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1833 का चार्टर एक्ट

1833 के चार्टर एक्ट ने कम्पनी के प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। मार्ले ने 1908 ई. में संसद के समक्ष भाषण देते हुए कहा कि, यह एक्ट 19वीं शताब्दी के पास होने वाले भारत सम्बन्धी एक्टों में सबसे महत्वपूर्ण था।

एक्ट के पास होने के कारण
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व प्रबन्ध 20 वर्षों के लिए सौंपा गया। यह समय 1833 ईं. में समाप्त हुआ और कम्पनी के संचालकों ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद को प्रार्थना की। उन दिनों इंग्लैण्ड के राजनीतिक वातावरण पर उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगवादियों और मानवतावादियों का प्रभुत्व छाया हुआ था। मानव अधिकार का सिद्धान्त सबकी जबान पर था। दास व्यापार का अन्त हो गया था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी और प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई थी। एक वर्ष पूर्व ही रिफॉर्म एक्ट पास हुआ था, जिसके द्वारा संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए थे। मुक्त व्यापार के सिद्धान्त ने जनता पर जादू कर रखा था। ब्रिटिश राजनीति पर उन दिनों ग्रे, मैकाले और जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का ही आधिपत्य था। मैकाले संसद का सदस्य और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का सचिव था। प्रधानमंत्री ग्रे भी महान् सुधारवादी था और बेंथम का शिष्य जेम्स मिल संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाऊस में महत्वपूर्ण अधिकारी था। उसका मुख्य कार्य संचालकों और भारत सरकार के मध्य होने वाले पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना था। ऐसे सुधारवादियों का एक्ट की रूपरेखा पर प्रभाव होना स्वाभाविक था। सी.एल. आनन्द के शब्दों में, सुधार और उत्साह के इस वातावरण में संसद को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार्टर को नया करने का अवसर मिला।

इस विधेयक को पार्लियामेन्ट में पेश करने पर गरमा-गरम बहस हुई। इस बहस में कम्पनी को एक साथ व्यापारिक तथा शासकीय संस्था बनाए रखने की कड़ी आलोचना की गई। बकिंघम ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, भारत जैसे देश का प्रबन्ध जो अपनी जनसंख्या, सैन्य शक्ति तथा वित्तीय साधनों में इंग्लैण्ड से भी महान है-एक कम्पनी के हाथों में सौंपे रखना सर्वथा अनुचित है। बकिंघम ने यह सुझाव दिया कि, भारत की सर्वोच्च परिषद् में भारत में रहने वाले अंग्रेजों के और साथ ही लोगों के कुछ प्रतिनिधि सम्मिलित किए जाएँ, जिससे अन्त में स्वशासन की उस प्रणाली का आरम्भ हो सके, जिसकी ओर हमारे अन्य सब उपनिवेशों के साथ उन्हें यथा सम्भव तीव्रतम गति से बढ़ना चाहिए। लार्ड मैकाले इस सुझाव से सहमत नहीं थे। उसने बकिंघम के विचारों का सफलतापूर्वक खण्डन किया और भारतीय प्रशासन को कम्पनी के हाथों में रखने पर ही बल दिया। लार्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना नहीं हो सकती तथा कम्पनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को भारतीय मामलों का न तो ज्ञान है और न समय ही। भारतीय मामलों के प्रति इंग्लैण्ड की जनता की उदासीनता की ओर संकेत करते हुए मि. मैकाले ने कहा कि, भारतवर्ष के तीन घमासान युद्ध लड़े जाने पर भी हमारी जनता में इतनी सनसनी नहीं फैलती जितना इंग्लैण्ड में किसी व्यक्ति के सिर फूटने की दुर्घटना से...और भारत के करोड़ो मनुष्यों के शासन से सम्बन्धित पग पर विचार करने के लिए हाऊस ऑफ कॉमन्स के इतने सदस्य उपस्थित नहीं होते, जितने कि यहाँ के एक मामूली से बिल पर वाद-विवाद के लिए इकट्ठे होते हैं।

लार्ड मैकाल ने कम्पनी के पक्ष में एक और यह तर्क भी दिया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी देश को राजनीतिक और धार्मिक प्रभावों से मुक्त है। अतः उसका अन्य कोई विकल्प आसानी से नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त यह कम्पनी इंग्लैण्ड की राजनीति को दृष्टि में रखकर नहीं, अपितु भारत की राजनीति को दृष्टि में रखकर काम करती है। लार्ड मैकाले की इ सार्थक युक्तियों का पार्लियामेन्ट के संसद सदस्यों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि घोर विरोध के बावजूद भी 23 अगस्त, 1833 ई. में चार्टर को पास कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए नया कर दिया गया।

एक्ट की प्रमुख धाराएँ
लार्ड विलियम बैंटिक के शासनकाल में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा 1833 का चार्टर एक पारित किया गया। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी की स्थिति, उसके संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
(1) स्वदेश में कम्पनी के प्रशासन में परिवर्तन

(i) इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि 20 वर्ष तक के लिए बढ़ा दी गई।

(ii) कम्पनी की कुछ व्यापारिक सुविधाओं को छीन लिया गया तथा चीन के साथ व्यापार करने का इसका एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। उससे कहा गया कि वह अपना व्यापार सुविधापूर्वक जल्दी से जल्दी समेट ले। कम्पनी की हानि को पूरा करने के लिए उसके हिस्सेदारों को उनकी पूँजी के अनुसार 101/2 प्रतिशत दर से लाभांश देने की व्यवस्था की गई। ये लाभांश उन्हें भारतीय राजस्व से आगामी 40 वर्ष तक देने का आश्वासन दिया गया।

(iii) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के शासन सम्बन्धी अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारतीय प्रदेश कम्पनी के पास ब्रिटिश सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की अमानत के रूप में होगा।

(iv) नियंत्रण मण्डल के संविधान में कुछ परिवर्तन किए गए।

(v) कौंसिल के लार्ड प्रेसीडेन्ट, लार्ड प्रिवीसिल, ट्रेजरी के प्रथम लार्ड, राज्य के प्रधान सचिव और चांसलर ऑफ द एक्ट चेकर भारतीय मामलों के लिए प्रदेश कमिश्नर नियुक्त किए गए।

(vi) इस एक्ट के पूर्व अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। परन्तु 1833 के एक्ट के द्वारा लाइसेंस लेने का प्रतिबन्ध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन सपरिषद् गवर्नर जनरल से यह अपेक्षा की गई कि, वे कानून द्वारा या नियम बनाकर जल्दी से जल्दी इन प्रदेशों के देशी निवासियों की अपमान से और उनके शरीर, धर्म या सम्मतियों पर अत्याचार से रक्षा की व्यवस्था करेंगे।

(2) भारत की केन्द्रीय सरकार में परिवर्तन
पुन्निया के शब्दों में, भारत सरकार तथा प्रशासन में विस्तृत परिवर्तन लाये गए, जिसके लिए एक शब्द-केन्द्रीकरण का प्रयोग किया जा सकता है।
(i) इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर दी गई तथा प्रान्तीय सरकारों की स्थित को घटा दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका छा। गवर्नर जनरल को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन प्रबन्ध का नियंत्रण निर्देशन और अधीक्षण करने के अधिकार दिए गए।

(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को समस्त भारतीय प्रदेशों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इस कार्य के लिए परिषद् में एक चौथा सदस्य और बढ़ा दिया गया, उसको कानून निर्माण में सहायता देने के लिए रखा गया था। इसलिए उसको कानून सदस्य कहा जाने लगा। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा होती थी तथा वह कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता था। वह कौंसिल की केवल न बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून तथा अधिनियम आदि बनाने के लिए बुलाई गई हों। प्रथम लॉ मैम्बर बनने का सौभाग्य लार्ड मैकाले को प्राप्त हुआ।

(iii) भारत में प्रचिलत विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल को भारतीय विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों तथा पुलिस कर्मचारियों के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों की जाँच-पड़ताल करना था। इसके अतिरिक्त इसे समस्त प्रकार की न्याय विधियों तथा कानून की छानबीन करनी थी। इस आयोग ने कई रिपोर्टें प्रस्तुत की, जिनमें मैकाले द्वारा तैयार किया हुआ पेन कोड बहुत प्रसिद्ध है।

(iv) इस सम्बन्ध में सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्राधिकार अधिकृत भारतीय प्रदेशों तथा हर भाग के निवासियों, न्यायालयों, स्थानों तथा चीजों पर लागू कर दिया गया।

(v) भारत में कानून बनाने की शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथ में केन्द्रित कर दी गई। इसके पूर्व भारत में कानूनों की बहुत भिन्नता थी। बम्बई तथा मद्रास की सरकारें अपनी इच्छानुसार कानून बनाती थी। बंगाल की सरकार के साथ उनका इस विषय में कोई मेल नहीं होता था। इसलिए इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों और उनकी कौंसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सपरिषद् कानून गवर्नर जनरल को सारे देश के लिए समरूप बनाने का अधिकार दिया गया।

प्रान्तों की सरकारों में परिवर्तन
(i) प्रान्तीय सरकारों के प्रशासन के लिए गवर्नर तथा परिषद् की पूर्ववर्ती व्यवस्था कायम रही। (ii) प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप सपरिषद् गवर्नर जनरल के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। सपरिषद् गवर्नर जनरल उस पर विचार-विमर्श कर उसकी सुचना सम्बन्धित प्रेसीडेन्सी को देता था।

(iii) मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों और उनकी कौंसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इस एक्ट में यह भी निश्चित किया गया कि सपरिषद् गवर्नर किसी भी दशा में किसी भी कानून को निलम्बित नहीं कर सकेगा।

(iv) वित्तीय मामलों में प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। कोई भी प्रान्तीय गवर्नर बिना गवर्नर जनरल की आज्ञा के किसी पद की व्यवस्था नहीं कर सकता था और न ही उसे किसी नये वेतन या भत्ते स्वीकृत करने का अधिकार था।

(v) प्रांतीय सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।

(vi) हर प्रान्तीय सरकार के लिे सपरिषद् गवर्नर जनरल को सभी आदेशों तथा अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ भेजना अनिवार्य कर दिया गया।

(vii) प्रान्तीय सरकारों को संचालक मण्डल से सीधा पत्र-व्यवहार करने की छूट थी, लेकिन पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजनी पड़ती थी।

(viii) गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था। अतः उसने अपनी कौंसिल के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।

(ix) बंगाल प्रान्त को दो प्रान्तों-बंगाल और आगार में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, लेकिन इस योजना को कभी क्रियान्वित नहीं किया गया।

सामान्य उपबन्ध अथवा धाराएँ
(i) इस एक्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी अर्थात् धर्म, जन्म, स्थान, वंश, जाति और रंग के आधार पर सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति का प्रतीक थी। इसका तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इस उपबन्ध के आधार पर लार्ड मार्ले ने 1833 के अधिनियम को 1909 तक संसद द्वारा पारित सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारतीय अधिनियम कहा।

(ii) इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के सदस्यों की सहायता से भारत में दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे तथा दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाए।

(iii) भारत में ईसाइयों के लाभ के लिए बंगाल, बम्बई तथा मद्रास में बिशपों (बड़े पादरियों) की नियुक्ति की व्यवस्था की गई और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बना दिया गया।

(iv) कम्पनी के लोक सेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और उस कॉलेज में प्रवेश के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।

(v) कम्पनी का नाम द युनाइटेड कम्पनी ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू द ईस्ट इण्डिया से बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया।

एक्ट का महत्व
1833 ई. का एक ब्रिटिश संसद द्वारा 19वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिनियम था। लार्ड मार्ले ने ठीक ही कहा था कि, यह एक्ट 1784 के पिट अधिनियम तथा 1858 में साम्राज्ञी द्वारा भारतीय सत्ता को हस्तगत करने के बीच में सर्वाधिक व्यापक तथा महत्वपूर्ण अधिनियम था। वस्तुतः: इस एक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महान् तथा महत्वपूर्ण परिवर्तन किया, अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणाएँ भी की और व्यापक मानवतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन भी किया।

(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। इसलिए अब वह व्यापारिक तथा शासकीय संस्था के स्थान पर केवल शासकीय संस्था ही रह गई। अब भारत का शासन चलाते समय इसका केवल व्यापारिक दृष्टिकोण समाप्त हो गया। चूँकि अब कम्पनी केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतः ब्रिटिश सरकार को इस पर नियंत्रण बढ़ता गया। वह नियंत्रण 1858 ई. में यहाँ तक बढ़ा कि कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया।

(2) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने पर वह केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतः संचालक मण्डल कम्पनी के शासन सम्बन्धी मामलों में अधिक रूचि लेने लगे, जिससे शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। मार्शमैन के शब्दों में, राज्य सम्बन्धी तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों के एक-दूसरे से पृथक् होने का प्रभाव संचालकों की नीति तथा उनके विचारों पर भी पड़ा। उनके दृष्टिकोण में परम्परागत संकीर्णता के स्थान पर कुछ उदारता आ गई और उनकी प्रेरणा से भारत में काम करने वाले अधिकारियों ने कुछ ऐसे पग उठाए, जो दयालुता तथा बुद्धिमत्ता से ओत-प्रोत थे।

(3) डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, इस एक्ट का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि इसके द्वारा भारतीय विधान-मण्डल की नींव रखी गई। इस एक्ट का महत्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को सारे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने की शक्ति दे दी गई। इस हेतु गवर्नर जनरल की कौंसिल में कानून सदस्य की वृद्धि की गई। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक सरकारों के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। वित्तीय मामलों में प्रादेशिक सरकारों पर गवर्नर जनरल का नियंत्रण सामान्य रूप से स्थापित किया गया। सारांश यह है कि इस एक्ट द्वारा प्रादेशिक सरकारों पर केन्द्रीय नियंत्रण पहले से अधिक दृढ़ तथा व्यापक बना दिया गया। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आ गई। वस्तुतः: देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।

(4) इस एक्ट के अनुसार भारत सरकार को दासता समाप्त करने और दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाने का अधिकार दिया गया।

(5) इस अधिनियम की एक बहुत बड़ी देन यह थी कि इसके द्वारा विधि आयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 ई. में इण्डियन पैनल कोड का प्रलेख तैयार हुआ जिसने संशोधित होने पर 1860 ई. में कानून का रूप धारण कर लिया। इण्डियन पैनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले ने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था। मि. एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, इण्डियन पैनल कोड लार्ड मैकाले की कानून-क्षेत्र में योग्यता तथा निपुणता के प्रति एक स्थायी श्रद्धांजली है।

इस आयोग के पास के फलस्वरूप सारे भारत के लिए दण्ड संहिता तथा दिवानी और फौजदारी प्रक्रिया का संकलन हुआ। इससे कानून में एकरूपता आ गई और केन्द्रीय सरकार की केन्द्रीयकरण की नीति को बल प्राप्त हुआ।

(6) एक्ट की धारा 87 द्वारा यह घोषणा की गई थी कि कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले भारतीयों को धर्म, जन्म-स्थान, वंश या रंग के आधार पर कम्पनी के किसी पद से, जिसके लिए वे योग्य हों, वंचित नहीं रखा जाएगा। यह दयालुतापूर्ण घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति की प्रतीक थी। भारतीयों की दृष्टि में इस घोषणा का बहुत अधिक महत्व था। ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने इसकी बहुत अधिक प्रशंसा की। मैकाले ने एक्ट की इस धारा को दयालुपूर्ण, बुद्धिमतापूर्ण, उपकारी और उदार कहकर उसकी प्रशंसा की। उसने हाऊस ऑफ कॉमन्स में भाषण देते हुए 10 जुलाई, 1833 को यह भी कहा कि मुझे अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इस बात पर गर्व होगा कि मैं उन व्यक्तियों में से एक था, जिन्होंने उस बिल की रचना में सहयोग दिया, जिसमें यह सराहनीय धारा थी।

संचालक मण्डल ने इस धारा की व्याख्या करते हुए इस प्रकार लिखा, ब्रिटिश इण्डिया में अब किसी जाति को शासक जाति नहीं माना जाएगा...इंग्लैण्ड नरेश की प्रजा के योग्य व्यक्तियों को चाहे, वे जन्म से भारतीयों हों या अंग्रेज, उनके धर्म और वंश को महत्व दिये बिना पद प्राप्त करने का एक समान अवसर दिया जाएगा। कुछ समय बाद लार्ड लैंसडाउन ने एक्ट की इस धारा के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे, इस धारा ने कानूनी दृष्टिकोण से जातिगत अयोग्यता को दूर कर दिया है और प्रत्येक भारतीय को शासन के उच्चतम पद की प्राप्ति का अधिकार बना दिया है। रेम्जेम्योर ने इस धारा का गुणगान करते हुए कहा है कि, यह एक अद्वितीय घोषणा है जो कि शासक जाति ने अपने हाल ही में विजित किए प्रदेशों में रहने वाली प्रजा के लिए की है।

निसन्देह यह दयालुतापूर्ण घोषणा प्रशंसनीय थी। इसने कानूनी तौर पर भारतीयों को प्रत्येक पद के लिए योग बना दिया। इससे भारतीयों को भी अंग्रेजों के समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हुआ, परन्तु व्यावहारिक रूप में इस धारा से भारतीयों को कोई विशेष लाभ प्राप्त नहीं हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि सरकार ने इस घोषणा का पालन करने के स्थान पर उसकी अवहेलना करने का अधिक प्रयत्न किया। पुन्निया के शब्दों में बहुत समय तक यह घोषणा अपूर्ण महत्वाकांक्षाओं के लुभावने और बेचैन करने वाले क्षेत्र की वस्तु रही। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, भारतीय शासन प्रबन्ध के कार्यकर्ताओं ने अनुच्छेद 87 के पालन की अपेक्षा उसकी अवहेलना करने का अधिक प्रयत्न किया। प्रसिद्ध लेख ए.बी. कीथ ने लिखा है कि, सारांश यह कि एक्ट की धारा 87 के द्वारा की गई घोषणा के बावजूद भी भारतीयों को 1858 ई. तक उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया गया। अतः उनका निराश होना स्वाभाविक था।

यद्यपि इस धारा से भारतीयों को व्यावहारिक रूप में कोई लाभ नहीं पहुँचा, तथापि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके रचयिताओं की भावना उपकार की ही थी। इसके अतिरिक्त 19वीं शताब्दी के अन्त तक 20वीं शताब्दी के शुरू में यह राष्ट्रवादियों के लिए प्रेरणादायक प्रतीत हुई। इस उत्तम घोषणा के प्रेरणा पाकर पद प्राप्ति के इच्छुक भारतीय उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड गये। उन्होंने ने वहाँ जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की और वापस भारत आकर उच्च पदों की माँग की। सरकार ने जान-बूझकर उनकी माँग को पूरा करने में आनाकानी की, तो इससे उन्हें बहुत दुःख और निराशा हुई। इस प्रकार, अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष बढ़ गया, जिसने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक तथा प्रबल बनाने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया।

निष्कर्ष: 1833 अधिनियम का संवैधानिक दृष्टि से काफी महत्व है। इसने अनेक प्रशासनिक त्रुटियों को दूर किया। इसने कानून बनाने के सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार की विधिक सर्वोच्चता स्थापित करके और विभिन्न प्रान्तों के कानूनों की विभिन्नताओं को दूर करके कानूनों के सम्बन्ध में एकरूपता ला दी। इसने विभिन्न न्यायालयों के क्षेत्राधिकारों में विसंगतियों और विरोध को समाप्त कर दिया। इसने कार्यकारी तथा वित्तीय प्रशासन को गवर्नर जनरल के हाथों में केन्द्रीय करके प्रशासनिक एकरूपता कायम कर दी। इसने संचालक मण्डल के पंखों को काटकर भारतीय मामलों के सम्बन्ध में सम्राट और संसद की सर्वोच्चता स्थापित कर दी।


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