चोल वंश के शासक
राजाधिराज प्रथम (1018-1054) राजेंद्र का उत्तराधिकारी था। उसका अधिकांश समय विद्रोहों के शमन में लगा। आरंभ में उसने अनेक छोटे छोटे राज्यों, तथा चेर, पांड्य एवं सिंहल के विद्रोहों का दमन किया। अनंतर इसके चालुक्य सोमेश्वर से हुए कोप्पम् के युद्ध में उसकी मृत्यु हुई। युद्धक्षेत्र में ही राजेंद्र द्वितीय (1052-1064) अभिषिक्त हुए। चालुक्यों के विरुद्ध हुए इस युद्ध में उनकी विजय हुई। चालुक्यों के साथ युद्ध दीर्घकालिक था। राजेंद्र द्वितीय के उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र (1063-1069) ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की और प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य पर पूर्ववत् शासन किया। अधिराजेंद्र (1067-1070) वीर राजेंद्र का उत्तराधिकारी था किंतु कुछ महीनों के शासन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने उससे चोल राज्यश्री छीन ली।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120) पूर्वी चालुक्य सम्राट् राजराज का पुत्र था। कुलोत्तुंग की माँ एवं मातामही क्रमश: राजेंद्र (प्रथम) चोल तथा राजराज प्रथम की पुत्रियाँ थीं। कुलोत्तंुग प्रथम स्वयं राजेंद्र द्वितीय की पुत्री से विवाहित था। कुलोत्तुंग ने अपने विपक्ष एवं अधिराजेंद्र के पक्ष से हुए समस्त विद्रोहों का दमन करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। अपने विस्तृत शासनकाल में उसने अधिराजेंद्र के हिमायती एवं बहनोई चालुक्य सम्राट् विक्रमादित्य के अनेक आक्रमणों एवं विद्रोहों का सफलतापूर्वक सामना किया। सिंहल फिर भी स्वतंत्र हो ही गया। युवराज विक्रम चोल के प्रयास स कलिंग का दक्षिणी प्रदेश कुलोत्तुंग के राज्य में मिला लिया गया। कुलोत्तुंग ने अपने अंतिम दिनों तक सिंहल के अतिरिक्त प्राय: संपूर्ण चोल साम्राज्य तथा दक्षिणी कलिंग प्रदेश पर शासन किया। उसने एक राजदूत भी चीन भेजा।
विक्रम चोल (1118-1133) कुलोत्तुंग का उत्तराधिकारी हुआ। लगभग 1118 में विक्रमादित्य छठे ने वेंगी चोलों से छीन ली। होयसलों ने भी चोलों को कावेरी के पार भगा दिया और मैसूर प्रदेश को अधिकृत कर लिया।
कुलोत्तुंग प्रथम के बाद का लगभग सौ वर्ष का चोल इतिहास अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। इस अवधि में विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150), राजराज द्वितीय (1146-1173), राजाधिराज द्वितीय (1163-1179), कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218) ने शासन किया। इन राजाओं के समय चोलों का उत्तरोत्तर अवसान होता रहा। राजराज तृतीय (1216-1246) को पांड्यों ने बुरी तरह पराजित किया और उसकी राजधानी छीन ली। चोल सम्राट् अपने आक्रामकों एवं विद्रोहियों के विरुद्ध शक्तिशाली होयसलों से सहायता लेते थे और इसी कारण धीरे-धीरे वे उनके साथ की कठपुतली बन गए। राजराज को एकबार पांड्यों से पराजित होकर भागते समय कोप्पेरुंजिग ने आक्रमण कर बंदी बना लिया, पर छोड़ दिया।
चोल वंश का अंतिम राजा राजेंद्र तृतीय (1246-1279) हुआ। आरंभ में राजेंद्र को पांड्यों के विरुद्ध आंशिक सफलता मिली, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि तेलुगु-चोड साम्राज्य पर गंडगोपाल तिक्क राजराज तृतीय की नाममात्र की अधीनता में शासन कर रहा था। गणपति काकतीय के कांची आक्रमण के पश्चात् तिक्क ने उसी की अधीनता स्वीकार की। अंतत: जटावर्मन् सुंदर पांड्य ने उत्तर पर आक्रमण किया और चोलों को पराजित किया। इसके बाद से चोल शासक पांड्यों के अधीन रहे और उनकी यह स्थिति भी 1310 में मलिक काफूर के आक्रमण से समाप्त हो गई। (चोल सम्राट् साधारणतया अपने राज्य का आरंभ अपने यौवराज्याभिषेक से मानते थे और इसीलिए उनके काल के कुछ आरंभिक वर्ष एवं उनके तत्काल पूर्ववर्ती सम्राट् के कुछ अंतिम वर्षों में समानता प्राप्त होती है)।
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