भारत में मानवाधिकार
भारत के सभी धर्मों एवं परम्पराओं में मानवाधिकार विषयक विचार किसी न किसी रूप में निहित रहे हैं और इन्होने किसी हद तक मानव अधिकार की भूमिका निभाई है। पिछली कुछ शताब्दियों के विषय में पढ़ें तो ज्ञात होता है कि भारत में मानव हितों की गरिमा का हनन उस प्रकार नहीं था जैसा यहूदी समुदाय में था। समय के साथ-साथ मानव अधिकार संबंधी सोच में विस्तार हुआ है और यह कहा जा सकता है कि हम कल्पना कर सकते हैं कि भारतीय समाज में मानव अधिकार मूल्यों को समाज की आधारशिला के रूप में जाना जाएगा। परन्तु इस संबंध में यह कहना गलत नहीं होगा कि मानव अधिकार, कल्याणकारी मूल्यों की केवल कल्पना मात्र नहीं हैं बल्कि धर्म एवं परम्परा के विपरीत यदि मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो उसके लिए विधिक परिणाम होते हैं। इस संन्दर्भ में भारतवर्ष में दो महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं पहला प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट 1993, जिसमें मानव अधिकार इ व्यापक व्याख्या है और दूसरा उच्चमतम न्यायालय द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून को देश में विस्तृत मान्यता देने की न्यायिक परम्परा। अतः मानव अधिकारों के दो स्रोत हैं एक हमारे संविधान में निहित है दूसरा अंतर्राष्ट्रीय करारों में।
पिछले वर्ष आयोग द्वारा भारतीय संस्कृति में मानवाधिकार की अवधारणा विषय पर एक महत्वपूर्ण गोष्ठी का सफल आयोजन किया गया। संगोष्ठी में विविध धर्मों एवं पंथों के मानव अधिकार संबंधी विचार प्रस्तुत किये गये और लगभग सभी वक्ताओं ने पारपरिक एवं पुराने विचारों को मानवाधिकार की नई कल्पना से जोड़ने का प्रयास किया। इन सभी विचारों के फलस्वरूप इतना तो स्थापित हो गया कि भारतवर्ष के विभिन्न धर्म एवं परम्पराओं में कम या अधिक अंश में मानव अधिकार विचार निहित रहे हैं। चाहे वह सर्वेभवन्तु सुखिन- रूपी विचार हो अथवा असतो मां सदगमय रूपी विचार, कहीं न कहीं उनके तार आधुनिक मानवाधिकार से जुड़े प्रतीत होते हैं। पर इस प्रकार का जुड़ाव मात्र केवल इस बात का प्रमाण है कि विभिन्न धर्म एवं पंथ उसी प्रकार के मूल्यों और मान्यताओं को समर्थन देते रहे हैं जिन्हें आधुनिक मानवाधिकारों के द्वारा पोषित किया गया है। परन्तु यह इस बात के प्रमाण नहीं कि हमारी संस्कृति में मानव अधिकार पहले से ही विद्यमान रहे हैं यह यह भारतवर्ष में मानव अधिकार यहाँ के धर्मों यह मान्यतों के स्रोत से उपजे हैं। मेरी यह मान्यता है कि मानवाधिकार एक आधुनिक कल्पना है जिसका जन्म औद्योगिकीकरण के पश्चात यूरोपीय एवं अन्य पश्च्चात्य देशों में उपजने वाली विसंगतियों के कारण हुआ। विशेष पर पिछली शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक के सभी क्षेत्रों में मानव हितों एवं गरिमा का जिस प्रकार का हनन हुआ उसने उन समाजों को झकझोर कर रख दिया होगा।
उदाहरण के तौर पर नाजीवाद की विचारधारा जिसप्रकार यहूदी समुदाय के लोगों के भीषण नरसंहार के लिए जिम्मेदार रही उसने समाज को बाध्य किया कि कानून से इतर मानव अधिकारों की कल्पना की जाए। अतएव मानवाधिकार पाश्चात्य व्यवस्थाओं की मजबूरी ही थे, न कि उन समाजों में मनाव कल्याण की स्वतंत्र कल्पना के द्योतक । ऐसी स्थिति में भारतवर्ष में अगर मानवाधिकार पिछली शताब्दी में या उससे पूर्व नहीं विद्यमान रहे तो आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि यहाँ के धर्म एवं परम्पराएँ कुछ एक सीमा तक मानव अधिकार की भूमिका निभाते रहे हैं। साथ ही यहाँ मानव हितों और गरिमा का उस प्रकार कड़ा हनन नहीं था जैसा यहूदी समुदाय के नरसंहार में व्यक्त हुआ था। इसका यह तात्पर्य है कि मानवधिकार हमारी मजबूरी नहीं रहे। शायद इसी कारण भारत में आज भी मानव अधिकारों की समझ और सम्मान नहीं बन पर रही है जैसी अपेक्षित है। यहाँ पर मैं मानवाधिकार की समझ एवं सम्मान बढ़ाने की दृष्टि से अकसर उठने वाली बहसों का उल्लेख करुँगा-
1. मानवधिकार मे मूल्यों की बहस – जिस प्रकार धर्म एवं परम्परा का आधार समाज द्वारा स्वीकृत और समर्थित मूल्य होते हैं ठीक उसी प्रकार मानवधिकार भी मूल्य जनित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के शारीरिक हित, समानता, गरिमा तथा स्वंतत्रता की रक्षा हो यह मानव अधिकार के मूल मूल्य हैं। सभी धर्म एवं परम्पराएँ व्यक्ति के हितों की रक्षा की बात करते हैं। यह संभव है कि वह व्यक्ति से अधिक महत्व समाज एवं व्यवस्था को देते हों। पर क्योंकि धर्म एवं परम्पराएं आदर्शों पर आधारित अधिक होते हैं इसलिए भी धर्म के मूल्यों में और व्यक्तिगत आजादी और विरोधाभास दिखाई देता है। हाल में में प्रेमी युगलों की व्यक्तिगत आजादी और परम्परावादी मूल्यों के बीच टकराव की कई घटनाएँ प्रकाश में आई हैं। हरियाणा में स्न्गोत्र और सकुल विवाह करने वाली दम्पति को ग्राम पंचायत ने मृत्युदंड की सजा सुनाई और उसे लागू भी कर दिया। ऐसे स्थिति में परम्परा के मूल्य और मानवधिकार के मूल्यों के बीच साफ टकराव दिखता है। क्या प्रेमी युगल में मानवधिकारों को परम्परा के मूल्यों से ऊँचा स्थान दिया जाएँ? क्या धर्म एवं परम्परा के के मूल्य का आधुनिक समाज को कोई महत्व नहीं?
वास्तव में भारत जैसे धर्म एवं परम्परा प्रधान देश में धर्म एवं परम्परा की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। बहुत-सी धार्मिक और पारम्परिक मान्यताएं मानवाधिकार की कल्पना की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से समर्थन करती है। ऐसे मूल्यों और मान्यताओं का स्वागत करना होगा। पर जहाँ मूल्य एवं मान्यता मानवाधिकार विरोधी साबित होती है वहाँ उसका परित्याग करना ही उचित होगा। पंचायत ने सगोत्र एवं सकुल परम्परा के निर्वहन के लिए दम्पति विरोधी जो निर्णय लिया वह मानवाधिकार विरोधी था और निर्णय का अनुपालन एक जघन्य एवं मानवाधिकार का विरोध भी। अतएव मानवाधिकार के उद्वभव के बाद केवल उन मूल्यों की सार्वभौमिकता रहती है जो मानवाधिकार उन्मुख होते हैं। पाश्चात्य देशों में जहाँ धर्म एवं परम्पराओं को औद्योगिकीकरण के दौर में जानबूझ कर कमजोर किया गया, वहाँ मानवधिकार तथा विधि के शासन के मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व औद्योगिकीकरण के इस दौर में आने वाली अगली अर्धशताब्दी बाद शायद भारतीय समाज में भी मानवाधिकार मूल्यों को समाज की आधारशिला के रूप में जाना जाएगा, यह कल्पना की जा सकती है।
2. मानवअधिकार में जुरिडिकल एवं विधिक तत्व की बहस- मानवाधिकार केवल सद संकल्प और कल्याणकारी मूल्यों की कल्पना मात्र नहीं है। न ही इनका मानना या न मानना नितांत स्वैच्छिक। क्योंकि धर्म एवं परम्परा के विपरीत मानवाधिकार उल्लघंन एवं मानवाधिकार विरोधी व्यवहार के विधिक परिणाम होते हैं। ऐसे परिणाम तीन स्तर पर संभव है –
ग) राष्ट्रीय स्तर पर – संवैधानिक तथा सामान्य न्याय प्रणाली के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार का उल्लंघन एवं हनन मुख्यतया सदस्य राज्यों के माध्यम से प्रभावी होता है। मानव अधिकार संबंधी विभिन्न अभिसमयों के अंतर्गत गठित कमेटियां समय-समय पर राज्यों के ऊपर मानवाधिकार के मानकों के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा करती है। मानकों पर खरे न उतरने की स्थिति में सदस्य राज्य को कुटनीतिक दबाव का सामना करना पड़ सकता है।
राष्ट्रीय स्तर पर विधिक परिणामों का अधिक प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है। चाहे वह मानवाधिकार आयोगों.अन्य आयोगों की कार्यवाही हो अथवा संवैधानिक एंव सामान्य न्याय प्रणाली में होने वाली कार्यवाही सभी का परिणाम मानवधिकार का रक्षाकारी विधिक निर्णय प्राप्त करना है। भारतवर्ष में दो बदलाव इस सन्दर्भ में विशेष महत्व के हैं प्रथम, प्रोटेक्शन ऑफ़ हयूमन राइट्स एक्ट, (पी.एच. आर.ए.) 1993 में मानवधिकार की संवैधानिक अधिकार समाहित-परिभाषित किया जाना और द्वितीय, सर्वोच्च नयायालय द्वारा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून को देश में विस्तृत मान्यता देने की नई न्यायिक परम्परा ।
पी.एच.आर.ए. की धरा 2 (1) (घ) में मानवधिकार की संवैधानिक अधिकार समाहित परिभाषा कहती है कि मानव अधिकार व्यक्ति की जीवन,स्वतंत्रता एवं गरिमा के बाबत संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार अंतरराष्ट्रीय करारों में दिए गए वे अधिकार है जिन्हें भारत में नययाल्यों के माध्यम से लागू किया जा सकता है, इस प्रकार मानव अधिकारों के दो स्रोत हैं, एक, वह जो संविधान की धाराओं में निहित हैं और दूसरा, जो अंतरराष्ट्रीय करारों में निहित हैं। स्वंतत्रता के बाद के छः दशकों में भारतीय उच्च न्यायालयों ने अनेक निर्णयों में नागरिक के मूल अधिकारों को बढ़ावा देने वाली निर्णय दिए हैं, जिनका सीधा सरोकार मानव अधिकारों से रहा है। खासतौर पर 1997 में और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय करारों से संबंधित महत्वपूर्ण नजीरे भी दी है जिनमें यह निर्णित किया गया है कि सभी अंतर्राष्ट्रीय करार भारतवर्ष में न्यायालयों द्वारा लागू किये जा सकते हैं बशर्तें वह किसी मौजूदा भारतीय कानून विरोधी न हो।
इस प्रकार यह स्थापित होता है कि नया विधिक अधिकारों की तरह ही मानव अधिकार का जुरिडिकल तत्व उन्हें समाज में उपयुक्त अन्य सूत्रों से भिन्न, श्रेष्ठ एवं विशिष्ट बनाता है।
3. मानव अधिकार के पति जबावदेही की बहस- मानव अधिकार के प्रति जबाबदेह कौन होगा? क्योंकि मानव अधिकार का हनन केवल राज्य के कमचारियों के हाथों नहीं होता है, इसलिए जबावदेही बहस का एक विशेष मुद्दा बन जाता है।
पाश्चात्य देशों में राज्य लंबे समय से आधुनिक रूप में विकसित हुए और आज वह अंत्यंत सुगठित एवं समर्थ बन चुके हैं। क्योंकि राज्य व्यक्ति एवं समाज के समस्त अंगों को अनुशासित करने में सक्षम है इसलिए मानव अधिकार हनन के लिए उसे जबाबदेह बनाना न्यायोचित प्रतीत होता है। राज्य की ऐसी जबाबदेही अधिकतर मानवधिकार की रक्षा के लिए कारगर सिद्ध होती है। इसके विपरीत हमारे देश में, जब हम मानवाधिकार के प्रति जबावदेही केवल राज्य के ऊपर डालते हैं तो वह एक थोथा संकल्प मात्र प्रतीत होता है। हालाँकि प्रोटेक्शन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स एक्ट, 1993 की धारा 12 (ए) स्पष्ट उल्लेख करती है
2- मानवाधिकार के हनन के रोकथाम में बरती गई लापरवाही के लिए किसी भी सरकारी मुलाजिम के विरुद्ध पीड़ित की याचिका अथवा स्वयं की जानकारी के आधार पर आयोग कार्रवाही कर सकता है। इस प्रकार मानवाधिकार के प्रति जबाबदेही मुख्य तथा सरकारी मुलाजिम की रखने की परिकल्पना की गई है। पर हमारे देश के सन्दर्भ में क्या ऐसी परिकल्पना समुचित है?
हम देखते हैं की समाज में व्याप्त असमानता, शोषण, असम्मान एवं अन्याय के लिए राज्य के इतर जाति, धर्म, पंथ व्यवस्थाएँ जिम्मेदार, हैं। बंधुआ मजदूर प्रथा, बाल मजदूर प्रथा, नारी शोषण के विभिन्न रूप जसे देवदासी, विधवाश्रम, भू पत्नी प्रथा अड्डी कहीं न कहीं धर्म एवं परंपरा से समर्थित हैं क्योंकि राज्य इतना समर्थ नहीं है कि इन प्रथाओं से वास्तविक स्तर पर मुक्ति दिला सके, इसलिए मानवाधिकार के हनन क्स सिलसिला निर्बाध रूप से चलता आ रहा है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता है कि मानवअधिकारों के प्रति राज्य के अलावा उसके क्षेत्र में बाहर वाले शक्तिशाली समूहों की और व्यक्तियों की भी जबावदेही हो। इस दिशा में भारतीय उच्च न्यायालयों ने कुछ पहल की है जो सराहनीय है जैसे संविधान की धारा 12 में राज्य की परिभाषा को विस्तार देकर। ऐसे विस्तार से मानवाधिकार के संरक्षण की जबावदेही न केवल विभागीय कर्मचारियों की होगी वरन कारपोरेशन तथा अन्य राज्य तुल्य संस्थाओं के कर्मचारियों की भी होगी। इसके अलावा कुछ एक वादों में संविधान निहित मूल अधिकारों के प्रति व्यक्तियों की भी जबावदेही न्यायालयों ने मानी है। बोधिसत्व गौतम बनाम शुभ्रा चक्रवर्ती (1996 एस.सी.सी. 490) के बाद में सर्वोच्च नयायालय ने अपीलार्थी की याचिका खारिज करते समय यह स्पष्ट किया है मूल अधिकार व्यक्ति एवं व्यक्तिगत संस्थाओं के विरुद्ध भी लागू किये जा सकते है और बलात्कार केवल मूल मानवधिकार का उल्लंघन नहीं है वरण धारा 21 द्वारा प्रदत्त पीड़िता के सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार का भी हनन है। अतएव आवश्यकता है भारतीय समाज में उपयुक्त मानवाधिकार व्यवस्था जिसमें विस्तृत अरु सार्थक जबावदेही की संभावना रह सके।
मानवाधिकार कितने प्रकार की होते है
Samanya vartman kal udaharan Hindi
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