सती प्रथा का उन्मूलन किसने किया
राममोहन राय सती किए जाने की क्रूरता से बाल्यावस्था से ही परिचित थे, जब उनके बडे़ भाई की विधवा को उनकी आँखों के सामने बलपूर्वक सती किया गया था, अंग्रेज शासक इस प्रथा को बहुत बुरा मानते थे, पर उनको यह डर लगता था कि इसमें हस्तक्षेप करने से शायद इस देश में अशांति फैल जायेगी और हमारे नव स्थापित राज्य के लिए एक बडा़ खतरा पैदा हो जायेगा। इसलिए उन्होंने पंडितों से सम्मति लेकर आरंभ में यह आज्ञा प्रचारित की कि 'सती होने वाली स्त्री से यह मालूम कर लिया जाये कि वह अपनी राजी- खुशी से और होश- हवास में सती होती है या किसी प्रकार की जबर्दस्ती के कारण?" क्योंकि पंडितों के मतानुसार शास्त्रों में किसी स्त्री को बलपूर्वक सती करने का विधान न था और उसे निंदनीय बतलाया गया था। पर उस समय, कम से कम बंगाल में तो 100 में से 90 सतियाँ बहकारक ही की जाती थीं और एक बार चिता पर बैठा दिये जाने के बाद उसे भाले और तलवारों से वहीं पर बैठे रहने को विवश किया जाता था।
इसीलिए जब राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया तो एक तरफ तो सरकार एक प्रभावशाली विद्वान को अपना सहायक और समर्थक पाकर प्रसन्न हुई, पर दूसरी ओर हिंदू- जाति का अंधविश्वासी समुदाय उन पर टूट पडा़, उनको धर्मद्रोही और जातिद्रोही कहा जाने लगा। बडी़- बडी़ सभायेंकरके प्रस्ताव पास किये जाने लगे कि राममोहन राय के कहने से सरकार सती- प्रथा को बंद न करे। पर परोपकार के लिए जीवन अर्पण करने का संकल्प करने वाले इन बाधाओं के कारण कब पीछे पैर हटा सकते थे? उन्होंने अंग्रेजी लेखों द्वारा अंग्रेज- समाज पर इतना प्रभाव डाला कि अंत में वे उन्हीं के पक्ष में हो गये।
सती प्रथा को अनुचित सिद्ध करने के लिए राममोहन राय ने मुख्यतः तीन दलीलें पेश कीं- (1) शास्त्रों में सती होना आवश्यक नहीं माना गया है। कहीं भी यह नहीं लिखा है कि यदि कोई सती न हो तो उसे पाप लगेगा। (2) काम्य- कर्म को शास्त्रों में हीन कहा गया है और सती होना एक काम्य- कर्म ही है। फिर शास्त्रों में ही सती होने की अपेक्षा विधवा का ब्रह्मचर्य- व्रत पालन करना अधिक श्रेष्ठ बतलाया है। (3) शास्त्रों में सती के सब काम उसकी ईच्छानुसार होने चाहिए। वह अपने आप संकल्प करे, अपने आप चिता पर बैठे और शांति से जलकर मर जाये, पर ऐसा कहीं नहीं होता। सती के नाम पर सर्वत्र नारी- हत्या की जाती है, इसलिए यह प्रथा बंद की जानी चाहिए।
राममोहन राय ने सती प्रथा पर बंगाली और अंग्रेजी में तीन पुस्तकें लिखकर मुफ्त बँटवाई। अंग्रेजी पुस्तकों को उन्होंने उस समय के वायसराय लार्ड हेस्टिंग्स की पत्नी श्रीमती मार्किवस ऑव हेस्टिंग्स को समर्पित किया था। इसका अंग्रेजी अधिकारियों पर बहुत अच्छा प्रभाव पडा़। सन् 1819 के 'इंडिया गजट' में लिखा गया था- "इस देश के एक अति प्रधान विश्व- हितैषी ने सतीदाह की कठोर प्रथा का आंदोलन उठाकर शासकों की विशेष सहायता की है। बडे़ उत्साह से उसने अपनी सम्मति वायसराय के सामने रखी है। थोडे़ दिन पहले वायसराय उनसे मिले थे और बडे़ आदर के साथ उनकी बातें सुनी थी। हमें मालूम हुआ कि गवर्नर- जनरल इस प्रथा को बंद कर देंगे, क्योंकि ब्रिटिश शासन के लिए इससे बढ़कर और कोई कलंक नहीं हो सकता।" फिर भी इस समस्या पर सब पहलुओं से विचार करने और विरोधियों की बातों का निराकरण करने में कुछ वर्ष लग ही गये। बीच में लार्ड आमहर्स्ट गवर्नर जनरल बनकर आ गये, जो इस खतरे को उठाना नहीं चाहते थे और इसलिए मौन ही बने रहे, सन् 1828 में लार्ड विलियम बैंटिक आये जो बडे़ सुधारप्रिय थे। उन्होंने राजा राममोहन राय को बुलाकर उनसे सलाह की और सन् 1829 की 4 दिसंबर को कानून बनाकर सदा के लिए सती- प्रथा को बंद कर दिया। दो- तीन दिन के भीतर ही इस कानून का हुक्म मजिस्ट्रेटों के पास भेज दिया गया और अनगिनत विधवाओं की तकदीर फिर गई।
इधर अंध- विश्वासियों की 'धर्म- सभा' भूखी बिल्ली की तरह उछल- कूद मचाने लगी। राममोहन राय के ऊपर चारों तरफ से अपशब्दो और शापों की वर्षा होने लगी। एक बडी़ सभा करके उन्हें पूरी तरह जाति- बाहर किया गया। कलकत्ते के कितने ही प्रभावशाली व्यक्ति कहने लगे कि 'उन्हें जान से मार दो।' उनके पास इस प्रकार की धमकी के कई पत्र आये भी। सचमुच वह समय राममोहन राय और उनके साथियों के लिए बडे़संकट का था। उनके सब मित्र और हितैषी उनको समझाते थे कि अकेले बाहर मत निकला करो, एक विश्वासी आदमी जरूर साथ रखो। पर उनको अपने आत्मबल और शरीरबल पर भरोसा था, इससे निडर होकर सर्वत्र आते- जाते थे। हाँ, उन दिनों आत्म- रक्षा के भाव से अपने जेब में एक कटार अवश्य रख लेते थे।
लार्ड बैंटिक ने सती- प्रथा बंद की थी, इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए राममोहन राय ने एक अभिनंदन पत्र दिया। इसके लिए कलकत्ता के टाउन हाल में 16 जनवरी, 1830 को एक सभा की गई, जिसमें तीन- सौ के लगभग गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। 'धर्म- सभा' भी चुप नहीं बैठी थी। उसनेसतीदाह के कानून को रद्द करने के लिए इंगलैंड की सरकार के पास अर्जी भेजी, पर वहाँ सब लोग वास्तविक स्थिति को समझ चुके थे, इससे कोई परिणाम न निकला।
सती- प्रथा को बंद कराके उन्होंने अपना ध्यान बहु- विवाह की तरफ दिया। यह भी एक ऐसी निदंनीयप्रथा थी, जिसके कारण बंगाल में लाखों स्त्रियों का भाग्य जान- बूझकर पत्थर से फोड़ दिया जाता था। उस समय बंगाल में ऐसा कुलीन ब्राह्मण कदाचित् ही कोई मिल सकता था जिसने एक ही स्त्री से विवाह किया हो। बल्कि सुनने में तो यहाँ तक आता था कि ऐसे भी व्यक्ति मौजूद हैं, जो 108 स्त्रियों से विवाह कर चुके हैं। दस- दस और पाँच- पाँच विवाह करना तो मामूली- सी बात थी। कारण वही था कि जो लोग गरीबी के कारण अपनी लड़की का अच्छा विवाह नहीं कर सकते थे अथवा जिनको 'कुलीन' वर की सनक होती थी, वे पुण्य की निगाह से अपनी पुत्रियों का विवाह ऐसे लोगों से कर देते थे, जिसका पेशा ही विवाह करना होता था। उस समय बंगाल में ऐसी लाखों स्त्रियाँ थीं, जिनका केवल विवाह संस्कार ही पति के साथ हुआ था। पर जिन्होंने कभी पतिगृह के दर्शन भी नहीं किए थे। वे बाप के घर में रहकर ही बूढी़ हो जाती थीं।
इस प्रकार के अनेक बहु- पत्नी वाले तो कोई धंधा- रोजगार भी नहीं करते थे। वे महीने- महीने, पंद्रह- पंद्रह दिन एक- एक स्त्री के घर रहकर अपनी उमर बिता देते थे। राममोहन राय ने इस संबंध में बहुत से लेख और पुस्तिकायें लिखकर खूब प्रचार किया, जिससे इसकी बुराइयाँ लोगों की समझ में आने लगीं और धीरे- धीरे इस प्रथा में बहुत कमी हो गई। उन्होंने जाति भेद की निःसारता तथा उसकी हानियों के संबंध में भी बहुत कुछ लिखा और संस्कृत के 'वज्र- सूची' नामक ग्रंथ का बंगला अनुवाद करके प्रकाशित किया, जिससे वर्तमान जाति- भेद का खंडन होता था।
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