याज्ञवल्क्य (yagvallaky) = Yagnavalkya
याज्ञवल्क्य संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. एक प्रसिद्ध ऋषि जो वैशंपायन के शिष्य थे । विशेष— कहते हैं, एक बार वैशंपायन ने किसी कारण से अप्रसन्न होकर इनसे कहा कि तुम मेरे शिष्य होने के योग्य नहीं हो; अतः जो कुछ तुमने मुझसे पढ़ा है, वह सब लौटा दो । इस पर याज्ञवल्क्य ने अपने सारी पढ़ी हुई विद्या उगल दी, जिसे, वैशंपायन के दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर चुग लिया । इसीलिये उनकी शांखाओं का नाम तैत्तिरिया हुआ । याज्ञवल्वय ने अपने गुरु का स्थान छोड़कर सूर्य की उपासना की और सूर्य के वर से वे शुक्ल यजुर्वेद या वाजसनेयी सहिता के आचार्य हुए । इनका दूसरा नाम वाजसनेय भी था ।
२. एक ऋषि जो राजा जनक के दरबार में रहते थे और जो योगीश्वर याज्ञवल्कय के नाम से प्रसिद्ध है । मंत्रेधी और गार्गी इन्हीं की पत्नियाँ थी ।
३. योगीश्वर याज्ञवल्क्य के वंशधर एक स्मृतिकार । मनुस्मृति के उपरांत इन्हीं के स्मृति का महत्व हैं; और उसका दायभाग आज तक प्रमाण माना जाता है ।
याज्ञवल्क्य (ईसापूर्व ७वीं शताब्दी), भारत के वैदिक काल के एक ऋषि तथा दार्शनिक थे। वे वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। इनको अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना जाता है। याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है - बृहदारण्यक उपनिषद जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग है। इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। इन ग्रंथों में इनको राजा जनक के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के लिए जाना जाता है। शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में भी इनसे पहले किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जा सकता। इनको नेति नेति (यह नहीं, यह भी नहीं) के व्यवहार का प्रवर्तक भी कहा जाता है। अनेक संस्कृत प्रंथों से कई याज्ञवल्क्यों का विवरण मिलता है -सबसे संरंक्षित जो विवरण मिलता है वो शतपथ ब्राह्मण से मिलता है। ये उद्दालक आरुणि नामक आचार्य के शिष्य थे। यहाँ पर उनको वाजसनेय भी कहा गया है। इस संहिता में 40 अध्यायों के अन्तर्गत 1975 कण्डिका जिन्हे प्रचलित स्वरूप में मन्त्र के रूप में जाना जाता है। गद्यात्मको मन्त्रं यजु: एवं शेषे यजु: शब्द: इस प्रकार के इसके लक्षण प्राय: देखने में आते हैं। इसके प्रतिपाद्य विषय क्रमश: ये हैं- दर्शपौर्णमास इष्टि (1-2 अ0); अग्न्याधान (3 अ0); सोमयज्ञ (4-8 अ0); वा
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