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1857 की क्रांति के प्रशासनिक कारण

ब्रितानियों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रितानियों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होना दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रितानियों को नियुक्त किया। 1833 ई. में कंपनी ने चार्टर एक्ट पारित किया। इन एक्ट के द्वारा भारतीयों को यह आश्वासन दिया गया कि धर्म, वंश, जन्म, रंग आदि आधारों पर नौकरियों में प्रवेश के संबंध में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा, किंतु यह सिद्धांत मात्र सिद्धांत ही बना रहा। ब्रितानी न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रितानी के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे। ब्रितानियों की न्याय प्रणाली अपव्ययी एवं चंबी थी तथा अनिश्चित थी, अतः भारतीय इससे असंतुष्ट थे। भूमि सुधार के नाम पर ब्रितानियों ने कई ज़मींदारों के पट्टों की छान-बीन की तथा जिन लोगों के पास ज़मीन पट्टे नहीं मिले, उनसे उनकी ज़मीन छीन ली। बंबई के विख्यात इमाम आयोग ने लगभग बीस हज़ार जागीरें छीन ली थी। बैन्टिक ने माफ़ की गई भूमि भी ज़प्त कर ली। इससे कुलीन वर्ग अपनी भूमि व संपत्ति से वंचित हो गया, जिससे उसमें असंतोष को जन्म मिला। कृषकों की दशा में सुधार करने के लिए स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागु की गई, किन्तु प्रत्येक बार किसानों से अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों में निर्धनता बढ़ी तथा साथ ही असन्तोष भी।

सर जॉन स्ट्रेजी ने 1854 ई. में बंगाल की दुर्दशा का वर्णन करते हुए लिखा, " लगभग एक शताब्दी के ब्रिटिश प्रशासन के बावजूद, प्राय: न ही तो सड़कें, पुल और स्कूल थे और नहीं जीवन और सम्पत्ति की कोई सुरक्षा थी। पुलिस निकम्मी थी और सशस्त्र व्यक्तियों के समूहों (जत्थों) द्वारा डाक तथा हिंसात्मक अपराध, जो कि अन्य प्रान्तों में नहीं सुने जाते थे, बंगाल में कलकत्ता से थोड़ी दूर पर ही सुने जा सकते थे। "

डॉ. आर. सी. मजूमदार लिखते हैं, " जहाँ तक ब्रिटिश प्रशासन का सम्बन्ध है वह एक प्रकार से भारत में एक प्रयोग ही था, जिसको कोई उपयोगी परिणाम नहीं निकला था। विदेशी आक्रमण के विरूद्ध जनता को सुरक्षा प्राप्त थी, परन्तु चोरी, डकैती, अपराध तथा दूसरे अन्य कष्टों के विरूद्ध कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं थी। न्यायालय अभी तक निष्पक्ष न्याय के साधन नहीं बने थे, जबकि पुलिस जनता को संरक्षण देने के बजाय उत्पीड़न की एक एजेन्सी बन गई थी ( क्योंकि कम्पनी के राज में रिश्वत प्रचलित थी)। जेल की भयानक दुर्दशा थी और जिला मजिस्ट्रेट कटिबद्ध थे कि यह विशेषरूप से कष्ट देने का स्थान बना रहे, जबकि चिकित्सा अधिकारी का प्रयत्न असफलतापूर्वक करते थे कि जेलों में जहाँ तक भी हो सके, मृत्यु दर (Death rate) कम से कम रहे। "

डॉ. मजूमदार आगे लिखते हैं कि, " उस समय (कम्पनी के राज में) भारतीयों को अपने ही देश के प्रशासन में कोई भाग नहीं था और वे केवल निष्क्रिय दर्शक बनकर रह गए थे। दासता का अभिशाप, जिसमें सभी तरह की बुराईयाँ होती हैं और जिसका करूणानजक वर्णन मिस्टर मुनरो (ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय मद्रास प्रेजीडेन्सी के गवर्नर) ने किया है, भारतीयों के चरित्र पर बहुत बड़ी मात्रा में विनाशकारी तथा पतनोन्मुख प्रभाव डाला रहा था। जब तक ब्रितानियों ने भारत में अपने राज के 100 वर्ष पूरे किए, उन्होंने सारे भारत को जीत लिया था, परन्तु भारतीयों के दिल पर उनकी पकड़ या प्रभाव जाता रहा था। ब्रिटिश सरकार इस हेतु पूर्ण सचेत थी और अपने भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा की योजना तैयार करते समय उन्होंने उस महत्वपूर्ण तत्व को पूरे ध्यान में रखा। "

भारत में ब्रितानियों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रितानी भारतीयों के साथ कुत्तों के समान व्यवहार करते थे। ब्रितानियों की इस नीति से भारतीय युद्ध हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।


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