवि में कल्पना का भाव है। उसकी शान्तिपूर्ण गरिमा अपूर्व है।
संकिसा की गजमूर्ति में भी संतुलन का अभाव है अर्थात् स्तम्भ की ऊँचाई की दृष्टि से हाथी अत्यन्त लघु है जो प्रारम्भिक अवस्था का द्योतन करता है। गज के शरीर का भाग बोझिल होने के कारण झुकाव आ गया है तथा अगले पैर स्तम्भ की सी बनावट के हैं। उसका विशाल एवं थुलथुल शरीर जो जड़ प्रतीत होता है। चौकी की बनावट और मुड़ी पत्तियोंवाला पद्य अधिक विकसित और सुन्दर है। संकिसा के हस्तिमण्डित स्तम्भ को, विद्वानों ने मौर्य कला की विकास प्रक्रिया में अगले स्थान पर रखा है। लौरियानन्दनगढ़ की सिंह मूर्ति में बखिरा सिंह मूर्ति की अपेक्षा अधिक दृढ़ता है। माँस पेशियों एवं शिराओं का सफल चित्रण हुआ है। विद्वानों ने लौरिया स्तम्भ को सर्वोत्तम नमूनों में से एक माना है।
रामपुरवा से प्राप्त दो वृषभ एवं सिंह शीर्षों में बसरा-बखिरा आदि स्तम्भों से अधिक विकास दृष्टिगोचर होता है। वृषभ की मूर्ति में गति, सजीवता एवं लालित्य परिलक्षित होता है। पीठिका एवं उस पर अवस्थित मूर्ति प्रस्थापन में भी पूर्ण संयोजन है। यद्यपि शीर्ष स्तम्भ ऊँचाई की दृष्टि से छोटा है, किन्तु इसमें कला के क्रमिक विकास के चिह्न स्पष्ट प्रतिबिम्बित होते हैं।
साँची सिंह शीर्ष में भी सारनाथ की भाँति चार पशु पीठ सटाये बैठे हैं एवं गोल अण्ड पर चुगते हसों की पंक्ति रामपुरवा शीर्षक की भाँति उत्कीर्ण है। साँची का अंकन अधिक रूढ़िग्रस्त है, संभवत: यह सारनाथ से परवर्ती रचना है।
अशोक कालीन सारे स्तम्भों में सारनाथ शीर्ष सबसे भव्य है एवं अब तक भारत में उपलब्ध मूर्ति कलाओं में सर्वोत्तम नमूना है। किसी देश में इस सुन्दर कलाकृति से बढ़कर अथवा उसके समान प्राचीन पशु मूर्ति का नमूना खोज निकालना कठिन है। इसमें वास्तविक बनावट के साथ-साथ आदर्श प्रतिष्ठित है और वह बनावट में प्रत्येक दृष्टि से और पूर्णतया सूक्ष्म है।
शीर्ष सात फीट ऊँचा है। इसके ऊपर चार भव्य सिंह पीठ से पीठ सटाये गोल पीठिका पर बैठे हैं। इनके बीच एक बड़ा पत्थर का चक्र धर्मचक्र का प्रतीक था। चक्र में संभवत: 32 तीलियाँ थीं। सिंहों के नीचे चार छोटे-छोटे चक्र हैं जिनमें 24-24 तीलियाँ हैं।
मौर्य युगीन स्तूप- अशोक ने स्तूप निर्माण की परम्परा को भी प्रोत्साहन दिया। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर पूर्व निर्मित आठ स्तूपों को तुड़वाकर बुद्ध के अवशेषों को पुनर्वितरित कर 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया। यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि अशोक ने बड़ी तादाद में स्तूपों का निर्माण करवाया होगा। साँची तथा भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप में अशोक ने ही करवाया था एवं शुगों के समय में साँची स्तूप का विस्तार हुआ। स्तूप (पालि में थूप) का अभिप्राय चिता पर निर्मित टीला होता है जो प्रारम्भ में मिट्टी का बनाया जाता था, अत: स्तूप की दूसरी संज्ञा चैत्य हुई। स्तूप शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। महापरिनिर्वाणसुत्त में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था, मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाए जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँट कर उन पर स्तूप बनाए गए थे। कालान्तर में बौद्ध संघ ने इसे अपनी संघ व्यवस्था में शामिल कर लिया। चूंकि इनमें बुद्ध या उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियाँ थीं, अतः वे बौद्ध के स्थल बन गए। बौद्ध साहित्य में चार प्रकार के स्तूपों का उल्लेख किया गया है-
शारीरिक- जिनमें अस्थियाँ या अवशेष रखे जाते हैं।
पारिभोगिक- जिनमें बुद्ध से संबंधित वस्तुएँ (यथा, पादुका, दण्ड, भिक्षापात्र आदि) रखी गयी थीं।
उद्देशिक- इनमें स्तूप शामिल थे, जो बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं से जुड़े पवित्र स्थलों पर बनाए गए थे।
संकल्पित- इस वर्ग में वे स्तूप आते हैं। जो बौद्ध उपासकों के द्वारा बुद्ध के प्रति श्रद्धा में या पुण्य लाभार्थ निर्मित करवाए गए थे।
साधारणत: स्तूप का सम्बन्ध बौद्ध मत से रहा है। अंगुर्त्तर निकाय तथा मझिम निकाय में स्तूप शब्द का अधिकतर प्रयोग हुआ। अशोक से पूर्व किसी स्तूप के अवशेष नहीं मिले हैं। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में अफगानिस्तान एवं भारत के विभिन्न भागों में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप होने का उल्लेख किया है। उसके विवरण से ज्ञात होता है कि ये स्तूप तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, गया, बनारस आदि नगरों में विद्यमान थे। इनकी ऊंचाई 300 फीट तक थी। पिपहरवा (बस्ती जिला) नामक स्थान से अशोक के एक स्तूप के भग्नावशेष मिले हैं। सारनाथ में अशोक कालीन धर्म राजिका स्तूप का निचला भाग इस समय भी विद्यमान है। तक्षशिला में एक स्तूप अशोक द्वारा निर्मित माना जाता है जिसके अवशेष अब भी उपलब्ध हैं।
जॉन मार्शल के अनुसार अशोककालीन साँची स्तूप का आकार वर्तमान स्तूपों के आकार का आधा था। इसका व्यास 70 फीट और ऊँचाई 35 फीट थी। ईंटों से निर्मित अर्द्धगोलाकार, उठी हुई मेघी, चतुर्दिक काष्ठ वेदिका तथा स्तूप की चोटी पर पत्थर का छत्र लगा था। शुंगकाल में स्तूप वास्तुकला की आधार-शिला निश्चित हुई। अशोक के बाद इस प्रकार के स्तूपों को न केवल प्रस्तर शिलाओं से आच्छादित किया जाने लगा बल्कि काष्ठ वेदिका के स्थान पर प्रस्तर वेदिका लगाकर तोरणद्वारों का संयोजन किया जाने लगा। स्तूप शीर्ष पर हरनिका (हरमिका) बनाकर मध्य में छत्रावली स्थापित की जाती थीं। मौर्य अनुवर्ती युग में स्तूप वैदिका, अण्ड, हरमिका एवं छत्रावली से युक्त थे जिन्हें बुद्ध के अवशेषों पर निर्मित किया गया। स्तूप के सिरे पर चौकोर घेरा तैयार दिखाई पड़ता है, जिसे हरमिका का नाम दिया गया। उसी में धातुगर्भ स्थित किया जाता है। हरमिका के केन्द्र में छत्रयष्टि स्थिर की जाती है और यष्टि के सिरे पर तीन छत्र (एक के बाद दूसरा एवं तीसरा) निर्मित रहते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि भरहुत एवं साँची स्तूप अशोक द्वारा निर्मित किये गये थे। शुंग-सातवाहन युग में उनका परिष्कार एवं परिवर्द्धन हुआ जिससे अशोक के योगदान को जान सकना संभव नहीं हैं।
अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में चट्टानों को काटकर कंदराओं के निर्माण द्वारा एक नई शैली का प्रारम्भ किया। गया के निकट बाराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में सुदामा गुहा आजीविकों को दान में दी थी। मौर्यकाल में बाराबर की पहाड़ी को खलतिक पर्वत कहा जाता था। इस गुहा में दो प्रकोष्ठ हैं। बाहरी कक्ष 32.9 फीट लम्बा 19.5 फीट चौड़ा है। इसके पीछे 19.11×19 का कक्ष है। एक कक्ष गोल व्यास का है, जिसकी छत-अर्धवृत्त है। प्रकोष्ठ का बाह्य मुखमण्डप आयताकार और छत गोलाई लिए हुए है, छत तथा भित्ति पर शीशे जैसी चमकती पॉलिश भी है। इसका विकास आगे चलकर महाराष्ट्र के भाजा, कन्हेरी और कालें चैत्यगृहों में परिलक्षित होता है।
अशोक ने जहाँ गया जिले में बराबर पर्वत-श्रृंखला में नागार्जुनी पर्वत पर गुहाएँ बनाई थीं, वहीं उसके पौत्र ने कुछ हटकर क्रम से तीन गुहाओं का निर्माण करवाया, जो वहियक, गोपिका एवं बडथिका नाम से पुकारी जाती हैं। इन गुहाओं के बाहर इनके निर्माण से सम्बद्ध अभिलेख मिलते हैं। इनका विन्यास सुरंग जैसा है। इसके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों सिरों पर गोल मण्डल हैं, जिनमें से एक को गर्भगृह एवं दूसरे को मुखमण्डप की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें स्तम्भों का अभाव है, अतः वास्तुकला की दृष्टि से इनका अधिक महत्त्व नहीं है।
लोककला- मौर्यकालीन लोक कला का परिज्ञान उन महाकाय यक्ष-यक्षिणीयों की मूर्तियों द्वारा होता है जिनका निर्माण स्थानीय मूर्तिकारों ने किया। इसमें वे मूर्तियाँ सम्मिलित थीं जिनकी रचना सम्राट् के आदेश से नहीं की गई। वस्तुत: बिना राज्य संरक्षण के इनका निर्माण हुआ। लोकप्रिय कला के संरक्षक स्थानीय प्रान्तपति या नागरिक थे, जिनके प्रोत्साहन से अतिमानवीय महाकाय मूर्तियाँ खुले आकाश में स्थापित की जाती थीं। इनका प्रारम्भिक रूप अलग परम्परा के अन्तर्गत पहचाना जा सकता है। इस परम्परा में राज्य द्वारा आश्रय का कोई संकेत नहीं मिलता। अत: इस परम्परा को लोकाश्रयी परम्परा कहा जा सकता है।
यक्ष-यक्षिणी जैसे देवी-देवताओं की आराधना प्राचीन काल से ही की जाती रही है। संभवतः यह देव परम्परा मूलतः प्रागार्य थी। यद्यपि मौर्यकाल से पूर्व इस प्रकार की प्रतिमायें अनुपलब्ध हैं तथापि इनसे सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जिनसे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।
भारत के अनेक भागों से यक्षों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माण मौर्य काल ई. पू. तीसरी सदी से कुषाणकाल ई. पू. प्रथम सदी के मध्य हुआ। अभिलिखित प्रतिमाओं में कुछ महत्वपूर्ण हैं जिनका उल्लेख किया जाना उचित होगा। मथुरा जिले के पर्क्हम ग्राम से प्राप्त यक्ष मूर्ति की चौकी पर एक लेख नीद अंकित है। इसे मणिभद्र की संज्ञा दी है। मथुरा क्षेत्र बरोदा ग्राम से भी एक यक्ष मूर्ति मिली। परखम एवं बरोदा से प्राप्त यक्ष मूर्तियों के मूर्ति शिल्प के विषय में कहा गया है- परखम के निकट बरोदा से मिली विशाल यक्ष मूर्ति और दूसरी परखम से ही मिली यक्ष की मूर्ति में भी जो बरोदा के यक्षमूर्ति से आकार में कुछ छोटी है (दोनों मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं)- इनका शरीर तो गोलाई में गढ़ दिया गया है, पर पीठ सपाट है। वस्त्र और गहने शरीर के बाहर फेंके हुए हैं, इनमे वाही भारीपन, पुरातनता, जड़ता और बेजान मार्दव देखने में आता है। छोटी मूर्ति पर मौर्यों के स्तम्भों जैसी ही पॉलिश भी लगी है। परखम की मूर्ति में किंचित मुड़े और अपेक्षाकृत पतले पैरों का सदृश्य ग्वालियर के निकट पवाया से प्राप्त मणिभद्र यक्ष की प्रतिमा से है, जबकि बरोदा और परखम की मूर्तियों में शरीर के सामने का भाग काफी उभरा और पीठ का भाग दबा है, जिसे देखकर मथुरा की असंस्कृत बोधिसत्व की याद आती है। परखम के यक्ष, दीदारगंज के चामरग्रागिनी और बेसनगर की यक्षिणी लोक कला के नमूने हैं।
गुप्त काल विशेषतः ब्राह्मण धर्म के लिए पुनुरुत्थान का काल था इस काल में सभी धर्मो की उन्नति हुई चाहे वह जैन धर्म हो बौद्ध धर्म, भागवत धर्म , वैष्णव धर्म या शैव धर्म सभी ने उन्नति की, इस काल में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ
उनमे से प्रमुख हैं
1. दशावतार मंदिर जो कि देवगढ़ (झाँसी) में स्थित है
2. विष्णु मंदिर तिग्वा – जबलपुर (मध्य प्रदेश)
3. शिव मंदिर – खोह नागौद (मध्य प्रदेश)
4. पार्वती मंदिर – नायनाकुठार (मध्य प्रदेश)
5. भीतर गाँव मंदिर – भीतर गाँव (कानपुर)
6. शिव मंदिर – भूमरा नागौद (मध्य प्रदेश)
अर्धनारीश्वर तथा वराह अवतार तथा कृष्ण रूप की पूजा इसी काल में शुरू हुई थी
२. गुप्त कालीन कला शैली
गुप्त काल में मूर्तिकला ने अपने आप को गांधार शैली से अलग कर लिया था
1. अजंता की गुफाओं का निर्माण भी इसी काल में हुआ था
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