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मारवाड़ी शैली

इस शैली का विकास जोधपुर, बीकानेर, नागौर आदि स्थानों में प्रमुखता से हुआ। मेवाड़ की भाँति, उसी काल में मारवाड़ में भी अजन्ता परम्परा की चित्रकला का प्रभाव पड़ा। तारानाथ के अनुसार इस शैली का सम्बन्ध श्रृंगार से है जिसने स्थानीय तथा अजन्ता परम्परा के सामंजस्य द्वारा मारवाड़ शैली को जन्म दिया।



मंडोर के द्वार की कला तथा 687 ई. के शिवनाग द्वारा निर्मित धातु की एक मूर्ति जो अब पिंडवाड़ा में है यह सिद्ध करती है कि चित्रकला तथा मूर्तिकला दोनों में मारवाड़ इस समय तक अच्छी प्रगति कर चुका था। लगभग 1000 ई. से 1500 ई. के बीच इस शैली में अनेक जैन ग्रंथों को चित्रित किया गया। इस युग के कुछ ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर चित्रित कल्प सूत्रों व अन्य ग्रंथों की प्रतियाँ जोधपुर पुस्तक प्रकाश तथा जैसलमेर जैन भंडार में सुरक्षित हैं।

इस काल के पश्चात कुछ समय तक मारवाड़ पर मेवाड़ का राजनीतिक प्रभुत्व रहा। महाराणा मोकल के काल से लेकर राणा सांगा के समय तक मारवाड़ में मेवाड़ी शैली के चित्र बनते रहे। बाद में मालदेव का सैनिक प्रभुत्व (1531-36 ई.) इस प्रभाव को कम कर मारवाड़ शैली को फिर एक स्वतंत्र रुप दिया। यह मालदेव की सैनिक रुचि की अभिव्यक्ति, चोखेला महल, जोधपुर की बल्लियों एवं छत्तों के चित्रों से स्पष्ट है। इसमें ठराम-रावण युद्ध’ तथा सप्तशती’ के अनेक दृश्यों को भी चित्रित किया गया है। चेहरों की बनावट भावपूर्ण दिखायी गई है। 1591 में मारवाड़ शैली में बनी उत्तराध्ययनसूत्र का चित्रण बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित है।

जब मारवाड़ का सम्बन्ध मुगलों से बढ़ा तो मारवाड़ शैली में मुगल शैली के तत्वों की वृद्धि हुई। 1610 ई. में बने भागवत के चित्रण में हम पाते है कि अर्जुन कृष्ण की वेषभूषा मुगली है परन्तु उनके चेहरों की बनावट स्थानीय है। इसी प्रकार गोपियों की वेषभूषा मारवाड़ी ढंग की है परन्तु उसके गले के आभूषण मुगल ढंग के है। औरंगजेब व अजीत सिंह के काल में मुगल विषयों को भी प्रधानता दी जाने लगी। विजय सिंह और मान सिंह के काल में भक्तिरस तथा श्रृंगाररस के चित्र अधिक तैयार किये गये जिसमें ठनाथचरित्र’ ठभागवत ’ , शुकनासिक चरित्र, पंचतंत्र आदि प्रमुख हैं।

इस शैली में लाल तथा पीले रंगो का व्यापक प्रयोग है जो स्थानीय विशेषता है लेकिन बारीक कपड़ों का प्रयोग गुम्बद तथा नोकदार जामा का चित्रण मुगली है। इस शैली में पुरुष व स्त्रियाँ गठीले आकार की रहती है। पुरुषों के गलमुच्छ तथा ऊँची पगड़ी दिखाई जाती है तथा स्त्रियों के वस्त्रों में लाल रंग के फुदने का प्रयोग किया जाता है। 18 वीं सदी से सामाजिक जीवन के हर पहलू के चित्र ज्यादा मिलने लगते है। उदाहरणार्थ पंचतंत्र तथा शुकनासिक चरित्र आदि में कुम्हार, धोबी, मजदूर, लकड़हारा, चिड़ीमार, नाई, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि का चित्रण मिलता है। इन चित्रों में सुनहरे रंगों को प्रयोग मुगल शैली से प्रभावित है।



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